क्षणिकाएँ
स्त्री
वर्जनाओं की तार-बाड़ लगाकर
बड़ी हिफ़ाज़त के साथ उगाया हुआ गुलाब है स्त्री!
जिसे
कंटकों को अपने साथ लिए हुए
जीवनपर्यन्त खिलना और सुगन्ध बिखेरना है।
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बहुत बातूनी होती है स्त्री
नहीं बैठती चुप
नहीं चाहती एकांत
चुप्पी और एकांत से घबराती है स्त्री
क्योंकि
उसके वे स्वप्न जिन्हें
तेज़ ज़हर देकर मार डाला था उसने कभी
एकांत में भूत बनकर उसे डराने आ धमकते हैं।
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कैसी अजब-ग़ज़ब कलाएँ जानती है स्त्री
भीतर के अथाह समन्दर को सुखाकर
उसके खारे पानी को
अपनी आँखों में छुपा लेती है और
तब्दील हो जाती है
एक मीठी जलधारा में।
– डॉ. शशि जोशी शशी