मूल्यांकन
हाइकु-साहित्य को समृद्ध करने का सत्संकल्प है ‘नेह बहे निर्झर’
– डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’
वर्तमान में परिवर्तन की गति बहुत तीव्र है और परिवर्तन की यह प्रक्रिया जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में है। साहित्य भी इससे अछूता नहीं है। मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि बदलते परिवेश में मानव के पास समयाभाव हुआ है और यान्त्रिकता के बाहुपाश में समाए मनुष्य के पास अब इतनी फ़ुर्सत नहीं है कि वह साहित्य को अधिक समय दे सके। ऐसे में निश्चित रुप से साहित्यकारों को ही अधिक प्रयास करने होंगे। कम शब्दों में अधिक अभिव्यक्ति भरनी पड़ेगी। ऐसे में यह युग लघुकविता या सूक्ष्मकविता का अधिक है। यही कारण है कि वर्तमान में काव्य में क्षणिका, हाइकु, दोहे तथा मुक्तक आदि अधिक लोकप्रिय हो रहे हैं तो गद्य में लघुकथा।
सूक्ष्म कविताओं में हाइकु कविता का अपना विशिष्ट स्थान है। हाइकु 5-7-5 अक्षर-क्रम में (कुल सत्रह अक्षरीय) एक त्रिपदीय छन्द है। यह छन्द मात्र सत्रह अक्षरों की सूक्ष्मता में विराट् को समाहित करने की अपार क्षमता रखता है। यह छन्द जापान से भारत आया और हिन्दी सहित अनेक भाषाओं ने इसके शिल्प को आत्मसात् कर लिया। आज हिन्दी में हाइकु का जो स्वरुप एवं विस्तार है, उसमें प्रो. सत्य भूषण वर्मा, प्रो. आदित्य प्रताप सिंह, डॉ. भगवतशरण अग्रवाल तथा डॉ. मिथिलेश दीक्षित का महत्वपूर्ण प्रदेय है। वर्तमान में हिन्दी हाइकु के अनेक संकलन एवं संग्रह प्रकाशित हो रहे हैं। इन्हीं में से एक है- ‘नेह बहे निर्झर’। इस हाइकु-संग्रह की सर्जक हैं- चर्चित हाइकु कवयित्री एवं संपादक डॉ. बीना रानी गुप्ता।
एक सौ अड़तालीस हाइकुओं से सुसज्जित यह हाइकु-संग्रह स्वयं में विशिष्ट है। वास्तव में ‘नेह बहे निर्झर’ एक सौ अड़तालीस हाइकु-मनकों से गुँथी माला है। यह हाइकु-संग्रह इस तथ्य की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है कि इसके अधिकांश हाइकु मूल विषय ‘प्रकृति’ से सन्दर्भित हैं। प्रकृति के सन्दर्भ में डॉ. बीना जी का स्पष्ट उद्घोष है-
सारी प्रकृति
आभा से सुशोभित
सद्यस्नात-सी! (96)
प्रकृति सन्दर्भित विषयों पर उनका अपना अनुभव है और कुछ ऐसे प्रयोग हैं कि मस्तिष्क को झकझोरते भी हैं और आनन्दित भी करते हैं। उनके पास ऋतु को बेवफा कहने का साहस है, तो वसुधा और मधुमास की भाँवरें पड़ने की मीठी कल्पना भी-
शीतल हवा
दिन में लू सताए
ऋतु बेवफा। (85)
वधू वसुधा
वर है मधुमास
भाँवरें पड़ीं। (71)
ऐसा ही एक बेहतरीन हाइकु है, जिसमें रूपक एवं मानवीकरण का अनूठा समायोजन है-
चाँदनी नटी
लहरों की ताल पे
करे कत्थक। (17)
तो पुष्पवाण-से मगन धरा का चित्र भी है और श्रृंगार का अनुपम चित्र भी, जहाँ सूरज और नर्मदा के मध्य हुई अलौकिक चुहलबाजी का दृश्य भी। यहाँ कल्पना अपने चरम पर है, जिसमें पाठक भी बिना मचले हुए नहीं रह सकता-
सूरज हँसा
लाल हुई नर्मदा
मन मचला। (105)
डॉ. बीना रानी जी हिंदी की प्रोफ़ेसर हैं और गहन अनुभूति की कवयित्री भी। जीवन में उन्होंने बहुत कुछ देखा और अनुभव किया है। संग्रह में प्रकृति-हाइकुओं के अतिरिक्त ‘मनुष्य एवं प्रकृति’ के अंतर्संबंधों से नि:सृत हाइकु भी हैं जहाँ रोष है, पीड़ा है तो चेतावनी एवं कारण-निवारण भी-
कटे जंगल/रुके न प्रदूषण/त्रस्त जीवन। (140)
प्रभु की कृति/न करो आत्मघात/है अपराध। (131)
सृष्टि बचाओ/नित वृक्ष लगाएँ/सँभल जाएँ। (142)
इन विषयों के अतिरिक्त इस संग्रह में नारी-विमर्श भी कुछ हाइकुओं के माध्यम से सामने आता है, जिनमें स्त्री के उत्कट त्याग और इस त्याग के बदले कोई महत्व न पा सकने की पीड़ा भी अन्तर्व्याप्त है-
स्नेह की प्यास
पत्थर में जगा दे
प्यार की आस। (44)
घर सवारूँ
मैं लक्ष्मी हूँ घर की
उपेक्षा सहूँ। (46)
कुछ हाइकु ऐसे भी हैं जो माँ को सन्दर्भित हैं और शिशु के साथ समायोजित हैं। माँ और पुत्र का रिश्ता दुनिया में सबसे पवित्र और अनमोल है। उनके इन हाइकुओं को बाल-हाइकु की श्रेणी में भी रखा जा सकता है-
रोए हैं शिशु
माँ ने की गुलगुली
दौलत मिली! (31)
शिशु की हँसी
दंतावली है खिली
मोती की लड़ी! (29)
तो उनके हाइकु-काव्य में परिवेश से लगभग विलुप्त हो चुकी गौरैया की पीड़ा भी है और गौरैया के साथ बिताए गए वे अनुपम पल भी अमिट धरोहर के रूप में सँजोए गए हैं, जो हमारी मधुर स्मृतियों में अभी भी हैं-
घर चहके
गौरैया रचे नीड़
मन अधीर। (38)
संग्रह में कुछ हाइकु ऐसे भी हैं, जो आधुनिक सन्दर्भों में और नये प्रयोग में रचे-बसे हैं। जैसे-
बर्फ में मस्ती
जमा दी दूध कुल्फी
बर्फ की ‘चुस्की’। (110)
रोज की दिनचर्या से अपनी बात उठा लेना और उसे साहित्य में अभिव्यक्त कर देना भी सृजन का प्रभावी पक्ष है। तात्पर्य है कि जब कवि अपने आसपास के परिवेश से कविता के विषय उठा लेता है, तो कविता जीवन्त हो उठती है। इस संग्रह का एक पक्ष और भी है, वह है सामाजिक सन्दर्भों के हाइकु। इन हाइकुओं में एक टीस है, एक पीड़ा है, एक चुभन है। सामाजिक उत्तरदायित्वों के प्रति सचेत न होने का क्षोभ भी है-
हालत खस्ता
छिने खेल-खिलौने
स्कूल का बस्ता। (129)
जीवन का कटु यथार्थ यही है कि निरन्तर संघर्ष करना ही पड़ेगा। जब इस दुनिया में आए हैं, तो हमें इस दुनिया के साथ ही जीना पड़ेगा और सुख-दुख में समभाव होकर अपने लक्ष्यों को मूर्त रूप देना होगा। कुछ बेहतर कर सकें, संग्रह आध्यात्मिकता से ओतप्रोत होकर सन्देश देता है कि सार्थक कर्मों की ही पूजा है और यही अमरता की सीढ़ी भी-
जीवन भर
नेह बहे निर्झर
राग अमर। (9)
‘नेह बहे निर्झर’ डॉ. बीना रानी गुप्ता जी का हिन्दी हाइकु-साहित्य को समृद्ध करने का सत्संकल्प है। वे आगे भी अपनी सर्जना से हिन्दी हाइकु को अभिनव आयाम एवं विस्तार देती रहेंगी, मुझे पूर्ण विश्वास है। अनन्त शुभकामनाएँ!
– डॉ. शैलेष गुप्त वीर