आलेख
हिन्दी के हाइकु काव्य में प्रयोगधर्मिता
– डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’
बीसवीं शताब्दी में जब हाइकु ने हिन्दी के माध्यम से भारत में प्रवेश किया, तब शायद ही किसी ने सोचा होगा कि हिन्दी हाइकु प्रचलित भारतीय छन्दों के साथ इस प्रकार घुल-मिल सकता है कि छन्दों के एक नहीं, अनेक रूप सामने आ सकते हैं। कवि प्रयोगधर्मी होता है, और शिल्प में प्रयोग के जितने उदाहरण संस्कृत और हिन्दी साहित्य में मिलते हैं, इतने अन्य भाषाओं के साहित्य में मिल पाना सम्भव नहीं है। हिन्दी के प्रयोगधर्मी कवियों ने हाइकु में विविध प्रयोग किये और परिणाम यह हुआ कि हाइकु-दोहे, हाइकु-ग़ज़ल, हाइकु-तेवरी, हाइकु-गीतिका, हाइकु गीत/नवगीत, हाइकु-रुबाई तथा हाइकु-मुक्तक आदि लिखे जाने लगे। सच तो यह है कि जब हाइकु में इस तरह के विभिन्न प्रयोग किये गये, तो यह कोई सहज कार्य नहीं था और न ही अब है; क्योंकि हाइकु से उपजे इन छन्दों में एक साथ दो छन्दों का निर्वाह करना पड़ता है। एक साथ वर्णों और मात्राओं पर नज़रें गड़ानी पड़ती हैं। ऐसी स्थिति में ये ‘प्रयोग’ आसान नहीं होते। ऐसी स्थिति में मँझे हुए रचनाकार ही कार्य कर पाते हैं। यही कारण है कि इस साहसिक रचनाधर्मी अभियान में बहुत कम नाम हैं। शम्भुशरण द्विवेदी ‘बन्धु’, सूर्यदेव पाठक ‘पराग’, डॉ. मिथिलेश दीक्षित, नलिनीकान्त, डॉ. श्यामानन्द सरस्वती ‘रोशन’, अनिल अनवर तथा डॉ. किशोर काबरा आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। इनके अतिरिक्त कुछ अन्य लोग भी हाइकु में विभिन्न प्रयोग कर रहे हैं। उपरोक्त हाइकु कवियों में डॉ. मिथिलेश दीक्षित एकमात्र हाइकु-रचनाधर्मी हैं, जिन्होंने हाइकु में सर्वाधिक प्रयोग किये हैं। सृजन में निरन्तर इस तरह के प्रयोग सिद्ध-रचनाधर्मी ही कर पाते हैं।
हाइकु गीत/नवगीत के रचनाकारों में शम्भुशरण द्विवेदी ‘बन्धु’, सूर्यदेव पाठक ‘पराग’, डॉ. मिथिलेश दीक्षित के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। इनके अतिरिक्त राजेन्द्र बहादुर सिंह ‘राजन’, नलिनीकान्त, अनिल अनवर, डॉ. किशोर काबरा, नीलमेन्दु सागर, राजेन्द्र वर्मा तथा त्रिलोक सिंह ठकुरेला ने भी हाइकु नवगीत लिखे हैं। वर्तमान में हाइकु नवगीत तेजी से लोकप्रिय हो रहे हैं और डॉ. मिथिलेश दीक्षित के सम्पादन में एक हाइकु-नवगीत-संकलन भी प्रकाशनाधीन है। हाइकु गीत/नवगीत की शैली नितान्त भिन्न होती है। मुख्यतया शिल्प की दृष्टि से, वैसे तो गेयता और अभिनव विषय-वस्तु नवगीत के प्रमुख मापदण्ड होते ही हैं। हाइकु नवगीतों में विषय-वस्तु की वैभिन्नता है और इनमें विशेष प्रकार का नयापन भी है; जो पाठक को सहज ही आकर्षित करते हैं। हाइकु-नवगीतकार सूर्यदेव पाठक ‘पराग’ स्वीकार करते हैं कि माँ भारती की प्रेरणा के बिना कुछ भी लिख पाना सम्भव नहीं है-
इच्छा जगती
ईश्वर-प्रेरित हो
लिख पाता हूँ।
हंसवाहिनी
संबल देती, तब
कुछ गाता हूँ।
डॉ. मिथिलेश दीक्षित जी के हाइकु गीत/नवगीत बहुत प्रसिद्ध हुए हैं। हाइकु गीत/नवगीत के अतिरिक्त उन्होंने चोका नवगीत, सेदोका नवगीत तथा ताँका-बन्ध भी लिखे हैं, जो प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं और चर्चित-प्रशंसित हुए हैं। उनके इन नव्य गेयात्मक काव्य-प्रयोगों से हिन्दी हाइकु साहित्य समृद्ध हुआ है। उनके गीतों में यथार्थता का समावेश है और ये गीत जीवन की विसंगतियों पर क़रारा प्रहार भी करते हैं-
लुप्त हो रहा
घर और बाहर
अपनापन।
बिखर गया
वह तन्तु रेशमी
सपना बन।
धूप अधिक
पर घना अँधेरा
घिर आया है।
नभ में ताप
धरा पर कम्पन
फिर आया है।
अनिल अनवर का प्रकृतिपरक निम्न हाइकु नवगीत भी हाइकु नवगीत को सही राह दिखाता है-
खग-कुल का
कलरव बाग़ों में
बिखर गया।
ताप सूर्य का
सिहरन हरता
पसर गया।
सुमन-वृंद
पर भ्रमर करें
देखो, गुंजन।
एक आक्षरिक छन्द की मात्रिक छन्द के रूप में प्रस्तुति के सन्दर्भ में सुप्रसिद्ध हाइकु-लेखिका डॉ. मिथिलेश दीक्षित जी कहती हैं कि इसमें उनके प्रयास को कम, हमारी हिन्दी भाषा की देवनागरी लिपि को अधिक श्रेय जाता है। हिन्दी भाषा की लिपि में आश्चर्यजनक लोच और लयात्मकता है। इसी विषेशता के कारण हिन्दी में वर्णिक एवं मात्रिक, दोनो प्रकार की काव्य-रचनाएँ सृजित होती रही हैं। हिन्दी भाषा अनेक समानार्थक और पर्यायवाची शब्दों से समृद्ध रही है। इसमें एक ही मूल धातु से अनेक शब्द निर्मित होते रहे हैं, जिनके विभिन्न प्रभाव और अभिप्राय हैं। यदि हिन्दी की प्रकृति और इसके आक्षरिक विन्यास को सुरक्षित रखते हुए हाइकु शैली में अन्य काव्य-विधाओं की संरचना होती है, तो यह प्रसन्नता की बात है।
हिन्दी हाहकु काव्य का एक और प्रयोग है- ‘हाइकु-ग़ज़ल’। यद्यपि हिन्दी में हाइकु-ग़ज़लें कम लिखी गयी हैं, परन्तु जितनी भी हैं, वे सिद्धहस्त ग़ज़लकारों द्वारा रची गयी हैं। इसलिए महत्व की दृष्टि से वे अपना विशेष स्थान रखती हैं। ग़ज़लगो डॉ. श्यामानन्द सरस्वती ‘रोशन’ का नाम हाइकु ग़ज़लकारों में अग्रगण्य है। उनकी एक हाइकु-ग़ज़ल के दो शेर प्रस्तुत हैं-
चलते हुए/हर एक डगर/देख चुका हूँ,
सच जानिए/जीवन का सफ़र/देख चुका हूँ।
+ + +
अब ढूँढ़ने/मैं उसको किधर/जाऊँ बताओ,
सब लोग हैं/जिस ओर उधर/देख चुका हूँ।”
डॉ. किशोर काबरा का यह शेर भी उल्लेखनीय है-
“माला जप लो/गुनगुन कर लो/स्तुतियाँ गा लो,
प्रेम नहीं तो/सुमिरन का सुख/व्यर्थ हो गया।”
डॉ. राज कुमारी शर्मा ‘राज’ भी एक अच्छी ग़ज़लकारा हैं, उनकी हाइकु-ग़ज़लों के ये दो शेर देखिए-
कुरआन हो/कि गीता हो इंजील/इस तरह,
पैग़ामे-रब/दयार में आयेंगे/हर तरफ़।
+ + +
मुँह तकेंगे/अपने क्या आख़िर/पराये तक,
हसरतों का/बंद जब दफ़्तर/करेंगे हम।
हाइकु काव्य में हाइकु-ग़ज़लों के अतिरिक्त हाइकु-तेवरी और हाइकु-गीतिकाएँ भी लिखी जा रही हैं। हाइकु-तेवरी वस्तुत: ग़ज़ल का ही एक रूप है। डॉ. भगवत शरण अग्रवाल ने (हाइकु विश्वकोश, पृ. 118) ने ‘मरु गुलशन’ पत्रिका के अप्रैल-जून, 2003 के अंक में प्रकाशित रमेश राज की हाइकु-तेवरी की दो पंक्तियाँ उद्धृत की हैं-
आँख हमारी/सुखद सपन को/तरसे बाबा।
ख़ुशियाँ सारी/दूर बहुत अब/घर से बाबा।
डॉ. मिथिलेश दीक्षित की एक हाइकु तेवरी/गीतिका काफ़ी प्रसिद्ध हुई-
“रोशनी में भी/डराते हैं अँधेरे/इस गली में।
ताक में बैठे/कभी के हैं लुटेरे/इस गली में।”
हाइकु-रुबाई के क्षेत्र में डॉ. श्यामानन्द सरस्वती ‘रोशन’ का नाम सर्वाधिक चर्चा में रहा है। वे एक प्रसिद्ध रुबाईकार हैं और उन्होंने तमाम हाइकु-रुबाइयाँ लिखी हैं। उनकी एक हाइकु-रुबाई प्रस्तुत है-
हर दिल में/हो अनुगूँज सदा/सरगम की।
धड़कन हो/हर दिल की सदा/शबनम-सी।
इस बात की/तह तक न अभी/पहुँचे हम,
परमेश-सा/मिलना है कठिन/हमदम भी।
हाइकु-मुक्तक के रचनाकारों में डॉ. मिथिलेश दीक्षित, डॉ. महावीर सिंह, डॉ. बिन्दू जी महाराज ‘बिन्दू’ आदि के नाम आते हैं। डॉ. मिथिलेश दीक्षित के हाइकु-मुक्तक में मुक्तक की शर्त पूरी करते हुए लयात्मक प्रवाह है, जिन्हें केवल पढ़ा ही नहीं, गाया भी जा सकता है। उन्हें हाइकु-मुक्तक के नव्यतम एवं क्लासिक संयोजन के लिए राजस्थान की प्रमुख पत्रिका ‘मरु गुलशन’ का 2013 का विशिष्ट पुरस्कार भी दिया जा चुका है। उनके हाइकु-मुक्तक के दो उदाहरण दृष्टव्य हैं-
धन के नाते/बदल गये रिश्ते/अब राखी के।
नहीं ठिकाने/बदले मौसम में/वनपाखी के।
अपने पैरों/अब तक चलना/सीखें वे कैसे,
जिधर गये/पर साथ रहे हैं/वे वैसाखी के।।
+ + +
“चलायें हम/इसी मझधार में/टूटा सफ़ीना।
सहम कर/पत्थरों के जिस्म से/छूटे पसीना।
कहाँ हमको/डिगा सकते हैं ये/तूफ़ान-आँधी,
अगर दिल/साफ है तो हैं यहीं/काशी-मदीना।।”
हाइकु-दोहा, हिन्दी हाइकु में किया गया एक अन्य प्रयोग है। हाइकु और दोहे के संयोग से सृजित यह छन्द नितान्त भिन्न और विलक्षण छन्द है। नि:सन्देह, इस प्रयोग में डॉ. मिथिलेश दीक्षित एक सिद्धहस्त कवयित्री हैं। उनके हाइकु-दोहों के कुछ उदाहरण दृष्टव्य हैं-
“प्रेम-पुजारी/बढ़ चला सहसा/प्रभु की ओर।
सकल तत्त्व/उसको लगें बँधे/प्रेम की डोर।।”
+ + +
“मलिन नेत्र/देखें नहीं निर्मल/सुन्दर सृष्टि।
बंजर भूमि/न हो सके उर्वर/जब हो वृष्टि।।”
+ + +
“चाहे जितना/सृजित हो फिर भी/रहता शेष।
पूर्ण तभी हो/जब मिले प्रभु की/कृपा विशेष।।”
हाइकु एक मुक्त छन्द अवश्य है, परन्तु इसको श्रंखलित कविता के रूप में प्रस्तुत करने का चलन प्रारम्भ हो चुका है। इस छन्द में प्रबन्ध-काव्य भी लिखे गये हैं और लिखे भी जा रहे हैं। रामसागर सिंह के ‘हाइकु रामायण’, नलिनीकान्त के ‘सर्वमंगला’, उर्मिला कौल के ‘कैकेयी’ खण्ड-काव्य प्रसिद्ध हो चुके हैं। डॉ. मिथिलेश दीक्षित और डॉ. सुषमा सिंह के प्रबन्ध-काव्य प्रकाशनाधीन हैं।
चौदहवीं-पन्द्रहवीं शताब्दी में जापान में रेंगा पद्धति अत्यधिक चर्चित हुई थी और रेंगा की ही प्रथम तीन पंक्तियाँ ‘होक्कू’ कहलायीं, जिसे बाद में ‘हाइकु’ नाम दिया गया। यह प्रश्नोत्तर रूप में प्रचलित थी और श्रंखलित(लिंक वर्स) रूप में हुआ करती थी। उसी पैटर्न पर भारत में भी कुछ रचनाकारों ने प्रयास किया। सर्वप्रथम अज्ञेय एवं प्रभाकर माचवे के माध्यम से अनुवाद/भावानुवाद के रूप में यह प्रस्तुत हुई। अज्ञेय ने ‘अरी ओ करुणा प्रभामय’ में इसे तोकोकु, जूगो, यासुई तथा बाशो की काव्य-पंक्तियों पर आधारित कविता के रूप में प्रस्तुत किया है, जिसका प्रथम छन्द है-
शिशिर की वर्षा
चाँद मेघ की मुठ्ठी में
छिपता नहीं।”
प्रभाकर माचवे ने सोगि, शोहाकु तथा सोचो द्वारा रचित काव्य-पंक्तियों का अनुवाद किया था, जिसका उल्लेख डॉ. राम नारायण पटेल ने अपने शोध-आलेख में किया है; उसका प्रथम छन्द इस प्रकार है-
बर्फ अभी बाकी है
पर्वत के दलान धुँधले हैं
सन्ध्या है।”
डॉ. मिथिलेश दीक्षित ने रेंगा और रेनासाकु, दोनो श्रंखलित कविताएँ लिखी हैं, जो ‘रंगों की लकीरें’ में संगृहीत हैं। उनकी रेंगा कविता की प्रथम तीन पंक्तियाँ हैं-
भूतल पर
किरणें प्रकाश की
अर्घ्य दे रहीं।”
डॉ. मिथिलेश दीक्षित प्रयोगधर्मी रचनाकार हैं और छन्दों पर उनका विशिष्ट अधिकार है। अत: उन्होंने हाइकु-कविता के क्षेत्र में अनेक नवीन प्रयोग भी किये हैं और कविता की अनेक बहुप्रचलित विधाओं में भी हाइकु में प्रयोग किये हैं। उनकी श्रंखलित कविता ‘रेनासाकु’ प्रकृतिपरक सोद्देश्य और आध्यात्मिक कविता है, जो 34 हाइकुओं में एक ही विषय पर निबद्ध है। प्रभावी लयात्मकता इस कविता की विशिष्टता है। इस प्रकार के प्रयोग विरले ही कर पाते हैं। इस कविता के कुछ छन्द देखें-
“एक लगा दो
मन के आँगन में
पौधा श्रद्धा का।
+ + +
फिर सब में
देखो छवि अपनी
अपनी छाया।
+ + +
सृष्टि एक है
परम अखण्डित
एक धरा है।
+ + +
नहीं एक का
सबका हो कल्याण
यही सुख है।
+ + +
वही चेतना
ईश्वर बनकर
व्याप्त सभी में।
+ + +
अन्दर ‘वह’
बाहर भी ‘वह’ है
सब में ‘वह’।”
हिन्दी की हाइकु कविता में विभिन्न प्रकार के किये जा रहे ये ‘प्रयोग’ हाइकु को लोकप्रिय तो बना ही रहे हैं, साथ ही साथ हिन्दी हाइकु साहित्य को भी समृद्ध कर रहे हैं। साहित्य की समृद्धता और जनमानस में उसकी स्वीकृति परस्पर गहरे आबद्ध होती है। यह जापानी काव्य-विधा हिन्दी के लिबास में ख़ूब फल-फूल रही है। डॉ. मिथिलेश दीक्षित जी के प्रयासों ने हिन्दी हाइकु साहित्य को इस प्रकार के प्रयोगों के माध्यम से उसे अत्यन्त विस्तार दिया है। इस प्रकार के प्रयोग सिद्ध-रचनाकारों की कौशलरूपी भठ्ठी से तपकर निकले होते हैं। अपनी-अपनी विधा में कार्य कर रहे कुशल शब्द-चितेरों से अपेक्षा है कि वे इस दिशा में भी ठोस कार्य करें, ताकि इस अभियान को और गति प्रदान की जा सके।
– डॉ. शैलेष गुप्त वीर