आलेख
विविध सरोकारों की पड़ताल करती गीता शुक्ला की ग़ज़लें
– डॉ. राम गरीब ‘विकल’
ग़ज़लों की परम्परा पर दृष्टिपात किया जाय तो हम पाते हैं कि नदियों का बहुत सारा जल सागर में मिलकर पुनः वाष्पीकृत होकर अनेक बार नदियों में पुनर्प्रवाहित हो चुका है। यह सिलसिला अद्यतन जारी है। अरबी, फ़ारसी से होती हुई ग़ज़ल की धारा ने जब हिन्दुस्तान में दस्तक दी उस समय इसने हिन्दवी या हिन्दुस्तानी का चोला पहनकर साहित्य की दुनिया में अपनी पहचान बनाई। विकास की सतत् प्रक्रिया में ग़ज़ल ने न केवल कहन के नये-नये आयामों की तलाश की वरन भाषाई दष्टि से भी भरपूर विविधता का परिचय दिया। अनेक भाषाओं और बोलियों में ग़ज़लें कही जाने लगीं। कहन के क्षेत्र में भी परम्परागत शैली से आगे बढ़कर आम जनजीवन के विविध सरोकारों को ग़ज़ल में भरपूर स्थान मिला। इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि साहित्यिक लोकतंत्र की परम्परा में ग़ज़ल का परचम बुलन्द हुआ।
भारत में ग़ज़लों की परम्परा को ग़ालिब की लेखनी ने समृद्ध किया तो अमीर खुसरो और दाग़ आदि अनेक शायरों ने इसकी परम्परा को मजबूत आधार प्रदान किया तो यह विभिन्न शायरों के द्वारा हाथों हाथ ली गई। इसके बाद ग़ज़ल की लोकप्रियता का यह आलम रहा कि अनेक पीढ़ियों ने अपनी निष्ठा और साहित्यिक-सामाजिक सरोकारों के खाद-पानी से इसकी जड़ों को दिनों दिन मजबूती प्रदान की।
भारत में हिन्दी भाषा में जब ग़ज़ल की परम्परा की खोज होती है तब इसके सूत्र कबीर के- ‘हमन है इश्क मस्ताना, हमन से होशियारी क्या’ के पहले से भी पाये जाते हैं। इसके बाद अनेक बोलियों और भाषाओं का प्यार-दुलार पाकर महमहाती ग़ज़ल को जब आधुनिक काल में दुष्यन्त कुमार त्यागी की लेखनी का प्यार मिला तो इसने एक अलग तेवर के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। हिन्दी में ग़ज़लों की इस परम्परा को अप्रत्याशित लोकप्रियता मिली और रचना की विविध विधाओं में प्रवृत्त रचनाकारों ने भी ग़ज़ल को पूरे आदर-सत्कार के साथ अपना लिया और इसकी अजस्र रसवन्ती धारा साहित्य जगत में एक प्रकाश पुंज की भाँति दैदीप्यमान होने लगी।
हिन्दी में ग़ज़ल कहने की परम्परा तो भारत में बहुत पहले ही अपने पैर जमा चुकी थी, किन्तु इक्कीसवीं सदी में इसकी ओर रचनाकारों का विशेष लगाव बरबस ही ध्यानाकर्षण कराता है। इसका बहुत अधिक श्रेय फेसबुक जैसे सोशल मीडिया को जाता है ऐसा स्वीकार करने में कोई बुराई नज़र नहीं आती। फेसबुक के आकर्षण से कोई भी वर्ग मुक्त नहीं रह पाया, यह एक सर्वविदित तथ्य है। हर आयु वर्ग के लोगों को इसमें अपने काम का कुछ न कुछ मिलने लगा। साहित्य सृजन में संलग्न रचनाकारों ने भी इसकी उपयोगिता को पहचाना और साहित्यिक-वैचारिक आदान-प्रदान के लिए यह एक उपयोगी मंच साबित हुआ। इससे भी बढ़कर यदि इसकी उपलब्धि पर दृष्टिपात किया जाय तो नई पीढ़ी को साहित्य के प्रति आकर्षित करने में इसने बहुत महती भूमिका निभाई है।
ग़ज़लों की बढ़ती लोकप्रियता ने फेसबुक पर भी स्वयं को प्रमाणित किया और नये-नये रचनाकारों ने ग़ज़ल लेखन में हाथ आजमाना शुरू किया। इस पर गाहे-बगाहे कुछ वरिष्ठ शायरों ने उनको सही रास्ता दिखाने का काम भी शुरू किया और यह धारा गति पकड़ने लगी, किन्तु इतना ही पर्याप्त न था। ग़ज़ल को गम्भीरता से लेने वाले कई शायरों ने इस बात को गम्भीरता से लिया और फेसबुक पर ही अनेक मंचों का उदय हुआ, जिसमें फिलबदीह की परम्परा चलाकर ग़ज़लें लिखने और उसमें वांछित सुधार की पुरजोर कोशिश शुरू हुई। अनेक रचनाकार-ग़ज़लकार जो मात्र तुकबन्दी तक सीमित थे, उनमें ग़ज़ल की बह्रों के प्रति चेतना का सूत्रपात हुआ, कहन में भी सुधार हुआ और परिणाम काफी हद तक सुखद रहा। इन्हीं में से कुछ रचनाकार-ग़ज़लकार जिन्होंने इसे गम्भीरता से लिया, उन्होंने थोड़े ही समय में ग़ज़ल के क्षेत्र में न केवल बहुतायत में ग़ज़लों का सृजन किया, अपितु अपनी एक पहचान भी बनाई।
साहित्य रचना के क्षेत्र में प्रायः यह भी देखा जाता है कि कतिपय रचनाकार वैचारिक दृष्टि से एकांगी हो जाते हैं और वैचारिक स्तर पर इसे एकांगीपन ही कहा जा सकता है, जो साहित्य के लिए कदापि हितकर नहीं कहा जा सकता। साहित्यकार की दृष्टि की व्यापकता तभी सम्भव हो सकती है जब वह किसी भी आग्रह से मुक्त हो। रीवा की गीता शुक्ला को इसी कोटि की रचनाकार कहा जा सकता है।
फेसबुक के प्रभाव से ग़ज़लों के प्रति रुझान होने के बाद गीता शुक्ला ने भी, शुरूआत में फिलबदीह के उन्हीं सब रास्तों को अपनाया, लेकिन इनके अन्दर ग़ज़लों की बारीकियों को जानने-समझने और कुछ अपना-सा करने की ललक ने इन्हें पर्याप्त जिज्ञासु बना दिया। फिलबदीह के मंचों से परिचित हुए अनेक बड़े शायरों से इन्होंने बराबर सम्पर्क बनाते हुए, ग़ज़ल की बारीकियों के बारे में अपनी जिज्ञासाओं का समाधान खोजने में कोई कोताही नहीं की। ‘ग़ज़ल को ग़ज़ल क्यों कहें?’ का उत्तर एक लेख में देते हुए ग़ज़लों के जानकार विद्वान अब्दुल बिस्मिल्लाह साहब ने ग़ज़लों के लिए इब्हाम, तग़ज़्ज़ुल और बह्र को अनिवार्य माना है। इसके आगे भी विद्वानों ने तग़ज़्ज़ुल की और भी विस्तार से चर्चा की है। गीता शुक्ला की ग़ज़लों के बीच से गुजरते हुए सुखद अनुभूति होती है कि इन्होंने इन तमाम बातों की ओर बहुत संजीदगी से न केवल ध्यान दिया है, अपितु इनकी ग़ज़लों में इन बातों का समावेश भी किया है।
प्रचलित बह्रों में लगभग एक दर्जन से अधिक सालिम, महजूफ़ और मुरक्कब बह्रों का प्रयोग इनकी ग़ज़लों में सहजता से देखा जा सकता है। ग़ज़ल के शेर कहने में इब्हाम या सांकेतिकता का अपना विशेष महत्व है। इस मामले में गीता शुक्ला ने काफी हद तक सफलता पायी है। मिसाल के तौर पर कुछ शेरों पर निगाह डाली जा सकती है-
बात अब तक समझ नहीं आई
नेकियों का सिला है रुसवाई
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था हसीं ख्वाब का बसर कोई
दुश्मनों तक ख़बर गई कैसे
घोसलों की बहुत हिफ़ाज़त की
आँधियों की नजर गई कैसे।
कल तलक बोलती थी तनहाई
ख़ामुशी अब पसर गई कैसे
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शफाकत से हमारी आशनाई
अदा ये ही उन्हें खलती रहेगी
मुकाबिल हैं जहाँ में आग-पानी
दुआ कितने दिनों फलती रहेगी
ग़ज़लों के शेर में सीधे-सीधे बात कहने को उचित नहीं माना जाता। यूँ तो काव्य की हर विधा के लिए यह एक आवश्यक शर्त होती है, किन्तु ग़ज़ल के शेर में जब वाच्यार्थ और व्यंग्यार्थ अपने-अपने तरीके से अर्थबोध कराते हैं, तब उसका सौन्दर्य देखते ही बनता है। गीता शुक्ला की ग़ज़लों में सांकेतिकता के निर्वाह के प्रति उनकी सजगता को नजरंदाज़ नहीं किया जा सकता।
तग़ज़्ज़ुल की व्याख्या करते हुए ग़ज़ल विधा के विद्वानों ने कदीमी (पारम्परिक), जदीदी (समकालीन) और फिक्री (सामाजिक चिन्ता से सरोकार रखते हुए) तग़ज़्ज़ुल का उल्लेख किया है। गीता शुक्ला का किसी विषय विशेष के प्रति आग्रह या दुराग्रह न होने के कारण ही उनकी ग़ज़लों में यह तीनों प्रकार के तग़ज़्ज़ुल बहुतायत में देखे जा सकते हैं। ग़ज़लों की परम्परा श्रृंगार की रही है। गीता शुक्ला ने जब श्रृंगार लिखा तो पूरी तरह डूबकर लिखा। कुछ शेर बानगी के तौर पर दृष्टव्य हैं-
उनके दिल में उतर गई कैसे
हद से आगे गुजर गई कैसे
उनके आने की एक आहट पर
दिल की दुनिया सँवर गई कैसे
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गीत जबसे बसे वो आँखों में
चाँद में दिलकशी नहीं मिलती
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खुश्बू तुम्हारी ले के जो मौसम सँवर गये
बातें बयां करें भी क्या इस दिल के हाल की
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चाँद शरमा रहा था गली में मेरी
बिछ गई चाँदनी ओढ़नी के लिए
श्रृंगार लिखते हुए गीता शुक्ला के शे’रों में विरह वेदना की अपनी एक अलग महक महसूस होती है। कुछ शे’रों पर नज़र डालना उचित होगा-
दर्द भी जब सिसकते रहे रात भर
अनकही बात थी लेखनी के लिए
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कितना तड़पा है वो एहसासे-तसव्वुर तेरा
तेरी हर टीस, चुभन ख़ुद में बसा ली हमने
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तोड़कर बन्दिशें वो आयेंगे
उनसे उम्मीद कर गई कैसे
कोई भी रचनाकार तभी सार्थक कहा जा सकता है जब उसकी दृष्टि लोक के विभिन्न कोनों की पड़ताल भी करे। इस लिहाज से गीता शुक्ला की ग़ज़लों में एक विहंगम दृष्टि डालते हुए भी बहुतायत में शेर मिल जाते हैं। जदीदी तग़ज़्ज़ुल की पड़ताल करने के लिए गीता शुक्ला के इन कतिपय शेरों का अवलोकन समीचीन होगा-
बरसने लग गये आँसू जमीं पर
फ़लक पर दूर तक बादल नहीं है
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सियासत जब तलक छलती रहेगी
तरक्की हाथ ही मलती रहेगी
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कुर्बतों के ख्वाब ही पलते रहे
फ़ासले क्यों दरमियां बढ़ते रहे
जुगनुओं से लौ उमीदों की लिए
रौशनी की याद में जगते रहे
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रास्ते दुश्वार सच के हो गये
झूठ की बाजी लगाई जा रही
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हर तरफ सूरतें नकाबों में
सहमा-सहमा सा आज हर दिल है
समाज, परिवार, देश से कोई रचनाकार नज़र कैसे फेर सकता है। गीता शुक्ला के शेर भी इन चिन्ताओं से मुक्त नहीं होते। फिक्री तग़ज़्ज़ुल की बानगी देते हुए यह शेर ख़ासतौर पर उल्लेखनीय कहे जा सकते हैं-
झूठी शोहरत पे वाह मत कीजै
ज़िन्दगी यूँ तबाह मत कीजै
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लहर की चाल क्यों सहमी हुई-सी
समन्दर में कोई हलचल नहीं है
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पत्थरों का शहर बसा लेकिन
ज़िन्दगी का पता नहीं मिलता
गीता शुक्ला की ग़ज़लें देश, समाज, परिवार, खेत-खलिहान आदि से लेकर दर्शन और रहस्य के क्षेत्र तक सफलतापूर्वक दखल देती हैं। आधा दर्जन से अधिक साझा संकलनों में आपकी ग़ज़लें छपने के साथ-साथ दो स्वतंत्र ग़ज़ल संग्रह अब तक प्रकाशित हो चुके हैं। तीसरे ग़ज़ल संग्रह के प्रकाशन की तैयारी चल रही है। इसके अतिरिक्त गीता शुक्ला की यदाकदा लिखी गई कहानियाँ और लघुकथाएँ भी साझा संकलन में प्रकाशित हो चुकी हैं, जो इनकी साहित्यिक अभिरुचि की गम्भीरता और इनके सृजन की व्यापक दृष्टि की गवाही देती है। हिन्दी में लिखी जा रही ग़ज़लों में गीता शुक्ला की अनवरत चल रही सधी हुई लेखनी आश्वस्त करती है कि यह समकालीन ग़ज़ल साहित्य के परिदृश्य में अपनी उपस्थिति लम्बे समय तक दर्ज कराने में सफ़ल होंगी।
– डॉ. राम ग़रीब विकल