आलेख
सुषम बेदी के कथा साहित्य में वैवाहिक स्थितियाँ: डॉ. प्रतिभा पाण्डेय
भारतीय संदर्भ में परिवार और विवाह समाज के संश्लेषणात्म्क स्वरूप है। सम्बन्धों की भावपूर्णता और दायित्व की भावना की दृष्टि से इनका बहुत महत्त्व है। हालाँकि समाज की आर्थिक संरचना, व्यक्तिगत स्वामित्व और पुरूष-सत्ता के साथ ही इन संस्थाओं में ऐसी विकृतियाँ आती गयीं कि मानवीयता और नैतिकता के प्रति भयानक अन्याय और अत्याचार की घटनाएँ अपवाद नहीं रह गयीं।
विदेशी पृष्ठभूमि में रह रहे भारतीयों के सामने विवाह के अनेक रूप हैं। उनके अपने संस्कारों के अनुसार माता-पिता द्वारा अपने ही समाज में निश्चित किये गये विवाह, अपनी इच्छा से अपने ही देशवासी अथवा विदेशी से विवाह, अन्तर्जातीय और अन्तर्राष्ट्रीय विवाह, विवाह के बिना ही साथ रहना, बच्चे होना और इच्छा हुई तो बाद में विवाह की औपचारिकता पूरी कर लेना। इन सभी स्थितियों के प्रमाण विदेशी लोगों में भी मिलते हैं और वहाँ निवास कर रहे भारतीयों में भी यद्यपि दोनों में अभी कुछ और सभी का संख्यात्मक अन्तर है।
पश्चिम के आर्थिक आकर्षण और अधिक उन्नत जीवन स्तर के मोह में कभी-कभी भारतीय किसी विदेशी महिला से इसलिए विवाह कर लेते हैं कि उन्हें उस देश के नागरिक होने और वहाँ कार्य करने की वैद्यता प्राप्त हो जाये। ऐसे प्रसंगों में कभी-कभी प्रयोजन की स्वार्थपरकता, तात्कालिता रह जाती है और विच्छेद की स्थितियाँ आ जाती हैं।
आलोचक कहते हैं कि स्त्री मुक्ति की क्रांति ने परिवार को दुष्प्रभावित किया है। स्त्रियों के अधिकार और उनकी बढ़ती आर्थिक स्थिति के कारण विवाह विच्छेदों की संख्या बढ़ रही है। आंद्रे के अनुसार- विवाह विच्छेद वाली स्त्री को अब सामाजिक निन्दा की दृष्टि से नहीं देखा जाता। इसके अलावा जीवन शैली के अन्य विकल्पात्मक रूप भी अब पश्चिम में प्रचलित हो रहे हैं। यहाँ तक कि पश्चिमी समाज में नई तरह से परिवारों का स्वरूप बनने लगा है, जिसमें पति और पत्नी के अपने पहले विवाहों से हुए बच्चे भी उनके साथ एक छत के नीचे रहते हैं। यदि कोई पारम्परिक आदर्शो की कट्टरता से बँधा रहना चाहता है तो उसके लिये स्वतंत्र है किन्तु ये आदर्श लोगों पर थोपे नहीं जाते। आंद्रे मे मेरी दुसाल्ट के अनुसार- युवा पीढ़ियों में स्त्री-पुरूष संबंध अधिक संतुलित, अच्छे और स्वस्थ हुए हैं। अब पुरूष और स्त्री की भूमिकाएँ पुराने समय की तरह भूमिकाएँ कम कट्टर, कम रूढ़ और अधिक लचीली हो गई, लेकिन इसका यह आशय नहीं है कि पश्चिमी योरोप और उत्तरी अमेरिका स्त्री के लिये स्वर्ग है, वहाँ भी घरेलू हिंसा की अनेक घटनाएँ सामने आती हैं। वहाँ सोलह से चौवन वर्ष के बीच महिलाओं की मृत्यु का प्रमुख कारण उनके पुरूष मित्र, पति अथवा पूर्व साथी का हिंसक व्यवहार है।
वैवाहिक स्थितियाँ-
– भारतीय पारंपरिक संस्कार बद्धता
– दाम्पत्य का महत्त्व
– पुरूष वर्चस्व
– पश्चिमी समाज में स्त्री मुक्ति का प्रभाव
– सहजीवन के लिए विवाह की औपचारिकता अनावश्यक
– विवाह विच्छेद पूर्वी और पश्चिमी मूल्य
– भारतीय तथा पश्चिमी जीवन दृष्टियों का द्वन्द्व
पश्चिमी देशों में रह रहे भारतीय अपनी संस्कार प्रियता के कारण बच्चों के विवाह भारतीय परम्परा के अनुसार करना चाहते हैं और पश्चिम के वातावरण से प्रभावित होकर अब व्यक्तिगत निर्णयों से भी विवाह होने लगे हैं। प्रियता के कारण के अनुराग होना चाहते हैं। अब एक दूसरे से परिचित होने के बाद वैवाहिक सम्बन्ध हो रहे हैं। कभी-कभी बिना विवाह के ही एक दूसरे के साथ रहने लगते हैं। विवाह सम्बन्धों में स्थायित्व नहीं है। जातीय भेदभाव, विवाह सम्बन्धों में नहीं है वहाँ पली-बढ़ी पीढ़ी वहीं के युवक, युवतियों से विवाह सम्बन्धों के लिये उत्सुक है। उन्हें भारतीय युवक रू़िग्रस्त लगते हैं। कभी-कभी बीजा की अनिवार्यता भी वहाँ के युवक-युवतियों से विवाह मजबूरी बनती है। प्रवासी लेखिका ऊषा प्रियवंदा के पति (नेल्सन) विदेशी हैं और उनके सम्बन्ध अभी भी स्थायी रूप से चल रहे हैं।
’हवन’ में अरूण को जूडी के साथ विवशता में विवाह करना पड़ता है। इंजीनियरिंग की उपाधि प्रापत अरू को जब भारत में अच्छी नौकरी नहीं मिलती तो वह ’विजिटर वीजा’ पर अमरीका आता है पर उसे वहाँ काम की अनुमति ’वर्क परमिट’ के बिना नौकरी नहीं मिलती। वह गुप्त रूप से एक भारतीय रेस्तरां में काम करता है पर वहाँ अवैध रूप से काम करने वालों पर छापा पड़ता तो वह जेल भेज दिया जाता है। तब किसी दोस्त की सलाह पर कि किसी अमरीकी लड़की से विवाह कर लो ता े ’ग्रीन कार्ड’ मिल जायेगा। जज के सामने पश्चिमी लड़की जूड़ी ने अपने आपको अरूण की मंगेतर बताया। भारतीय संस्कारों वाला अरूण जूडी के प्रति कृतज्ञता से मर गया और उसने विवाह कर लिया। विवाह सम्बन्ध के पश्चात् वह जूडी के घर अपने आपको मालिक नहीं मेहमान् जैसा महसूस करता है।
’हवन’ की ही नजमा ने एक अमेरिकी युवक से विवाह किया। कुछ समय बाद वह युवक एक बंगाली लड़की के साथ रहने लगा और उसने नजमा को तलाक दे दिया। नजमा अमरीकी नागरिक बनकर अकेली रहती है। उसे मिला असुरक्षित जीवन और रिश्तों में अस्थायीपन।
’हवन’ की तनिमा अपनी पसंद से अपने सहपाठी अनुज से विवाह करती है। कुछ समय बाद उनके वैवाहिक सम्बन्धों में टकराहट शुरू हो जाती है। स्थितियाँ गुड्डो के समझाने पर नहीं संभलती। भारतीय सामाजिक व्यवस्था में विवाह एक आवश्यक कार्य है। इसे एक बंधन भी और दायित्व भी माना जाता है। विवाह के बिना स्त्री-पुरूष का साथ रहना नैतिक रूप से अभी लोक मान्य नहीं है। पश्चिमी संस्कृति में स्त्री-पुरूष के लिए विवाह का बंधन अब कम होता जा रहा है। वे बिना विवाह के भी रह सकते हैं।
आज जीवन में अर्थ प्रधानता और उपभोक्तावादी मनोवृत्ति इतनी बढ़ गयी है कि उससे मानवीय सम्बन्धों की आस्था और आत्मीयता खत्म होती जा रही है। सुजन अणिमा से कहती है-कि माँ बनने के लिए शादी की जरूरत नहीं है। शादी का बच्चे से क्या सम्बन्ध है। बच्चे की परवरिश के लिए पति की नहीं पैसे की जरूरत है।
जेन को आश्चर्य होता है कि अणिमा जैसी आधुनिक लड़कियाँ स्वयं निर्णय न करके माँ-बाप द्वारा चुने लड़के से कैसे शादी के लिए मान जाती है। अणिमा का तर्क है ’तुम्हारे देश में’ माँ-बाप बच्चों की शादी में रूचि नहीं लेते तो अक्सर लोग बिना शादी के कुंवारे रह जाते हैं।
पश्चिमी जीवन शैली के संस्कारों से असहमत गुड्डो अपनी बेटियों को समझाती है कि यहाँ शादी तो एक जुआ है। अगर सही नहीं हुआ तो मरना, निभाने की बात रह जाती है। शादी भारतीय रिवाज से ही होनी चाहिए।
यह भी निरपवाद तथ्य नहीं है कि भारतीयों में अपने ही देेश के लोगों में से हुए विवाह सुखान्त सुरक्षित और शांतिपूर्ण हो। जब भारत में ही दाम्पत्य में कलह, अशांति और हिंसा के अनेक उदाहरण मिलते हें तो विदेशी जीवन शैली में तो यह और भी स्वभाविक है। अनुज के उच्छृंखल और उन्मुक्त स्वभाव के कारण तनिया के जीवन में उथल पुथल प्रारंभ हो जाती है। अपनी पसंद से किया गया विवाह यहाँ व्यक्तिगत स्वभाव के कारण विफल होता है। अरूण अमेरिका में टैक्सी ड्राइवर है। वहाँ वह जूडी के साथ रहता है। वह भारत गया तो भारतीय लड़की से विवाह कर लिया। माता-पिता की सहमति को प्राथमिकता देते हुए वह सहर्ष शादी के लिए तैयार हो जाता है। अरूण यह मानता है कि अमेरिका की जिन्दगी के लिए अमेरिकी की ही लड़की उपयुक्त रहती है। इसलिए अब वह हिन्दुस्तारी लड़की को तलाक देना चाहता है।
अणिमा का पति राकेश अणिमा के साथ मारपीट भी करता है उसे अपनी माँ जैसी आज्ञाकारिणी और स्नेहमयी पत्नी जो अपने पति की हर बात मानती रहे चाहिए। वह अणिमा से जबरदस्ती अपनी बात मनवाना चाहता है। अणिमा राकेश का प्रतिरोध करती है। वह उसकी हिंसक प्रवृत्तियों के सामने झुकती नहीं है। दोनों में लड़ाई-झगड़े होते रहते हैं।
पश्चिमी योरोप के देशों में स्त्री घरेलू हिंसा की शिकार है। वहाँ 16 से 54 वर्ष की अवस्था की स्त्रियों की मृत्यु का प्रमुख कारण प्रेमी, पति सहचर द्वारा की गई पाशविकता है फिर भ्ज्ञी पश्चिम की स्त्री अन्य स्त्रियों की तुलना में सहज है।
घरेलू हिंसा के विरूद्ध पश्चिमी देशों में बहुत कठोर नियम हैं स्त्री के फोन कर देने पर पुलिस वहाँ तुरंत पहुँचती है। पति-पत्नि के पारिवारिक सम्बन्धों पर चर्चा करते हुए जने अणिमा से कहती है ’तुम्हारा पति तुम्हारे साथ मारपीट कैसे कर सकता है? इस देश में औरत के साथ आदमी इस तरह से पेश नहीं आ सकता तुम उसे पुलिस से पकड़वा सकती हो। गुड्डो ने अणिमा को एक बार शादी हो जाने पर जैसे-तैसे निर्वाह की प्रेरणा दी है क्योंकि भारतीय समाज में तलाक स्त्री के लिये बहुत बड़ी बदनामी है। परित्यक्ता औरत को भारतीय समाज में सम्मानजनक दृष्टि से नहीं देखा जाता। पश्चिम से वैवाहिक सम्बन्धों की दुर्दशा देखकर वहाँ युवको को भारतीय लड़की चाहिए, तो लड़कियाँ किसी एन.आर.आई. पति से विवाह करना चाहती हैं जो खुले विचारों का और आर्थिक रूप से सम्पन्न हो। जब यह सब वैवाहिक सम्बन्धों में नहीं हो पाता तो मोहभंग होता है। गृहकलह के कारण आपसी रिश्ते टूटने की स्थिति पर पहुँचते हैं और शादियाँ स्थायी नहीं रह पाती हैं। विडम्बनाओं के शिकार कुछ भारत लौटते हैं तो कुछ वहीं रह जाते हैं।
विदेशों में बसे भारतीय आपसी पारिवारिक रिश्तों के टूटने-बिखरने के कारण अपनी अस्मिता की पहचान के लिए अपने भारतीय बंधुओं के आस-पास रहना पसंद करते हैं। वहाँ उन्हें सामाजिकता और पारिवारिकता मिलती है।
ऊषा राजे सक्सैना के कहानी संग्रह ’वह रात’ और अन्य कहानियाँ की कहानी’ शर्ली सिंपसन शुतुरमुर्ग नहीं है में शर्ती सिंपसन अपने विवाह सम्बन्ध को परिवार और भविष्य को बचाने की मानवीय कोशिश करती है। वह पति द्वारा किये गये हर अपमान पर मुस्कराती है। वह पति की हर बात की निर्ममता पर सहिष्णु बनी रहना चाहती है, जीवन में जो कुछ अशोभनीय त्रासद, कटु है, दर्दनाक हादसों को सहकर अपने दाम्पत्य को बचाना चाहती है।
’मैंने नाता तोड़ा’ में अनिरूद्ध-रितु का विवाह पूरी भारतीय विधि से मंदिर में होता है। रितु-अनिरूद्ध के साथ वह सब कुछ कर पाती है जो वह भारत में नहीं कर पाती।
’मोरचे’ की तनु-अनुज के साथ विवाह के बाद अमेरिका आ जाती है परन्तु दोनों रेजिडंेट थे इसलिए दोनों को लगातार चैबीस घंटे काम करना पड़ता। लेकिन कुछ समय पश्चात दोनों में आपसी कलह झगड़े होने लगते हैं। अनुज हिंसक होकर तनु के साथ मारपीट तक करता है।
पुरूष वर्चस्व की परम्परा और धार्मिक आधार पर दृढ़ता प्राप्त संस्कारों में पुरूष औरत को गौण समझता रहा है। स्त्री-मुक्ति के पश्चिमी परिवेश में चले आन्दोलन ने स्त्री को अपने अधिकारों के प्रति सचेत बनाया। स्त्री पर इस तरह का हिंसा व्यवहार और अन्याय वहाँ अधिक है जहाँ एक तो पत्नी आर्थिक रूप से पति पर निर्भर है, दूसरे दसे परित्यक्ता होने से सामाजिक प्रवाद की आशंका है। यह पुरूष वर्चस्व प्रधान समाज का ही उदाहरण है कि पारंपरिक हिन्दुस्तानी समाज में स्त्री के लिए सुरक्षा के कोई उपाय नहीं। यदि तलाक की स्थिति बनती है तो जीवनभार बदनामी, कलंक ढोना पड़ता है। जीवन भार परित्यक्ता के रूप में अभावग्रस्त हेय जीवन जीना पड़ता है। भारतीय परम्परा अथवा संस्कारों में कलंकित स्त्री को इस तरह अनुकूलित कर दिया है कि पत्नी के रूप में अपनी नियति स्वीकार कर ली है। तनु अपने पति का हिंसक व्यवहार सहन करते हुए भी अपनी ममी से कहती है कि आखिर वह मेरा पति ही तो है। एक पारंपरिक भारतीय स्त्री की तरह तनु किसी भी तरह दाम्पत्य को स्थायी रखना चाहती है।
उसके सभी मूल्य, श्रृद्धा, विश्वास उसके विरूद्ध हो रहे हैं लेकिन वह अमेरिकी जीवन शैली में पूरी तरह ढल नहीं पाती। उसकी छवि उस भारतीय स्त्री की तरह है जो पति धर्म और दाम्पत्य के लिए कोई भी कष्ट सहती रहती है।
पोलेण्ड में पितृसत्तात्मक व्यवस्था की जड़े समाज में पारिवारिक संरचना के भीतर तक हैं। स्त्रियों में पूर्व की पीढ़ी के संस्कार बौद्धिकता और आत्मनिर्भरता के बाद भी भावात्मक द्वन्द, वात्सल्य, ममता में जीती धैर्य आदि को सहती क्योंकि परिवार के लिए सब कुछ सहना है और इसलिये वह एक आदर्श प्रस्तुत करती है। वे अलगाव, तलाक को अनुचित ही नहीं भविष्य के लिए भयंकर घातक मानतीं है। पश्चिमी संस्कृति मंे यह सब सहज है आजीवन एक ही व्यक्ति से जुड़कर रहना संभव नहीं। किन्तु अकेली होने के बाद वे अकेलेपन को झेलती हैं कुंठाग्रस्त हो जाती है।
अर्चना पैन्यूली के उपन्यास ’वेयर डू आई विलांग’ की लिंडा भारतीय युवक सुरेश के साथ विवाह कर प्रसन्न है परन्तु सुरेश उसकी विवाहेत्तर मित्रता को सहजता से स्वीकार नहीं कर पाता परिणाम स्वरूप तलाक हो जाता है। सुरेश बार-बार साथ रहने का आग्रह करता है क्योंकि उसके भारतीय संस्कारों में संयुक्त परिवार में तलाक अच्छा नहीं माना जाता परन्तु लिंडा क्षुब्ध है। दोनों का साथ रहना असंभव हो जाता है किन्तु सरेश ने जबकि भारतीय लड़की से दूसरा विवाह कर लिया है तो लिंडा पुनः पूर्व पति से मिलने लगती है। दोनों के वैवाहिक सम्बन्धों में लड़ाई-झगड़े प्रारंभ होते है जिसकी परिणति सुरेश की मृत्यु में होती है।
पाश्चात्य पृष्ठभूमि पर आधारित अन्य लेखकों की कथा कृतियों में भी विवाह इस सफल और विफल प्रसंग मिलता है।
हम ग्लोबल तो हो गये पर खुलेपन और स्वछंदता को स्वीकार नहीं कर पाये। खुलापन चरित्र का मानदंड बन जाता है। सुषमा प्रियदर्शिनी के ’जलाक’ उपन्यास की मीनल भारतीय आदर्शो की प्रतिमूर्ति बहन शोभना के शादीशुदा जीवन की टूटती कडि़यों को देखती है, तब तक स्वतंत्र भारतीय स्त्री बनकर उसे वह कहने में संकोच नहीं होता- ’’मैं नहीं मानती कि वह कौन सी शक्ति थी, जो मुझे इस राह पर कोड़े मार-मार कर अपने जीवन जीने के ढंग से चलाती रही……….। इतना जरूर जानती हूँ कि उन असामाजिक रहकर जो मैंने जिया है उसमें आज कहीं तृप्ति का भाव हैं फिर जीवनभार जो कुछ और लड़कियों के जीवन में घटता देखा है, उससे तृप्ति का भाव बढ़ गया है।
अर्चना पैन्यूली की कहानी ’मैंने सही चुनाव किया न’ की अनीता का विवाह, उसकी बड़ी बहन नैना के भागकर जोनाथन के साथ रहने लगने पर भारत आकर एक भारतीय लड़के से कर दिया जाता है और अनीता के पति अनिल के डेनमार्क जाने की व्यवस्था कर दी जाती है। अनिल की भारती में कोई नौकरी नहीं है। अनीता अपने माता-पिता द्वारा लिए गये निर्णय को स्वीकार करती है और अपनी शादी शुदा जिंदगी अनिल के साथ, तीन बच्चों की माँ बनकर गुजारती है। वह अपने पुरूष मित्र मौर्गन से कहती है कि मैं शादी शुदा हूँ। अनिल के साथ मैंने शादी की है अब मुझे उसके साथ जिन्दगी गुजारने का एक मौका देना चाहिए।
सुषम बेदी के उपन्यास ’गाथा अमर बेल की’ का एक पात्र माक्र्सवादी विचारधारा का है। वह (विश्वामि.) अपनी पत्नी पर वैवाहिक सम्बन्धों में दबाव नही रखना चाहता। वह अपनी पत्नी को समझाता है कि विवाह के बंधन तो समाज ने अपनी सुविधा के लिये बनाये हैं। मन विवाह से नहीं बँधा। वास्तविक बंधन तो मन के ही होते हैं। मन की भावनाओं का दमन किसी भी व्यक्ति के लिए स्वस्थकर नहीं। वह अपने और अपनी सहपाठिन अनुसूया सक्सैना के बारे में अपनी पत्नी शन्नो को बताता है। विश्वा विवाहित होकर भी अनुसूया से शादी करना चाहता है पर अपनी पत्नी शन्नो के मन को दुःखी करके नही उसकी रजामंदी से।
मानव मन की इस स्वाभाविकता का सहजता से स्वीकार भी विवाह अथवा स्त्री पुरूष सम्बन्धों की दृष्टि से व्यक्तिवादी अधिक प्रतीत होता है। इसका कहाँ अन्त है? विवाह के सम्बन्धों को कानूनी हक मिला है। भारतीय सोच में अभी वह स्थिति नहीं आयी है।
’नवाभूम की रसकथा’ में लेखिका ने बताया कि ’नवाभूम’ में बिना विवाह किये स्त्री पुरूष रहने का फैसला करें तो वह विवाह जैसी सामाजिक स्वीकृति पा जाता है। एक मशहूर सिने अभिनेता की पत्नी ने अविवाहित सम्बन्ध को लेकर कानूनी सहायता मांगी थी। उनका एक बेटा भी था। तब उनकी शादी बेनाम थी। आज इस तरह के सम्बन्ध आम है।
अब तो विवाह के और भी आधुनिक रूप सामने आ रहे हैं। एक ओर भू-मंडलीकरण और संचार की प्रोैद्योगिक क्रांति के कारण एक गाँव होता भूमंडल और दूसरी ओर अलग-अलग रहने की विवशताएँ।
सुषम बेदी लिखती है आजकल ’नवाभूम’ में नये तरह के विवाह हो रहे हैं कम्प्यटर विवाह। ऐसे विवाहों में नायक-नायिका अपने भौगोलिक क्षेत्रों में बने रहते हैं पर किसी एक भूखण्ड पर उनका विवाह सम्पन्न हो जाता है। वे छुट्टियों में एक दूसरे से मिल लेते हैं।
’अवसान’ में दिवाकर पचास वर्ष की उम्र में तीसरी शादी करता है। सात साल बाद तलाक और शादी विदेशी नियमों में गलत नहीं है। पश्चिमी सर्वोन्नत देश में तीनों परिवार अलग-अलग रहते हुए जीवनयापन कर रहे हैं। सामाजिक विधान में इस तरह के प्रतिबंध नहीं है, कि व्यक्ति दूसरा विवाह नहीं कर सके।
संदर्भ-
1. हंस पत्रिका, मई, वर्ष 2007, पृ.क्र. 4, 5
2. ’हवन’ उपन्यास, सुषम बेदी, पृ.क्र. 36, 37, 59, 63, 124, 143
3. मैंने नाता तोड़ा, सुषम बेदी, पृ.क्र. 168, 169, 172
4. ‘लौटना’ उपन्यास, सुषम बेदी, पृ.क्र 43
5. रविवारीय जनसत्ता, समाचार पत्र, वर्ष 1994, 10 अप्रैल पृ.क्र.2
6. ‘हवन’ उपन्यास, सुषम बेदी, पृ.क्र. 31, 32
7. ‘इतर’ उपन्यास, सुषम बेदी पृ.क्र. 64
8. ‘मोरचे’ उपन्यास, सुषम बेदी पृ.क्र. 188, 189
9. चिडि़या और चीला, कहानी, सुषम बेदी, हिन्दी नेस्ट काॅम 02 जुलाई 2013, पृ. क्र. 4
– डाॅ. प्रतिभा पाण्डेय