आलेख
सुषम बेदी के साहित्य में नारी: डाॅ. प्रतिभा पाण्डेय
अमेरिकी हिन्दी साहित्य में नारीवाद से संबंधित सृजन बहुत कम है। भारतीय परिवेश में अपनी पहचान बनाने के संघर्ष में जिस तरह व्यस्त होते हैं, भारत छोड़कर भारत में रहने की स्थिति अमेरिका में रहकर अमेरिका में न रहने की स्थिति का चित्रण प्रवासी साहित्यकारों ने अपने लेखन में किया है। दो संस्कृतियों के संघर्ष में अपनी भारतीयता बचाने की कोशिश, अमेरिकी आधुनिकता में मुक्त न होकर स्वतंत्र जागृत स्त्री के रूप में नारी पात्र, अपने जीने के मकसद को पाने की तलाश में प्रवासी साहित्य में दिखाई देती है। कभी उनके सामने अपनी अस्मिता को बचाये रखने का संकट होता है तो कभी आर्थिक सुरक्षा और चारित्रिक सुरक्षा का और कभी अपने स्त्री-बोध को ही जीते रहने का संकट होता है।
विदेश में नारी की स्थिति उसके परिवेश को अधिक प्रभावित करती है, जिसे न वह छोड़ पाती है और न नये वातावरण, नई सोच, नई संस्कृति को अपना पाती है। वह दो संस्कृतियों के बीच संघर्ष कर जीती है। स्त्री जब भारत से विदेश पहुँचती है तो कभी-कभी उसे बड़ी असहज स्थितियों का सामना करना पड़ता है। स्त्री को भारत में ही परिवेश, परिवार की भिन्नता में अंतर होने पर द्वन्द को झेलना पड़ता है तो फिर दूसरे देश में तो सामाजिक, सांस्कृतिक, जीवन मूल्य, नियम भिन्न होते ही हैं। भारतीय स्त्री के अस्तित्व और आर्थिक, सामाजिक, पारिवारिक, चाऱित्रय सुरक्षा आदि का चित्रण प्रवासी साहित्य में मुख्य रूप से चित्रित है।
प्रवासी साहित्यकारों में सुषम बेदी केवल वरीयता क्रम के कारण ही नहीं वरन् प्रवासी भारतीयों पर साहित्य सृजन मुख्य रूप से केन्द्रित नारी विषय पर लेखन के कारण महत्वपूर्ण स्थान पर है। सुषम बेदी कई दशकों से अमेरिका में रह रहीं हैं। वे श्रेष्ठ कथाकार के रूप में हैं। प्राध्यापन के अतिरिक्त कई महत्वपूर्ण पदों पर प्रतिष्ठित रही हैं। विभिन्न विधाओं में वह कार्यरत रहीं है। उनके कथा साहित्य में ‘स्त्री’ प्रधान है। उनका कथा साहित्य भारतीय और पश्चिमी पृष्ठभूमि पर आधारित है। भारतीय स्त्री जब विदेशी भूमि पर पहुँचती है तो वह बंधन और रूढि़यों से मुक्त होकर उच्चतर सोपानों पर चढ़ती है। भारत में रहकर उसे घर-परिवार, नौकरी, रिश्ते नाते, सामाजिक उत्तरदायित्वों को संभालकर दोयम दर्जे पर ही रहती है। पाश्चात्य संस्कृति में स्त्री का समाज रूढि़यों, कुरीतियों, बंधनों से ग्रस्त नहीं है। ’स्त्री’ की अस्मिता भी महत्वपूर्ण है। वह अपने निर्णय के लिए स्वतंत्र है। प्रवासी लेखिका अर्चना पैन्यूली का एक अन्य उपन्यास ‘वेयर डू आई विलाॅग’ में नायक सुरेश और उसकी विदेशी पत्नी लिंडा का जब विवाद होता है तो सुरेश के पिता उसे समझाते हैं कि अंग्रेज झूठ नहीं बोलते, तुम्हें अपनी पत्नी की बात का विश्वास करना चाहिए था। स्त्री चाहे विदेशी हो या भारतीय उसकी अस्मिता, स्वाभिमान महत्वपूर्ण है।
सुषम बेदी के कथा साहित्य में ’स्त्री’ भारतीय माप दण्डों से ऊपर है। अपने जीवन को स्वतंत्र रूप से जी सकती है। समाज ’स्त्री’ के लिए उतना संकीर्ण नहीं है, जितना भारत में। समानता के नाम पर जिस तरह की समानता, स्वतंत्रता की बातें कहीं जाती हैं। वर्तमान स्थितियोें में स्त्री ने उन्नति की है। अपना स्थान निर्धारित किया है लेकिन सुरक्षा की दृष्टि से स्त्री आज भी उपेक्षणीय है। सुरक्षा, सम्मान के कितने ही नारे लगाये जायें लेकिन स्त्री असुरक्षित ही है।
हिन्दी साहित्य के प्रसिद्ध कवि जयशंकर प्रसाद के नाटक ध्रुवस्वामिनी’ में अपने पति के द्वारा स्वयं को वस्तु की तरह से दिए जाने का विरोध करती है। स्वयं ही अपने अस्तित्व बोध में आधन्त प्रतिरोध रूप में रहती है। नारी को अपनी अस्मिता को बचाये रखने का संकट बना ही रहता है। वह जीत तो नहीं पाती है यदि जीतती है तो परिवेश ही निराश करता है।
सुषम बेदी के उपन्यास ’गाथा अमरबेल की’ में नारी पात्र दिव्या अपनी सास शन्नों को अपने साथ विदेश में घूमने ले जाती है तो बताती है मम्मी यहाँ घूरना अच्छा नहीं माना जाता। वहीं एक प्रवासी लेखिका अर्चना पैन्यूली की कहानी ‘मैंने सही चुनाव किया’ की नायिका नैना कहती है- “भारत में लोग लड़कियों को घूरते हैं। नारी विदेश में घूरने की वस्तु नहीं। भारतीय संस्कृति में यदि इस कुसंस्कृति का विरोध किया जाये तो कलंकित वह नारी ही होगी जो पीड़ित होती है।”
भारत में नैतिकता के मापदण्ड स्त्री-पुरूष दोनों के लिए अलग-अलग है। उपन्यास ’मैंने नाता तोड़ा’ की नायिका रितु भारत में अपने ही परिजनों से तिरस्कृत होती है। बलत्कृत होती है। पल-पल उस पीड़ा को झेलती है, जिसे उसके अपने समझ नहीं पाते और दूर भी नहीं कर पाते। जब वह विदेश पहुँचती है तो घोषणा करती है कि ‘पश्चिम की सभ्यता संस्कृति ने मेरी सोच को बदला है………..और मैं नाता तोड़ती हूँ उन ऊल-जलूल मान्यताओं से जो आज भी औरत को उसी तरह विषाक्त, परिहार्य देखती है, जैसे मुझे देखा गया। मैं उन सड़े गले रीति-रिवाजों से नाता तोड़ती हूँ जो आज भी दमन करते हैं।
पश्चिमी समाज में भारतीय समाज की तरह परिवार और समाज के अत्यन्त कठोर बंधन नहीं है। ‘लौटना’ की नारी पात्र मीरा अपने पति विजय से कहती है, “तुम मेरे जीवन की धुरी’ नहीं बन सकते। मेरे जीवन की धुरी मेरी आइडेंटिटी है………..अपनी अस्मिता है पर फिर भी मुझे तुम्हारी उतनी ही जरूरत है जितनी कि तुम्हें मेरी।” पश्चिम में स्त्री की व्यक्तिगत स्वतंत्रता महत्वूपर्ण है। भारत में भी प्रगतिशील स्त्रियों ने अपना उच्चतम स्थान निर्धारित किया है। बहुत कम लेकिन स्त्री की स्वतंत्रता को स्वीकार किया जा रहा है। लेकिन पश्चिमी स्त्री की तरह वह अपने समस्त जीवन और दाम्पत्य का निर्धारण स्वयं नहीं कर सकती है।
‘गाथा अमर बेल की’ उपन्यास में पुरूष विश्वा स्त्री की स्वतंत्रता का समर्थक है। वह कहता है भेदभाव समाज के बनाये हुये हैं। औरतों का काम सिर्फ बच्चे पालना और घर संभालना ही नहीं है। वह अपनी पत्नी को वह सारे कार्यों को करने की स्वतंत्रता देता है, जो उस समय स्त्रियोचित नहीं माने जाते।
सुषम बेदी ने अपने कथा साहित्य में नारी को केन्द्र में रखा है। ‘लौटना’ उपन्यास की नायिका ‘मीरा’ पश्चिमी परिवेश में अपना जीवन स्वतंत्र रूप से उन्मुक्त होकर व्यतीत करती है। विजय (उसका पति) उसकी स्वतंत्रता में बाधक नहीं है। वह अपने पुरूष मित्र के साथ मिलती जुलती है। जब मीरा की माँ (जो भारत में रह रही है) वैयक्तिक स्वतंत्रता की बात आती है। तो वह संकुचित होती है किन्तु अपनी स्वतंत्रता का ध्यान आते ही संभलती है। क्योंकि अपना जीवन अपने तरीके से जीने के लिए स्वतंत्र है। ’बोल्ड होकर पति के प्रति उपकृत होना चाहती है। पुरूष मित्र बनाकर भी मुक्ति के लिए संघर्ष करती है। यह संघर्ष ‘मैंने नाता तोड़ा’ उपन्यास में अधिक है। भारतीय समाज से अधिक उच्चतर उपयुक्तता रितु को पश्चिमी समाज में लगती है। भारत में ’सतायी’ हुई लड़की के लिए कोई विकल्प नहीं। भारतीय समाज की रूढि़याँ लड़कियों को मजबूर करती हैं। भयावह जीवन जीने के लिए। जबकि पश्चिमी समाज स्त्री को यह स्वतंत्रता देती है कि वह पुरूष को दोषी बना सके। लड़की अपने जीवन को बेहतर बना सकती है। भारतीय नारी बंधन और रूढि़यों में कसी है। पश्चाताप, ग्लानि, प्रायश्चित जैसी स्थितियों से कम गुजरना पड़ता है।
‘हवन’ उपन्यास की नायिका विदेश में अपने संस्कारों को दृढ़ रखकर संघर्ष में भी जीतती है। वह अपनी मुक्ति और स्वतंत्रता को अपनी अस्मिता के साथ सुरक्षित रखती है।
सुषम बेदी की वैचारिकता और संवेदना शोषित, पीड़ित और गुलाम स्त्री की मुक्ति के साथ उन्होंने अपने कथा साहित्य में पात्रों के माध्यम से स्त्री मुक्ति की तर्कसंगत बात की है। विरोध, प्रतिरोध, दासता-मुक्ति से स्वर उनके कथा साहित्य में मुख्य रूप से उठाये गये हैं। परिवार के लिए प्रेम स्नेह, त्याग, विश्वास, ममत्व में जीती स्त्री की मुक्ति सार्थक भी है। वैयक्तिक स्वतंत्रता के साथ नारी की मुक्ति संभव है। यह मुक्ति उच्छृखल होकर नहीं वरन् नारियोचित गुणों के साथ भी संभव है।
संदर्भ-
1- ‘लौटना’ उपन्यास, सुषम बेदी, पृ.क्र- 49
2- ‘गाथा अमरबेल की’ उपन्यास, सुषम बेदी पृ.क्र- 8
3- ‘मैंने नाता तोड़ा’ उपन्यास, सुषमबेदी
4- ‘हवन’ उपन्यास, सुषम बेदी
5- ‘वेयर डू आइ विलांग’ उपन्यास, अर्चना पैन्यूली
– डाॅ. प्रतिभा पाण्डेय