आलेख
आधुनिक हिन्दी साहित्य में नारी का बदलता स्वरूप
– डाॅ. पिंकी पारीक
बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में नारी ने जीवन और जगत के विविध क्षेत्रों में अपनी स्वतंत्र पहचान बनाई है। हिन्दी साहित्य में स्त्री विमर्श नारी अस्मिता और उसके मानवीय रूप को समाज में स्वीकृति देते हुए स्वतंत्र व्यक्तित्व के रूप में उसकी स्थापना का प्रयास है। यही कारण है कि समकालीन महिला कथाकारों में जागरूकता एवं संवेदनशीलता होने के कारण ही उन्होंने अपने साहित्य में समकालीन परिवेश, उसकी विभिन्न समस्याएँ एवं उनसे संघर्षरत चेतनाशील नारी का चित्रण किया है।
वैदिक युग से अब तक इतिहास साक्षी है कि प्रत्येक क्षेत्र में पुरूष के साथ नारी की चिन्तन शक्ति भी बराबर कार्य करती रही है। व्यक्ति व समाज की अवधारणा में वह मूल इकाई बनकर कार्य करती रही है। लेकिन वर्तमान समय में समय के साथ सामाजिक समस्याएँ और मानवीय मूल्यों में तेजी से परिवर्तन की प्रक्रिया चल रही है। इस परिप्रेक्ष्य में बदलते हुए जीवन संदर्भ में स्त्री की बदलती हुई मानसिकता को लेकर अनेक महिला कथाकारों ने नारी के बहुआयामी व्यक्तित्व की पहचान अपनी कृतियों के माध्यम से करवायी है। इलाचंद जोशी का विश्वास है कि “भारतीय नारी वास्तविकता को समझकर व्यक्ति और समाज के अत्याचारों का सामना पूरी शक्ति से करने के योग्य अपने को बना रही है।”
आधुनिक हिन्दी साहित्य में शशिप्रभा शास्त्री, नासिरा शर्मा, इला डालमिया, चित्रा मुद्गल, कृष्णा सोबती, प्रभा खेतान, मंजुल भगत, मेहरून्निसा परवेज, मृदुला गर्ग आदि सभी कथाकारों का लेखन स्त्री अधिकारों के प्रति सजगता, आक्रामकता तथा तीखेपन से भरा है। इनकी रचनाओं में पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक धरातल पर जीवन को विविध रूपों से देखने तथा जीवन की विडम्बनीय स्थितियों को प्रतिबिम्बित करने की जो सजगता और संवेदनाशीलता दिखाई देती है, वह स्वातन्त्र्योत्तर साहित्य में अपना एक नया रूप रचती है।
प्रभा खेतान ने स्त्री को केन्द्र में रखकर ताले-बंदी, छिन्नमस्ता अपने-अपने चेहरे, अग्निसंभव, पीली आँधी उपन्यासों का सृजन किया है और उनका उद्देश्य नारी के स्वावलंबन, स्वाभिमान और स्वाधीनता का वर्णन करना है। नारी स्वातंत्र्य सम्बन्धी मिथ्या धारणा के सम्बन्ध में सिमोन द बोअर का यह वक्तव्य स्पष्ट है कि ‘‘यदि इतिहास में बहुत कम स्त्रियाँ जीनियस हुई है तो इसका कारण उसका स्त्री होना नहीं है, बल्कि वह समाज है जो स्त्री को सारी अभिव्यक्ति को नियंत्रित करता रहता है। उसको प्रत्येक सुविधा से वंचित रखता है। बुद्धिमान से बुद्धिमान स्त्री की भी सार्वजनिक हितों के लिए आहुति दे दी जाती है। यदि उन्हें विकास का पूरा अवसर मिले तो ऐसा कोई की काम नहीं जो वे न कर सके। दमनकर्ता हमेशा दमित की जड़ों को काटता रहा है, ताकि वह बौना ही रह जाए।’’
प्रभा खेतान का उपान्यास ‘छिन्नमस्ता’ के माध्यम से लेखिका ने स्त्री की अभिव्यक्ति को मुखर किया है। इसकी नायिका प्रिया एक ऐसी प्रतिभा सम्पन्न स्त्री है जो अपनी अस्मिता के संघर्ष हेतु सामाजिक चुनौती बन कर उभरती है। प्रभा खेतान मारवाड़ी समाज से सम्बद्ध है जो उद्योग से जुड़ी महिला के रूप में समाज में अपना अलग-अलग स्थान बनाती है। यही कारण है कि वे अपने कथा पात्रों को एक सशक्त चरित्र प्रदान करने में सफल होती है। ‘छिन्नमस्ता’ में भावात्मक रूप से अपने अस्तित्व की नई परिभाषा गढ़ने का प्रयास किया गया है। ‘‘मैनें दुःख झेला है। पीड़ा की त्रासदी से झुलसी हँँ जिस दिन मैंने खुद को एक बड़ी गैर जरूरी लड़ाई से बचा लिया। सारे जुल्मों के सामने सलीब पर लटते मैंने पाया कि अब पूरी जिन्दगी की चुनौतियों का सामना करने को तैयार हूँ’’
चित्रा जी का हिन्दी साहित्य में वर्तमान स्थितियों में लिखे जा रहे स्त्री चेतना के सम्बन्ध में मानना है कि स्त्री चेतना के आन्दोलन को आज परिचय की देन माना जा रहा है। वास्तव में वह अवधारणा हमारे देश में हजारों वर्षों से प्रचलित है। अजीब विडम्बना है कि असमानता से कोसों दूर नर-नारी सम्बन्ध के आदर्श का सर्वाधिक सुन्दर जीवन दर्शन अर्द्धनारीश्वर के रूप में निर्विवाद सबसे पहले भारत में विकसित हुआ। यानी पुरूष आधा नारी बने और नारी आधा पुरूष। केवल तभी परस्पर एक-दूसरे को बेहतर तरीके से समझ सकेंगे।’’
चित्रा मुद्गल के साहित्य में सभी नारी पात्र चेतना सम्पन्न नारी पात्र है। उनकी सभी नारिया जीवन की विषमता से हारकर पलायन नहीं करती बल्कि सम्पूर्ण चेतना के साथ परिस्थितियों से जूझकर सफलता प्राप्त करने में विश्वास रखती है।
स्त्री के कमजोर पक्ष के लिए उसका आर्थिक पक्ष भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। प्राचीनकाल से ही भारतीय नारी अपने पति पर आर्थिक रूप से निर्भर रही है। नारी की यह आर्थिक दासता ही उसे मानसिक रूप से जर्जर बनाती रही है। लेकिन आधुनिक काल तक आते-आते नारी अपने आर्थिक अधिकारों के प्रति जागरूक हुई। उसने आर्थिक स्वातन्त्र्य के लिए अपने आप को तैयार किया और यही कारण है कि आज नारी को हम आर्थिक दृष्टि से पूर्णतः स्वाधीन व आत्म निर्भर देखते हैं आज वह प्रत्येक क्षेत्र में पुरूष के समकक्ष खड़ी हुई है।
आर्थिक स्थिति के कारण नारियों की शिक्षा एवं नौकरी की दिशा में भी महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए है। परिवार की आर्थिक स्थिति कमजोर होने पर आत्मनिर्भर और सम्पन्न बनाने के लिए नारी को घर परिवार की चार दीवारी लांघ का बाहर की दुनिया के कर्म क्षेत्र में पर्दापण करना पड़ा है। अनेक स्त्रियाँ नौकरी करती है ताकि घर की आर्थिक स्थिति को अधिक दृढ़ बनाया जाए। शशिप्रभा शास्त्री के उपन्यास ‘परछायों के पीछे’ में सुमित्रा मन ही मन सोचती है कि ‘‘नौकरी क्यों न करूँ, जमाना कितनी मँहगाई का जा रहा है, पति का हाथ बँटाना मेरा फर्ज है।’’
शशिप्रभा शास्त्री के उपन्यासों में चित्रित नारी मध्यवर्ग की वह नारी है जो अपने घर की आर्थिक जरूरतों को पूरा करने के लिए संघर्ष करती रहती है। इसलिए उनके उपन्यासों में नौकरी खोजती नारियाँ, नौकरी करती हुई नारियाँ, नौकरी से सुख अथवा दुःख अनुभव करती हुई नारियाँ तथा घरेलू नौकरी करती हुई नारियाँ चित्रित की गई है साथ ही उनकी जागरूकता, स्वाभिमान एवं आत्मनिर्भरता को भी उन्होंने बड़ी सफलता से उकेरा है।
राष्ट्रीय स्वतंत्रता की चाह के साथ नारी की अपने स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत है। आज नारी विभिन्न पदों पर कार्यरत है, व्यक्तिगत स्वाधीनता और व्यक्तित्व की अद्वितीयता जैसी अवधारणाओं का विस्तार अब हमारे देश में भी केवल पुरूषों तक ही सीमित नहीं रह गया है, वरण आज नारी अपने व्यक्तित्व और उसकी रक्षा तथा प्रतिभा के प्रति सजग होती जा रही है। आज नारी का रूप उत्तरोत्तर निखरता जा रहा है। वह प्रतिकूल परिस्थितियाँ का भी सामना करती है। वह पति की ज्यादती सहन करती हुई पतिगृह में रहने में असमर्थ है। वह अपने व्यक्तित्व की अवहेलना, अपमान तथा तिरस्कार सहने की अपेक्षा स्वावलम्बी बनकर एकांकी जीना अधिक अच्छा समझती है।
आधुनिक नारी आर्थिक दासता के कारण पुरूष के स्वेच्छाचारी व्यवहार को सहन नहीं करती। ‘नावें’ उपन्यास में रेवा निगम मालती से कहती है ‘‘स्त्री उनसे मुक्त होकर एक स्वच्छंद-स्वतंत्र आत्मनिर्भरता की जिन्दगी बिताने में समर्थ-सफल हो सके ये वे नहीं चाहते थे।’’
यशपाल का मत है ‘‘स्त्री की आर्थिक स्वतंत्रता स्त्री का मानवीय अधिकार है।’’
आधुनिक युग में नारी अपनी समस्याओं को व्यक्तिगत समस्या समझकर संघर्ष करने का प्रयत्न कर रही है। विवाह की पुरानी रूढि़यों से दूर हटकर वह सोचने लगी कि पुरूष ने नारी के दायित्व भाव का अनुचित लाभ उठाकर उसे केवल उपभोग की वस्तु मान लिया है। लेकिन अब वह ऐसे बंधनों को स्वीकार करने को तैयार नहीं है।
आधुनिक नारी में अपनी व्यक्तित्व की स्वंतत्र सत्ता स्थापित करने की जो छटपटाहट है उसकी आधुनिक साहित्य के माध्यम से बखूबी देखा जा सकता है, शिक्षा तथा नौकरी से प्राप्त अवसरों में नारी ने अनुभव करा दिया है कि वह पुरूष से किसी भी भाँति कम नहीं है। यही कारण है है कि नारी अपने स्वतन्त्र अस्तित्व के लिए संघर्षरत है। नारी की इस स्वतंत्रता से तात्पर्य यह रही है कि नारी का पारिवारिक अथवा समाजिक बंधनों से मुक्त होना है और अपने दायित्वों से मुँह मोड़कर स्वच्छंद जीवन बीताना है, अपितु व्यक्ति स्वातन्त्र्य के इस युग में नारी को भी वैयक्तिक स्वतंत्रता देना है। अपने विचारों, अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए उस पर किसी प्रकार की मर्जी ना लादी जाये। उसे अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए पुरूष की भाँति सुविधा और अवसर प्राप्त हो। नारी की यह स्थिति शशिप्रभा शास्त्री के उपन्यास ‘परछाइयों के पीछे’ हर व्यक्ति को जीने का हक है, वह भी जिएगी और अच्छी तरह जिएगी बहुत सह भोग लिया आज तक।’’
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि वर्तमान युग में नारी की स्थिति में काफी हद तक परिवर्तन आया है। परिवर्तन के दौर से गुजरती नारी को सबसे अधिक आवश्यकता है एक जुट होकर स्त्री स्वाधीनता का यौन उच्छृखलता से ऊपर उठकर देखें। स्त्री चेतना का उद्देश्य बोल्डनेस के बजाय अपने अधिकारों के साथ-साथ अपने उत्तरदायित्यों की ओर भी होना चाहिए। स्त्री स्वातंत्र्य में पुरूष को विपक्ष बनाने के बजाय साथ बनाना होना चाहिए।
इन सब आधारों पर आधुनिक हिन्दी साहित्य पूर्णताः के साथ खड़ा दिखाई देता है। आज की महिला कथाकारों ने नारी मुक्ति, नारी जागरण, अजनबीपन, अकेलापन, बदलते जीवन संदर्भ, स्त्री-पुरूष संबंध, नैतिकता के नवीन मानदण्ड, संबंधों की नवीन व्याख्या, सामाजिक समस्याएँ, दाम्पत्य जीवन इन सभी आयामों को विश्लेषित करती दिखाई देती है। आज स्त्री की प्रचलित छवि को तोड़कर नई छवि के रूप में दिखाई पड़ती है। आज के हिन्दी साहित्य नारी के बहुआयामी व्यक्तित्व की पहचान कराने में लगभग निरन्तर सफलता की ओर अग्रसर दिखाई देता है।
– डॉ. पिंकी पारीक