जयतु संस्कृतम्
प्रस्थाय संस्थिता पुनः
संस्थाय प्रस्थिता।
नक्तन्दिवापि प्रत्यहं
यात्रा नवा कृता।। 1।।
एकैकमेव सर्वदा
मार्गे पदं धृतम्।
श्रान्ता कदापि नैव
सदैवोर्जितार्जिता।। 2।।
रुद्धा यदा पथि प्रवृत्त-
झञ्झयाऽहता।
उन्मुच्य तत्पथं पुन:
सृतिर्नवा श्रिता।। 3।।
लब्धं कदापि नैव
सुखं वातजं मृदु।
छायाऽतपेन मामके
शीर्षे सदा कृता।। 4।।
सङ्घर्ष आत्मशक्ति-
मतीत्यापि कल्पित:।
किन्तु क्षणेन हन्त!
शतं निर्बलैर्जिता।। 5।।
किंस्वित्सुकोमलै:
सुमैर्न पीड्यतामत:।
स्नेहस्पृशै: सदाशयै:
शूलैश्च सम्मता।। 6।।
ज्ञातं न लक्ष्यमेव
पुनर्नैव साधनम्।
चक्रे भ्रमामि केवलं
वाहेन कर्षिता।। 7।।
नित्यं चरन्त्यखण्ड-
मनन्तं कदापि तत्।
लप्स्ये स्वगम्यमित्यतो-
ऽद्यापीह जीविता।। 8।।
– डाॅ. नवलता