आलेख/विमर्श
भारतीय जीवन दर्शन और पर्यावरण संरक्षण- डॉ. नवलता
भारतीय चिन्तनधारा सदैव समष्टिवादी तथा एकत्ववादी रही है। यहाँ तक कि जड़-चेतन सभी में समान दृष्टि रखकर जड़ पदार्थों का संरक्षण भारतीय चिन्तन का विशिष्ट पक्ष रहा है। भारतीय जीवन दर्शन जड़चेतन के पारस्परिक तादात्म्य के मूल में उनके सहसम्बन्ध तथा अन्योऽन्य संरक्षण की अवधारणा को समग्र सामाजिक व्यवहार का आधार मानता है। भारतीय दार्शनिक चेतना तथा पुरुषार्थ का रहस्य मूलतत्त्वों के ज्ञान तथा उनके उपयोगितापरक यौगिकों के निर्वचन के साथ ही शुद्ध तत्त्व की प्राप्ति, जिसे आत्मसाक्षात्कार, मोक्ष, कैवल्य आदि शब्दों से जाना गया, के रूप में समझा जा सकता है। विशेषतः धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों का मूलाधार धर्म ही है। वैयक्तिक तथा सामूहिक या समष्टिगत स्तर पर धर्म ही समस्त व्यवहार का नियन्ता तथा वैश्विक सन्तुलन का हेतु है। इसी कारण धर्म की व्याख्या तात्त्विक स्तर पर वस्तु की
धारणाशक्ति के रूप में तथा व्यावहारिक स्तर पर अभ्युदय तथा निःश्रेयस के हेतु के रूप में की गई। तत्त्व तथा व्यवहार का अनुकूलन अथवा सकारात्मक सम्बन्ध ही धर्म का प्राण तत्त्व है। दूसरे शब्दों में ब्रह्माण्ड में, प्रकृति में जो कुछ भी जड़ या चेतन है उसका अस्तित्व पारस्परिक विनिमयात्मक सम्बन्ध पर आश्रित है। श्रीमद्भगवद्गीता में यज्ञ की व्याख्या करते हुये मानव तथा प्रकृति के इस सम्बन्ध को व्यक्त करते हुए कहा गया है कि जब यज्ञ के द्वारा मनुष्य देवताओं अर्थात् प्राकृतिक उपादानों का संरक्षण करता
है तो देवता या प्रकृति भी प्राणियों का प्रतिपोषण करती है। इस प्रकार परस्पर प्रकृति और मानव का परस्पर पोष्य-पोषक सम्बन्ध ही श्रेय अर्थात् कल्याण का हेतु होता है-
देवा भावयतानेन ते देवा भावयन्तु नः।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।।
सामान्यतः प्रकृति का अभिप्राय पृथ्वी पर स्वाभाविक रूप से प्राप्त होने वाले वन-उपवन-पर्वत-नदियों- झरनों-सागर-खनिज-रत्न आदि पदार्थों, सस्यसम्पदा तथा नाना जीव-जन्तु आदि प्राणियों के समुदाय से समझा जाता है। ये सभी मानव के लिये उपयोगी हैं। सभ्यता के उद्भवकाल से ही अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये मनुष्य प्रकृति का दोहन करता रहा है। किन्तु हमारे पूर्वज ऋषियों तथा मनीषियों के चिन्तन में सदैव यह बात रही कि प्रकृति के दोहन की कोई नैतिक मर्यादा अवश्य होनी चाहिए। इसके मूल में जो अवधारणा थी उसका आधार उपर्युक्त समष्टिवादी तथा समग्रतावादी दृष्टिकोण ही था। सभी भारतीय दार्शनिक सम्प्रदायों के चिन्तन की आचारमीमांसा एकमत से यह स्वीकार करती है कि पृथ्वी, किंवा ब्रह्माण्ड में जो कुछ भी भोग्य वस्तु है वह सबके लिये है। धर्म, अर्थ तथा काम का स्वातन्त्र्य होते हुये भी केवल उतनी ही वस्तु का ग्रहण करना चाहिए जितनी आवश्यक हो। ईशावास्योपनिषद् का कथन है कि त्याग अर्थात् समर्पण की भावना से भोग करना ही उचित है-
ईषावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्।।
यजुर्वेद में यज्ञ के लिये काष्ठ का आहरण करते समय यजमान कुठार से कहता हुआ मन्त्र पढ़ता है-
‘‘कुठार मैनं हिंसीः’’।
यह विचारणीय है कि एक ओर लकड़ी काटी जा रही है और साथ ही यह भी कहा जा रहा है कि हे कुठार, तुम इस वृक्ष की हिंसा न करो। तात्पर्य यह है वृक्ष से
आवश्यकतानुसार समिधा लें, मूलोच्छेद न करें। अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त में ऋषि प्रार्थना करता है कि जिस पृथ्वी पर आरम्भ से ही नाना वनस्पतियाँ, अन्न, जल तथा विभिन्न बहुमूल्य प्राकृतिक संसाधन विद्यमान हैं वह पृथ्वी यथाकाम धन आदि से हम मनुष्यों को समृद्ध करे। 63 मन्त्रों के इस सूक्त में एक ऐसी पृथ्वी की सङ्कल्पना की गई है जहॉं परिवार की भॉंति रहते हुए सभी प्राणी पृथ्वी के प्रति माता की भावना रखें। ‘‘माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः’’ का उद्घोष करने वाले इस सूक्त के अन्तिम दो मन्त्रों में प्रार्थना की गई है कि हे पृथिवी, तुम्हारे गर्भ से उत्पन्न पदार्थ हमारे लिये आरोग्यदायक तथा दीर्घ आयु प्रदान करने वाले हों, तथा हम सजगतापूर्वक तुम्हें बलि प्रदान करें अर्थात् तुम्हारा पोषण करें-
उपस्थास्ते अनमीबा अयक्ष्मा अस्मभ्यं सन्तु पृथिवि प्रसूताः।
दीर्घं न आयुः प्रतिबुध्यमाना वयं तुभ्यं बलिहृतः स्याम।।
तथा- हे भूमि माता, तुम मुझे कल्याणकारी ऐश्वर्य के साथ धारण करो-
भूमे मातर्निधेहि मा भद्रया सुप्रतिष्ठितम्।
संविदाना दिवा कवे श्रियां मा धेहि भूत्याम्।।
तैत्तिरीय उपनिषद् में अधिभूत, अधिदेव, अधिविद्य, अधिप्रज तथा अध्यात्म की महासंहिता के विश्लेषण द्वारा समग्र ब्रह्माण्ड में अन्तःसम्बन्ध बतलाया गया है। इसी प्रकार यजुर्वेद के शान्ति मन्त्र में द्युलोक, अन्तरिक्ष लोक तथा पृथ्वी के सहित जल औषधि- वनस्पति तथा समस्त देवताओं की शान्ति और उनके द्वारा हमारी शान्ति अर्थात् सरल सहज निर्विघ्न जीवन की कामना की गई है। प्रश्न यह है कि उक्त विवरण का पर्यावरणसंरक्षण से क्या सम्बन्ध है? स्पष्ट करना आवश्यक है कि भारतीय दर्शन तथा जीवनशैली का मूलाधार सर्वभूतसमन्वय है। यहाँ भूत का तात्पर्य केवल प्राणी नहीं अपितु पाञ्चभौतिक जगत् के आधार पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश के पाञ्चभौतिक सङ्घटन एवं उनके गुणधर्मों से है। यद्यपि पर्यावरण शब्द जिस अर्थ में आज प्रयुक्त किया जाता है वह बहुत अर्वाचीन है। तथापि इसकी मूल भावना पाञ्चभूतात्मक प्रकृति के आवरणात्मक प्रत्यय से प्रभावित है। इस जगत् में सब कुछ आवरणात्मक तथा परस्पर आच्छादक है। सूक्ष्म रूप में शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध आकाश, वायु, अग्नि, जल तथा पृथ्वी से आवृत्त हैं। स्थूल रूप में पृथ्वी जलमण्डल से जलमण्डल अग्निमण्डल या तापमण्डल से तापमण्डल वायुमण्डल से तथा वायुमण्डल आकाशमण्डल से व्याप्त है। यदि पृथ्वी को एक बिन्दु तथा आकाश को दूसरा बिन्दु मान लें तो उनके मध्य जल, वायु तथा ताप या अग्नि एक मिश्रित आवरण के रूप में स्थित होते हैं जिनका नियन्ता द्युलोक का स्वामी सूर्य होता है तथा आश्रयस्थान पृथ्वी होती है। तात्पर्य यह है कि पृथ्वीवासियों की प्राणशक्ति से ले कर दैनन्दिन व्यवहार एवं आहार-विहार जल, वायु तथा ताप के समसन्तुलन पर आश्रित है।
इस प्रकार समस्त उपभोग-सामग्रियों की दीर्घकालीन सम्प्राप्ति तीन बातों से प्रभावित होती है-
1. जलवायु में ताप का सन्तुलन।
2. पार्थिव पदार्थों की स्वाभाविक गुणवत्ता का रक्षण।
3. प्रकृति के संदोहन में गुणात्मक तथा परिमाणात्मक स्तर पर नैतिक मर्यादा का अनुपालन।
इस दृष्टि से भारतीय वैदिक दर्शन तथा तत्त्वचिन्तन के साथ ही धर्मशास्त्रीय निर्देश महत्त्वपूर्ण हैं। धर्मशास्त्र की दृष्टि से इस परिप्रेक्ष्य में इष्टापूर्त के प्रत्यय की कल्पना की गई है। इष्ट के अन्तर्गत यज्ञ-याग आते हैं तथा पूर्त के अन्तर्गत वापी, कूप, तडाग, देवालय, आराम-बगीचों, पथशालाओं आदि का निर्माण,जीर्णोद्धार एवं संरक्षण आते हैं। तीर्थ की संकल्पना भी पर्यावरणसंरक्षण की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। सैद्धान्तिक रूप से पृथ्वी, जल तथा वायु को प्रदूषित होने से बचाना एवं जलवायु में ताप का आर्तव परिमाण
सन्तुलित पर्यावरण के अनिवार्य कारक हैं। दूसरी ओर जहाँ मानव का निवास होगा वहाँ अनेक प्रकार के अमेध्य पदार्थ भी उद्भूत होते रहते हैं। दैनन्दिन उपयोग से निकला कचरा तो स्वाभाविक रूप से वातावारण को प्रदूषित करता ही रहता है।
उक्त सन्दर्भ में विचारणीय है कि वैदिक काल में दैनिक जीवनचर्या में सम्मिलित अग्निहोत्र तथा नैमित्तिक यागों में प्रयुक्त किये जाने वाले द्रव्यों की अग्नि में आहुति नैत्त्यिक प्रदूषण को दूर करने का सहज उपाय था। यज्ञों में प्रयुक्त ओषधीय द्रव्यों की आहुति से तात्कालिक रूप से वायु प्रदूषण दूर होता है। हानिकारक कीटाणु वातावरण में पनपने नहीं पाते। साथ ही सूक्ष्म रूप से यज्ञ से जो धूम उत्पन्न होता है वह मेघ बन कर वृष्टि का हेतु होता है। उस ओषधीय गुणों वाली वृष्टि से न केवल पुष्टिकर अन्न उत्पन्न होता है अपितु धरती की उर्वरा शक्ति को भी पोषण प्राप्त होता है। जलसंरक्षण की दृष्टि से बावली, कूप, तडाग, आदि का निर्माण धनश्रेष्ठियों का धर्म कहा गया है। धर्मशास्त्रीय ग्रन्थों तथापुराणों में पूर्त कर्म का विस्तृत विवेचन प्राप्त होता है। यही नहीं, पुराणों में वृक्षारोपण के महत्त्व को बतलाते हुए दस कूपों के समान एक वापी, दस वापियों के समान एक तालाब, दस तालाबों के समान एक पुत्र तथा दस पुत्रों के समान एक वृक्ष को माना गया है-
दशकूपसमा वापी दशवापीसमो हृदः।
दशहृदसमः पुत्रः दशपुत्रसमां द्रुमः।।
उक्त कथन का उद्देश्य जीवन में वृक्षों की अपरिहार्यता बतलाना, उनसे पुत्र जैसा भावात्मक सम्बन्ध बतलाना तथा लोगों को वृक्षारोपण के लिये प्रेरित करना है। वृक्ष काटना दण्डनीय अपराध तथा पाप है। मनुस्मृति का वचन है कि वृक्ष को काटने वाला अगले जन्म में गूंगा होता है-
‘‘वृक्षोच्छेदी भवेन्मूकः।’’
धर्म के आवरण में तीर्थों की पवित्रता को संरक्षित रखने का सन्देश भी पर्यावरण के प्रति दायित्वबोध का आदर्श प्रस्तुत करता है। उल्लेखनीय है कि मनुस्मृति में विस्तारपूर्वक निर्देश किया गया है कि नदी तट पर, पर्वतशिखर पर, जलाशय में, अज्ञात गर्त में, यत्र-तत्र मल-मूत्र का त्याग नहीं करना चाहिए। नदी में स्नान करते हुये मल-मूत्र-वीर्य-थूक आदि अमेध्य पदार्थों का त्याग नहीं करना चाहिए। जलप्रवाह के प्राकृतिक उद्गमों को रोकना तथा पाटना दुष्कृत्य तथा अपराध समझा जाता था ऐसे व्यक्ति को
श्राद्धभोज वर्जित था। इसी प्रकार इन्धन आदि के लिये हरे पेड़ काटना तथा पुष्प-फलदार वृक्षों पादप-लताओं को काटना हिंसा की श्रेणी में समझा जाता था। ऐसे विषयों में उपभोग के अनुसार दण्ड तथा प्रायश्चित्त का विधान था।
मनुस्मृति के निम्नांकित वचन द्रष्टव्य हैं-
स्रोतसां भेदको यश्च तेषामावरणे रतः।
गृहसंवेशको दूतो वृक्षरोपक एव च।।
अथ च-
इन्धनार्थमशुष्काणां द्रुमाणामवपातनम्।
आत्मार्थं च क्रियारम्भो निन्दितान्नादनं तथा।।
फलदानां तु वृक्षाणां छेदने जप्यमृक्शतम्।
गुल्मवल्लीलतानां च पुष्पितानां च वीरुधाम्।।
वनस्पतीनां सर्वेषामुपभोगो यथा यथा।
तथा तथा दमः कार्यो हिंसायामिति धारणा।।
ध्यातव्य है कि वृक्ष न केवल पुष्प फल तथा काष्ठादि प्रदान करते हैं अपितु वर्षाचक्र, ऋतुचक्र तथा वायुमण्डलीय ताप के सन्तुलन में इनकी विशिष्ट भूमिका है।
वर्तमान समय में कृत्रिम तथा रासायनिक अपशिष्ट की मात्रा निरन्तर बढ़ रही है। विकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों का अतिदोहन, नदियों की धाराओं पर बन्धनिर्माण, इलेक्ट्रानिक साधनों का अति उपयोग प्रकृति की स्वाभाविक गुणवत्ता को नष्ट कर रही है। वैश्विक ताप का संकट विश्व के अस्तित्व पर मॅंडरा रहा है। पर्यावरण पर तात्कालिक
परिस्थितियाँ उत्पन्न होने पर चेतने तथा अरण्यरोदन करने के स्थान पर यदि परम्परागत जीवनशैली एवं धर्मशास्त्रीय नियमों का पालन किया जाता तो यह स्थिति न आती। किन्तु, जो गया वह बीत गया। पृथ्वी, जल, वायु तथा वनों में देवता की भावना से उनका संरक्षण-संवर्द्धन करें।
जब जागे तभी सवेरा।
– डाॅ. नवलता