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भ्रमरगीत परंपरा- स्त्री विमर्श की अभिव्यक्ति: डाॅ. मनोरमा गौतम
भक्तिकाल की कृष्ण-भक्ति शाखा के कवियों में सूरदास का स्थान शीर्षस्थ है। ‘भ्रमरगीत’ सूरसागर की सर्वोत्कृष्ट रत्नमणि है, जिसकी रचना श्रीमद्भागवत के आधार पर हुई है। ‘भागवत’ में यह प्रसंग बहुत संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत हुआ है। किन्तु सूरदास ने अपनी विलक्षण प्रतिभा के बल पर उसे एक विशिष्ट और सशक्त रचना बनाया जो भ्रमरगीत परम्परा में सबसे अग्रिम पंक्ति में आता है।
सूरदास द्वारा चित्रित राधा-कृष्ण की प्रेम लीला दरअसल मध्यकालीन पराधीन-नारी का सहज एवं स्वाधीन प्रेम-वर्णन है। सूरदास के समय अर्थात् 16वीं शती में ब्रज में नारियों को यह स्वाधीनता नहीं थी, जिसका वर्णन सूरसागर में मिलता है। यह सच है कि रासलीला का साधनात्मक अर्थ भी हैं, जहाँ गोपियाँ साधकों की प्रतीक हैं किन्तु इतना कह देने से बात खत्म नहीं होती। गोपियाँ लोक-लाज तजकर घर की चाहरदीवारी ही नहीं तोड़ती, ये कृष्ण की बाँसुरी सुनकर उस सामाजिक व्यवस्था को भी तोड़ती हैं, जो नारियों को पराधीन रखती हैं। सूरदास ने कृष्ण-कथा और रासलीला के माध्यम से एक ऐसे सर्वसुखद समाज का स्वप्न देखा है जिसमें स्त्री और पुरुष दोनों समान हों। सूरदास की यह सोच नारी स्वाधीनता की ओर बढ़ाया गया एक कदम है।
पुरुष की बेवफाई के प्रति स्त्री की शिकायत का इतिहास बहुत पुराना है स्त्री की यह शिकायत बेवजह नहीं है बल्कि वे समाज वे परिस्थितियाँ ही ऐसी थी जिसमें स्त्री को दोयम-दर्जे का स्थान प्राप्त था। सब कुछ मिलाकर नारी ने पुरुष को जितना दिया है उतना पाया नहीं है। उसकी आंतरिक एवं बाह्य सुकुमारता का लाभ उठाकर पुरुष ने उसे अपनी चल सम्पत्ति ही बना लिया। वैदिक काल में जो समानता-अधिकार नारी को प्राप्त थे धीरे-धीरे वे सब छीन लिए गए, उस पर प्रतिबंध लगा दिया गया। वे पुरुष के अधीन कर दी गई। पुरुष उसे अपने सम्पत्ति समझ उसका जैसे चाहे उपयोग करने लगा यहाँ तक कि वे दान में देने, उपहार में देने, जुए में दाँव पर लगा दी जाने वाली एकमात्र वस्तु बनकर रह गई। सामंती युग में नारी की स्थिति तो और भी दयनीय हो गई। पुरुष प्रणय की आकांक्षी नारी ने अपना सर्वस्व देकर भी कुछ नहीं पाया। पति की कई-कई पत्नियाँ, उपपत्नियाँ आदि की पीड़ा भी उसे झेलनी पड़ी। स्त्री ने देखा कि जिस प्रकार भँवरा एक फूल से दूसरे फूल पर जाकर रसपान करता है उसी प्रकार पुरुष भी अनेक स्त्रियाँ से सम्बन्ध स्थापित कर रहा है और यह किसी भी पत्नी (स्त्री) के लिए असहाय है कि उसका पति किसी अन्य स्त्री पर आसक्त हो। स्त्री की यही वेदना उपालम्भ के रूप में प्रकट हुई है जो सूरदास के ‘भ्रमरगीत’ में देखा जा सकता है।
कृष्ण के मथुरा जाने के पश्चात् गोपियाँ उनके वियोग से पीडि़त हैं वे अपने हृदय से कृष्ण की स्मृति को नहीं निकाल पा रही हैं। जब कृष्ण को इस बात का पता चलता है तो वे उद्धव को ब्रज भेजते हैं गोपियों को समझाने के लिए ताकि वे कृष्ण को भुलाकर अन्य कामों में मन लगाए। उद्धव ब्रज आकर गोपियों को योग का उपदेश देते हैं ताकि वे हृदय से कृष्ण की स्मृति को निकाल सके। हालांकि सूरदास की गोपियाँ भोली-भाली हैं किन्तु प्रिय से सम्बन्ध-विच्छेद कराने की चेष्टा करने वाले व्यक्ति के प्रति झल्लाहट उत्पन्न होना या गुस्सा आना स्वाभाविक है। फिर वो चाहे प्रिय का मित्र ही क्यों न हो। फिर तो गापियों ने भ्रमर के बहाने उद्धव पर खूब व्यंग्य-बाणों की वर्षा की। वे कहती हैं-
‘‘रहु रे मधुकर, रहु मतवारे।
कौन काज या निरगुन सौ
चिर जीबहु कान्ह हमारे।’’
इससे स्पष्ट है कि सूरदास की गोपियाँ कृष्ण से एकनिष्ठ प्रेम करती हैं तभी तो दूर रह कर भी वे उनकी चिर-आयु की कामना करती हैं। अतः कहा जा सकता है कि पुरुष कितना भी निष्ठुर हो जाए किन्तु स्त्रियाँ उसके प्रति तनिक भी निष्ठुर नहीं हो पाती। इसका सबसे बड़ा उदाहरण सूरदास की गोपियाँ हैं।
कृष्ण को छोड़कर निर्गुण ईश्वर की उपासना करने की उद्धव की इस बात पर गोपियाँ उसकी खूब खिंचाई करती हैं। यह नारी सुलभ प्रवृत्ति भी है कि वे अपने पति के होते हुए किसी अन्य पुरुष का विस्मरण भी मन में नहीं लाती। परन्तु यहाँ उद्धव वही काम करने को कह रहे हैं। जिसकी प्रतिक्रियास्वरूप गोपियाँ उद्धव को बहुत खरी-खोटी सुनाती हैं। वे उद्धव से कहती हंै-
‘‘समुझि न परति तिहारी ऊधौ।
ज्यौं त्रिदोष उपजै जक लागत, बोलत बचन न सूधौ।
आपुन कौ उपचार करौ अति, तब औरनि सिख देहु।
बड़ौ रोग उपज्यौ है तुमकौ, भवन सवारे लेहु।।’’
‘भ्रमरगीत’ में प्रेम को जीवन का सर्वस्व माना गया है। यही कारण है कि प्रेमी, प्रेम-मार्ग में अनेक कष्ट सहकर भी प्रेम का निर्वाह करता है। तभी तो गोपियाँ उद्धव द्वारा दिए जाने वाले निर्गुण ब्रह्म के उपदेश के बदले उसे फटकार लगाती है, उसे मानसिक रूप से बीमार बताती हैं क्योंकि वे कृष्ण से दूर रहकर भी उनके प्रति अपने प्रेम को कम नहीं होने देती।
सूरदास के पश्चात् अनेक भक्तिकालीन कवियों ने इस प्रसंग को अपने काव्य को आधार बनाया। कवि नंददास ने इस प्रसंग को लेकर ‘भँवरगीत’ काव्य की रचना की। उन्होंने इसकी रचना प्रबंध शैली में की है जबकि सूरदास ने मुक्तक शैली में की है। सूरदास की भाँति नंददास ने भी निर्गुण, ज्ञान-योग के ऊपर सगुण भक्ति की विजय दिखाई है किन्तु जहाँ सूरदास ने निर्गुण-सगुण का द्वन्द्व मनोवैज्ञानिक भावभूमि पर दिखाया है। नंददास की ‘भँवरगीत’ की गोपियाँ सूरदास की ‘भ्रमरगीत’ की गोपियों के समान भोली-भाली नहीं बल्कि दर्शनशास्त्र की ज्ञाता हैं वे अपनी तार्किक बुद्धि के आधार पर निर्गुण के ऊपर सगुण, ज्ञान और योग के ऊपर भक्ति और प्रेम की पताका लहराती हुई विजय का उद्घोष करती हैं। भँवरगीत पूर्वार्द्ध में उद्धव-गोपी संवाद है और उत्तरार्द्ध में कृष्ण के वियोग में गोपियों की विरह-दशा का वर्णन है। ‘भँवरगीत’ की गोपियाँ चतुर तथा तर्क-वितर्क करने वाली हैं। वे उद्धव को मुँहतोड़ जवाब देती हैं उनको उन्हीं के द्वारा बोले गए शब्दों में उलझा देती हैं। जब उद्धव गोपियों के समक्ष निर्गुण ब्रह्म का उपदेश देते हुए कहते हैं-
‘‘जो उनके गुन होय बेद क्यों नेति बखाने।’’
तो गोपियाँ तुरंत पलटवार करती हुई कहती हैंः-
‘‘हो उनके गुन नाँय और गुन भये कहाँ ते।’’
उद्धव गोपियों को योग-साधना के माध्यम से ब्रह्म की प्राप्ति का उपदेश देते हैं ताकि गोपियाँ कृष्ण को भुला सकें और अपना ध्यान कही और लगा सकें। किन्तु गोपियाँ कृष्ण के प्रति अपने निश्छल और एकनिष्ठ प्रेम को समाप्त नहीं करना चाहती और जब उद्धव उन्हें निर्गुण ब्रह्म की उपासना करने के लिए कहते हैं-
‘‘यह सब सगुण उपाधि रूप निर्गुण है उनको
निरविकार, निरलेप, लगत नहीं तीनों गुन को।
हाथ न पाँव न नासिका, नैन-बैन नहीं कान
अच्युत ज्योति प्रकाश है, सकल विश्व के प्रान।’’
गोपियाँ उद्धव को मुँह तोड़ जवाब देती हुई कहती हैं-
‘‘जो मुख नाहिन हुतौ, कहौ किन माखन खायो।
पाँयन बिन गो संग, कहौ बन-बन को धायौ।’’
अतः कहा जा सकता है कि 16वीं-शताब्दी में भी स्त्रियाँ कमजोर नहीं थी। वे खुलकर बोलती थी। प्रश्नोत्तरी करती थी। मुँहतोड़ जवाब देती थी। वे किसी भी बात को सिर झुकाकर चुपचाप नहीं सुनती थी। अपने साथ हुए गलत व्यवहार का प्रतिवाद भी करती थी। नंददास की ‘भँवरगीत’ की स्त्रियाँ भी डरपोक तथा भीरू नहीं बल्कि चतुर तथा तर्क-वितर्क करने वाली हैं। इससे पता चलता है कि ये स्त्रियाँ बंधन या कैद से धीरे-धीरे मुक्त होने का प्रयास कर रही थी।
अष्टछाप के कवि परमानंददास ने भी स्त्री मुक्ति के प्रश्न को उठाया है। स्वतंत्र रूप से भ्रमरगीत-काव्य की रचना नहीं अपितु ‘गोपी-उद्धव’ संवाद के रूप में इस प्रसंग से सम्बन्धित पदों की रचना की है उन्होंने भी निर्गुण का निराकरण और सगुण का प्रतिपादन किया है। वे भी ईश्वर के सगुण-साकार रूप को ही महत्त्व देते हैं। वे कृष्ण को ही सारे संसार का स्वामी मानते हैं। वे कृष्ण के पे्रम में, विरह की आयु में तपित गोपियों की दशा का वर्णन करते हैं। उनकी गोपियाँ अपने विरह को भी नहीं दबाती (छुपाती) वे उसको भी खुलकर व्यक्त करती हैं। एक सखी दूसरी सखी से अपने विरह का वर्णन करती हुई कहती हैं-
‘‘मोहन वह क्यों प्रीत बिसारी
कहत सुनत समुझत उर अंतर दुख लागत है भारी
एक दिवस खेलत वन भीतर वैन सुहना संवारी।
बीनत फूल गयो दुभि कंटक ऐसी बिथा बियारी।
हम पर कठिन हृदय अब कीनो लोल गोवर्धनधारी।
परमानंद बलबीर बिना हम मरत बिरह की जारी।’’
गोस्वामी तुलसीदास ने भी ‘भ्रमरगीत’ प्रसंग को अपनी रचना ‘कृष्णगीतावली’ में स्थान दिया है। उनका भी उद्देश्य निर्गुण की अपेक्षा सगुण का प्रतिपादन करना ही रहा है। उन्होंने भँवरे का प्रवेश नहीं दिखाया है बल्कि उद्धव के लिए ‘मधुकर’ शब्द का प्रयोग किया है। वे भी स्त्रियों के प्रति सहानुभूति रखते हैं किन्तु उनकी गोपियाँ न तो सूरदास की गोपियों की भांति वाग्वैदग्ध्य हैं और न ही नंददास की गोपियों की तरह तार्किक ही हैं। वे सरल तथा सहज हैं। वे अपनी बात को उद्धव के समक्ष बहुत ही सामान्य तरीके से रखती हैं किन्तु उनकी इस सरलता में बहुत गंभीरता है, बहुत पीड़ा है और बड़ी सी बड़ी बात को सरलता से कह देने की कलात्मकता भी है। ये स्त्री के उस पक्ष को उद्घाटित करती है जो दिखने में बहुत शांत तथा सरल लगती है किन्तु उनके भीतर परिवर्तन की अथाह कामना भरी होती है। तभी तो वे उद्धव को उनके द्वारा दिए गए निर्गुण ब्रह्म के पाठ (उपदेश) का जवाब बड़ी ही शालीनता से देती हैं। अपनी बात भी कह देती हैं और वाद-प्रतिवाद से भी बच जाती हैं। वे कहती हैं-
ऊधौ या ब्रज की दसा बिचारो।
ता पाछे यह सिद्धि आपनी जोग कथा विस्तारो।।
जा कारन पठये तुम माधव सो सोचतु मन माँही।
केतिक बीय विरह परमारथ जानत हौ किधौ नहीं।
ग ग ग ग
वह अति ललित मनोहर पावन कौन जतन बिसारौ।
जो-जुगति अरु मुक्ति विविध विधि वा मुरली पर वारो।
जेहि उर बसत श्याम सुन्दर घन तेहि निर्गुन करन आवै।।
तुलसीदास सो भजन बहाओ, जाहि दूसरौ भावै।।’’
भक्तिकाल के पश्चात् अनेक रीतिकालीन कवियों ने भी भ्रमरगीत प्रसंग को अपनी काव्य-रचना का आधार बनाया। किन्तु उद्देश्य की दृष्टि से इन कवियों की रचनाएँ भक्तिकालीन कवियों से भिन्न हंै। रीतिकालीन कवि निर्गुण-सगुण के वाद-विवाद में नहीं पड़े बल्कि वे राधा और कृष्ण के माध्यम से प्रेम को प्रदर्शित करते हैं। इन कवियों ने भ्रमर-प्रवेश आदि की कोई सुनियोजित योजना नहीं अपनायी सिर्फ मधुप, मधुकर आदि शब्दों के माध्यम से ही पदों की रचना की और भ्रमरगीत परम्परा का अनुसरण किया। देव, मतिराम, घनानंद आदि कवियों ने भ्रमरगीत प्रसंग को इसी आधार पर अपनी रचनाओं में दिखाया है। रीतिकालीन स्त्रियाँ अपने प्रेम को बेबाक होकर प्रकट करती हैं। वे प्रेम को छुपाती नहीं हैं। उनमें इतनी हिम्मत, इतनी साहस है कि वो बिना समाज, परिवार की चिन्ता किए, लोक-लाज त्यागकर कृष्ण के प्रति अपने प्रेम को बेझिझक व्यक्त करती हैं। कवि देव ने अपनी रचना में दिखाया है कि किस प्रकार गोपियाँ उद्धव के द्वारा अपना प्रेम-संदेश कृष्ण के पास भेजती हैं। वे एक गोपी के मुख से कहवाते हैं-
‘‘रावरौ रूप रघौ भरि नैननि, बैननि के रस सो स्रुति सानौ।
गात में देखत गात तुम्हारे ई, बात तुम्हारियै बात बखानौ।
ऊधौ हहा हरि सो कहियौ, तुम हौ न इहाँ, यह हौ नहि मानौ।
या तन ते बिछरे तौ कहा, मन तै अनत बसौ तब जानौ।’’
कवि भिखारीदास ने भी ‘भ्रमरगीत’ प्रसंग को लेकर अत्यंत मार्मिक पदों की रचना की है। इनकी गोपियाँ भावुक एवं चतुर भी हैं। वे आसानी से किसी की बातों में आने वाली नहीं हैं और हर समस्या का सामना वे बड़ी चतुराई से करती हैं। जहाँ एक ओर वे उद्धव के ज्ञान उपदेश से उत्तेजित होकर भाव-विह्वल हो जाती हैं तो वहीं दूसरी ओर वे उद्धव से स्पष्ट कह देती हैं कि वे उन्हें मथुरा ले चले कृष्ण के पास ताकि वे स्वयं कृष्ण से स्पष्ट बात कर सकें। वे उद्धव से कुब्जा के सम्बन्ध पर व्यंग्य करती हुई कहती हैं-
‘‘ऊधौ! तहांई चलो ले हमें जहँ कूबरी कान्ह बसै एक ठौंरी!
देखिए ‘दास’ अधाय, तिहारे प्रसाद मनोहर जोरी।
कूबरी सो कछू पाइए मंत्र, लगाइए कान्ह सों प्रीति की डोरी।
कूबरी भक्ति बढ़ाइए, बन्दि चढ़ाइए चन्दन वन्दन रोरी।’’
इस प्रकार रीतिकालीन कवियों ने भ्रमरगीत-प्रसंग को अपने काव्य का आधार बनाया। उन्होंने विप्रलम्भ शृंगार के चित्रण हेतु इस प्रसंग को अपने काव्य में स्थान दिया। साथ ही उद्धव-गोपी संवाद द्वारा निर्गुण-सगुण का द्वन्द्व दिखाकर गोपियों की सगुण के प्रति आस्था को भी व्यक्त किया है लेकिन सूर की भांति इस प्रसंग को न तो वे कोई मौलिकता प्रदान कर सकें और न ही कोई स्थायी दृष्टिगोण दे सकें।
भक्ति और रीतिकालीन कवियों की भाँति आधुनिककालीन कवियों ने भी भ्रमरगीत-प्रसंग को लेकर काव्य-रचना की। इन कवियों में अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’, मैथिलीशरण गुप्त एवं सत्यनारायण ‘कविरत्न’ का नाम उल्लेखनीय है। ‘हरिऔध’ ने अपने महाकाव्य ‘प्रियप्रवास’ में ‘भ्रमरगीत’ प्रसंग को बड़े ही मौलिक रूप में व्यक्त किया है। इसमें उन्होंने उद्धव-गोपी संवाद के माध्यम से गोपियों द्वारा उद्धव का परिहास, कृष्ण के प्रति उलाहना आदि का बड़ा ही मार्मिक वर्णन किया है। ‘प्रियप्रवास’ में ‘हरिऔध’ ने भ्रमर-प्रवेश का उल्लेख किया है। लेकिन पूर्व भ्रमरगीतों की भाँति विरह की गहनता एवं पीड़ा का वर्णन तथा वह उद्देश्य प्रियप्रवास में नहीं है। गोपियाँ विरह से पीडित हैं किन्तु वे अपना विवेक नहीं खोती, अतः वे विवेकशील हैं और कृष्ण की विवशता को भी समझती हैं कि वो क्यूँ ब्रज नहीं आ पा रहे हैं। कवि ने राधा को भी बहुत सहनशील तथा संयमित दिखाया है। तभी तो वे उद्धव से कहती हैं-
‘‘जाके मेरी विनय इतनी नम्रता से सुनावे।
मेरे प्यारे कुँवर वर को आप सौजन्य द्वारा।
मैं ऐसी हूँ न निज-दुख कष्टिता शोकमग्ना।
हा! जैसी हूँ व्यथित ब्रजवासियों के दुःखों से।’’
इस प्रकार कवि ने अपनी काव्य-प्रतिभा के बल पर भ्रमरगीत प्रसंग को एक नया मोड़ दिया है। उन्होंने स्त्रियों को स्वार्थी, कपटी न दिखाकर एक समाज-सेवी दिखाया है जो सिर्फ अपने ही बारे में नहीं सोचती बल्कि समाज के बारे में सोचती है। इससे पता चलता है कि आधुनिक कवियों ने न सिर्फ स्त्रियाँ कमजोर दिखाया है। बल्कि सामाजिक कार्यों की ओर उसके बढ़ते कदम को भी दिखाया है। अतः इन कवियों ने स्त्रियों को चाहरदीवारी से बाहर निकालकर समाज सेवा की ओर अग्रसर होते दिखाया है।
जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’ ने भी भक्तिकालीन भक्ति-भावना और रीतिकालीन चमत्कारिप्रियता दोनों का समन्वय अपनी रचना ‘उद्धव शतक’ में किया है। ‘उद्धव-शतक’ में उन्होंने भ्रमरगीत परम्परा की बड़ी सरस, मनोहर एवं मार्मिक रचना की है। रत्नाकर जी के उद्धव निर्गुण ब्रह्म के समर्थक हैं। ज्ञान का उन्हें गर्व है। उनकी गोपियाँ वाक्पटु एवं तर्कशील दोनों हैं। तभी तो उद्धव से कह उठती हैं कि कृष्ण को वे नहीं छोड़ सकती। हम कुल, मान-मर्यादा सब कुछ तो कृष्ण के लिए छोड़ चुकी हंै। जब हम कृष्ण पर अपना सब कुछ न्यौच्छावर कर चुके हैं तो हम किसी और की आराधना क्यूँ करें। वे उद्धव से कहती हैं-
‘‘मान्यौ हव-कान्ह ब्रह्म एक ही, कहौ जो तुम
लौहूँ हमैं भावति न भावना अन्यारी की।’’
आधुनिककाल के अन्य कवियों की भांति सत्यनारायण ‘कविरत्न’ ने काव्य ‘भ्रमरदूत’ की रचना की। इस काव्य में संदेश मथुरा से गोकुल न आकर बल्कि गोकुल से मथुरा को जाता है। इसमें संदेश भेजने वाली माता-यशोदा हैं। इसमें कवि ने यशोदा के द्वारा आधुनिक वातावरण तथा देश की स्थिति का वर्णन कराया है। यशोदा अपने संदेश में बताती है कि नगर में न शुद्ध दूध मिलता होगा, न जी भर मक्खन कान्हा को ये वस्तुएँ कहाँ मिलती होगी। वहाँ का तो प्रेम भी छलावा है। इस प्रकार यशोदा आधुनिक फैशन वाली युवतियों पर कटाक्ष करती हुई कहती हैंः-
‘‘अब की गोपी मदभरी, अक्षर चले डिगुलांय।
चारि दिना की छोकरी, इतनी गई इतराय।।
जहा देखा तहाँ।’’
कवि मैथिलीशरण गुप्त ने भी अपने काव्य ‘द्वापर’ में इस प्रसंग को दिखाया है। इसमें उद्धव यशोदा माँ और गोपियों को सांत्वना देते हैं किन्तु गुप्त जी की गोपियाँ वाक्पटु हैं। वे खुले-विचारोवाली तथा तीव्र बुद्धि हैं। तभी तो वह उद्धव को फटकार लगाती हुई कहती हैं-
‘‘होगा निर्गुण निराकार छली तुम्हारे लेखे,
हमसे पूछी तुम उसके गुन रूप हमारे देखा।
अन्तर्दृष्टि मिले तो हम भी शून्य देख ले अब के।
पर जब तक है, कहो क्या करें, चम-चक्षु हम सबके हैं।’’
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि ‘भ्रमरगीत’ परम्परा में भक्तिकाल से लेकर रीतिकाल तथा आधुनिककाल तक अनेक कवियों ने अपना योगदान दिया है। और सभी कवियों ने भ्रमरगीत प्रसंग को बड़ी ही मार्मिकता से व्यक्त किया है। उस समय की परिस्थितियों के अनुरूप निर्गुण पर सगुण, ज्ञान पर भक्ति और योग पर प्रेम की विजय दिखाकर भी इन कवियों ने इस प्रसंग को महत्त्वपूर्ण बना दिया है। किन्तु ये सभी कवि कथानक एवं रूप-विधान, अभिव्यक्ति-विधान की दृष्टि से सूर से प्रभावित हैं। काव्य-कला की दृष्टि से भी इस परम्परा के सभी कवि सूरदास से काफी पीछे हैं। सूरदास की वाग्विदग्धता, निर्गुण पर सगुण की विजय की योजना, उपालम्भ, विरह वर्णन, अभिव्यंजना, शिल्प-पक्ष आदि तत्त्व उनकी श्रेष्ठता को सिद्ध करती हैं।
– डाॅ. मनोरमा गौतम