ग़ज़ल
ग़ज़ल
ख़ुद-परस्ती बन गई इंसान की पहचान क्यूँ
है कहाँ जज़्ब-ए-वफ़ा, बिकने लगा ईमान क्यूँ
जान से प्यारे कभी होते थे रिश्ते, अब मगर
हो गई बुनियाद रिश्तों की नफ़ा-नुक़सान क्यूँ
ख़ुद में डूबा हर बशर है, मुल्क की परवा किसे
रो रहा बेबस, अकेला, मेरा हिन्दुस्तान क्यूँ
बात होती थी तरक़्क़ी की चुनावों में बहुत
फिर सियासत का मगर मुद्दा हुआ भगवान क्यूँ
है यहाँ जनतंत्र, लेकिन है कहाँ जनतंत्र ये
खा गया है इस को मज़हब, ज़ातो-ख़ानदान क्यूँ
जुर्म तो आवाम का भी है कभी सोचा है ये
चोर, गुंडे बन रहे हैं अब सियासतदान क्यूँ
स्वच्छ भारत की मुहिमों पर हमें है नाज़, पर
बन रहा है देश का जनतंत्र कूड़ेदान क्यूँ
सिर्फ छब्बीस जनवरी, पंद्रह अगस्त ही के लिए
देशभक्ति दो दिनों की हो गई मेहमान क्यूँ
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ग़ज़ल
कभी मिलते थे जो मुझसे गले का हार बनकर
क़लम करने चले हैं सर मेरा तलवार बनकर
कहाँ थी दुश्मनों के बाज़ुओं में जान इतनी
मुहब्बत से मुझे मारा है उसने यार बनकर
न था मंज़ूर मुझको प्यार में सौदा, वगरना
खड़ी थी सामने दुनिया मेरे, बाज़ार बनकर
इधर थी मुफ़लिसी मेरी उधर दौलत जहाँ की
मुझे रोका शराफ़त ने मेरी, दीवार बनकर
सजाये थे कभी उल्फ़त में जितने ख़्वाब मैंने
मेरी आँखों से बह गए आँसुओं की धार बनकर
तेरी महफ़िल में कल नामो-निशाँ मेरा न होगा
मगर दिल में तेरे ज़िंदा रहूँगा प्यार बनकर
दिये हैं ज़ख़्म जो तूने मुझे जौर-ओ-जफ़ा से
मेरी ग़ज़लों में रह जायेंगे सब अशआर बनकर
– डॉ. मनोज कुमार मनु