मूल्यांकन
यथार्थ से परिचित कराता हुआ ‘सतरंगे स्वप्नों के शिखर’: डाॅ. बोस्की मैंगी
गुरुनानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर में हिन्दी-विभाग की सेवा निवृत अध्यक्षा डाॅ. मधु सन्धु साहित्य के क्षेत्र में सक्रिय भूमिका का निर्वाह कर रही है। हाल में ही अयन प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित उनका प्रथम काव्य संग्रह ‘’सतरंगे स्वप्नों के शिखर’’ मुझे मिला, जिसे प्राप्त कर मुझे हार्दिक प्रसन्नता हुई। कुल 110 पृष्ठीय इस काव्य-संग्रह में 49 कविताएँ प्रस्तुत की गई है, जिसके अंतर्गत 5 क्षणिकाएँ भी शामिल हैं। इसमें प्रकाशित सभी कविताएँ समय-समय पर सृजनलोक, संवेद, संचेतना , हरिगंधा, पंजाबी संस्कृति, अनुभुति, वेब दुनिया, गर्भनाल, रचना समय, रचनाकार आदि प्रिंट मीडिया और वेब पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी है।
यथार्थ जीवन से जुड़े विविध पक्षों को कविता के माध्यम से बड़ी खूबसूरती के साथ प्रस्तुत किया गया है। इन कविताओं में नारी जीवनानुभूति की गंभीर एवं सूक्ष्मतम अभिव्यंजना हुई है। मधु जी अपनी जड़ों से जुड़ी कवयित्री हैं। उनकी कृतियों में माँ है, पत्नी है, बेटी है, नाती-नातिन है। ’माँ और मैं’, ’दीपावली’, ’गुडि़या’, ’माँ’ आदि कविताओं में माँ का निःस्वार्थ उत्तरदायित्व भाव, माँ होने के सुखद अहसास का वर्णन है, जो हर दुख, उलझन, पीड़ा में समाधानों की पिटारी खोलती है। कवयित्री कहती है-
वयः संधि में सदा के लिए
छोड़ जाने वाली,
मेरी माँ
आज भी मेरे आसपास है
एक सुखद अहसास है। (पृ. 98)
बेटियाँ शापित नहीं, बल्कि कर्णधार हैं। वे ’वस्तु’, मुद्राव्यापार का ज़रिया न होकर, अर्थतंत्र से मुक्त होकर सुरक्षा कवच, संरक्षक की भूमिका का निर्वाह कर रही हैं। ’बिटिया की विदाई पर’ कविता में बेटियों से बिछुड़ने का यथार्थ चित्रण मिलता है। जैसे-
डोली से पहले रस्म शगुन
मुट्ठियाँ भर-भर की अन्न बौछार
पर मन के धान सब सूब चुके
बची शेष अश्रु की तीव्र धार। (पृ. 109)
‘लड़कियों’ में वर्तवान नारी स्थिति का अंकन है, जो घर- परिवार से लेकर राष्ट्रीय- अंतर्राष्ट्रीय मानचित्र पर अपनी छाप बनाये हुए हैं।
मेरे देश की लड़कियाँ, तेरे देश की लड़कियाँ
छत की खोज में, पाँव तले ज़मीन को
आसमान बनाती लड़कियाँ (पृ. 97)
इसी कविता ’लड़कियाँ’ और ’बाज़ारवाद’ के संदर्भ में ब्रिटेन से प्राण शर्मा भी लिखते है, “मधु जी की दोनों कवितायें पूरा प्रभाव छोड़ती हैं। इनमें सुन्दर एवं सहज भावाभिव्यक्ति हुई है। सुरेश यादव का कथन है, “यह कविताएँ अपने समय से सवाल करती और संवेदना की अलग ज़मीन का विस्तार भी करती हैं (पृ. 5-6) ’मेरी बेटी के नन्हें से बेटे’ कवयित्री के भोगे हुए यथार्थ का चित्रण प्रस्तुत करती है। इसमें पारिवारिक सम्बन्धों की गहन ऊष्णता है। इसकी अभिव्यक्ति वह इन शब्दों में करती है-
जब तुम जाते हो,
सर्वज्ञ,
तो भी एक जादुई सम्मोहन,
घिरा रहता है, हर ओर।
मेरी बेटी के नन्हें से बेटे। (पृ. 63)
यहां सर्वज्ञ सम्बोधन उनके नातिन से है। ’आकांक्षा’ में कन्या भ्रूण हत्या का अंकन पुरुष सत्ता को दर्शाता है। नारी आकांक्षाएं लिए हुई है परन्तु इन इच्छाओं की पूर्ति का रास्ता, पिता, पुत्र, भाई के माध्यम से निकलता है। ’अचेतन’ नारी मन में असुरक्षा के भाव को उद्घाटित करता है। यह असुरक्षा एक पत्नी, माँ बेटी रुप में उसके अवचेतन मन में विद्यमान है। पुरुष सत्ता प्रधान समाज में नारी मन में देखे गए स्वप्नों को टूटते दिखाया गया है। इसकी अभिव्यक्ति ’मेंरी उम्र सिर्फ उतनी थी’ में हुआ है। ’स्त्री-विमर्श’ में मधु जी ने द्वापर युग, त्रेता युग की उदात्त स्त्री पात्रों के ज़रिये, जिन्हें हमारा समाज आदर्श रुप में मानता है, उनकी मजबूरी, असहाय रुप, उनकी वेदना-टीस को उभारा है। ’औरत’ में स्त्री नदी का प्रतीक है और सागर पुरुष का। नदी धरती को उर्वरा करती है, जीव-जन्तुओं की प्यास तो बुझाती है परन्तु उसकी नियति सागर है। सागर से मिलते ही वह अस्तित्व खो जाती है। ’सुख’ कविता में स्त्री स्वतन्त्रता पर प्रश्न चिन्ह लगा है। कवयित्री प्रश्न करती है- “पुरुष की सत्ता में ही रह कर क्या स्त्री को अपना जीवन व्यतीत करना चाहिए? घर की चारदीवारी ही क्या उसका जीवन है?”
सुख तो वहीं पड़ा था, भाई के वर्चस्व में
पिता की वर्जनाओं में, स्वामी के चराणों में
लतियाते घूंसो में। (पृ. 47)
’हाशिया’ इस व्यथा को लिये हुए है कि सुशिक्षित, आत्मनिर्भर होने पर भी स्त्री को हाशिए से बाहर समझा जाता है। आज भी समाज में नं. 2 का दर्जा प्राप्त है। यही आधी दुनिया का सच है। ’विस्थापन पुनर्वास के लिए अभिशप्त बेटियाँ’ में स्त्री जीवन में आए विविध परिवर्तनों को उजागर किया है। ’स्त्री’, ’प्रजनन’, ’अर्थ स्वतंत्र स्त्री’, ’रागात्मकता’ भी स्त्री विमर्श से जुड़े पहलुओं पर प्रकाश डालती है। कवयित्री स्त्री को धरती माँ से ऊपर का दर्जा प्रदान करती है। वह स्त्री प्रजनन की पीड़ा झेलती है, धैर्य धारण करती है। जीवन-मुत्यु के संत्रास से गुजरती है। ’स्त्री पुरुष’ में पुरुष सत्ता पर कटाक्ष करते हुए नारी वर्चस्व को दर्शाया है, जैसे-
सुना मेरे ब्रहम,
मेरे सृष्टि सर्जक,
जगत जननी ही,
मेरी सृष्टि का सत्य है।
यह बात मुझे युगों पहले समझनी चाहिए थी,
चलो आज ही सही,
21वीं शती के इस पूर्वाद्र्व में,
क्योंकि कहते हैं-
तुम्हारे घर में देर है, अंधेर नहीं। (पृ. 39)
समीक्ष्य काव्य संग्रह में स्त्री विमर्श के विविध पहलूओं के साथ कवयित्री ने अन्य सामाजिक यथार्थ से भी परिचित किया है। ’पंचतत्व’ में भौतिक संसाधनों की भागदौड़ में व्यक्ति लगा हुआ है, वहीं ’शनिदेवता’ में इस व्यथा को उजागर किया गया है कि सप्ताह का शनिवार का दिन ही चहल-पहल का दिन एक जो भागदौड़ भरी जि़न्दगी में एक -दूसरे को पास लाता है। ’प्रतिभा प्रवास’ में देश की अर्थव्यवस्था पर व्यंग्य किया है। युवा वर्ग देश में बेरोज़गारी के कारण वनवासी की तरह भटक रहा है। अपने सतरंगे स्वप्नों की पूर्ति हेतु वह प्रवास का रुख कर रहा है। ’महारावण’ में वर्तमान सामाजिक परिस्थितियों के संदर्भ में डगमगाती आस्था को अभिव्यक्ति दी है। कवयित्री कहती है-
कितना बड़ा झूठ है कि रावण मरते हैं
उन्हें मारने के लिए, राम की नहीं
महारावण की आवश्यकता है। (पृ.15-16)
’सहोदर’ बाल मनोविज्ञान का पृट लिये है। ’अकेलापन’, ’वेदना’ यान्त्रिक युग की व्यथा को बयान करती कविताएँ हैं। जहां व्यक्ति अपनी व्यस्ताओं के चलते संवेदना शून्य बन गया है।
’ऐंटरैंस’, ’संगोष्ठी’ शिक्षा क्षेत्र में पनपे भ्रष्टाचार बाज़ारीकरण को प्रस्तुत करती कविताएँ हैं। संगोष्ठियों में पढ़े जाने वाला प्रपत्र संवाद-परिसंवाद, चिन्तन का विषय न होकर मात्र प्रमोशन का ज़रिया है, प्रमाण पत्र बटोरने का ज़रिया है। ’पर्यावरण’ ’बौने वृक्ष’ में पर्यावरण केन्द्र में है। बढ़ रही मोबाइल टावरों की संख्या ने पर्यावरण को प्रभावित किया है। पक्षियों की प्रजातियां विलुप्त होने के कगार पर है। आज प्रोद्यौगिकी सूचना तंत्र ने मानवीय संवेदनाओं-सम्बन्धों को भी शिथिल किया है, निश्चित ही यह विचारणीय प्रश्न है। ’धरोहर’ वृद्वा-विमर्श को लिये कविता है। ’युद्ध’ में युद्ध के भय से त्रास्मय सीमावर्ती लोगों के दुखान्त को उद्घाटित किया है। कवयित्री ने क्षणिकाओं के अन्तर्गत मध्यवर्ग की उच्चवर्ग तक पहुंचने की लालसा, संतों महात्माओं के चरित्र, उनके द्वारा लोगों से ज्यादा से ज्यादा धन बटोरने की लालसा आदि पर विचार किया है। पूर्ण काव्य-संग्रह का अवलोकन करने पर यह बात तो स्पष्ट है कि मधु जी की पैनी दृष्टि से कोई भी विषय छूट नहीं पाया। आपकी कविताएँ यथार्थ के अधिक निकट हैं। अगर इसे भेागा हुआ यथार्थ भी कहें तो अतिश्योक्ति न होगी। इसलिए इस काव्य-संकलन की सार्थकता स्वयंसिद्ध है। आपका सृजन-श्रम निश्चय ही सराहनीय है।
समीक्ष्य पुस्तक- सतरंगे स्वप्नों के शिखर
रचनाकार- डाॅ. मधु सन्धु
प्रकाशन- अयन प्रकाशन, नई दिल्ली
प्रथम संस्करण- 2015
पृ. संख्या-110
– डॉ. बॉस्की मैंगी