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व्यवस्था का पोस्टमार्टम करतीं जगूड़ी की कविताएँ: डॉ. भारती अग्रवाल
समाज में कविता गढ़ी और बुनी जाती है और कविता में समाज गढ़ता, बुनता, उतरता चलता है। समाज और कविता के अंत:संबंधों को मजबूत करने वाली कड़ी साहित्यकार होता है, जो समाज में रहते हुए तटस्थ, निरपेक्ष, वैरागी की भूमिका निभाता है और समाज एवं उसके परिवेश को अपने साहित्य फलक पर उकेरता है । इस सच का एक पहलू यह भी है कि निरपेक्षता में पक्ष और वैरागी में राग छिपा रहता है। साहित्यकार तमाम बंदिशों से मुक्त होने के बावज़ूद सत्यता के प्रति पक्षधरता और मानवता के प्रतिराग रखता है। समाज की विभिन्न परिस्थितियों के चित्राकंन में यही मूल स्वर सुनाई देता है। लीलाधर जगूड़ी की कविताएँ भी अपने समय, परिवेश का चित्राकंन करती हैं। इस चित्राकंन में उनकी लगातार बैचेन मानवीयता धृतराष्ट्रीय व्यवस्था में सत्यता, मानवीय संवेदना को खोजती दिखाई देती है। जिस समय जगूड़ी लिख रहे थे वह समय ऐसा था, जब व्यक्ति मशीनों का दास हो रहा था। केवल इतना ही नहीं उसकी आवश्यकताएँ, संवेदनाएँ सब मशीनी हो रहीं थीं। मानवीय मूल्य, सिद्धान्त खोखले हो कर ढ़ह रहे थे। वसुधैव कुटम्बकम और स्वतंत्रता जैसे परम मानवीय शब्दों के यांत्रिक शब्द गढ़े जा रहे थे।यथार्थ से भरपूर व्यक्ति समाज में रहकर भी समाज से विरक्त ‘मैं‘ के खोल में सिमटा हुआ था। पंचवर्षीय योजनाएँ विफल हो रहीं थीं, जो सपने देखकर आम भारतीय जन आजादी के साल दर साल गुज़ार रहा था उसकी सच्चाई उसे दिखने लगी थी, या यूँ कहें कि मोह भंग हो रहा था, यही कारण था उनकी आत्मा भटक कर मर चुकी थी।
लीलाधर तो समय की धड़कती हुई हर छोटी, महीन नब्ज़ को सुन परख रहे थे। वो जान रहे थे कि जिस शाफ़-शफ्फाक़ व्यवस्था को आम भारतीय नागरिक आँखों में सजाए है वो अभावों के आंसुओं में बहकर विगत हो रहा है। सत्ताधीश, जनकल्याण के लिए समाज की व्यवस्था नहीं कर रहे बल्कि मेज, कुर्सी, लाभ-हानि, व्यापार, भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद की व्यवस्था कर रहें हैं। सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि स्वस्थ संगच्छध्वं, संवदध्वं वाली व्यवस्था में लोलुपता, सेंध लगाते सत्ताधीशों, व्यापारियों की अव्यवस्था पनपने लगी थी और इस अव्यवस्था में परस्पर मजबूत संबंध पनप रहा था। आज इक्कीसवीं सदी में यह पूर्णत: पल्लवित पोषित होकर अव्यवस्था की व्यवस्था गहरी जड़ें जमा चुकीं हैं। हत्यारा, बुरे वक्त की कविता, भय शक्ति देता है, बच्चा और राजनीति, चुल्लू की आत्मकथा, नाटक जारी है, उच्चैश्रवा, बलदेव खटिक और इसी तरह की तमाम कविताएँ व्यवस्था में पसरी अव्यवस्था और अव्यवस्था के गहरे में पैठी व्यवस्था का पोस्टमार्टम करती हैं। इस पोस्टमार्टम में कवि को आत्मा कहीं नहीं दिखाई देती और उसे लगता है सब कुछ अर्थ के दम पर खरीदे जाने वाले य़ुग में आत्मा को भी शरीर का महत्वपूर्ण हिस्सा मानकर कुछ मजबूत बौने लोगों ने खरीद लिया है। ‘घबराए हुए शब्द’ कविता में कवि इसकी मार्मिक अभिव्यक्ति करता हुआ कहता है–
“आत्मा किस अठन्नी का नाम है
आदमी बिकता है…….
सिक्के सारी दुनिया खरीद लेंगें।”1
सन् 1981 का यह समय आज बीत कर भी नहीं बीता। जब भी लड़ाई अपनों की अपनों से हो रही थी और आज भी जो सबसे अपना दिखाई देता है वही निहित स्वार्थों के चलते अपनों की ही पीठ में छुरा घोंप रहा है। भीतर और बाहर छले हुए मानव के भीतर सभी संवेदनाएँ मशीनी हों गईं हैं। हर्ष, शोक, दुख:, संताप, प्रेम, घृणा सभी भाव टकसाल में छपे हुए सिक्कों की भाँति अपना हित साधने आते हैं। जगूड़ी ऐसे व्यक्ति को घोर धुर्त, बईमान, चोर कहते हैं—
“बहुत कुछ कमाया आदर, पैसा, नाम वगैरह
उसने एक आदमी को पति, एक को पत्नी
एक को पिता एक को माँ
दोस्त को दुश्मन बना दिया
निश्छल को छल से छल-छला दिया
चिंतित को लम्पट नागरिक बना दिया।”2
कोई भी व्यक्ति सच कहने का, यहाँ तक की सच की ओर खड़े दिखने का खतरा उठाने को तैयार नहीं। अपनी सुविधाओं के खोल में छुपे सभी पानी की दिशा में बहते दिखाई देते हैं। यह घोर मूल्यहीनता के संकट का दौर है। जिसमें किसी को किसी पर भरोसा नहीं। कोई किसी के लिए स्वपन नही बुनता। लोग संशय, उदासीन और दुविधाग्रस्त हैं। चारों ओर ऊब, मुखौटे, स्वार्थ से अटे लोग एक-दूसरे के जूते में पाँव फँसाने में लगे हुए हैं। इस सारी मूल्यांधता की जड़ उद्यौगीकरण, शहरीकरण और उससे उपजे मंड़ीकरण में दिखाई देती है। जर्मन दार्शनिक ‘स्पैगंलर’ अपनी पुस्तक ‘डिक्लाईन ऑफ द वेस्ट’ में मानव में बढ़ती मूल्यांधता पर विचार करते हुए लिखतें हैं—“संस्कृति कृषि से उत्पन्न होती है और उसमें हृदय या आत्मा का निवास होता है, परन्तु सभ्यता नगरों से संबंद्ध होती है, उसमें आत्मा का नामोनिशान नही होता। यह बुद्धि से संचालित होती है और ईमानदारी तथा सत्य को ताक पर रख देती है।”3 संस्कृति में गाँव या कस्बे प्रमुख होते हैं, उन्हीं के विचार या मान्यताएँ, संपूर्ण राष्ट्र या मानवता के विचार और मान्यताएँ होतें हैं। “सभ्यता में नगर प्रमुख होते हैं और उनकी जीवन-प्रणाली समूची मानवता की जीवन-प्रणाली बन जाती है।”4 यह जीवन-प्रणाली धनतंत्र को जन्म देती है, जहाँ साधन कुछ भी हो साध्य एक मात्र अर्थ रहता है—
“देखो इस देश की हर सड़क तिजोरी तक जाती है
और तुम्हारे लिए हर पोस्टकार्ड की कीमत बढ़ जाती है”5
व्यक्ति बेतहाशा, बेदिशा होकर भागता जा रहा है सिक्कों की चमक की ओर। वह नहीं समझ पा रहा कि यह धनतंत्र की व्यवस्था एक दिन उसे सिक्कों के नीचे दफना देगी। वह केवल एक मंत्र लेकर घूम रहा है – दुनिया में सब एक वस्तु है और इस वस्तु पर एक प्राइसटैग लगा है। दाम चुकाओ और भुख, प्रेम, घृणा, चुप्पी, समर्थन, न्याय सब पा लो। ‘सर्वगुण कंचनमात्रयंत्रे’ का यह नारा आज भी कुछ लोगों पर पूरी तरह से कारगर है। जगूड़ी को ऐसा नारा, ऐसा मंत्र कभी स्वीकार्य नहीं रहा और वह रोष में भरकर बोल उठे–
“सिक्के के बदले साहस
सिक्के के बदले चुप
सिक्के के बदले व्याख्या
सिक्के के बदले में न्याय”6
आज का अत्याधुनिक युग सिक्के की इस ताकत को बखूबी जान रहा है इसीलिए हड़ताल, ईमानदारी, सत्य, न्याय सब कुछ खरीदा व बेचा जा रहा है। ईमानदार, सत्य पर चलने वाला गरीब, निरन्तर छल-कपट श्रमवीहिन अर्थ के बल पर धनाढ़य अमीर वर्ग से छला जा रहा है। निरन्तर योजनाएँ बनतीं हैं, जहाँ देश को गरीबी से मुक्त करने के वायदे किए जाते हैं। करोड़ों रूपयों को इंधन की तरह खपाने की बात की जाती है परन्तु सब कुछ कागजी, कोरी भाषण बाजी होती है। आपस में बंदर-बाँट होती है। गरीब गरीब ही रहता है अमीर और अमीर बन जाता है। जगूड़ी इस गरीब निरन्तर शोषित वर्ग के साथ खड़े दिखाई देते हैं। वह बड़ी-बड़ी चमचमाती शीशे की दुकानों और उन दुकानों पर लगी पर लगी भीड़, रेडियो पर प्रसारित भारत का विकासशील योजनाओं का सच बखूबी जानते हैं और सच कहने का खतरा भी उठाते हैं– “वह जानता है/ वास्तविक और व्यवस्था में
जो फर्क है/ उसके बीच
कहीं न कहीं एक क्लर्क है/ वह जानता है
फाईल दर फाईल/ नम्बर दर नम्बर
देश ऊँचा उठ रहा है/ रेडियो रोज खबर दे रहा है
देश आत्मनिर्भर हो रहा है/ बाकी क्या नहीं हो रहा है
खाक हो रहा है, कूड़ा हो रहा है /देश धक्के खाता है
जब भी मिलता है/ नक्शों और आँकड़ों से बाहर मिलता है”7
इस व्यवस्था में संतरी से लेकर मंत्री तक सब मिले हुए हैं। गरीब शोषित आखिर जाए तो कहाँ, पनाह पाए तो कहाँ। कानून और व्यवस्था का तंत्र भ्रष्ट हो गया है। देश का रक्षक ही भक्षक बन गया है। एक सर्वहारा दूसरे सर्वहारा को निगलने के लिए तैयार है, जिससे वह पूँजीपती वर्ग में शामिल हो सके। यहाँ तक की यह वर्ग पूँजीपती वर्ग की चापलुसी करके भी स्वयं को भाग्यवान मानता है। पुलिस भी निम्न: मध्यम वर्ग में आती है परन्तु वह जनसाधरण निम्न: वर्ग के जीवन की विवशताओं से बेखबर, उनकी चीखों से बहरी बनी लगातार शोषण करती दिखाई देती है। शक्ति के नशे में चूर ये पुलिस वर्ग बर्बरता की पराकाष्ठा पार कर जाती है। जहाँ भी किसी विद्रोह, हड़ताल, नारेबाजी या भाषायी, सांप्रदायिक उपद्रव हो वहीं पुलिस-कर्मियों की विवेकशून्य कार्यवाही आरम्भ हो जाती है। यही कारण है कि आम आदमी के मन में पुलिसकर्मियों को लेकर भय बना रहता है और अमूमन यही सुना जाता है कि कौन पड़े पुलिस के पचड़े में। वर्दी और थाना की व्यव्स्था इसलिए की गई थी कि समाज और राष्ट्र में व्यवस्था कायम रह सके। आज वही व्यवस्था भ्रष्ट होकर अव्यवस्था को जन्म दे रही है। इन पुलिसकर्मियों को जगूड़ी एक हथियार के रूप में देखते हैं जो अकारण निरन्तर निर्दोष लोगों पर चलता है–
“नौकरी के लिए पढ़कर/ सिफारिश से कुर्सी पर चढ़कर
इस दरमियान मैंने जाना/ कि जनतंत्र में बिल्कुल नया जमाना है
और नागरिकता पर सबसे बड़ा रंदा थाना है।”8
बच्चा और राजनीति, भेद, हत्या, इस व्यवस्था में, बलदेव खटिक आदि रचनाओं में पुलिसकर्मियों के बर्बर अत्याचारों, अमानुषिक कृत्यों एवं अमानुषिक रवैयों का खुलकर वर्णन किया गया है। ‘भेद’ कविता में पुलिस की बर्बरता, क्रूरता और नृशंसता का उद्घाटन हुआ है। पुलिस के अत्याचार, बर्बरता, क्रूरता उनके सार्वभौमिक गुण बने नजर आते हैं, इसलिए जब कभी पुलिस सहज मानवीय व्यवहार करती है तो वह संदेहस्पद, आश्चार्यजनक लगता है। पुलिसकर्मी का आंतरिक स्नेह या आत्मीयता का प्रदर्शन एक स्वपन भर लगता है–
“पुलिस हँस रही है ! पुलिस हँस रही है !”9
पुलिस का हँसना, पुलिसकर्मियों की सहजता पर व्यंग्य है। समाज में पुलिस की छवि सत्ताधीशों, पूंजीपतियों के पालतू कुत्तों के अतिरिक्त कुछ नहीं है। वह हर जगह लूटखसोट करते, रिश्वत खाते, झूठे केस गढ़ते दिखाई देते हैं। ‘हत्या’ कविता में भी पुलिस की सबसे बड़ी समस्या जनता है क्योंकि वास्तविक रूप से इस जनता का खून ही, पुलिस रूपी जोक़ को जिन्दगी देता है। ‘बलदेव खटिक’ कविता में जगह-जगह सरकार, व्यवस्था, दमन, शोषण, भूख, बेचारगी, गावँ के कुत्ते, पुलिस के आचरण आदि ऐसे अनुभव प्रस्तुत किए हैं जो अपनी यथार्थता और व्यंग्यात्मकता में व्यवस्था की परत दर परत खोलते हैं। इस कविता की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि बलदेव खटिक व्यवस्था में रहकर व्यवस्था की अमानवीयता, क्रूरता, शोषण और भ्रष्टाचारको महसूस करता है और उसके खिलाफ बगावत करता है। परिणाम वही होता है जो सच्चे विद्रोही का होता है। सच बोलने और मानवीयता की पक्षधरता की सजा उसे सुनाई जाती है। बलदेव खटिक थाना बिजनौर का अदना सा सिपाही है और इस सिपाही के भीतर जब मानवीयता जागती है तो उसे पागल करार दे दिया जाता है। बलदेव देखता है कि घायल पिता की बेटी को गुण्डे उठा कर ले गए और दीवान शिकायत दर्ज़ कराने के लिए रिश्वत माँग रहा है–
“किस कलम से करुँ?/ चाँदी की कलम से करुँ?
सोने की कलम से करुँ?/ कि लकड़ी की कलम से करुँ?
मार खाया हुआ आदमी रिरयाता है/ कि कानून की कलम से करो।”10
आम शोषित आदमी के लिए न्याय तो दूर की कौड़ी है ही, अपने पर हुए अत्याचार की शिकायत दर्ज करवाना भी गरीब के लिए दुर्भर है। यहाँ चाँदी और सोना सीधे-सीधे रिश्वत के रूप में आए हैं क्योंकि दीवान के अनुसार कानून की कलम लकड़ी की होती है और अगर इससे शिकायत दर्ज करवानी है तो– “तुम कल आना, ग्वाह साथ लाना, डॉक्टर का सर्टिफिकेट भी लाना।”11 यह देखकर बलदेव पागल हो जाता है, पुलिस पागल नहीं हो सकती इसलिए बलदेव को पुलिस पकड़ कर ले जाती है। सबसे पहले उसकी सरकारी वर्दी उतारती है क्योंकि “सरकार पागल नहीं होती/ सरकार अपराधी नहीं होती”12
जगूड़ी सरकारी तंत्र और सरकार पर बेलौस प्रहार करते हैं। वह कहते हैं जो शासनकर्ता है, कुर्सी पर विराजमान है वह कितना भी निरंकुश हो कभी भी गलत, अपराधी नहीं हो सकता क्योंकि यह हक तो शासनकर्ता को है कि वह जिसे चाहे गलत ठहराए, जिसे चाहे सही माने।
लीलाधर जगूड़ी जानते हैं नया निज़ाम नया तंत्र लाता है और नया तंत्र एक नया मंत्र गढ़ता है, परन्तु हर नए मंत्र का एक ही प्रभाव होता है- जनसाधरण का दलन और शोषण चक्र का और अधिक तेजी से चलन, इसलिए जगूड़ी को हर एक नेता झूठा लगता है और चुनावी घोषणाओं के पीछे छिपी निरंकुशता दिखाई देती है। हर पाँच साल बाद होने वाले चुनाव और हर बदलती सत्ता निरर्थक लगती है–
“ निर्बल जनता के बीच जब हम उठातें है/ बलराम को
हर पाँचवे साल/ वे जानतें है कि उम्मीदवार लड़ेंगें
पर हम जानते हैं कि लड़ेगा कौन/ किस जनता से
किस जनता को लड़ाना है/ आखिर किसी न किसी परिणाम पर पहुँचकर कर
जब हम सुनाते है परिणाम/ तो वे पस्त पड़ जातें हैं
यह हुआ सच्चा सहमत दान/ हर पाँचवे साल जीतेगा बलराम
और हारेगी जनता”13
कुर्सी पर बैठते ही हर छोटा बड़ा आदमी कुर्सी में तब्दील हो जाता है, जिसके हाथ, पैर हैं पर सिर नहीं। बिना सिर के उसे केवल स्वार्थ, लाभ, लालच की भाषा समझ आती है। उसे समझ आता है साम, दण्ड, भेद की नीति अपनाकर जनता का मत खरीदना और उस खरीदे हुए मत पर कुर्सी हाँसिल कर बिके मताधिकारियों पर शोषण करना। समस्त वातावरण राजनीतिक हो गया है, यही राजनीतिक व्यक्ति जगूड़ी की कविताओं में व्यक्त होता है। ‘भारत भूषण अग्रवाल’ कहतें हैं—“जगूड़ी की कविता सचमुच जनतंत्र की कविता है जिसमें जनगण के सुख-दु:ख ही नहीं आदमी की नियति के प्रति भी सीधा सरोकार है। उसे राजनीतिक कविता कहना ठीक न होगा पर वह नि:संदेह राजनीतिक आदमी की कविता है।”14 यह राजनीतिक आदमी लोकतंत्र, गणतंत्र, जनतंत्र जैसे शब्दों में केवल तंत्र जीवित है और इस तंत्र में देश और जनता कहीं नहीं दिखाई देती—
“किसी भी तरह लोकतंत्र की मर्यादा निभानी है
यह हमारा देश है कोई परवाह नहीं
रोटी माँग कर खानी है तो माँग कर खानी है।”15
नाटक जारी है, इस व्यवस्था में, उच्चैश्रवा, पृथ्वी घूम रही है, जैसी कविताएँ राजनीति में पसरी अव्यवस्था और इस अव्यव्स्था को बनाए रखने वाले लोगों के बीच की व्यवस्था को बखूबी जानते हैं। भ्रष्ट, समीकरण जुटाने वाला स्वार्थी व्यक्ति कभी किसी एक खेमे में नहीं होता, जिस खेमे का पलड़ा भारी होता है, जिसमें उसे लाभ दिखाई देता है वह उसी खेमे का हो जाता है—“खलनायक टोपी बदल-बदलकर हर खेमे से संबंध जोड़ता है।”16 एक खेमे से दूसरे खेमे में पलायन करता यह खलनायक, नायक दिखने की भरपूर कोशिश करता जनता के कल्याण और विकास की बात करता है परन्तु जगूड़ी ऐसे नायकों का सच बखूबी जानते हैं–
“इस नाटक में कुछ लोग/ देश को बना रहें हैं
आप भी कुछ बनाए/ अपने पड़ोसी को उल्लू वगैरह”17
ऐसी व्यवस्था के प्रति सचेत करना साहित्यकार की रचनाधर्मिता है। जगूड़ी इसे बखूबी निभाते हैं।वह बताते है कि कृषि-प्रधान देश में अनाज सड़ रहा है और लोग अनाज के अभाव में भूख से मर रहें हैं। राजनेता जनता पर उपकार करने के लिए विदेशों से करोड़ों का अनाज आयात कर रहें हैं—
“लो अमेरीका ने तुम्हारे लिए एक अंतरिक्ष रोटी बनाई है
इसे खाओ वरना व्यापार में
तुम्हारी हड्डियाँ दोयम दर्जे की गिनी जाएँगीं
पैदा चाहे तुम कहीं भी होओ
बिकना तुम्हें अमेरीका में ही है।”18
जगूड़ी भारतीय गुलाम मानसिकता पर व्यंग्य करते हैं कि आजादी के इतने साल बीत जाने के बावजूद विदेश शंग्रीला की तरह मन में बसा है। ‘भय शक्ति देता है’ कविता में व्याख्यायित यह स्थिति हाल ही में घटित हुई, जब सब्जियों के दाम आसमान छू रहे थे। चार आदमी का परिवार एक वक्त भी सब्जी नहीं खा पा रहा था। किसानों के उपजाए आलू और अन्य सब्जियाँ सड़ रहीं थीं। लोग भूखे मर रहे थे जिस पर तंत्र का तर्क था कि आलूओं को लम्बे समय तक सही से रख पाने के लिए बोरे नहीं हैं, कोल्ड स्टोरेज़ पर्याप्त नहीं हैं। भारतीय राजनीति में उत्पन्न हुए संकट का और उसके दोहरे मानदण्डों का अंकन जगूड़ी ने सशक्त रूप से किया है। उनके काव्य में संसदीय लोकतंत्र के सूडो संदर्भों की सुगबुगाहट है। जगूड़ी की कविताओं में मानवीय सार्थकता होने के कारण ही वह राजनीति से संबंध कायम कर पाती है, उसके भीतर घूसपैठ करती हुई जुलूस, नारेबाजी, भाषण, कर्फ्यू, मतदान सबकी पोल खोलती है। ‘राजकमल चौधरी’ के शब्दों में—“जो ताकत आदमी के बाहर को सही और आदमी के अंदर को मजबूत और स्वाधीन करती है, वही ताकत कविता की राजनीति है।”19 यही ताकत प्रजातंत्र के प्रपंचों और स्वार्थों को उघाड़ती है। ये कविताएँ न तो किसी आंदोलन से न किसी दल से और न ही किसी के विशेष बल से जुड़ी है, ये जुड़ी है सत्यता, मानवता और मूल्यों से, जो विभिन्न परिस्थितियों के बीच इनके लिए बैचेन दिखाई देतीं हैं।
‘लीलाधर जगूड़ी’ की कविताओं में विभिन्न स्थितियाँ और परिस्थितियाँ आतीं हैं, यथार्थ शाश्वत रूप में विद्यमान रहता है, इस यथार्थ के भीतर जनकल्याण, जनवाणी सुनाई देती है। जगूड़ी जनसाधरण और जनसाधरण को पनपाने वाले वातावरण को अपनी कविता का प्राण मानते हुए कहते हैं—“उन खेतों की फसल भी मेरे लिए अब कविता ही है जिन पर मकान बन गए मगर जिनमें वे नहीं रह सकते जिनके पास मकान नहीं हैं। उन पेड़ों का बसंत भी मेरे लिए कविता के मार्फत आएगा जो खिड़की, दरवाजों, रेल के डिब्बों और बस की बाडी बनाने के काम आए। जहाँ अब प्लास्टिक के सामानों की दुकानें खुली हैं, वहाँ जो बगीचा था उसके फूल व फल भी अब मेरे लिए अपनी कविता में महकेंगें, पकेंगें।”20 कवि की सकारात्मक आशावादी सोच का परिणाम है कि प्लास्टिक से बनी चीजों की दुकान के झूठे प्रदर्शन के बीच फसल का लहलाहना, बेघरों का घर मिलने की आशा करना, पेड़ों का बसंत अभी भी जीवित दिखाई देता है। जनसाधरण का कल्याण, विकास, समानता, संगच्छध्वं, संवदध्वं ही कविता की जीवंतता और कवि की सार्थकता है।
संदर्भ
1 लीलाधर जगूड़ी, घबराए हुए शब्द, पृ• 54
2 लीलाधर जगूड़ी, भय शक्ति देता है पृ• 117
3 महेन्द्र कुलश्रेष्ठ, ज्ञानोदय, महानगर विशेषांक अंक 6 दिसम्बर 1996
4 ज्ञानोदय 1996 अंक 6
5 लीलाधर जगूड़ी, नाटक जारी है पृ• 38
6 वही बदले में पृ• 98
7 वही घबराए हुए शब्द, पृ•33
8 लीलाधर जगूड़ी, नाटक जारी है पृ•38
9 लीलाधर जगूड़ी, रात अब भी मौजूद है पृ• 15
10 वही महाकाव्य के बिना बलदेव खटिक पृ• 122
11 वही वही पृ• 124
12 वही वही पृ• 123
13 वही रात अब भी मौजूद है पृ• 15
14 डॉ• सुभाष चन्द्र डबास, मुक्तासंग और नई कविता, पृ• 102
15 लीलाधर जगूड़ी नाटक जारी है पृ• 50
16 वही खलनायक पृ•41
18 लीलाधर जगूड़ी, भय शक्ति देता है पृ• 112
19 मुक्ति प्रसंग राजकमल चौधरी पृ• 73
20 लीलाधर जगूड़ी घबराए हुए शब्द, भूमिका
– डॉ. भारती अग्रवाल