आलेख/विमर्श
संस्कृतभाषा, भारतीय गणतन्त्र तथा राजतन्त्र
– डॉ. भारत भूषण रथ
भाषा जो भाव प्रकाशन का प्रमुख माध्यम है I वह संसार के शक्तिशाली तत्व में से एक है भाषा की परिभाषा के बारे में न जाने कितने भाषाविदों ने अपना अपना मत स्थापित करने के लिए प्रयत्न किये हैं मगर भाषा सर्व स्वतन्त्र हैं। प्रकृति की ये अनन्य दान भाषा जिसके माध्यम से मानव अपने समाज में उभर सकता हैं। जो व्यक्ति अधिक भाषा जानता है वह अपने को उतना प्रभावी रूप से प्रतिष्ठित कर सकता है। इसीलिए तो संस्कृतव्याकरण के महान् विद्वान् पतंजलि ने अपने महाभाष्य में लिखा है कि – “अर्थगत्यर्थः शब्दप्रयोगःI अर्थं सम्पत्याययिष्यामि”
उनका कहना है – भाषा वह व्यापार है, जिसमें व्यक्ति शब्दों या वर्णनात्मक शैली द्वारा अपने विचार को प्रकट करता है।
सातविसदी के विशिष्ट संस्कृत विद्वान् दण्डि ने भाषा की पराकाष्ठा को निर्धारित करते हुए अपना मत प्रकट किया I उनका कहना है कि – इस जगत में पाणिनि एवं वररुचि इत्यादि भाषाविद् एवं व्यैयाकरणों के द्वारा अनुशासित तथा अननुशासित वाणी की ही सहायता से लोक-व्यवहार चलता है। यदि शब्द नामक ज्योति समस्त संसार को दीप्त नहीं करती रहती तो यह समस्त त्रिभुवन घने अन्धकार में डूब जाता। वे कहते हैं कि –
इह शिष्टानुशिष्टानां शिष्टानामपि सर्वथा।
वाचामेव प्रसादेन लोकयात्रा प्रवर्तते ।।
इदमन्धतमं कृत्स्नं जायते भुवनत्रयम्।
यदि शब्दाह्वयं ज्योतिरासंसारं न दीप्यते।। काव्यादर्शः – 1.3,4
इस प्रकार संस्कृत के अनेक बडे विद्वानों ने मानव जीवन में भाषा की जो आवश्यकता है उसके बारे में गहरी चर्चा की है। विश्व में यद्यपि कई तरह की भाषा प्रचलित है मगर उन भाषाओं में संस्कृत भाषा अपना प्राचीनता तथा वैज्ञानिकता को लेकर विश्व विदित है। विशेषतः भारत के सांस्कृतिक धरोहर को उज्ज्वलित रखने में संस्कृत भाषा का महत्वपूर्ण योगदान है। क्योंकि भारत में जितने सारे सांस्कृतिक वैभव हैं वह प्रायः संस्कृत भाषा में ही विभिन्न पोथियों तथा ग्रंथों में भी लिपिबद्ध है। भारतीय संस्कृति का अन्य एक अभिन्न अंग है – भारत की प्राचीन शासन व्यवस्था। जिसका हम हर क्षेत्र में पालन करते हैंI भारत की शासन व्यवस्था का एक श्रृंखलित विधि विधान हम को संस्कृत भाषा में रचित अनेक शास्त्रों में मिलता है। अगर उन विधि विधानों को प्रभावित रूप से तथा सही तरीके से हम पालन करेगें तो देश का महान विकास हो सकता है I संस्कृत शास्त्रों में वर्णित भारतीय राजतन्त्र तथा गणतन्त्र के बारे में जो विचार है उनमें से कुछ विचार इस प्रकार है –
देश के प्रधान अंगों के बारें में याज्ञवल्क्य ने कहा कि –
स्वाम्यमात्या जनो दुर्गं कोशो दण्डस्तथैव च।
मित्राण्येताः प्रकृतयो राज्यं सप्ताङ्गमुच्यते।। याज्ञवल्क्य स्मृतिः – 1.353
देश और राज्य के सात अंग होते हैं । अगर इन अंगो में से कोई एक अंग की भी कमी रह गई तो देश में विपत्ति की सम्भावना हो जायेगी। ये अंग हैं – 1. स्वामी = देश के सर्वोच्च शासक, 2. मन्त्री = विश्वस्त मन्त्रीमण्डल, 3. जनाः = देश में रहने वाले लोग, 4. दुर्गं = देश की सुरक्षा के लिए शसस्त्र दुर्ग, 5. कोशः = देश के धन ( तिजोरी), 6. दण्डः = न्यायिक विधि व्यवस्था, 7. मित्राणि = देश के मित्र देश।
याज्ञवल्क्य के ये सात अंग विश्व के जितने भी देश हैं उन सबका प्रमुख अंग ही तो हैं। इनके बिना देश में सुशासन सम्भव नहीं है।
देश तथा राज्य के मन्त्री परिषद् में कितने मन्त्री रह सकते हैं इनके बारे में हमें मनु, बृहस्पति तथा कौटिल्य आदि अर्थशास्त्र विद्वानों से प्रमाण मिलता है –
मन्त्रिपरिषदं द्वादशामात्यां कुर्वीतेति मानवाः ।।
षोडशेति बार्हस्पत्याः।।
यथा सामर्थ्यमिति कौटिल्यः।।
जब कि मनु ने उस समय की जन संख्या को लेकर बारह तथा बृहस्पति ने सोलह मन्त्रीयों को मन्त्री परिषद् में लेने के लिए निर्देश दिया, मगर कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में लिखा है कि राजा अपने आवश्यक तथा सामर्थ्य के अनुसार मन्त्रियों को नियुक्ति करे। जो आजकल के राजतन्त्र में देखने को मिलता है।
राजा तथा राजनैतिक दलों में आजकल सन्धि होकर देश तथा राज्य में शासन किया जाता है। उसका एक प्रमुख कारण है किसी भी एक राजनैतिक दल के एकक संख्यागरिष्ठता का अभाव। उसके बारे मे मनु ने लिखा हे जब राजा भविष्य में अपने निश्चित आधिक्य को तथा वर्तमान में सामान्य हानि को देखें तब शत्रु से भी सन्धि कर लेनी चाहिए। भारत में तथा अनेक देश में कई साल से मिलित शासन (Mutual Political Party/Federal Font) दिखाई देता हे। इसके प्रमाण स्वरूप मनु ने कहा –
यदावगच्छेदायत्यामाधिक्यं ध्रुवमात्मनः।
तदात्वे चाल्पिकां पीडां तदा संधिं समाश्रयेत् ।। मनुस्मृति – 7. 169
गणतन्त्र में नागरिक ही सर्वश्रेष्ठ माने जाते हैं। इसलिए संस्कृत भाषा में लिखित समस्त शास्त्र तथा काव्य नाटकों में, शासन व्यवस्था तथा नागरिकों के हित के लिए अनेक प्रेरणा दी गई हैं। रामायण तथा महाभारत आदि ग्रन्थों में श्रीराम तथा श्रीकृष्ण ने लोगों को ही अधिक मान्यता दी है। रामायण में ऐसी स्थिति आई थी जिसमें प्रजा को सन्तुष्ट करने के लिए श्रीराम ने न चाहते हुए भी पत्नी सीता को आश्रम में भेजा। महाकवि कालिदास अपना “अभिज्ञानशाकुन्तलम्” नाटक में राजा दुष्यन्त को तथा रघुवंश महाकाव्य में राजा दिलीप तथा रघु को प्रजानुरंजक राजा के रूप में चित्रित करते हुए राजतन्त्र का एक ऐसा सम्मान दिए है जो कि अतीव हृदयस्पर्शी है।
वास्तव में संस्कृत भाषा में विरचित प्राचीन और आधुनिक ग्रन्थों में गणतन्त्र तथा राजतन्त्र के बारे में जो सुझाव है वह सर्वमान्य है। जिसके बारे में विस्तृत चर्चा शोधपत्र में की जायेगी।
– डॉ. भारत भूषण रथ