आलेख/विमर्श
वाल्मीकि-रामायण में रस-विवेचन- डॉ. बलदेवानन्द सागर
उपक्रम
काव्यतत्त्वों की दृष्टि से वाल्मीकि-रामायण अद्वितीय महाकाव्य है | अतएव विद्वानों ने इसे संस्कृत काव्यों की परिभाषा का आधार मानकर कतिपय लक्षणग्रन्थों का निर्माण किया है | महर्षि वाल्मीकि ने ऐसे समय में रामायण की रचना की जब उनके सम्मुख ऐसी कोई कृति नहीं थी, जो उनका पथ-प्रदर्शन कर सके | फिर भी उन्होंने अपनी इस मौलिक कृति में प्रकृति-चित्रण, संवाद-संयोजन, विषय-प्रतिपादन के साथ-साथ रस, अलंकारादि अन्यान्य काव्य-शास्त्रीय तत्वों का यथास्थान वर्णन करके परवर्ती आचार्यों का मार्ग प्रशस्त किया है |
काव्य का परमार्थतः प्रयोजन रसास्वादन के साथ आनन्दातिशय माना गया है | वाल्मीकि ने भी करुण-रसरूपी आनन्द से प्रेरित होकर ग्रन्थ रचना की | यद्यपि समीक्षक इस ग्रन्थ-रत्न में करुण रस के प्राधान्य को स्वीकारते हैं, लेकिन रसतत्त्वों के सन्दर्भ में वाल्मीकि रामायण में वीरादि रसों के साथ प्रधानतः करुण-रस ही आदि से लेकर अन्त तक सर्वत्र विद्यमान है |
आदिकवि वाल्मीकि
भारतीय साहित्य की परम्परा में महर्षि वाल्मीकि आदिकवि के नाम से जाने जाते हैं और उनके द्वारा रची गर्इ ‘रामायण’ को आदिकाव्य कहा जाता है | साहित्य के इतिहास में यह पहली रचना है, जिसमें मानव जीवन से जुड़ी कथा कही गर्इ है | इससे पहले रचे गए वैदिक-साहित्य में देवों का गुणगान था | अन्य सन्दर्भों के अनुसार, राम की कथा सबसे पहले भगवान् शंकर ने पार्वती को सुनार्इ | कथा सुनते हुए पार्वती को नींद आ गर्इ, किन्तु जिस स्थान पर यह कथा सुनार्इ जा रही थी, वहाँ पास ही एक कौवे का घोंसला था जिसके भीतर बैठे कौए ने पूरी कथा सुन ली | कौए का पुनर्जन्म काकभुशुण्डी के रूप में हुआ, जिन्होंने यह कथा गरुड़ को सुनार्इ |
भगवान् शंकर के मुख से निकली राम की पावन गाथा ‘अध्यात्म-रामायण’ के नाम से प्रसिद्ध है | वाल्मीकि ने राम की यही कथा संस्कृत-श्लोकों में निबद्ध की जो वाल्मीकि-रामायण के नाम से विख्यात हुर्इ | रामायण शब्द का अर्थ है राम का अयन अर्थात् राम की यात्रा |
रामायण की सनातनता और व्यापकता
‘रामायण’- श्री रामचन्द्र जी की जीवन गाथा को लेकर रचा गया ग्रन्थ है | उनके जीवन चरित्र का वर्णन सुचारु रूप से करने हेतु इस महाकाव्य को सात काण्डों में विभक्त किया गया है | ये काण्ड निम्न प्रकार से हैं –
1. बाल काण्ड 2. अयोध्या काण्ड 3. अरण्य काण्ड 4. किष्किन्धा काण्ड 5. सुन्दर काण्ड 6. लंका काण्ड 7. उत्तर काण्ड |
वाल्मीकि-रामायण महाकाव्य अन्य महान् काव्यों का प्रेरणा स्रोत बना | इसकी कथा पर आधारित विभिन्न भाषाओं में विभिन्न रामायणों की रचना की गई | हिन्दी, तमिल और बंगला भाषाओं में भी रामायण लिखी गई | उत्तर भारत में गोस्वामी तुलसीदास जी ने ‘रामचरित-मानस’की रचना की। दक्षिण में कम्बन ने रामायण पर अपना महाकाव्य रचा और बंगला में कृत्तिवास रामायण की रचना की गई |
‘रामायण’की कथा के अंशों को बहुत स्थानों पर दृश्य-चित्रों और भित्ति-चित्रों के रूप में भी अंकित किया गया है | ये चित्र केवल भारतीय मन्दिरों में ही नहीं बल्कि इण्डोनेशिया, जावा, कम्बोडिया, चीन और जापान आदि देशों के मन्दिरों में भी देखे जा सकते हैं |
शोकः श्लोकत्वमागतः
किसी समय तमसा नदी के तट पर पहुँचे वाल्मीकि ने यह दृश्य देखा कि प्रेम-क्रीड़ा में मग्न क्रौंच पक्षी के जोड़े में से एक को किसी शिकारी ने तीर से आहत कर दिया है | क्रौंची का विलाप सुनकर वाल्मीकि का मन द्रवित हो गया और उनकी वाणी एक श्लोक के रूप में बह चली, वह प्रसिद्ध श्लोक है –
मा निषाद! प्रतिष्ठां त्वमगम: शाश्वती: समा:।
यत क्रौञ्च-मिथुनादेकमवधी: काममोहितम् ।। – (वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड, द्वितीय सर्ग, श्लोक 15
[अर्थात् -‘रे निषाद! तुम शाश्वत प्रतिष्ठा कभी न पा सकोगे, क्योंकि तुमने प्रेम में डूबे पक्षी युगल में से एक को मार दिया है।]
कहा जाता है कि महर्षि का यह करुण स्वर ब्रह्मा के कानों में पड़ा | उन्होंने प्रकट होकर वाल्मीकि को रामचरित लिखने को कहा।
रस-विवेचना
रामायण का प्रमुख रस करुण है। इसमें शृंगार के संयोग-वियोग दोनों पक्ष समाहित हुए हैं | रौद्र, अद्भुत, वीर आदि रसों की योजना भी यथास्थान हुर्इ है। किन्तु रामायण मूलत: करुणरस-प्रधान काव्य ही कहा जाता है क्योंकि सीता के परित्याग के बाद राम के हृदय की करुणा का उद्रेक ही यहाँ अधिकाधिक व्यक्त हुआ है।
भारतीय इतिहास में पुरातन काल से काव्य को आनन्द-प्राप्ति का प्रमुख स्रोत माना गया है | काव्य के आनन्द को ब्रह्मानन्द-सहोदर की संज्ञा दी गयी है –
‘सत्वोद्रेकादखण्ड-स्वप्रकाशानन्द-चिन्मयः |
वेद्यान्तर-स्पर्श-शून्यो ब्रह्मानन्द-सहोदरः || – [साहित्य दर्पण, 3.2]
रस, अलंकार, रीति, वक्रोक्ति, ध्वनि और औचित्य – ये छः सम्प्रदाय काव्यालोचन के सूक्ष्म और महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त हैं | रस-सिद्धान्त मानवीय भाववैभव तथा सार्वभौम भावचेतना की अभिव्यक्ति है जिसके माध्यम से कवि अपनी रागमयी चेतना को विश्वजनीन और जीवन्त बनाता है |
रस-सिद्धान्त के आदि प्रवर्तक भरतमुनि है | उनके नाट्यशास्त्र में रस के विषय में कहा गया है –
‘विभावानुभाव-व्यभिचारि-संयोगाद् रस-निष्पत्तिः |’ – [नाट्यशास्त्र, काव्यमाला-गुच्छक – पृ.93]
‘रस’ शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है – [1] पदार्थों का रस – मधुराम्ल-लवण-कटु-तिक्त-कषायाः [2] आयुर्वेद का रस [3] साहित्य का रस [4] मोक्ष या भक्ति का रस | उपनिषदों में ‘रस’-शब्द ईश्वर या ब्रह्म के अर्थ में माना गया है – रसो वै सः | रसं ह्येवायं लब्ध्वानन्दी भवति|’ – [तैत्तरीयोपनिषद् – ब्रह्मानन्दवल्ली]
आचार्य आनन्दवर्धन द्वारा संवेद्यमानता की रस-प्रक्रिया में वस्तु-ध्वनि, अलंकार-ध्वनि, रस-ध्वनि – ये तीनों सम्मिलित है किन्तु वस्तुध्वनि और अलंकारध्वनि में बौद्धिक व्यायाम की अपेक्षा रहती है जो सभी के सामर्थ्य में सम्भव नहीं, जब कि रसभावादि-ध्वनि में चित्तद्रुति का प्राधान्य होने से भावात्मक सौन्दर्य का साम्राज्य रहा करता है | विभावादि के श्रवण और पठन मात्र से सहृदय का मन संवेदनशील हो जाता है और उनमें शीघ्रता से तन्मयीभवन की शक्ति आ जाती है –
योऽर्थो सदय-सम्वादी तस्य भावो रसोद्भवः |
शरीरं व्याप्यते तेन शुष्क-काष्ठमिवाग्निना || – [नाट्यशास्त्र 7-7]
रस के अन्तर्गत न केवल श्रृंगार, करुण और वीर आदि रसों का ही समावेश है, अपि तु रस-शब्द से भाव, रसाभास, भावाभास, भावोदय, भावसन्धि, भावशक्ति, भावशबलता का भी ग्रहण होता है –
रस-भावौ तदाभासौ भावस्य प्रशमोदयौ |
सन्धिः शबलता चेति सर्वेऽपि रसनाद् रसाः || – [साहित्य दर्पण 3.259]
रसों की संख्या के विषय में आचार्यों में मतैक्य नहीं है | भरत ने आठ रस स्वीकार किये हैं – शृंगार-हास्य-करुणाः रौद्र-वीर-भयानकाः |
बीभत्साद्भुत-संज्ञौ चेत्यष्टौ नाट्ये रसाः स्मृताः || – [नाट्यशास्त्र 6-16]
‘काव्यप्रकाश’ में मम्मट ने ‘निर्वेद-स्थायिभावोऽस्ति शान्तोऽपि नवमो रसः|’ – [काव्यप्रकाश 4.47] कहकर नौवें ‘शान्त’-रस को भी स्वीकृत किया है | बाद में आचार्यों ने वात्सल्य, भक्ति आदि रस भी स्वीकार किये और इनकी संख्या में वृद्धि होती गई | जहाँ एक ओर, संख्या में वृद्धि होती गई, वहाँ कुछ आचार्यों ने उनके संकोच की ओर भी ध्यान दिया –रसोऽभिमानोऽहंकारः श्रृंगार इति गीयते |
योऽर्थस्तस्यान्वयात् काव्यं कमनीयत्वमश्नुते ||
विशिष्टादृष्ट-जन्मायं जन्मिनामन्तरात्मसु |
आत्मा सम्यग्गुणोद्भूतेरेको हेतुः प्रकाशते ||- [श्रृंगारप्रकाश, काव्यमाला- 5.1/2]
वाल्मीकि-रामायण में महर्षि वाल्मीकि ने रसों की संख्या पर ध्यान नहीं दिया है | रामायण की कथा-रचना, उनका प्रमुख उद्देश्य था, लेकिन परवर्ती काव्याचार्यों ने वाल्मीकि-रामायण को आधार बनाकर रसों की संख्या निर्धारित करने का प्रयास किया है |
श्रृंगार-रस
काव्य में रस ही प्राण तत्त्व होता है | जीवन में रति एवं प्रेम नामक भाव की बहुलता का प्रभाव देखा जाता है | महाकाव्य में समग्र जीवन का चित्रण होता है और उसमें श्रृंगार का विशेष महत्त्व होना स्वाभाविक है | संयोग और वियोग के भेद से श्रृंगार दो प्रकार का है | वाल्मीकिरामायण में दोनों प्रकार के भेदों के दर्शन होते हैं | राम और सीता के अनुराग के प्रथम-दर्शन उनके विवाहोत्तर-कालीन अयोध्या-निवास के समय मिलता है | इस स्थान पर सहृदय पाठक को श्रृंगार-रस के जिस अलौकिक और सात्त्विक रूप की अनुभूति होती है, वह अन्यत्र मिलनी दुर्लभ है | राम और सीता विषयक रति अत्यधिक मार्मिक परिस्फुट हुई है, जब राम और सीता वाटिका में जाने के लिए उद्यत होते हैं –
रामस्तु सीतया सार्धं विजहार बहूनॄतून् |
मनस्वी तद्गतस्तस्या नित्यं हृदि समर्पितः || – [वाल्मीकि रामायण 1.76.14]
वाल्मीकिरामायण में संयोग के साथ श्रृंगार वियोग की छटाएँ सहृदय को अत्यन्त मोहित करने वाली हैं | विप्रलम्भ का भी रामायण में अनेकत्र रमणीय रूप मिलता है | महर्षि वाल्मीकि ने द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ आदि काण्डों में वियोग के ऐसे दर्शन करवाये है जो मर्मस्पर्शी और हृदय-द्रावक है | सीता-अपहरण के बाद राम का विलाप [सन्दर्भ, वाल्मीकि रामायण-7.41.1] और सीता की अशोक वाटिका में उदासीनता [प्रस्थितं दण्डकारण्यं या मामनुजगाम ह| क्व सा लक्ष्मण! वैदेही यां हित्वा त्वमिहागतः || – [सन्दर्भ.-वाल्मीकि रामायण 3.56.2] वियोग श्रृंगार रस के उत्तम उदाहरण है |
‘मेघदूतम्’ में महाकवि कालिदास विरहणी नायिका के वर्णन में वाल्मीकि के वर्णन से प्रेरित जान पड़ते हैं |
हास्य रस
वाल्मीकि रामायण में प्राय: हास्य-रस के सभी भेदों की सुन्दर अभिव्यक्ति हुई है | रावण के सेनानायक प्रहस्त के विशालकाय शरीर को देखकर विस्मित हुए राम के चित्रण में हास्य के स्मित-भेद का रूप देखने को मिलता है –
ततः प्रहस्तं निर्यान्तं दृष्ट्वा भीम-पराक्रमम् |
उवाच सस्मितं रामो विभीषणमरिन्दमः || – [वाल्मीकि रामायण 6.58.1]
करुण रस
काव्याचार्यों ने प्रिय वस्तु के लुप्त होने और अप्रिय की प्राप्ति से मन में उत्पन्न उत्कंठा को शोक नाम से संज्ञापित करके इसे करुण रस का स्थायी भाव माना है – ‘इष्टनाशादिभिः चेतोवैक्लव्यं शोकशब्द-भाक् |’ – [साहित्य दर्पण 3.177]
रामायण में यथास्थान, यथावसर सभी रसों की अभिव्यक्ति हुई है, किन्तु शोक स्थायी भाव, करुण को समुचित प्रधानता मिली है |
ध्वन्यालोक के चतुर्थ-उद्योत में आनन्दवर्धन करुण रस के महत्त्व को बताते हुए कहते हैं- ‘रामायणं ही करुणो रसः स्वयमादिकविना सूत्रितः “शोकः श्लोकत्वमागतः” इत्येवंवादिना, निर्व्यूढश्च स एव सीतात्यन्त-वियोग-पर्यन्तमेव स्व-प्रबन्धानुपरचयता |”
आदिकवि उस शोक को अभिव्यक्ति देने में मर्मस्पर्शी प्रसंग प्रस्तुत करते हैं | जहाँ राम जी के वन-प्रस्थान करते समय सारा नगर अत्यंत पीड़ित हो गया, उस करुणावसर पर न केवल रघुवंशी-परिवार अपितु समस्त अयोध्या-नगरी शोकाग्नि में जल रही थी – [सन्दर्भ, वाल्मीकिरामायण-2.40.35]
भ्राता लक्ष्मण को चोट खाए सर्प के समान तड़पता देखकर राम के चित्त में उद्दीपित शोक के रूप में जो अभिव्यक्ति हुयी है– [सन्दर्भ, वाल्मीकिरामायण 6.89.2], वे शब्द भारतीय जनमानस की अमरनिधि बन गए हैं –
देशे देशे कलत्राणि देशे देशे च बान्धवाः |
तं तु देशं न पश्यामि यत्र भ्राता सहोदरः || – [वाल्मीकि रामायण 6.101.15]
रामायण में अनेक स्थलों पर करुण रस की अभिव्यक्ति के दर्शन होते हैं | जब रावण द्वारा अपहरण के समय सीता असहाय होकर सहायता के लिए क्रन्दन करती है, तो करुण-रस की प्रथम झलक वाल्मीकि-रामायण में होती है –
मा निषाद! प्रतिष्ठां त्वमगम: शाश्वती: समा:।
यत क्रौञ्च-मिथुनादेकमवधी: काममोहितम् ।। – (वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड, द्वितीय सर्ग, श्लोक 15)
[अर्थात् -‘रे निषाद! तुम शाश्वत प्रतिष्ठा कभी न पा सकोगे, क्योंकि तुमने प्रेम में डूबे पक्षी युगल में से एक को मार दिया है।]
इसी प्रकार अनेक शोकमय विलाप रामायण में उपस्थित होते हैं |
वीर रस
भारतवर्ष के एक सच्चे क्षत्रिय का उज्ज्वलतम रूप हमें राम में पूर्ण रूप से मिलता है | उनकी यह दृढ़ भावना है कि क्षत्रियों का धनुष धारण करने का प्रमुख उद्देश्य यही है कि किसी असहाय और पीड़ित व्यक्ति का आर्तनाद न हो –
किन्तु वक्ष्याम्यहं देवि! त्वयैवोक्तमिदं वचः |
क्षत्रियैः धार्यते चापो नार्तशब्दो भवेदिति || – [वाल्मीकि रामायण- 3.9.3]
राम और खर-दूषण के बीच हुए युद्ध में हमें वीर-रस का उत्कृष्ट रूप मिलता है | रामायण का छठा काण्ड तो वीर रस से ओतप्रोत है | यहाँ पर न केवल राम के पक्ष की अभिव्यक्ति हुई, अपि तु रावण, मेघनाद, कुम्भकर्ण आदि विरोधि पक्ष के युद्धवीरों में भी वीररस प्रकट हुआ है | वाल्मीकि रामायण में न केवल युद्धवीर अपि तु धर्मवीर के भी सुन्दर पद्य मिलते हैं | राजा दशरथ धर्म और सत्य के पालन में सदैव कर्त्तव्यनिष्ठ है –
सत्यसन्धो महातेजा धर्मज्ञः सुसमाहितः|
वरं मम ददात्येष तन्मे शृण्वन्तु देवताः || – [वाल्मीकि रामायण- 2.10.24]
दयावीर के उदाहरण में हम उस स्थल को ले सकते हैं जहाँ पर जटायु सीता को असहाय स्थिति में दयाभाव से प्रेरित होकर बलशाली रावण से लड़ता है –
स राक्षस-रथे पश्यन् जानकीं बाष्पलोचानाम् |
अचिन्तयित्वा बाणान् तान् राक्षसं समभिद्रवत् || – [वाल्मीकि रामायण– 3.49.1025]
अतः इस आदिकाव्य में वीररस की विविध सामग्री के साथ अत्यन्त भव्य और मर्मस्पर्शी रूप से सहृदय भरपूर रसास्वादन करते हैं |
रौद्र रस
रौद्र रस और वीर रस वैसे तो एक समान से प्रतीत होते हैं किन्तु सूक्ष्मता से निरीक्षण करने पर उनका वास्तविक भेद दिखाई देता है, क्योंकि वीर का स्थायी भाव उत्साह है जब कि रौद्र का स्थायी भाव है – क्रोध| वाल्मीकि रामायण में रौद्र का स्थान यद्यपि गौण है, तथापि कुछ स्थलों पर इसका सुन्दर दर्शन हुआ है| रामायण में रौद्र रस की अनुभूति सहृदय को उस समय होती है जब सीतान्वेषण में राम, सुग्रीव की उपेक्षा के कारण उससे क्रुद्ध होते हैं, [सन्दर्भ, वाल्मीकिरामायण- 4.29.41-42] और अपना रौद्ररस-पूर्ण सन्देश देकर लक्ष्मण को उसके पास भेजते हैं | लक्ष्मण सुग्रीव को कहते हैं – ‘न त्वां रामो विजानीते सर्पं मडुकराविरणम्’ इस वाक्य में रौद्ररस का उग्ररूप साकार हो उठा है, जिसमें अतीव सुन्दर व्यंग्यार्थ निहित है, जो सहृदय के लिए समझना अत्यन्त सुगम है | इस रस के अन्य उदाहरण शिवधनुर्भङ्ग किये जाने पर परशुराम के क्रोध और कैकेयी पर भरत के कोप में मिलते हैं | रामायण में राम जहाँ सदैव प्रसन्नता, कोमलता और मधुरता से खिले हुए मिलते हैं, वहीं सीता के अपहरण के बाद लक्ष्मण से कहते हैं कि यदि देवेश्वर मेरी प्राणप्रिया को मुझे लाकर नहीं देंगे तो मैं अपने बाणों से तीनों लोकों को मर्यादा से पतित कर दूँगा, [सन्दर्भ, वाल्मीकिरामायण-3.64.67-68] ऐसा कहने पर उनके नेत्र लाल हो गए और होंठ फड़कने लगे, [सन्दर्भ, वाल्मीकिरामायण- 3.64.72] |
भयानक रस
वाल्मीकि रामायण में भयानक रस की अत्यन्त सुन्दर पराकाष्ठा की अनुभूति उस समय होती है, जब सीतान्वेषण के समय सुग्रीव, राम और लक्ष्मण के दर्शन करके भयभीत होते हैं –
तौ तु दृष्ट्वा महात्मानौ भ्रातरौ राम-लक्ष्मणौ |
वरायुधधरौ वीरौ सुग्रीवः शङ्कितोऽभवत् || – [वाल्मीकि रामायण – 4.2.1]
इसके अतिरिक्त आदिकवि ने वालि-वध के समय त्रस्त वानरों के वर्णन में भयानक-रस का सौष्ठव दिखाया है-
ये त्वङ्गद-परीवाराः वानराः हि महाबलाः |
ते सकार्मुकमालोक्य रामं त्रस्ताः प्रदुद्रुवुः || – [वाल्मीकि रामायण–4.19.5]
युद्ध के क्षेत्र में मेघनाद और कुम्भकर्ण के द्वारा वानरों के भय के दर्शन से सहृदय के मन में भयानक-रस की झलक देखने को मिलती है |
वीभत्स रस
वाल्मीकि रामायण में जुगुप्सा नामक स्थायी भाव की परिपक्व अवस्था को बीभत्स-रस की संज्ञा से संज्ञापित किया गया है | आदिकवि ने 5वें काण्ड में राक्षसराज रावण के वर्णन में इस रस की भव्य झलक प्रस्तुत की है | साहित्याचार्यों ने विष्ठा और कृमियों को देखने से प्राप्त बीभत्स को उद्वेगी नाम से अभिहित किया है | चित्रकूट से भरत के अयोध्या लौटने के बाद राम चित्रकूट पर्वत को त्याग देने का निर्णय करते हैं क्योंकि उस स्थल को भरत की सेना के अश्व और हाथियों ने मल-मूत्र से दूषित कर दिया था –
मृगाणां महिषाणां च, वराहाणां च भागशः |
तत्र न्यस्तानि मांसानि पानभूमौ ददर्श ह || – [वाल्मीकि रामायण– 5.9.11]
अद्भुत रस
विस्मय नामक चित्त का विस्तार चमत्कार कहलाता है | रस में यही चमत्कार प्राणरूप होता है-
‘चमत्कारः चित्त-विस्तार-रूपो विस्मयापर-पर्यायः |’
सब रसों में चमत्कार, साररूप से प्रतीत होता है और यही विस्मय के साररूप स्थायी होने से सब जगह अद्भुत ही जान पड़ता है | – [सन्दर्भ, सा.द. – ३.३.] वाल्मीकि-रामायण के उदाहरणों से प्रतीत होता है कि अनेक स्थानों पर अलौकिक वस्तुओं, प्राणियों और क्रियाओं की अभिव्यक्ति के द्वारा अद्भुत-रस के दर्शन होते हैं | अद्भुत के दर्शन, मायामृग के उस समस्त वर्णन में प्राप्त होते हैं, जिस पर सीता और राम का अत्यधिक आश्चर्यचकित होना स्वाभाविक है –
अदृष्टपूर्वं दृष्ट्वा तं नानारत्नमयं मृगम् |
विस्मयं परमं सीता जगाम जनकात्मजा ||
भरद्वाज द्वारा भरत की सेना का आतिथ्य करना अद्भुत की श्रेणी में आता है – स्वयं वाल्मीकि द्वारा यह ध्वनित है | वे यहाँ पर अद्भुत-रस की सुन्दर झलक प्रस्तुत कर रहे हैं | वाल्मीकि-रामायण में अनेकत्र अद्भुत-घटनाओं की अभिव्यक्ति के द्वारा सहृदय अत्यधिक आनन्दित होते हैं |
शान्त रस
वाल्मीकि-रामायण में शम और निर्वेदरूपी स्थायीभाव के शान्तरस का वर्णन यद्यपि अल्पमात्रा में हुआ है फिर भी विविध स्थानों पर सहृदय के लिए आनन्द का कारण बना हुआ है | काव्यप्रकाश में शान्त-रस को नौवाँ रस मानते हुए मम्मट लिखते हैं – ‘निर्वेद-स्थायिभावोsस्ति शान्तोऽपि नवमो रसः|’ – [काव्यप्रकाश- 4.47] प्रकृतिविषयक शान्तरस की सृष्टि के दर्शन उस समय होता है जब भरद्वाज ऋषि चित्रकूट की शुद्धता, पवित्रता और निर्मलता का व्याख्यान करते हुए कहते हैं कि चित्रकूट के दर्शन करके प्राणी के हृदय में सात्त्विक भाव उत्पन्न होता है और पाप कर्मों से उसका मन विरक्त हो जाता है क्योंकि अनेक ऋषियों ने अपनी जप-साधना से अनेक वर्षों तक इस स्थान पर निवास करके स्वर्ग प्राप्त किया है | भरत भी तपस्वी-जनों के इस स्थान को स्वर्ग-प्राप्ति का उत्तम पथ बताते हैं –
अतिमात्रमयं देशो मनोज्ञः प्रतिभाति मे |
तापसानां निवासोऽयं व्यक्तं स्वर्ग-पथोऽनघ || – [वाल्मीकि रामायण– 2.48.27-28]
विरक्ति-विषयक शान्त रस के दर्शन चित्रकूट पर भरत-मिलाप के समय भरत और राम के वार्तालाप में दृष्टिगोचर होता है |
वात्सल्य रस
साहित्यिक रसों की संख्या में आचार्यों में मतैक्य नहीं है | कुछ काव्यशास्त्री वत्सल रस को पृथक् रस के रूप में नहीं स्वीकारते हैं, किन्तु वैदिक साहित्य में शिशुओं के प्रति माता की ममता व्यक्त करना, लौकिक-साहित्य में अभिज्ञानशाकुन्तल में शकुन्तला की विदाई, शिशु रघु के लिए राजा दिलीप का स्नेह व्यक्त करना आदि सुन्दर प्रसंग मिलते हैं जिनके आधार पर प्रमाणित होता है कि पूर्व काल से ही साहित्य में वत्सलता की रमणीयता से सुन्दर झांकी प्रस्तुत होती आई है | वाल्मीकि-रामायण में पितृवत्सल राम के प्रति दशरथ का स्नेह इस रस की अनुभूति करवाता है –
तिष्ठेल्लोको विना सूर्यं सस्यं वा सलिलं विना |
न तु रामं विना देहे तिष्ठेत्तु मम जीवितम् || – [रघुवंशः – 3/25]
वाल्मीकि-रामायण में वात्सल्य भाव के विविध उदाहरणों में वत्सल रस की अभिव्यक्ति के दर्शन होते हैं |
उपसंहार
‘वाल्मीकि-रामायण में रस-विवेचन’ विषय पर विस्तार से विवेचना करने से इस शोध-आलेख का आकार बहुत बड़ा हो जाएगा- इस भीति से यहीं पर इस आलेख की इति के साथ श्रीरामचन्द्र-शरणं प्रपद्ये |
– डॉ. बलदेवानन्द सागर