रचना-समीक्षा
पत्नी के नखरों का दस्तावेज: अदृश्य (नाटक)
– डॉ.अरुण कुमार निषाद
ज़िन्दगी का दूसरा नाम प्रेम है। इस धरती पर जिस भी जीव-जन्तु ने जन्म लिया, उसने प्रेम का महत्त्व जाना और समझा। यह प्रेम चाहे लौकिक हो या पारलौकिक। पति-पत्नी में जहाँ भरपूर प्रेम होता है, वहाँ नखरेबाजी भी खूब होती है। प्राचीनकाल से आज तक यह देखने को मिलता है कि- पुरुष की अपेक्षा स्त्री अधिक नखरे करती है और इन्हीं नखरों पर ही पुरुष स्त्री पर लट्टू हो जाता है। इन नखरों के बीच में स्त्री-पुरुष में एक प्रेम पनपता है, जिसे दाम्पत्य प्रेम के नाम से अभिहित किया जाता है। इन नखरों में सिर्फ भाव होता है और उसमें शब्दों की अपेक्षा भाव को महत्त्व दिया जाता है।
‘अदृश्य’ प्रोफेसर रवीन्द्र प्रताप सिंह द्वारा रचित छ: अंकों का एक नाटक है। यह नाटक ‘अन्तर्द्वन्द्व’ नाट्य संग्रह से लिया गया है। अन्तर्द्वन्द्व (संग्रह) में कुल 5 नाटक हैं- 1.अदृश्य, 2.आशातीत, 3.दुग्धिका, 4.कालातीत और 5.संवेदना। प्रो. सिंह लखनऊ विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्रोफेसर हैं। प्रो. सिंह का नाम हिन्दी और अंग्रेजी साहित्य में बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है। प्रो. सिंह हिन्दी और अंग्रेजी के अच्छे कवि, नाटककार, कहानीकार और कुशल रंगकर्मी हैं। इनके कार्यक्रम आकाशवाणी तथा दूरदर्शन से समय-समय पर प्रसारित होते रहते हैं।
पति और पत्नी के बीच जो प्रेम की भावाभिव्यक्ति होती है, उसके लिए किसी शब्दकोश की ज़रूरत नहीं पड़ती। मन के भाव स्वत: प्रस्फुटित हो जाते हैं। जैक (एक असाधरण लकड़बग्घा) और जेरी (जैक की पत्नी) के दाम्पत्य प्रेम में इन शब्दों को आसानी से देखा जा सकता है। हम देखते हैं की भावातिरेक में जेरी जैक को खग्गू, मुंडू और स्वीटू जैसे शब्दों से भी सम्बोधित करती है और जैक उसे नाइटिंगल और कुक्कू कहता है।
जैक- माई स्वीटेस्ट जेरी …..आई लव यू!
जेरी- (जम्हाई लेते हुए) यॅा! आई नो, माई खग्गू– यू लव मी!
और भी-
जेरी- मेरे खग्गू! मेरे मुंडू, मेरे स्वीटू!
जैक- मेरी कुक्कू!
जेरी- मम्म (निर्वात चुम्बन करती है) आई डोंट लव दिस सिली नेम, कॉल मी बाई नाइटेंगेल! नाइटेंगेल!
जेरी- (बनावटी गुस्से में) देखो! मैं चली जाऊँगी।
जैक- कहाँ? हा….हा…हा….(फिर हँसता है)
जेरी- वहीं (एक आँख दबाकर मुस्कराती है और जैक से लिपट जाती है)
प्रेम में एक-दूसरे से रूठना मनाना तो सामान्य बात है। जहाँ प्रेम है, वहाँ अलगाव है और जहाँ अलगाव है, वहाँ प्रेम है। शर्म नारी का स्वाभाविक गुण है। यह भी नाटक के इस संवाद में दिखता है।
(जैक एक झटके से जेरी को छुड़ाकर दूर करता है, फिर झपटकर उसका चुम्बन करता है, जेरी शर्माती है……)
कामशास्त्र के आचार्यों ने लिखा है कि- कितनी ही मानिनी नायिका हो, परन्तु रात ढलते-ढलते वह मान ही जाती है। या अपने रूठे प्रेमी को मना लेती है।
(चपल गति से जेरी जैक के पास पहुँचती है और अन्तरंग चुम्बन करती है। धीरे-धीरे अँधेरा होता है, दोनों के शरीर के दूसरे को समर्पित हो जाते हैं)
ज़मीन पर बारिश की हल्की फुहारें पड़ रही हों और पति-पत्नी दोनों साथ हों तो प्रेम का आनन्द अपने आप बढ़ जाता है।
(गुफा की खुरदरी जमीन पर जैक और जेरी दोनों पसरे हुए हैं उनकी सांसे तेज चल रही हैं | बाहर हवा थोड़ी थम सी गयी है, हल्की बारिश होने लगी है | जैक जेरी की आँखों में देखता है, शरमा जाता है | जेरी मुस्करा देती है | एक शर्मीली मुस्कान) |
जानवरों में प्रेम प्रदर्शित करने का एक अलग ही तरीका है कि-वे एक-दूसरे में अपनी पूछें फँसा लेते हैं |
(हाँफते हुए जैक को, जेरी कई लव बाइट देती है | अपनी पूंछ जैक की पूंछ में रस्सी की तरह बट लेती है | पंजे से जैक का सर सहलाती है )|
महिलाओं की एक आदत बहुत ही प्रसिद्ध है किसी बात को बार-बार पूछना | जेरी भी जैक से वही पुरानी बात सुनना चाहती है |
जेरी-सुनाओ जैक क्या हुआ ?
जैक-क्या सुनाऊं ?
जेरी-वही |
जैक-छोड़ो, रात गयी, बात गयी |
जेरी-नहीं (इठलाती है) सुनाओ…सुनाओ, नहीं नाराज हो जाऊँगी |
नाटक के तीसरे अंक में प्रोफेसर शेखर की पत्नी भी नखरे दिखाती नजर आती हैं –
शेखर की पत्नी-(रोषपूर्ण स्वर में) अरे ओ प्रोफेसर आओ नाश्ता करो, कब तक फिलासफी बघारोगे, न जाने कैसे इनके पल्ले पड़ गयी ….आ रहे हो कि चलूँ ?
अन्यत्र भी-
पत्नी- न जाने दिन भर कहाँ –कहाँ मुँह काला करते हो……मेरे सामने भी बाज नहीं आते | आज क्या करना है ? अभी तुम्हारे मनहूस स्कालर्स आते होंगे, और रिसर्च तुम्हारे घर पर ही होती है ……ठेका लिया है क्या तुमने ?…..सुबह, शाम, रात ….बीएस रिसर्च, रिसर्च, लेक्चर | फंस गयी हूँ इनके साथ भगवान | (अपना सर थाम लेती है ) |
पत्नी-देखिए पत्नी को पति की कोई बात हर्ट नहीं करती, बस वह यह ध्यान रखे कि पब्लिक में उसे कुछ न कहे |
यद्यपि नाटक की भाषा में हिन्दी, अंग्रेजी और देशज शब्दों शब्दों का प्रयोग देखने को मिलता है जो नाटक की रोचकता को और भी बढ़ा देता है | नाटक के बीच-बीच में आने वाली कवितायें रचनाकार की बहुमुखी प्रतिभा को उजागर कर देती हैं | यह प्रो.सिंह की अपनी स्वयं की शैली है | नाटक के संवाद प्रारम्भ से लेकर अन्त तक पाठक को बंधे रखते हैं | मंचन की दृष्टि से यह थोडा सा कमजोर नाटक कहा जाएगा | क्योंकि नाटक के कुछ ऐसे दृश्य हैं जो मंच पर नहीं हो सकते हैं | उनकी इस नवीन कृति पर हार्दिक बधाई |
अन्तर्द्वन्द्व (नाटक संग्रह)
लेखक – रवीन्द्र प्रताप सिंह
ISBN-978-93-86722-53-9
प्रकाशन-आथर प्रेस, Q-2 A, हौज खास इन्क्लेव, नई दिल्ली-16
वेवसाइट- www.authorspressbooks.com
ईमेल-authorspress@rediffmail.com
पृष्ठ-102
मूल्य-250
– डॉ. अरुण कुमार निषाद