आलेख
ताबिश सुल्तानपुरी की ग़ज़लों में प्रेम की अभिव्यक्ति- डॉ.अरुण कुमार निषाद
प्रेम एक शाश्वत भाव है, जो कल भी था, आज भी है और कल भी रहेगा। वास्तव में प्रेम जीवन के लिए अति आवश्यक है। उसके अभाव में जीवन या तो रेत है या पत्थर। प्रारम्भिक समय से ही ग़ज़लों का मुख्य विषय प्रेम रहा है। ग़ज़ल का अर्थ ही है- औरतों से अथवा औरतों के विषय में बातचीत करना। दूसरे शब्दों में ग़ज़ल का सर्वसाधारण अर्थ है- माशूका से बातचीत करना। रघुपति सहाय ‘फ़िराक गोरखपुरी’ के कथनानुसार-
“जब कोई शिकारी जंगल में कुत्तों के साथ हिरन का पीछा करता है और हिरन भागते-भागते किसी ऐसी झाड़ी में फँस जाता है, जहाँ से वह निकल नहीं सकता, उस समय उसके कण्ठ से एक दर्द भरी आवाज़ निकलती है। उसी करुण स्वर को ग़ज़ल कहते हैं।”
बहू बेगम, ताजमहल, चौदहवीं का चाँद, साहब बीबी और गुलाम, दिल दौलत दुनिया, अली बाबा चालीस चोर और सइयां मगन पहलवानी मा जैसी फिल्मों के संवाद लेखक/निर्देशक ताबिश सुल्तानपुरी का जन्म 20 मई 1927 ई. को उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जनपद के तियरी गाँव में हुआ था। आप कुर्ला मुम्बई शाखा के प्रगतिशील लेखक संघ के तीन दशक तक अध्यक्ष रहे। आपका निधन 1 जनवरी 1987 ई. को सुल्तानपुर के अंगनाकोल (सुल्तानपुर मुख्यालय से 5 किलोमीटर सुल्तानपुर फैज़ाबाद मार्ग पर) नामक गांव में हुआ। ताबिश सुल्तानपुरी की पुस्तक ‘दोपहर के फूल’ का उर्दू संस्करण 1977 ई. में प्रकाशित हो गया था। इसका हिन्दी संस्करण 2015 ई. में प्रकाशित हुआ। इनका एक और ग़ज़ल संग्रह ‘शब-ता-शब’ जल्द ही आने वाला है।
ताबिश सुल्तानपुरी का भी मानना है कि मनुष्य का जो यौवन है, वह बहुत दिनों तक स्थायी रहने वाला नहीं है। नायिका को सम्बोधित करते हुए नायक कहता है कि-
यौवन धन है लुट जायेगा गोरी कुछ तो दान करो
मत निस-दिन फेरे लगवा कर जोगी को हलकान करो
नटखट हैं सब ग्वाले कोई ले भागा तो क्या होगा
घाट पे रख कर चीर न राधे जमुना में अस्नान करो
प्रेम पवन का झोंका हूँ मैं रूप कमल की खुशबू तुम
मेरे साथ उड़ो और सारी दुनिया पर एहसान करो
‘ताबिश’ का कथन है कि क्यों मुझको दिन-रात परेशान करती हो, हे प्रिये! अपने उस प्रेमसागर में से कुछ दो-चार बूँदें मुझे भी प्रदान कर दो, बड़ा एहसान होगा। कृष्ण और राधा के प्रसंग का उदाहरण देते हुए वह पुनः कहते हैं कि वस्त्रों को घाट पर रख कर कभी भी स्नान करने की भूल मत करना, क्योंकि ग्वाले (नायक) बहुत ही बदमाश हैं और अगर नहाते समय कोई तुम्हारा वस्त्र लेकर चला गया तो फिर तुम्हारा क्या होगा, सोच लो। पवन ही खुशबू को सारे संसार में यहाँ-वहाँ फैलाता है, अगर हवा न हो तो किसी भी वस्तु की सुगन्ध थोड़ी ही दूर तक जाएगी। इसलिये ‘ताबिश’ खुद को हवा और अपनी प्रेमिका को खुशबू की संज्ञा देते हैं। वे कहते हैं कि हे सुन्दरी! मैं तुम्हारे प्रचार का एक माध्यम हूँ। तुम मेरे साथ आओ और मेरी संगिनी बनो।
ताबिश भी प्रेम के मामले में कभी-न-कभी चोट खाए हैं, उनकी इस ग़ज़ल से यह बात स्पष्ट हो जाती है-
यूँ नज़र उसने मिलाई है कि जी जानता है
दिल ने वह चोट-सी खाई है कि जी जानता है
नायिकाओं के कटाक्ष के सामने कोई ही ऐसा बिरला पुरुष होगा जो बच गया हो। अन्यथा जिस किसी को भी नायिका ने अपने नयन बाणों का निशाना बनाया वह बिना घायल हुए नहीं बचा।
‘ताबिश’ की ग़ज़ल के नायक को तो अपनी प्रेमिका से ही नहीं, उसके पत्र से भी प्रेम है। वह तो उसे भी नहीं जला सकता।
इसमे बसी हुई हैं तिरे दिल की धड़कनें
मुझसे तेरे ख़ुतूत जलाए न जाएंगे
प्रेमिका की हर छोटी से छोटी वस्तु से भी प्रेमी को लगाव होता है। प्रेम-पत्र तो प्रेमी के लिए बहुत बड़ी चीज है। प्रेमिका या प्रेमी के द्वारा उपहार में मिला सामान कोई किसी को देना नहीं चाहता। जलाना और तोड़ना तो बहुत दूर की बात है।
प्रेमिका भले ही अपने अंगों को कितने भी कपड़ों में छिपा ले, परन्तु प्रेमी की नज़रें उसके उन अंगों-प्रत्यंगों को वस्त्रों के आवरण के बाद भी देख लेता है। ताबिश सुल्तानपुरी के शब्दों में-
मैं इस लिबास के सदके़ के अंग-अंग तेरा
तेरे लिबास के बाहर दिखाई देता है
नायक-नायिका भले ही एक-दूसरे से दूर हों, परन्तु कल्पना की उड़ान एक-दूजे को मिला ही देती है। इस कल्पना में वे न जाने क्या-क्या सोच लेते हैं। इस कल्पना में वे कभी एक-दूसरे के बहुत निकट आ जाते हैं, तो कभी अत्यन्त दूर हो जाते हैं। ‘ताबिश’ तो अपनी नायिका के अंगों को वस्त्रों के भीतर से भी देख लेते हैं।
विरह की रात काटना कितना मुश्किल होता है यह ताबिश सुल्तानपुरी से बेहतर कौन जान सकता है-
अहद-ए-जवानी, फ़स्लें बहारां, सन्नाटा, तन्हाई रात
जैसे मचले काली नागन, लेती है अंगड़ाई रात
तेरे ख़्याल में तेरी ब़ज्मे-जमाल में
हम सैकड़ों के साथ भी तन्हा से आए हैं
विरह की रात काटना केवल नायिका के लिए ही नहीं, नायक के लिए भी कष्टकारी होता है। ‘ताबिश’ का मानना है कि वियोग की यह रातें प्रेमी को नागिन के समान डसती रहती हैं। वे आगे लिखते हैं कि हे प्रिये! मुझको जब भी इस विरह में तेरा ख्याल आता है तो खुद को मैं एकदम अकेला पाता हूँ।
किसी से किसी को प्रेम हो और उस के चर्चे घर-घर ना हो ऐसा भला कहाँ संभव है-
पहले तो कुछ तेरी सखियों, मेरे यारों को ही ख़बर थी
तेरे मेरे प्यार के क़िस्से अब घर-घर मशहूर हुए हैं
‘ताबिश’ ने प्रेम का कितना अद्भुत वर्णन किया है। सच है कि जब कोई नायक या नायिका किसी से प्रेम करते हैं तो या तो नायक के दोस्तों को या फिर नायिका की सखियों को इस प्रेम विषय में ख़बर होती है, मगर जब उनका प्रेम परवान चढ़ता है तो धीरे-धीरे आस-पास के लोगों को भी इसका पता चल जाता है।
प्रेम में दीवाना होकर कोई प्रेमी अपनी प्रेमिका के सामने मनुहार न करे, यह कहाँ संभव है-
प्रेम की भिक्षा कोई गोरी डाल शायद झोली में
हम इस आस में जोगी बनकर द्वारे-द्वारे फिरते हैं
प्रेमिका की अदा का तो भगवान ही मालिक है। कब किस बात पर नखरे दिखना शुरू कर दे। ऐसे में बेचारे प्रेमी के पास विनती करने के अलावा और कोई रास्ता ही नहीं होता है। वह प्रेमिका के सामने अपने प्रेम की भीख माँगने लगता है। प्रेम एक ऐसा नशा है जो प्राप्त न हो तो व्यक्ति जोगी, फकीर और संन्यासी तक हो जाता है। कुछ लोग तो विक्षिप्त होकर इधर-उधर घूमने लगते हैं।
प्रेम जब अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच जाता है तो उससे प्रेमिका और ख़ुदा में कोई अन्तर नहीं दिखता-
ख़ुदा की बन्दगी वाजिब है लेकिन
सनम भी प्यार के काबिल है यारो
तुम जिन बातों पर हंसते हो, मैं उन पर रो देता हूँ
यारो मुझको ग़ौर से देखो सचमुच हूँ दीवाना क्या
‘ताबिश’ अपनी प्रेमिका को ईश्वर से भी उच्च स्थान प्रदान करते हैं। उनका कहना है कि ठीक है हम मानते हैं की खुदा की पूजा-अर्चना आवश्यक है, परन्तु क्या उस ख़ुदा के आगे अपने प्रेम को ठुकरा देना चाहिए? वह स्वयं ही उत्तर भी देते हैं कि ठीक है मैं मानता हूँ की ख़ुदा की बन्दगी करना ज़रूरी है, लेकिन मेरी प्रेयसी भी किसी ख़ुदा से कम नहीं है। वह भी सम्मान लायक है। वे आगे लिखते हैं कि दुनिया वालों! जिस प्रेम को तुम क्षणिक मानते हो, तुम जिसका मज़ाक उड़ाते हो, जिस पर तुम हँसते हो, उसके विषय में मुझसे पूछो कि प्यार क्या होता है! यह जिस पर बीतती है, वही जान सकता है। बाकी सबको यह मज़ाक लगता है। मैं इस अपने प्यार को प्राप्त करने के लिए जितना रोता हूँ या तो मैं जानता हूँ या मेरा भगवान।
प्रेमी द्वारा प्रेमिका को हाँ करा लेने में जितना आनन्द आता है, उसे शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता।
यह जो अर्ज़े-शौक़ के बाद भी तुझे देखता हूँ घड़ी-घड़ी
मेरी बे़करार निगाह को तिरे लब पे हाँ की तलाश है
नायक या नायिका जब तक एक-दूसरे से हाँ नहीं करा लेते, तब तक चैन से नहीं बैठते। और अगर उसने अपनी बात मनवा कर हाँ करवा लिया तो समझिए उसने दुनिया पर विजय प्राप्त कर ली। उससे बढकर कोई ख़ुशी उसके लिए नहीं हो सकती। जिस बात को मानने के लिए वह पता नहीं कितने दिन गुज़ारे हैं, अगर वह नसीब हो जाए, तो फिर उसके सामने जन्नत-दोजख कोई अर्थ नहीं रखता।
किसी से प्यार हो जाने पर व्यक्ति को अपना ख्याल नहीं रहता-
उनसे नज़रें मिली दिल गया हाथ से
क्या बताएं अजब हादसा हो गया
नायक या नायिका से आँखे चार होना भी किसी घटना से कम नहीं होता। प्रेम में किसे अपना होश होता है। प्रेमी-प्रेमिका रात-दिन एक-दूसरे के ही ख्यालों में खोये रहते हैं।
प्रेमिका के नयन बाणों से शायद ही कोई बच पाया हो-
ताक लिया है लालरूखो़ं ने
हाथ से अपने अब दिल निकला
‘ताबिश’ कहते हैं कि अगर सच में किसी नायिका ने किसी को नयन उठा के ताक लिया तो समझो वह गया काम से। फिर तो जो बहुत बड़े सूरमा बने घूमते हैं अपनी औकात पे आ जाते हैं। बहुत-बहुत बड़े-बड़े वीर अपनी प्रेमिका के सामने गिड़गिड़ाते नज़र आते हैं।
संयोग के क्षणों में प्रेमी-प्रेमिका को अलौकिक आनंद की अनुभूति होती है और दोनों के मन की गति, तन की गति में स्वतः ही परिवर्तन आ जाते हैं-
हुस्न से दोस्ती हो गयी है
ज़िन्दगी-ज़िन्दगी हो गयी है
उठ गयी हैं जिधर वह निगाहें
दूर तक रोशनी हो गयी है
उनके रूए हसीं पर मचल कर
चांदनी-चांदनी हो गयी है
‘ताबिश’ कहते हैं कि हे प्रिये! जब से तुम मेरी ज़िन्दगी में आई हो मेरी दुनिया ही बदल गयी है। जब तुम मुझको मिली हो मेरी डूबती कश्ती को किनारा मिल गया है। तुम मेरी अँधेरी ज़िन्दगी में उजाले की रोशनी बनकर आई हो। हे कामिनी! तुम्हारे सामने चन्द्रमा की चाँदनी भी फीकी पड़ गयी।
प्रेमी-प्रेमिका का मिलन अकेले में ही शोभा देता है। इस बात को ताबिश सुल्तानपुरी भी मानते हैं-
कुछ अपनी जफ़ाओं की मकाफ़ात करो जी
ख़िलवत में कभी मुझसे मुलाक़ात करो जी
दुनिया का हर व्यक्ति जानता है कि प्रेम में क्या होता है। फिर जो काम परदे के अन्दर होना चाहिए, वह पर्दे के अन्दर ही हो तो अधिक उचित है। इसलिए ‘ताबिश’ अपनी प्रेमिका से अकेले में मिलने की बात करते हैं। जहाँ किसी भी प्रकार की कोई विघ्न-बाधा न हो।
प्रेमी-प्रेमिका को किसी अन्य से बात करना अच्छा नहीं लगता–
चलती है छुरी दिल पे मेरी यूँ सर-ए-महफ़िल
हँस-हँस के रक़ीबों से न तुम बात करो जी
सत्य ही है, कोई भी प्रेमी या प्रेमिका यह कभी भी सहन नहीं कर सकता कि उसके प्यार का बंटवारा हो। ताबिश अपनी प्रेमिका को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि जब तुम कभी भरी महफिल में किसी और व्यक्ति से मेरे अलावा बात करती हो तो हे प्रिये! यह मुझसे सहन नहीं होता। कृपा करके तुम किसी ऐसे-वैसे व्यक्ति से बात न किया करो।
सच्चा प्रेम करने वाला कभी दुनिया के सामने यह कहने में नहीं डरता कि मैंने प्यार किया है-
हाँ मैं चिल्ला के ये कहता हूँ कि लैला मेरी
हाँ मैं दीवाना हूँ, मारो मुझे पत्थर यारो
ताबिश सुल्तानपुरी का कहना है कि जो सच्चा प्रेम करने वाला होगा, वह किसी के सामने यह कहने से नहीं डरता कि मैं अमुक व्यक्ति से प्यार करता हूँ। वासना के भूखे लोग वासना मिटने के बाद मुँह मोड़ लेते हैं।
जीवन में कभी-कभी ऐसा भी वक्त आता है, जब लगता है कि दुनिया में अब कोई हमारा नहीं है। मेरा प्यार भी अब मेरा नहीं रहा-
तुम हो नावाकिफ़-ए-आज़ार तुम्हें क्या मालूम
मेरी हर साँस है तलवार तुम्हें क्या मालूम
इतनी मानूस निगाहों से न देखो मुझको
मेरी किस्मत में नहीं प्यार तुम्हें क्या मालूम
जब व्यक्ति उदास होता है तो उसे कुछ भी अच्छा नहीं लगता। प्यार में धोखा खाने के बाद उसे दुनिया से विरक्ति हो जाती है। ऐसे समय में कोई भी प्रेमी या प्रेमिका गुस्से में यह बोल सकता है कि मेरी किस्मत में तो प्यार है ही नहीं।
अन्यत्र भी-
न कोई मेरे लिए है न मैं किसी के लिए
तरस रहा हूँ मुहब्बत की ज़िन्दगी के लिए
‘ताबिश’ कहते हैं कि इस मतलब की दुनिया में अब मेरा कोई नहीं है। मैं जिसे दिल से चाहता था, वह ही मेरा नहीं हुआ, तो दुनिया की इस झूठी मुहब्बत का क्या भरोसा! कितना साथ देगी। मैंने जिस प्यार को इतना आदर और सम्मान दिया, आज वही मुझे इतना तड़पा और तरसा रहा है। उसके बिना भी क्या कोई जीना है, जिसके ऊपर मैंने अपना सर्वस्व न्यौछवर कर दिया।
संयोग के क्षणों मे प्रेमी-प्रेमिका आनंद से अभिभूत हो अपने प्रिय और प्रियतमा का रूप वर्णन करते हैं। आस-पास का सारा वातावरण उन्हें सुखद प्रतीत होता है।
रानाइयां जितनी यदे-कुदरत में थीं शायद
सब सिर्फ़ तेरे लब तेरे गालों में हुई हैं
‘ताबिश’ का कहना है कि ईश्वर के पास जितनी भी सौन्दर्य सामग्री थी, उससे उसने तुझे सजा डाला है। कहीं से कोई कसर नहीं छोड़ी इन तेरे होठों और तेरे गालों को सजाने में।
प्रवास में किसी कारणवश प्रेमी-प्रेमिका को एक-दूसरे से अलग परदेस में रहना पड़ता है। विरह की विविध दशाओं का प्रतिफलन इसी अवस्था में होता है। परदेस में रहकर पत्र न लिख पाने की बेबसी प्रस्तुत शेर में अभिव्यक्त हुई है-
यह तो नहीं कि तुमसे मुहब्बत नहीं मुझे
हाँ, कारोबारे-शौक़ की फुर्सत नहीं मुझे
पेट की भूख कुछ भी करा दे, नहीं तो कौन ऐसा व्यक्ति होगा जो अपने परिवार से दूर होना चाहता है। हर व्यक्ति चाहता है कि उसके पास कोई ऐसा साथी हो जो उसे सुख और दुःख दोनों में समझे।
मिलन के पलों में सारा वातावरण ही सुखद प्रतीत होता है-
दस्त-ए-रंगी का उनके जो बोसा लिया
मेरी आँखों में रंग-ए हिना आ गया
नायक का कथन है कि उसने जब नायिका का स्पर्श किया तो उसके अंग-अंग में रोमांच उत्पन्न हो गया। मिलन के सुखद इस एहसास को शब्दों में नहीं व्यक्त किया जा सकता। यह वर्णनातीत है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि ताबिश सुल्तानपुरी ने अपनी ग़ज़लों में श्रृंगार के दोनों पक्षों (संयोग और वियोग) का ब-खूबी वर्णन किया है।
सन्दर्भ-सूची
1. दोपहर के फूल, ताबिश सुल्तानपुरी, प्रकाशक अंजुम फरोग, सुल्तानपुर, प्रथम संस्करण 2015 ई., पृष्ठ संख्या- 12
2. दोपहर के फूल, ताबिश सुल्तानपुरी, प्रकाशक अंजुम फरोग, सुल्तानपुर, प्रथम संस्करण 2015 ई., पृष्ठ संख्या- 22
3. दोपहर के फूल, ताबिश सुल्तानपुरी, प्रकाशक अंजुम फरोग, सुल्तानपुर, प्रथम संस्करण 2015 ई., पृष्ठ संख्या- 30
4. दोपहर के फूल, ताबिश सुल्तानपुरी, प्रकाशक अंजुम फरोग, सुल्तानपुर, प्रथम संस्करण 2015 ई., पृष्ठ संख्या- 31
5. दोपहर के फूल, ताबिश सुल्तानपुरी, प्रकाशक अंजुम फरोग, सुल्तानपुर, प्रथम संस्करण 2015 ई., पृष्ठ संख्या- 37
6. दोपहर के फूल, ताबिश सुल्तानपुरी, प्रकाशक अंजुम फरोग, सुल्तानपुर, प्रथम संस्करण 2015 ई., पृष्ठ संख्या- 38
7. दोपहर के फूल, ताबिश सुल्तानपुरी, प्रकाशक अंजुम फरोग, सुल्तानपुर, प्रथम संस्करण 2015 ई., पृष्ठ संख्या- 40
8. दोपहर के फूल, ताबिश सुल्तानपुरी, प्रकाशक अंजुम फरोग, सुल्तानपुर, प्रथम संस्करण 2015 ई., पृष्ठ संख्या- 42
9. दोपहर के फूल, ताबिश सुल्तानपुरी, प्रकाशक अंजुम फरोग, सुल्तानपुर, प्रथम संस्करण 2015 ई., पृष्ठ संख्या- 46
10. दोपहर के फूल, ताबिश सुल्तानपुरी, प्रकाशक अंजुम फरोग, सुल्तानपुर, प्रथम संस्करण 2015 ई., पृष्ठ संख्या- 48
11. दोपहर के फूल, ताबिश सुल्तानपुरी, प्रकाशक अंजुम फरोग, सुल्तानपुर, प्रथम संस्करण 2015 ई., पृष्ठ संख्या- 55
12. दोपहर के फूल, ताबिश सुल्तानपुरी, प्रकाशक अंजुम फरोग, सुल्तानपुर, प्रथम संस्करण 2015 ई., पृष्ठ संख्या- 63
13. दोपहर के फूल, ताबिश सुल्तानपुरी, प्रकाशक अंजुम फरोग, सुल्तानपुर, प्रथम संस्करण 2015 ई., पृष्ठ संख्या- 72
14. दोपहर के फूल, ताबिश सुल्तानपुरी, प्रकाशक अंजुम फरोग, सुल्तानपुर, प्रथम संस्करण 2015 ई., पृष्ठ संख्या- 78
15. दोपहर के फूल, ताबिश सुल्तानपुरी, प्रकाशक अंजुम फरोग, सुल्तानपुर, प्रथम संस्करण 2015 ई., पृष्ठ संख्या- 83
16. दोपहर के फूल, ताबिश सुल्तानपुरी, प्रकाशक अंजुम फरोग, सुल्तानपुर, प्रथम संस्करण 2015 ई., पृष्ठ संख्या- 83
17. दोपहर के फूल, ताबिश सुल्तानपुरी, प्रकाशक अंजुम फरोग, सुल्तानपुर, प्रथम संस्करण 2015 ई., पृष्ठ संख्या- 92
18. दोपहर के फूल, ताबिश सुल्तानपुरी, प्रकाशक अंजुम फरोग, सुल्तानपुर, प्रथम संस्करण 2015 ई., पृष्ठ संख्या- 92
19. दोपहर के फूल, ताबिश सुल्तानपुरी, प्रकाशक अंजुम फरोग, सुल्तानपुर, प्रथम संस्करण 2015 ई., पृष्ठ संख्या- 101
20. दोपहर के फूल, ताबिश सुल्तानपुरी, प्रकाशक अंजुम फरोग, सुल्तानपुर, प्रथम संस्करण 2015 ई., पृष्ठ संख्या- 99
21. दोपहर के फूल, ताबिश सुल्तानपुरी, प्रकाशक अंजुम फरोग, सुल्तानपुर, प्रथम संस्करण 2015 ई., पृष्ठ संख्या- 102
22. दोपहर के फूल, ताबिश सुल्तानपुरी, प्रकाशक अंजुम फरोग, सुल्तानपुर, प्रथम संस्करण 2015 ई., पृष्ठ संख्या- 104
– डॉ. अरुण कुमार निषाद