ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
एक हो जाते ये दिन रात तो अच्छा होता
फिर न होती ये मुलाक़ात तो अच्छा होता
ये तेरे प्यार के मौसम की घटा छाई है
आज हो जाती ये बरसात तो अच्छा होता
अब संभाले से संभलते ही नहीं हैं आँसू
आप न देते ये सौगात तो अच्छा होता
एक ही हाल में रहना बहुत अच्छा भी नहीं
कोई बदले मेरे हालात तो अच्छा होता
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ग़ज़ल-
वह जिस्म नहीं जिस्म का साया भी नहीं था
अपना भी नहीं था तो पराया भी नहीं था
मैं खुद ही दबे पाँव चली जाती थी छत पर
उसने तो कभी मुझको बुलाया भी नहीं था
कैसे न हुई पार मैं दरिया के किनारे
काग़ज़ का सफ़ीना तो बनाया भी नहीं था
वह कैसे चमकता रहा चेहरे पे हमारे
वह चाँद जो आँखों में समाया भी नहीं था
जपती रही मैं कैसे तेरे नाम की माला
तूने तो कभी दिल में बसाया भी नहीं था
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ग़ज़ल-
आँधी चली थी शम्अ बुझाने तमाम रात
जलते रहे थे ख्व़ाब सुहाने तमाम रात
जिन काग़ज़ों पे तूने लिखा था किसी का नाम
रोते रहे थे ख़त वो पुराने तमाम रात
तोड़ा था जिसके दिल को सितारों ने बेसबब
आए थे उसको जुगनू मनाने तमाम रात
यूँ मेरे दर्द-ए-दिल की दवा बन सके न तुम
रिसते रहे वो ज़ख्म पुराने तमाम रात
जिनके लिए थी दिल की वो महफिल सजी हुई
आए नहीं वो रस्म निभाने तमाम रात
आई नहीं न आँख लगी सुबह हो गई
करती रही ये नींद बहाने तमाम रात
– डॉ. आरती कुमारी