आलेख
समकालीनता के निर्धारक विमर्श और समकालीन कविता- डाॅ. धीरेन्द्र सिंह
उत्तर-आधुनिकता की कोख से अनेक विमर्शों का जन्म हुआ है, जिसमें स्त्री, दलित व आदिवासी विमर्श, अपनी संवेदना व अभिव्यक्ति की क्षमता के बल पर दुनिया भर में अपनी सशक्त उपस्थिति के साथ दर्ज हुए हैं। स्त्री विमर्श बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में साहित्य जगत में आया, किन्तु उसने जीवन और जगत के विभिन्न क्षेत्रों में अपनी एक स्वतंत्र पहचान बनाई है। समकालीनता के सन्दर्भ में विचार करें तब पता चलता है कि पिछले दो दशकों में हिन्दी कविता व साहित्य चिंतन में स्त्री समाज का विकास परम्परागत स्त्रीवादी संरचना से बाहर निकल कर हुआ है। स्त्री विमर्ष एक नवीन राजनीतिक पहल की माँग करता है, जिसमें स्त्री के घर-परिवार से लेकर जीवन के अन्य पहुलओं तथा उनके निजी अनुभवों को भी साझा किया जाये। आज की स्त्री मात्र बने-बनाए परम्परागत ढाँचे को ही नहीं तोड़ रही है, अपितु एक नए संसार को निर्मित भी कर रही है, जिसमें उसकी अपनी निजता का संरक्षण हो सके। वह अपनी अस्मिता व अस्तित्व को पहचानने लगी है। वह अपने समाज के लिए नए प्रतिमान गढ़ रही है। जबकि स्त्रियाँ सदियों से ही सताई गई हैं। कमलेश्वर साहू की कविता से इसे समझा जा सकता है-
स्त्री खड़ी है
उजड़े हुए घर की दहलीज़ पर
ठगी-सी
सदियों से।1
स्त्री विमर्श की आवश्यकता ही इसीलिए पड़ी कि सदियों से उपेक्षित, सतायी गई स्त्री-समाज को उसका अधिकार मिल सके। यह सच है कि स्त्रियाँ हमेशा अपनों द्वारा ही ठगी गई हैं। वह असंख्य दुःख दर्द, कष्ट पीेड़ा में क्षण-क्षण जीती हैं। समकालीन कविता ने स्त्री जीवन से संबंधित दुःख-सुख, हर्ष-विषाद, संयोग-वियोग, आस्था-अनास्था, पीड़ा-आनंद आदि पहलुओं को अपनी रचनात्मकता में शामिल किया है। स्त्री जीवन की समस्याओं में जाति, धर्म, सम्प्रदाय, लिंग, वर्ग, नैतिकता-अनैतिकता आदि अनेक सामाजिक विडंबनाएँ मौजूद हैं। स्त्री द्वन्द्व की ही स्थिति में बनी हुई है, घर के भीतर और बाहर दोनों ही जगह। वर्तमान में देखें तो पायेंगे कि महानगरों में शिक्षित स्त्रियों का एक बड़ा समूह अपनी भागीदारी को लेकर सक्रिय हुआ है, जो अपना कार्य-क्षेत्र स्वयं तय कर रहा है। जैसा कि कहा जाता है स्त्री पैदा नहीं होती, बना दी जाती है। समूचा परिवेश स्त्री को स्त्री होने का एहसास दिलाता रहता है। सामाजिक परिवेश से उसका एकाकार इस प्रकार किया जाता है कि वह खुल नहीं पाती और न ही खुलकर अपने मन की पीड़ा को व्यक्त ही कर पाती है। समाज के समक्ष उसका स्वाभाविक विकास भी नहीं हो पाता है। समकालीन कवि राजेश जोशी स्त्री की मनःस्थिति को बखूबी समझते हुए एक सार्थक टिप्पणी करते हैं-
हम औरतों के दिमाग में बचपन से ही
इतने डर बैठा दिए जाते हैं
कि जीवन में अक्सर हम एक सुरक्षित कोना ढूढ़ लेना चाहती हैं
सच जानो औरतें उतनी व्यावहारिक होती नहीं है,
जितनी वो दिखने की कोशिश करती हैं 2
आज का मनुष्य संसार की प्रत्येक समस्या का हल पुरुष मानसिकता द्वारा ही सुलझाना व मूल्यांकित करना चाहता है। जबकि स्त्री और पुरुष की अपनी अलग-अलग स्वतंत्र सत्ता है। समकालीन कवि राजेश जोशी स्त्री मन को गहराई से पढ़ते हैं, क्योंकि वे कुछ भी बोलने से पहले उस बोलने से समाज की दिशा व दशा क्या होगी की चिंता करते हैं। वे पुरुष समाज से यह अपील करते हैं कि स्त्री समाज पर किसी भी प्रकार का बाहरी दबाव न बनाया जाय बल्कि उनकी स्वतंत्र चेतना को और अधिक परिष्कृत होने का अवसर दिया जाय। जिससे समाज में स्वतः उद्भूत विचारों से समाज को लाभान्वित किया जा सके। उनका मानना है कि समस्याओं पर पुरुष के बजाय एक स्त्री और बच्चे की निगाह से देखें तो कई समस्याओं का समाधान अपने आप हो जाए। चाहे प्राकृतिक आपदा हो या औद्योगिक त्रासदी या फिर साम्प्रदायिता की भेंट चढ़ने वाले अनेक दंगों की हैवानियत। इन सब में सर्वाधिक नुकसान स्त्री और बच्चों का होता है, उन्हीं की दुनिया सबसे अधिक क्षतिग्रस्त होती है। स्त्री की हैसियत समाज में दोयम दर्जे की होती है, वह अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व के साथ तो जीती ही नहीं। कभी पिता के परिचय के साथ जानी जाती है, तो कभी पति या पुत्र के नाम से। उसका अपना निजी अस्तित्त्व ही क्या है! उसकी अस्मिता को बचाए रखने के लिए कवि दृढ़ संकल्प दिखाई पड़ता है-
औरतें कुछ भी याद न करने की कोशिश करती हुईं
दिन भर लिफाफे बनाती हैं
किसी कतरन में
बच्चें की तस्वीर देखकर ठिठक जाती हैं
आँखे चुराते हुए कागज़ को जल्दी से पलटकर
ढेर में मिला देती हैं
अब यहाँ कोई नहीं रोता। 3
वास्तव में स्त्री समाज आज भी अनेक सामाजिक बंधनों से घिरा हुआ है। स्त्री के प्रति प्रत्येक व्यक्ति व समाज का अपना अलग ही दृष्टिकोण होता है। सामंती समाज का स्त्री को देखने, जाँचने-परखने का अपना अलग नज़रिया है। हिन्दी में महिला लेखन अधिकतर उच्च मध्य वर्ग तक ही सीमित होकर रह गया है। यह एक ऐसा समुदाय होता है जो बनना तो उच्च चाहता है, किन्तु अपनी संवेदना निम्न वर्ग के साथ व्यक्त करता है। उच्च वर्गीय स्त्री लेखन में सिर्फ परिवार के मूल्यों के विघटित होने का जि़क्र होता है किन्तु परिवार रूपी संस्था को बनाए रखना चाहते हैं। ज्यादातर स्त्री लेखिका परिवार नामक संस्था पर प्रश्न करने से बचती हैं। सीमोन द बउआ और बर्जीनिया वुल्फ के द्वारा उठाये गए सवालों से आगे आज भी स्त्री विमर्श नहीं जा पाया है, किन्तु आधुनिक शिक्षा व्यवस्था ने स्त्री समाज को न सिर्फ बौद्धिक क्षमता से युक्त बनाया है अपितु उन्हें अपनी सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक जवाबदेही का बोध भी कराया है। आज की स्त्री अपने कर्तव्यों एवं अधिकारों के प्रति बहुत सचेत है। समकालीन विमर्शों की चिंतनधारा में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखने वाली समीक्षक रमणिका गुप्ता का मानना है कि स्त्री घर परिवार समाज की जकड़न व रूढि़यों से मुक्त होना चाहती है, क्यूंकि इन सब ने किसी न किसी रूप में स्त्री का शोषण ही किया है। स्त्री समाज में अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाये रखना चाहती है। वह समानता व आजादी चाहती है। संसार के समस्त मानवीय सरोकारों से जिसने भी मनुष्यता की पक्षधरता रखी हो। रमणिका गुप्ता स्त्री की मनःस्थिति का अवलोकन करती हुई मालूम पड़ती हैं-
मैं आजाद होना चाहती हूँ
इसका अर्थ यह तो नहीं
मैं तुमसे मुक्त होना चाहती हूँ
न ही आज़ाद होने का अर्थ है
तुम्हारे प्यार से मुक्त होना।
मैं तो बस प्यार करने की हकदार होना चाहती हूँ
खुद प्यार करना चाहती हूँ
मैंने कब नकारे हैं रिश्ते
कब तोड़े हैं नेह के धागे?
मैंने तो तोड़ी है सदियों से सीखी चुप्पी। 4
स्त्री समाज अपनी गति में गतिशील है किन्तु फिर भी उसका शोषण हो रहा है। वह यातनापूर्ण जीवन जीने को अभिशप्त है। स्त्री के शोषण का एक मात्र आधार यह नहीं है कि वह स्त्री है बल्कि घर, परिवार के अन्दर और बाह्य समाज में भी स्त्री दोयम दर्जे की समझी जाती है। स्त्री विमर्श पर स्पष्ट राय देने वाली कात्यायनी लिखती हैं- ‘‘औरतों का यौन शौषण मात्र इसी आधार पर नहीं होता कि औरत-औरत है। यह इसलिए संभव हो सका है कि उसकी सामाजिक हैसियत घर-बाहर सर्वत्र दूसरे दर्जे के नागरिक की है। इस सामाजिक हैसियत का तालुक उसके आर्थिक शोषण से है।’’5
भारतीय स्त्री समाज और उनका लेखन तथा पाश्चात्य स्त्री समाज और उनका लेखन विषय पर दृष्टि डालें तो पायेंगे कि- “पश्चिम के समाज में स्त्री अपनी पहचान के ऐसे प्रश्नों से उलझी है जो विकसित समाजों के प्रश्न हैं, जबकि भारतीय स्त्री एक पिछड़े हुए समाज और अगड़े दोनों समाजों के प्रश्नों से दो चार है। यह स्थिति लेखिकाओं की स्थिति और चुनौती दोनों को नया बनाती हैं। वे चाहें भी तो नकल से काम नहीं चला सकती।” 6
स्त्री विमर्श ने स्त्रियों के जीवन स्तर चिंतनधारा में परिष्कार किया है किन्तु जब तक स्त्री स्वयं अपनी और अपने समाज की नेतृत्वकर्ता नहीं बनेगी, तब तक एक मुकम्मल समाज की परिकल्पना करना असहज-सा लगता है। अस्मितावादी विमर्शों पर तीखी एवं स्पष्ट टिप्पणी करने वाले आशुतोष कुमार स्त्री विमर्शों के संबंध में अपने विचार व्यक्त करते हैं- “स्त्री अपनी स्वत्व, अपनी गरिमा और मनुष्य के रूप में अपना जीवन केवल तभी प्राप्त कर सकती है, जब तक स्वयं अपने लिए सोचना, जीना और लिखना शुरू करे। केवल वही अपनी इच्छाओं, आकांक्षाओं, सपनों, दुखों, अभावों, कुण्ठाओं को ठीक से जान सकती है। अपने जीवन पर पड़ी बेड़ियों को पहचान सकती है। उसकी मुक्ति के लिए ज़रूरी है वह अपने जीवन के घावों को छुपाना बंद करे। साहित्य में केवल पुरुष की फंतासियों का आलंबन बनना बंद करे। अपने बारे में स्वयं लिखकर वह एक मनुष्य के रूप में अपनी स्वतंत्रता और अस्मिता प्रमाणित कर सकती है।” 7
हम कह सकते हैं कि अस्मिता के लिए होने वाले इन विमर्शों में स्त्री विमर्श प्रामाणिक एवं प्रासंगिक विमर्श है। इस विमर्श का औचित्य तब और बढ़ जाता है, जब दिनो-दिन स्त्रियों पर होने वाले अत्याचार की घटनाएँ वैश्विक स्तर पर बढ़ती जा रही हैं। उसके शोषण की लम्बी श्रृंखलाएँ हैं। समकालीन कविता में यद्यपि स्त्री को आधार बनाकर अनेक कविताएँ लिखी जा रही हैं लेकिन समय के सापेक्ष ऐसी कविताओं की संख्या बढ़ाने की भी ज़रूरत है तथा शोषक और बर्बर पुरुषवादी कट्टर सोच की शिकार होती महिलाओं की स्थितियों के अधिकाधिक चित्रण की भी आवश्यकता है। स्वाभाविक-सी बात है, जब शोषण के दायरे और उसके रूपों में नित नए बर्बर परिवर्तन आ रहे हैं, एक से एक अमानवीयतापूर्ण तरीके ईजाद किए जा रहे हैं तो ऐसी कुत्सित और बहुप्रसारित मानसिकता के खिलाफ साहित्यकारों को एक स्वर से लामबंद होना होगा तथा उनका तीव्र प्रतिकार करना ही होगा, नहीं तो मानव के विकास में सदैव अपनी सहवर्ती भूमिका निभाने वाली स्त्रियाँ यातना के भयंकर दुष्चक्र में पिसती जायेंगी और समूचा समाज ही नहीं समूचा विश्व नष्ट भ्रष्ट होकर क्षीण हो जायेगा। समाज से लेकर साहित्य तक देह तलाशने वाले लोगों को नारी की आत्मा की आवाजों को एवं उसकी अस्मिता के सम्मान की रक्षा के लिए दृढ़ संकल्प होने के लिए मजबूर करना ही होगा। जिससे समाज में एक ऐसा वातावरण निर्मित हो सके कि नारी प्रकृति के कण-कण से प्यार ही प्यार खींच ले और इस कायनात की हर रौ उसे प्यार से सनी हुुई प्रतीत हो-
आईनों में उभरते
तेरे और मेरे
आकारों को देख
हँस देते हैं
तेरे माथे पर
घटनाओं को लट को
मैं बिजली के
हाथों से
बिखेर देती हूँ
झटके से मुझे चूम लेता है
और नई सृष्टि के सर्जन में
‘जुम’ जाता है। 8
उत्तर आधुनिक समय का दूसरा महत्त्वपूर्ण विषय दलित विमर्श के रूप में जाना जाता है। दलित विमर्श या साहित्य की अवधारणा समझे बगैर दलित विमर्श को नहीं समझा जा सकता है। दलित साहित्य की अवधारणा को समझने से पूर्व दलित शब्द की व्युत्पत्तिपूर्ण अर्थ की पड़ताल की जानी चाहिए, जिससे सम्पूर्ण विषयगत अर्थ स्पष्ट हो सके। दलित शब्द की अर्थवत्ता के विषय में डाॅ. कुसुमलता मेघवाल के विचार को जाँचा-परखा जा सकता है- “दलित का शाब्दिक अर्थ है कुचला हुआ। अतः दलित वर्ग का सामाजिक संदर्भों में अर्थ होगा, वह जाति/समुदाय, जो अन्यायपूर्वक सवर्णों या उच्च जातियों द्वारा दमित किया गया हो, रौंदा गया हो। दलित शब्द व्यापक रूप में पीड़ित के अर्थ में आता है, पर दलित वर्ग का प्रयोग हिन्दू समाज व्यवस्था के अन्तर्गत, परम्परागत रूप में शूद्र माने जाने वाले वर्णों के लिए रूढ़ हो गया है। दलित वर्ग में वे सभी जातियाँ सम्मिलित हैं, जो जातिगत सोपान क्रम में निम्न स्तर पर हैं और जिन्हें रूढ़ियों से दबाकर रखा गया है।”9
भारतीय समाज व्यवस्था में दलित वही है, जिसे समाज के कुछ लोग हाशिए पर ढकेल दिए हैं। दलित वह प्रत्येक व्यक्ति है, जिसे समाज द्वारा उपेक्षा की दृष्टि से देखा जाता हो। किन्तु समय परिवर्तनशील है, उसकी गतिकी में ही विमर्श अपनी दृष्टि से बहस की अर्थवत्ता तय करते हैं। दलित विमर्श समाज के उपेक्षित लोगों का एक ऐसा विमर्श है जिसमें अन्तिम व्यक्ति की भागीदारी को रेखांकित किया जाता है, चूँकि सृष्टि का प्रत्येक प्राणी अपने आप में अनोखा है। उसकी तुलना किसी दूसरे से करना संभव नहीं है और यदि ऐसा किया जाता है तो वह अतार्किक एवं असंगत है। दलित विमर्श पर एक मुकम्मल बहस से पूर्व यह जान लेना आवश्यक है कि आखिर दलित साहित्य क्या है? क्या सवर्णों द्वारा लिखा गया साहित्य भी दलित साहित्य की श्रेणी में आयेगा या सिर्फ दलित रचनाकारों द्वारा रचित साहित्य ही दलित साहित्य है, यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है, जिसकी पड़ताल आवश्यक है। दलित विमर्श के वरिष्ठ आलोचक, कुशल अध्येता, साहित्यकार ओमप्रकाश वाल्मीकि दलित साहित्य उसे मानते हैं, जो भाषावाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद, सम्प्रदायवाद आदि अनेक संकीर्ण मनोवृत्ति से मुक्त होकर लिखा गया हो, साथ ही भारत की पहचान अनेकता में एकता के भाव से युक्त हो। दलित साहित्य दलित समाज के उत्थानार्थ लिखा गया वह साहित्य है, जिसने समूचे भारतीय परिवेश में दलितों को एक स्वतंत्र पहचान दिलाई हो। दलित जिनका जिक्र इतिहास की पुस्तकों तक में उपेक्षित वर्ग के रूप में हुआ है। ओमप्रकाश वाल्मीकि लिखते हैं- “दलित साहित्य भाषावाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद को नकारता है तथा पूरे देश को एक सूत्र में पिरोने का कार्य करता है। दलित शब्द उन्हें सामाजिक पहचान देता है, जिनकी पहचान इतिहास के पृष्ठों से सदा के लिए मिटा दी गई, जिनकी गौरवपूर्ण संस्कृति, ऐतिहासिक धरोहर कालचक्र में खो गई।’’10
दलित साहित्य दलितों द्वारा लिखे गए साहित्य को कहते हैं या गैर दलित भी दलित की संवेदना का वाहक हो सकता है? इस बहस में न पड़ते हुए हमें यह देखना है कि आखिर दलित संवेदना के मुख्य सवाल क्या हैं, जिनसे दलित समाज को टकराना पड़ता है। डाॅ. सोहन पाल दलित साहित्य उसे मानते हैं जो दलितों की प्रगति की राह तय करता हो, उनकी सोच का नेतृत्वकर्ता हो। उन्हीं के शब्दों में- “दलित साहित्य दलितोत्थान साहित्य यानि दलितोत्थान हेतु लिखा गया, यह एक ऐसा साहित्य है जो भोगे हुए सच पर आधारित है। ज़मीन से जुड़े दलित, शोषित, उपेक्षित, सर्वहारा वर्ग से संबंधित है, जो दशा और दिशा को इंगित करता है और जिसमें विद्रोह और उद्बोधन के साथ संवेदना जागृत करने की ऊर्जा है।”11
दरअस्ल दलित साहित्य के शुरुआत की बात करें तो पायेंगे कि इसकी नींव मराठी साहित्य या मराठी से होती है। महाराष्ट्र के साहित्यकारों ने मराठी भाषा के माध्यम से अपने समाज के उत्थान हेतु साहित्य रचा। जिनमें अनेक विधाएँ शामिल हैं, जैसे गद्य-पद्य, नाटक आत्मकथा आदि। इसी साहित्य को दलित साहित्य नाम दिया गया। दलितों की समस्याओं पर गैर दलित साहित्यकारों द्वारा भी लिखा गया, किन्तु गैर-दलित साहित्यकारों द्वारा लिखे गए साहित्य में सहानुभूति का भाव दृष्टिगत होता है। दलित, शोषित, पीड़ित समाज के लिए लिखने वाले मराठी साहित्यकारों में नामदेव, बाबा आढाव, यशवंत मनोहर, शरद लिंबाले, सूर्यकान्त रणसुभे, विमल कीर्ति मेश्राम आदि प्रमुख हैं। हिन्दी साहित्यकारों ने भी दलित विमर्श पर अपनी लेखनी चलाई है, जिनमें दलित एवं गैर-दलित दो प्रकार के साहित्यकार हैं, जिनमें प्रेमचन्द, नागार्जुन, निराला, सुशीला टाकभोरे, बजरंग बिहारी तिवारी, रमणिका गुप्ता आदि का नाम उल्लेखनीय है।
दलित विमर्श पर विचार करते समय यह भी ध्यान देने योग्य तथ्य है कि इसका सरोकार अखिल भारतीय स्तर का रहा है। दलित समाज के उत्थान में दलित चिंतक डाॅ. भीमराव अम्बेडकर की बहुत ही महती भूमिका रही है। भारत में डाॅ. अम्बेडकर दलित समाज के पहले उन्नायक सिद्ध हुए, जो दलित समाज को शिक्षित, संगठित और संघर्ष की प्रेरणा के आधार स्तंभ बने। भारत में दलित आंदोलन की गति को तीव्रता अनेक पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से अम्बेडकर जी ने प्रदान की।
हिन्दी दलित लेखन की व्यवस्थित शुरुआत नवें दशक में हो चुकी थी। शुरुआती दौर में दलित लेखन के प्रति मुख्यधारा का नज़रिया बहुत ही हिकारतपूर्ण रहा है। कभी दलित लेखन को असाहित्यिकता और कलाहीनता का दंश झेलना पड़ता है तो कभी वास्तविकता से परे कहकर उसका उपहास उड़ाया जाता रहा है किन्तु वर्तमान समय में दलित अनुभूति सर्वाधिक चर्चित विमर्श के रूप में उभर रहा है। इसकी मूल संवेदना में मुक्ति की आकांक्षा का भाव सन्निहित है। दलित साहित्य, दलित जीवन की संवेदनशीलता और अनुभवों का समन्वित रूप है। दलित लेखक, जो हिन्दी भाषा के माध्यम से दलित चिंतन कर रहे हैं, उनमें डाॅ. श्यौराज सिंह बेचैन, डाॅ. धर्मवीर, कँवल भारती, जयप्रकाश कर्दम, डाॅ. एन. सिंह, कालीचरण स्नेही, सूरजपाल चौहान आदि उल्लेखनीय हैं। आज का हिन्दी दलित लेखक अपनी संवेदना को आकार दे रहा है। वह पूर्णरूप से संचेतनायुक्त है जो बाह्य समाज के किसी भी लुभावने में आने वाला नहीं है। सत्य और असत्य में भेद करना अब सीख गया है। वह उन सभी नारों की कड़ी आलोचना करता है जो समाज को बरगला रहे हैं। समाज में अभी भी जातिवाद, सम्प्रदायवाद, वर्णवाद आदि अनेक बुराईयाँ मौजूद हैं, बस कमी दृष्टिगत होती है तो उसकी मात्रा में किन्तु समस्याएँ अभी भी निर्मूल नहीं हुई हैं-
झूठे हैं वे लोग जो कहते हैं कि देश में
जातिवाद आखिरी साँसे ले रहा है
धोखेबाज़ हैं वे लोग जो कहते हैं
अस्पृष्यता का जनाज़ा निकल चुका है
मक्कार हैं वे लोग जो कहते हैं कि
वर्ण व्यवस्था अप्रासंगिक हो चुकी है। 12
दलित कवि अपने ऊपर हो रहे शोषण के अन्यान्य तरीकों से अवगत हैं इसलिए समाज को भी जागरूक बनाना चाहते हैं। शोषण के विभिन्न तरीकों को बताने के लिए दलित साहित्यकार मिथकों को अपनी रचनात्मकता का विषय बनाते हैं। राम, कर्ण, एकलव्य, शम्बूक इत्यादि नायकों को अपनी कविता में लाकर दलित कवि वर्तमान और अतीत में संबंध स्थापित करते हैं। मिथकों को प्रयोग करके उन्हीं को माध्यम बनाकर दलित कवि सामाजिक बदलाव में प्रतिकूल खड़े होने वाली शक्तियों को परिवर्तन के शत्रु मानते हैं। समाज की वर्तमान स्थिति कैसे बदतर हो रही है, दलित कवि लालचंद राही अपनी कविता के माध्यम से दिखाने का प्रयास किया है। ‘राम की रिहाई’ कविता के माध्यम से कवि राम के पश्चातापपूर्ण चरित्र को दिखाकर वर्तमान राजनीति के चरित्र को उद्घाटित करने का प्रयास किया है-
राम की ओट में छुपा अनाचार
मंदिर से भागकर
संसद में शरण पा रहा है
हरिजनों पर अब भी ज़ुल्म ढा रहा है
यदि अनाचार बढ़ता रहा
तो कोई नहीं रोक सकेगा
धू-धूकर जलने से
लंका के समान
मेरी सोन चिरैया को
मेरी मातृभूमि को। 13
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में दलित विमर्श मानव विरोधी स्थितियों से मुक्ति की लड़ाई लड़ रहा है। शिक्षा, स्वास्थ्य, समानता, अस्तित्व की पहचान आदि मुख्य मुद्दे हैं, जिन्हें प्राप्त करना दलित विमर्श का मुख्य ध्येय है। दलितों में चेतना जब तक नहीं आएगी। तब तक दलित समाज उपेक्षित ही रहेगा। दलित की कथा-व्यथा, पीड़ा, दुःख, त्रासदी आदि दलित अब अपनी लेखनी द्वारा व्यक्त कर रहे हैं।
उत्तर-आधुनिक समय का तीसरा प्रमुख विमर्श है आदिवासी विमर्श। आदिवासियों के जीवन-संघर्ष उनकी पक्षधरता रखने वाला विचार ही आदिवासी विमर्श कहलाता है। जैसा कि हम जानते हैं आदिवासी किसी भी देश का मूल निवासी होता है, किन्तु आज वही सर्वाधिक त्रस्त है अपनी पहचान के साथ। आदिवासी जहाँ भी है वहीं उसे सताया गया है, सुविधाओं से वंचित रखा गया है, उसकी अस्मिता व अस्तित्व को नकारा गया है। आदिवासियों को मानव से इतर माना गया है- “आदिवासी शब्द के उच्चारण से ही हमारे सम्मुख खड़ा हो जाता है- प्रत्येक सदी से छला-सताया, नंगा किया गया और सोची-समझी साजिश के तहत वन-जंगलों में जबरन भगाया जाता रहा एक असंगठित मनुष्य। वह मनुष्य जो अपनी स्वतंत्रता परम्परा सहित, सहस्त्र सालों से गाँवों-देहातों से दूर घने जंगलों में रहने वाला संदर्भहीन मनुष्य है- जो एक विशेष पर्यावरण में अपने सामाजिक तथा सांस्कृतिक मूल्यों को जान की कीमत पर सँजोये, प्रकृतिनिष्ठ, प्रकृति निर्भर, कमर पर बित्तेभर चिंदी लपेटे पीेठ पर आयुध लेकर, भक्ष्य की खोज में शिकारी बना, मारा-मारा भटक रहा है। कभी राजनीतिक तथा सांस्कृतिक वैभव से इतराने वाला यह कर्तव्यशील मनुष्य, परन्तु वर्तमान में लाचार, अन्याय-ग्रस्त तथा पशुवत् जीवन यापन करने वाला मनुष्य, यही उसका कुल जीवन है। वेदना से भरा लोकोचार है।” 14
आदिवासी शब्द सुनते ही उन लोगों की याद आती है, जो पहाड़ों एवं जंगलों में शिष्ट प्रकार के वातावरण में विशिष्ट भाषा एवं जीवन-शैली के माध्यम से अपने सामाजिक धार्मिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों को संरक्षित, संवर्धित किए हुए हैं। अर्द्धनग्न अवस्था में जंगलों, पहाड़ों में भटकने वाला यह मानव समूह वास्तव में जंगल का मालिक है किन्तु भारतीय शासन व्यवस्था एवं विधिक प्रणाली ने इन्हें अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिया हुआ है।
आदिवासी संस्कृति समाज दृष्टि और सोच मुख्यधारा के सोच से विपरीत है। वे सामूहिक जीवन-शैली, सामूहिक सोच-विचार के होते हैं। आदिवासी समाज जाति, वर्ग ऊँच-नीच के झगड़ों से परे है। लोकतंत्र आदिवासी समाज का मूलाधार रहा है। समता, समानता उनकी रगों में भरा है। वे किसी का भी हक कभी नहीं मारते हैं बल्कि यदि कोई भी ऐसा करता है तो वे उसका प्रतिकार करते हैं। आदिवासी समाज अनेक विशेष गुणों से लैश है, किन्तु आज उसकी स्थिति बहुत ही सोचनीय है। समकालीन कवि विनोद कुमार शुक्ल आदिवासियों की बदतर हाल से बहुत चिंतित हैं। वे आदिवासी समाज को खुशहाल और स्वस्थ देखना चाहते हैं, पर उसकी स्थिति वेन्टिलेटर पर पड़े हुए मरीज की सी हो गई है, जो जीवन और मृत्यु के भयानक षड़यंत्र में फँसा हुआ है। आदिवासी समाज की दशा को रेखांकित करते हैं-
जंगल के उजाड़ में
कांदा खोदते-खोदते
भूख से बेहाल पड़े आदिवासी के लिए
कौन डॉक्टर बुलाएगा
उसे अस्पताल ले जाना चाहिए
या रसोईघर.!
दूर किसी पेड़ के नीचे या झोपड़ी में
उसकी पत्नी और तीन बच्चे
भूख से मरते हुए उस आदमी का
इंतजार करते होंगे
कि वह कांदा खोदकर ला रहा होगा।
फिर वे भी भूख से मर जाएँगे
कुछ ही दिनों से
यह एक आदिवासी कथा है
कि बहुत बरस से जंगल में
बहुत-से आदिवासी भूख से मर जाते हैं। 15
आदिवासी विमर्श आदिवासियों के जीवन-संदर्भ से जुड़े समस्त पहलुओं को उजागर कर एक सकारात्मक पहल करने की माँग करता है, जिनमें आदिवासियों का विकास, सामाजिक एवं आर्थिक समानता, लोकतंत्र में उनकी उचित भागीदारी इत्यादि पर पक्षधरता की समीक्षा होनी चाहिए। उत्तर-आधुनिकता ने अस्मितावादी विमर्शों को लाकर इनकी केन्द्रीय भूमिका बतलाई। आदिवासियों की समस्या जल, जंगल ज़मीन आदि विस्थापन प्रमुख है। जिस पर आदिवासियों का समूचा भविष्य निर्भर है। “आदिवासी आदिम जाति, जनजाति बनवासी अनुसूचित जनजाति आदि किसी भी नाम से हमारे समाज में पहचाने जाने वाला वह वर्ग है, जो प्रायः पहाड़ों और दूर-दराज के इलाकों में आधुनिक सभ्यता के लाभों से वंचित प्रगति के दौड़ में पिछड़ा, शिक्षा तथा जागरण के वरदान से प्रायः अछूता और शोषण का शिकार है।” 16
आदिवासी समाज आरंभ से ही वनों में रहते आया है। उसने जंगलों का अपनी आवश्यकतानुसार उपयोग किया, किन्तु उसे कभी क्षति नहीं पहुँचायी है। जिस जंगल की वे रक्षा करते थे, जिसे पूजते थे, वहीं से उन्हें उजाड़ा जा रहा है। आदिवासी जंगल से प्रेम करता है। वह अपनी आँखों के सामने जंगल को कटते हुए नहीं देख सकता। इसलिए वह प्रतिकार करता है। वह अपनी लेखनी द्वारा भी विरोध दर्ज करा रहा है। आदिवासी समाज और संस्कृति के कुशल चितेरे महादेव टोप्पो अपनी कविता में व्यक्त करते हैं-
वह धनुष उठायेगा
प्रत्यंचा पर कलम चढ़ायेगा
साथ में बाँसुरी और माँदर भी जरूर उठाएगा
जंगल के हरेपन को बचाने के खातिर
जंगल का कवि
माँदर बजायेगा
चढ़ा कर प्रत्यंचा पर कलम। 17
अंततः समकालीनता के निर्धारक विमर्शों में स्त्री, दलित एवं आदिवासी विमर्श अपनी सशक्त उपस्थिति के कारण प्रासंगिक बना हुआ है। अस्मितावादी विमर्शों ने अपनी पहचान को बनाए रखने के निमित्त अपनी माँगों को बहस का हिस्सा बनाया। उत्तर-आधुनिकता ने स्त्री, दलित एवं आदिवासी जनों को परिधि से केन्द्र की ओर आने का आमंत्रण दिया। आज अस्मितावादी विमर्शों ने अपनी लेखनी द्वारा अपने द्वारा उठाये गए सवालों को जनमानस के समक्ष प्रस्तुत किया और उन पर सबकी निष्पक्ष राय माँगी। आदिवासी विमर्श सर्वाधिक ज्वलंत विमर्श के रूप में उभरा है। स्त्री, दलित एवं आदिवासी तीनों विमर्श इस मायने में समान हैं कि इनका रचनात्मक जीवन, यथार्थ श्रम, उत्पीड़न, शोषण, अभाव, उपेक्षा और अन्याय से जुड़ा है। स्त्री, दलित एवं आदिवासी विमर्श लगभग प्रतिरोध का विमर्श है जो इन सबको वर्तमान समय में प्रासंगिक बनाए हुए है।
सन्दर्भ सूचि-
1. सीमा ओझा (सं.), आजकल, मार्च 2011, पृष्ठ 2
2. राजेश जोशी, दो पंक्तियों के बीच, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 55
3. पी. रवि (सं.), समकालीन कविता के आयाम, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, पृष्ठ 151
4. अभिषेक कश्यप (सं.), कविता का लोकतंत्र, अक्षर शिल्पी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 147
5. कात्यायनी, दुर्ग द्वार पर दस्तक, परिकल्पना प्रकाशन, 1998, पृष्ठ 37
6. सुधीश पचौरी, उत्तर-आधुनिक साहित्य विमर्श, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 199
7. आशुतोष कुमार, समकालीन कविता और मार्क्सवाद, शिल्पायन पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स, दिल्ली पृष्ठ 159-160
8. अभिषेक कश्यप (सं.), कविता का लोकतंत्र, अक्षर शिल्पी, नई दिल्ली, पृष्ठ 169
9. डाॅ. एन. सिंह, दलित साहित्य के प्रतिमान, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली पृष्ठ 67
10. (सं.) डाॅ. एन.सिंह दलित साहित्य और सामाजिक संदर्भ (लेख), ओमप्रकाश वाल्मीकि शिखर की ओर, पृष्ठ 406
11. डाॅ. एन. सिंह, दलित साहित्य के प्रतिमान, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 69
12. कालीचरण स्नेही (सं.), हिन्दी अस्मिता (त्रैमासिक शोध पत्रिका), लखनऊ, पृष्ठ 136
13. पी. रवि, समकालीन कविता के आयाम, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, पृष्ठ 103
14. विजेन्द्र प्रताप सिंह, वंचित संवेदना का साहित्य, आकांक्षा पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, पृष्ठ 10 आमुख।
15. विनोद कुमार शुक्ल, अतिरिक्त नहीं, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 113
16. हरिश्चन्द्र शाक्य, आदिवासी और उनका इतिहास, अनुराग प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 115
17. रमणिका गुप्ता, आदिवासी स्वर और नई शताब्दी, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 47
– धीरेन्द्र सिंह