ख़ास-मुलाक़ात
लोकप्रिय ग़ज़लकार देवेन्द्र माँझी से के. पी. अनमोल की बातचीत
अनमोल- अपने जीवन के आरंभिक समय, शिक्षा और परिवार के बारे में कुछ बताइए।
माँझी सर- मेरा जन्म हरियाणा के नूँह ज़िला में एक अग्रवाल परिवार में हुआ। मेरे पिता श्री (स्व.) गोपी चन्द गोयल यहाँ अनाज के प्रतिष्ठित आढ़ती थे। हम सात भाई-बहन (पाँच भाई, दो बहनें) थे। मैं तीसरे नम्बर पर था। वहीं मेरा बचपन बीता और पढ़ाई-लिखाई हुई। वहाँ हिन्दू हाई स्कूल में मैट्रिक तक पढ़ा तथा फिर चौधरी यासीन मेव डिग्री काॅलेज से स्नातक किया। व्यापारिक परिवार था मेरा, जहाँ सिर्फ़ काम-धन्धे और धनोपार्जन तक ही सोच सीमित रहती है। साहित्य से मेरे परिवार में किसी का दूर-दूर तक भी रिश्ता नहीं था।
अनमोल- फिर लेखन की तरफ जुड़ाव कैसे और कब हुआ?
माँझी सर- दरअस्ल जब मैं पाँचवी-छठी कक्षा में पढ़ता था तो उस समय मुम्बई में एक फिल्म निदेशक थे- ‘देवेन्द्र गोयल’, जिन्होंने ‘एक फूल दो माली’, ‘दस लाख’, ‘धड़कन’ जैसी फिल्में बनाई थीं। उस समय दूरदर्शन और सोशल-मीडिया तो था नहीं। फिल्मों के विज्ञापन रविवार के समाचार-पत्रों में प्रकाशित होते थे ताकि लोग विज्ञापन देखकर फिल्म देखने की ओर आकर्षित हों।
संयोग से मेरा भी वास्तविक नाम ‘देवेन्द्र गोयल’ ही है। तब मैं समाचार-पत्र सिर्फ़ इसलिए लेता था कि उसमें छपे देवेन्द्र गोयल के नाम को काटकर अपनी पुस्तकों और कापियों पर चिपका सकूँ। बाल सुलभ मन इस नाम को चिपकाते वक़्त अमूमन यह भी सोचता था कि मैं भी ऐसा बनूँगा कि मेरा नाम भी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो।
अनमोल- जब लेखन करना शुरू किया तो कैसा साहित्यिक माहौल मिला? उस समय के कुछ रोचक अनुभव साझा करना चाहेंगे?
माँझी सर- शुरू में तो यूँ ही चलता रहा। बाद में मुझे किसी ने बताया कि ग़ज़ल के कुछ नियम भी होते हैं और उनके बग़ैर ग़ज़ल कही या लिखी नहीं जा सकती। तब मैं ग़ज़ल के नियमों को जानने के लिए जनाब सद्दीक अहमद ‘शाद नूँही’ साहब से मिला, जो उस समय के सुप्रसिद्ध शाइर जनाब मुसव्विर सब्ज़वारी साहिब के शागिर्द थे। उन्होंने मुझे बहुत ही प्यार से समझाया ग़ज़ल के बारे में और क़दम-क़दम पर अच्छा शे’र कहने के लिए प्रोत्साहित भी किया।
यहाँ भी कुछ लोगों द्वारा एक बड़ी अड़चन खड़ी करने का प्रयास किया गया मेरे रास्ते में। शाद नूँही साहब पेशे से लुहार (लोहार) थे। हर समय कोयले की भट्टी के आगे काम करते रहने से उनके हाथ-पाँव और कपड़े तक सब काले ही बने रहते थे। और मेरे दादा उदमी प्रसाद गोयल (जिन्हें लोग ‘लाला उद्दी’ कहते थे) उस इलाक़े के सबसे बड़े सेठ माने जाते थे। लोगों ने मेरे दादा और पिता-चाचा के कान भरने शुरू कर दिए कि इतने बड़े ख़ानदान का लड़का एक लुहार की सोहबत में अपनी ज़िन्दगी ख़राब करने पर तुला हुआ है।
मेरे घर में एक भूचाल-सा आ गया इस बात पर। मैं बहुत परेशान था। तब शाद साहब ने ही रास्ता सुझाया। मैं देवेन्द्र गोयल से ‘देवेन्द्र माँझी’ हो गया। और हम दिन में आपस में न मिलकर रात में मिला करते तथा शाइरी पर चर्चा किया करते। मेरी पहली ग़ज़ल हुई तो उसे गुडगाँव (अब गुरूग्राम) से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक समाचार-पत्र ‘मेवात’ में भेजा गया। जब समाचार-पत्र की प्रति मुझे मिली तो मेरे पाँव ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे। मेरा मन बल्लियों उछल रहा था।
उसमें मेरी पहली ग़ज़ल-
ख़ुद ही तजवीज़ की दवा हमने
ज़ख्मे-दिल को छुपा लिया हमने
जो प्रकाशित हुई थी। पहली बार मेरी रचना और मेरा नाम किसी अख़बार में छपा था। उस समय मुझे जो खुशी मिली उसे मैं शब्दों में बयान नहीं कर सकता। दौड़ा-दौड़ा शाद साहब (जिन्हें मैं गुरू के रूप में स्वीकार कर चुका था) के पास पहुँचा। वे भी बहुत ख़ुश हुए। मुझे चाय पिलवाई और पान खिलाया। फिर मेरा हौसला और बढ़ा और छपने-छपाने का यह सिलसिला आठवें दशक तक इस मुकाम तक आ पहुँचा कि देश की कोई ऐसी पत्र-पत्रिका नहीं थी, जिसमें मेरी रचना और मेरा नाम न छपता हो।
पत्र-पत्रिकाओं की यही निकटता मुझे पत्रकारिता की ओर ले आई। और मैंने पत्रकारिता को ही अपना कैरियर बना लिया।
सबसे पहले दिल्ली से प्रकाशित होने वाले सान्ध्य दैनिक ‘वीर-अर्जुन’ में नौकरी की। उसके बाद अनेक दैनिक समाचार-पत्रों के सम्पादन का काम सम्हाला।
जहाँ तक साहित्यिक माहौल की बात है तो नूँह में शाद साहब के आशीर्वाद के साथ-साथ मुसव्विर साहब का भरपूर सानिध्य प्राप्त हुआ। दिल्ली में आने के बाद तो अनेक साहित्यिक संस्थाओं से जुड़ाव हुआ और मेरा साहित्यिक-सफ़र आगे बढ़ता रहा।
अनमोल- एक स्थापित व्यवसायी परिवार से होने के बावजूद आपने अपना कैरियर पत्रकारिता में बनाया। बहुत चुनौतियों रही होंगी उस समय। घर के माहौल में भी खलबली मची होगी। थोड़ी और रौशनी डालकर हमारी जिज्ञासा को शान्त कीजिए।
माँझी सर- हाँ भाई! पूरे घर में हंगामा बर्पा था। सब मेरे विरुद्ध हो चले थे। अपने ही घर में मैं पराया हो गया था। तब अपने विद्रोही स्वभाव के कारण मैंने एक कठोर निर्णय लिया कि यह घर अब छोड़ दिया जाए। और मैंने घर छोड़ दिया।
उस समय दो जोड़ी कपड़े और लगभग अस्सी रुपये के अतिरिक्त कुछ नहीं था मेरे पास। दिल्ली आ गया। लेकिन महानगर में आना भी आसान नहीं। नये आदमी के साथ बहुत-सी समस्याएँ कुश्ती करती नज़र आती हैं। फिर मैं कैसे अछूता रहता? खूब दाँव खेले इन समस्याओं ने मेरे साथ भी। मैंने कभी तार फैक्टरी में काम किया तो कभी एक कबाड़ी दुकान में नौकरी की। मगर यह सब समस्याओं से कुश्ती लड़ने के लिए ही हो रहा था। मन-मस्तिष्क को कविता और पत्रकारिता ही कचोटती रही। फिर एक दिन मुझे पता लगा कि दिल्ली के बहादुरशाह ज़फ़र मार्ग से एक दैनिक सान्ध्य ‘वीर-अर्जुन’ शुरू होने वाला है और वहाँ पत्रकारों की भर्ती हो रही है।
पता लगते ही मैं भी चालीस पैसे का टिकट लेकर बहादुरशाह ज़फ़र मार्ग (आईटीओ) पहुँच गया। 1984 में दिल्ली कैन्ट से वहाँ तक चालीस पैसे ही बस का किराया था। मैं समाचार-पत्र के कार्यालय में पहुँचकर सम्पादक और मालिक अनिल नरेन्द्र से मिला और अपने उन कुछ लेखों की कटिंग उन्हें दिखाई जो स्वतन्त्र लेखक के रूप में मैंने लिखे थे और विभिन्न पत्रों में छपे थे।
नौकरी मुझे वहाँ मिली तो मानों मेरे हाथ कोई दबा हुआ ख़ज़ाना लग गया। यहीं से प्रोपर तरीक़े से शुरू हुआ मेरी पत्रकारिता का सफ़र। हाँ, बता दूँ कि घर छोड़कर आने के बाद मेरे बारे में घर के किसी सदस्य को पता नहीं था कि मैं कहाँ हूँ और कैसा हूँ। एक दिन धौला कुआँ (दिल्ली) से मेरे गाँव के एक आदमी ने सान्ध्य वीर-अर्जुन ख़रीदा तो मेरी तस्वीर के साथ उसमें मेरी एक ग़ज़ल छपी हुई थी। उसने वह पत्र मेरे घर पहुँचाया तो पिताजी ने अख़बार के पते पर मुझे पत्र लिखकर मेरे बारे में जानकारी चाहते हुए मेरा दिल्ली में रहने का पता भी पूछा।
क्या बताऊँ अनमोल जी, उस पत्र को पाकर मेरी हालत कैसी थी। आँखों में आँसू और दिल में अपनों के प्रति उमड़े प्यार के सैलाब में मैं सिर्फ़ इतना ही अपने पिता को लिख सका-
तीरगी से पूछ लेना तुम मेरे घर का पता
इस नगर की रौशनी मुझसे अभी वाक़िफ़ नहीं
यह अलग बात है कि उस पत्र के बाद घर वालों को पता लग गया कि मैं ठीक हूँ और वीर-अर्जुन में नौकरी कर रहा हूँ।
अनमोल- मतलब इस विद्रोही स्वभाव ने बहुत कुछ छीना भी और दिया भी!
माँझी सर- हाँ, यहाँ प्रसंगवश मैं अपने विद्रोही स्वभाव का इसी बात से ख़ुलासा कर देता हूँ कि 1975 में जब इस देश में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा करके सारे देश की आज़ादी का अपहरण करने का प्रयास किया था, उस समय मेरी आयु मात्र अट्ठारह वर्ष थी। मैंने उनके इस क़दम के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल दिया। नतीजा मुझे उठाकर गुडगाँव की जेल में न सिर्फ़ डाला ही गया बल्कि डीआईआर-33 के अन्तर्गत देशद्रोही क़रार करने का प्रयास तो किया ही गया, अपने अत्याचारों की श्रृंखला को भी ख़ामोश नहीं रहने दिया। मुझ पर उस समय जो अत्याचार हुए उनका एक प्रमाण चालीस साल बाद हरियाणा सरकार ने मुझे जो ताम्र-पत्र देकर सम्मानित किया, उस पर लिखी इबारत से ही मिल जाता है। हरियाणा सरकार ने मेरे उस संघर्ष के लिए मुझे आजीवन हरियाणा राज्य परिवहन की बसों में मुफ़्त यात्रा का एक अधिकार-पत्र भी दिया।
अनमोल- दिल्ली आ जाने के बाद आपका साथ और सोहबत शाद नूही साहब से तो छूट गयी होंगी। फिर वहाँ आपने ग़ज़ल को समझने का काम किसके ज़रिए जारी रखा?
माँझी सर- शाद साहब से मेरे सम्बन्ध ऊपर वाले को रास नहीं आये। उसने वक़्त से पहले ही उन्हें अपने पास बुला लिया। बहुत कोशिश की चिकित्सकों ने उन्हें बचाने की, मैं दूर-दूर से दवाएँ भी लाया लेकिन सब बेकार।
भाई, फिर तो जहाँ कहीं अड़चन आती, वरिष्ठ ग़ज़लकारों से चर्चा करके समझने का प्रयास करता। अधिक से अधिक पढ़ने का प्रयास करता। बस यूँ ही चलता रहा है यह सिलसिला। और मैं नहीं जानता कि आप विश्वास करेंगे या नहीं, लेकिन यह सत्य है कि मैं आज भी जब कभी ग़ज़ल को लेकर किसी उलझन में पड़ता हूँ तो कुछ समय के लिए एकान्त में जाकर अपने गुरू यानि शाद साहब को याद करते हुए समाधान माँगता हूँ। भाई, मुझे तो समाधान मिल जाता है। हो सकता है कि यह मेरे एकान्त में सोचने/ विचारने की वजह से होता हो परन्तु मुझे लगता है कि शाद साहब मेरा मार्गदर्शन कर रहे हैं।
अनमोल- ग़ज़ल विधा में अब आपका अपना मकाम है। आपके नज़रिये में ग़ज़ल की प्रवृति कैसी होनी चाहिए? आज की ग़ज़ल और उसके भविष्य के बारे में क्या कहेंगे?
माँझी सर- आज की ग़ज़ल से बहुत उम्मीदें हैं। आज कोठे से उतरकर और महलों से निकलकर ग़ज़ल आम आदमी के भावों की तर्जुमानी कर रही है। बहुत अच्छी बात है यह, मगर यहीं से कुछ आशंकाओं के काले नाग भी दिलो-दिमाग़ को डसते-से दिखाई देने लगते हैं।
यह सही है कि ग़ज़ल के लिए निश्चित छन्द विधान है और रदीफ़-क़ाफ़िया की बंदिश है। लेकिन अनमोल जी, ग़ज़ल के छन्द यानि बह्र (मीटर) में रहकर रदीफ़-क़ाफ़िया का सही इस्तेमाल करने पर भी कोई रचना तब-तक ग़ज़ल नही कहला सकती जब-तक उसके शे’रों (अश्आर) में तगज्जुल (ग़ज़लीयत) पैदा नहीं कर दी जाती।
आज सोशल मीडिया ने यह मिथक तोड़ दिया है कि ग़ज़ल सीखना बहुत मुश्किल है या बिना उर्दू सीखे ग़ज़ल-विधान को समझा ही नहीं जा सकता। आज ऐसे अनेक लोग ग़ज़ल कहते/लिखते मिल जाते हैं जो उर्दू नहीं जानते। मेरा यह स्पष्ट मानना है कि ग़ज़ल के लिये उर्दू सीखने की शर्त रखना बेकार की बात है।
हाँ, डर यह है कि हम क्वान्टिटी पर ध्यान देने लगे कि रोज़ ग़ज़ल हो जाए, क्वालिटी हो या नहीं। अनमोल जी, आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि ग़ाज़ियाबाद के एक नये शाइर हैं। एक दिन फेसबुक के एक ग्रुप ‘सोपान’ ने मुझे अपने फ़िलबदीह कार्यक्रम में आमंत्रित किया। वहाँ साहब ने दो घण्टे के समय में पन्द्रह ग़ज़लें लिख दीं। मैंने इस पर सवाल उठाते हुए पूछा कि क्या इन जनाब को मिस्रा तरह की जानकारी पहले ही दे दी गयी थी? इस पर वे शाइर साहब कहते हैं कि आज तो मैंने सिर्फ़ पन्द्रह ग़ज़लें ही लिखी हैं, मैंने तो ‘काव्योदय’ के एक फ़िलबदीह कार्यक्रम में तीन घण्टे में 360 शे’र लिखे/कहे थे। बता दूँ कि ‘काव्योदय’ भी एक फेसबुक ग्रुप है और ग़ज़ल के लिए फ़िलबदीह कार्यक्रम आयोजित करता रहता है। ख़ैर, नमन करता हूँ इस शाइर को जो तीन घण्टे में 360 शे’र (यानि 70-72 ग़ज़लें) लिख/कह देते हैं। फिर उनकी जो शाइरी देखी, उस पर मैं कुछ नहीं कहना चाहता। हाँ, इतना ही कहना चाहता हूँ कि क्वान्टिटी नहीं, क्वालिटी पर ध्यान दें वरना ग़ज़ल के नाम पर लिखी/कही रचना गीतात्मकता का शिकार होकर ग़ज़ल के सिंहासन से उतरने पर मजबूर हो जाएगी। अगर ग़ज़लीयत को ध्यान में रखकर ग़ज़ल पर काम किया गया तो हिन्दुस्तानी में कही/लिखी जाने वाली आज की ग़ज़ल का भविष्य बहुत ही उज्ज्वल है।
अनमोल- ग़ज़ल को उर्दू और हिंदी के खांचों में बाँटने की कितनी ज़रूरत महसूस करते हैं?
माँझी सर- भाई, ग़ज़ल सिर्फ़ ग़ज़ल है। कुछ दुकानदार टाइप के लोग ही यह विवाद खड़ा करते हैं वरना आम आदमी को इससे कुछ लेना-देना नहीं है। कुछ उर्दू के लोग हैं, जो स्वयं को ग़ालिब की अवैध सन्तान मानते हुए अरबी-फ़ारसी के लफ़्ज़ों से शे’र कहकर हिन्दी या देवनागरी में लिखी/ कही ग़ज़ल को ग़ज़ल ही मानने को तैयार नहीं हैं, जबकि उन्हें याद रखना चाहिए कि ग़ालिब को ‘ग़ालिब’ और तक़ी मीर को ‘मीर’ उन्हीं ग़ज़लों ने बनाया, जो हिन्दुस्तानी ज़मीन यानि हिन्दुस्तानी ज़बान में अर्थात् आम-फ़हम शब्दों से लिखी/कही गई हैं। उनकी अरबी-फ़ारसी की ग़ज़लों को न तो कोई जानता है और न ही पढ़ना चाहता है।
इसी प्रकार कुछ हिन्दी में ऐसे महापण्डित भी हैं जो ‘गुड़ खाये, गुलगुले से परहेज’ की कहावत को चरितार्थ करते नज़र आते हैं। ग़ज़ल भी कहना चाहते हैं, ग़ज़ल के विधान और नियम को भी नहीं सीखना चाहते और ग़लत लिखने पर बहुत ही बेशर्मी से कह देते हैं कि “हमारी तो हिन्दी ग़ज़ल है”।
अरे भाई, ग़ज़ल तो ग़ज़ल है, चाहे हिन्दी की हो या उर्दू की। जैसे अगर कहा जाए कि कोई युवती जा रही है तो यह नहीं कहा जाता कि वह हिन्दु युवती जा रही है या मुस्लिम युवती। बल्कि सिर्फ़ युवती कहा जाता है और युवती क्यों कहा जाता है- यही समझने की बात है।
अरे भाई, उसकी चाल-ढाल, उसकी शारीरिक-बनावट पुरुष से अलग होती है इसलिए उसे युवती कहा जाता है। जैसे हिन्दु युवती और मुस्लिम युवती की शारीरिक संरचना में कोई अन्तर नहीं किया जा सकता है, ठीक वैसे ही ग़ज़ल की संरचना में भी भाषा की आड़ में कोई बदलाव नहीं किया जा सकता। अन्यथा वह रचना ग़ज़ल नहीं रह पाएगी।
मेरा मानना है कि हम इस विवाद से दूर रहकर, ग़ज़ल के नियमों को समझकर और उसके अनुशासन को मानते हुए आम भाषा यानि हिन्दुस्तानी ज़बान में ग़ज़ल कहनी चाहिए, न कि उसको संस्कृत या अरबी-फ़ारसी की गोद में छुपाने का दुष्कर्म करना चाहिए।
अनमोल- आज की हिन्दुस्तानी ग़ज़ल की वे कौनसी प्रवृतियां हैं, जिनकी बदौलत यह उर्दू ग़ज़ल के समकक्ष आ खड़ी है?
माँझी सर- अनमोल जी, आपके इस सवाल का उत्तर देने से पूर्व हमें एक और प्रश्न का उत्तर खोजना पड़ेगा और वह प्रश्न है कि “वे कौन-सी प्रवृत्तियाँ हैं जिन्होंने अधिकांश उर्दू शाइरों को ग़ज़ल की दहलीज़ से बाहर खदेड़ दिया?”
भाई, मिर्ज़ा ग़ालिब के अल्ताफ़ हुसैन हाली जैसे सुप्रसिद्ध शाइर शिष्य थे, जिन्होंने ख़ूब नाम कमाया मगर ‘उस्ताद’ का दर्जा पाने के बाद भी ग़ज़ल की दहलीज़ पर टिक नहीं पाये। और भी अनेक शागिर्द थे मिर्ज़ा ग़ालिब के, जिनकी आज कोई ख़ैर-ख़बर लेने वाला भी नहीं है। यही हाल है मीर तक़ी मीर के शागिर्दों का। अकेले दाग़ साहब के ही दो हज़ार से अधिक शागिर्द थे। कहाँ हैं अब वो और उनकी शाइरी!!
पिछले दिनों दिल्ली के एक प्रकाशक ‘आत्मा राम एण्ड सन्स’ ने मुझसे पुराने शाइरों की शाइरी को सम्पादित करने के लिए कहा तो अनमोल जी, आप यह जानकर चौंक उठेंगे कि मैं ऐसे शाइरों की लिस्ट में दो-ढाई दर्जन से अधिक नाम नहीं जोड़ पाया, जिन्होंने ग़ज़लों पर कोई उल्लेखनीय काम किया हो। उनमें से सिर्फ़ सात पर ही अभी काम कर पाया हूँ। बाक़ी काम चल रहा है। कहने का मतलब है कि वे कौन-सी प्रवृत्तियाँ रहीं, जिनके चलते शाइर ग़ज़ल की दहलीज़ से बाहर कर दिए गये।
मैंने जितना जाना उसके अनुसार सबसे बड़ा कारण रहा भाषा की क्लिष्टता। आप कितना ही अच्छा शे’र क्यों न कहें अगर वह आम आदमी या कहें पाठकों के पल्ले ही न पड़े तो वो शे’र ही क्या? दूसरा कारण था क्वान्टिटी के चक्कर में क्वालिटी को भूलना।
मेरा मानना है कि अच्छा शे’र किसी भाषा का मुहताज़ नही होता। मैं आपको पंजाबी के एक शे’र का उदाहरण प्रस्तुत करता हूँ-
मैं जदां वी ज़िन्दगी दे घर गिया
वेख के चेहरा मैं उसदा डर गिया
यह शे’र आज हिन्दुस्तान में ही नहीं, पाकिस्तान में भी बहुत चर्चित है। इसकी लोकप्रियता का कारण यह है कि शाइर ने अपनी बात इतनी ख़ूबसूरती से कह दी कि हर आदमी उसके भाव को सहजता से समझ लेता है।
अब आते हैं आपके मूल सवाल पर। भाई, आज जो ग़ज़ल आ रही है उसने भाषाई दीवार को तोड़कर अनेक नयी-नयी ऐसी बातों को अपने माध्यम से लोगों के सम्मुख रखा है कि इस ग़ज़ल का क़द बढ़ना स्वाभाविक ही है।
इसने उर्दू ग़ज़ल की लाइन को छोटा करके अपना क़द बढ़ाने का प्रयास नहीं किया अपितु अपनी निपुणता और विवेक के आधार पर एक ऐसी लाइन तैयार की है जो किसी भी दृष्टि से उर्दू ग़ज़ल की लाइन से छोटी दिखाई नहीं देती।
अनमोल- आप के नज़रिए से हिन्दुस्तानी ग़ज़ल की राह में वे कौनसी चुनौतियाँ हैं, जिन पर समय रहते विचार किया जाना ज़रूरी है?
माँझी सर- सबसे बड़ी चुनौती है शब्दों की शुद्धता। आप देखेंगे कि उर्दू शाइरों ने जितनी मेहनत एक अच्छा शे’र कहने/लिखने में की, उससे कहीं अधिक मेहनत उन्होंने अपनी भाषा की नाज़ुकी और शब्दों की शुद्धता को बनाये रखने में भी की। तभी उर्दू शाइरी का हर शे’र पाठकों/श्रोताओं को अपनी ओर आकर्षित करने में सफल हुआ। और जिन्होंने इस ओर ध्यान नहीं दिया, वे शाइर अपने समय में बेशक जोड़-तोड़ करके पुरस्कार पा गये हों लेकिन आज वे और उनका कलाम कहीं नहीं है।
आप इसे यूँ समझें कि एक सुन्दर नवयौवना के अन्दर दो गुण सर्वप्रथम दिखाई देते हैं। एक उसके मिज़ाज की नाज़ुकी और दूसरी उसके श्रृंगार की शुद्धता यानि सौम्य रूप देने वाला श्रृंगार। अगर यह नवयौवना भौंडा श्रृंगार करेगी तो लोग उसे कुछ और ही कहने और समझने लगेंगे।
सुन्दर स्त्री अपनी सुन्दरता से आकर्षित करने के लिए जिस प्रकार अपने मेकअप के प्रति सतत प्रयत्नशील रहती है, ठीक उसी प्रकार हमें भी ग़ज़ल के श्रृंगार यानी उसकी भाषा-शैली की नाज़ुकी और शब्दों की शुद्धता की ओर सतत प्रयत्नशील रहना होगा वरना जैसे लापरवाह नवयौवना के चेहरे पर निशान और धब्बे उभरने लगते हैं, ठीक वैसे ही रचनाएँ भी अपना आकर्षण खोने लगती हैं।
आज आप देखते होंगे कि बहुत से ग़ज़लकार इस स्तर पर बिल्कुल उदासीन दिखाई देते हैं और यही एक दिन उनका और उनकी रचनाओं के दुर्भाग्य का कारण भी बनेगा।
अनमोल- अभी पिछले दिनों ग़ज़ल के व्याकरण पर आपकी एक पुस्तक ‘ग़ज़ल के हिन्दी में आसान छन्द’ लोकार्पित हुई है। हमारे पाठक इसके बारे में जानना चाहते हैं।
माँझी सर- भाई, पहले ऐसी कोई पुस्तक नहीं थी जिसमें ग़ज़ल के छन्दों को आसान करके हिन्दी में समझाया गया हो। उर्दू न जानने वालों यानि हिन्दी के रचनाकारों को उर्दू अर्कान (बह्र या छन्द के लिए निर्धारित शब्द-स्तम्भ) ‘फ़ाइलातुन, मुफ़ाइलुन, मुतफ़ाइलुन’ आदि याद हो नहीं पाते, इसलिए उन्हें बहुत दिक़्क़त का सामना करना पड़ता था। यही सोचकर मैंने ‘राम, रामा, जै, हरे, अराम और भज” के माध्यम से सारे छन्दों का समझाने का प्रयास किया है। उदाहरण के रूप में उर्दू की एक बह्र है-
बह्रे ख़फ़ीफ़ मुसद्दस मख़्बून महज़ूफ़, जिसे समझने के लिए याद करना पड़ता है-
‘फ़ाइलातुन मुफ़ाइलुन फ़ैलुन’
अब जो लोग उर्दू नहीं जानते उन्हें ये अर्कान और छन्द याद ही नहीं हो पाते। इसकी मात्रिक स्थिति है- 2122 1212 22
मैंने इसे ‘राम जै+राम जै+हरेरामा’ लिख दिया। एक सैकिण्ड में याद हो जाता है यह। मात्रिक-स्थिति भी वही है। इसलिए पाठकों द्वारा इस पुस्तक का आशातीत स्वागत देखने को मिल रहा है।
अनमोल- हालाँकि आप मूलत: एक ग़ज़लकार हैं लेकिन आपने दोहे भी लिखे हैं। ‘झुकी पीठ पर बोझ’ नामक एक दोहा-संग्रह भी प्रकाशित है आपका। हिन्दी के इस प्राचीनतम छन्द से कैसा लगाव महसूस करते हैं।
माँझी सर- अनमोल जी, जो विशेषता एक अच्छे शे’र की होती है, एक अच्छा दोहा भी विशेषता की उस कसौटी पर पूरी तरह खरा उतरता है। जैसे दो पंक्तियों का एक शे’र एक पूरी कहानी/एक पूरी बात अपने अन्दर समेटे रहता है, ठीक वैसे ही एक अच्छा दोहा अपनी बात कहने की कला से तुरन्त अपने पाठकों/श्रोताओं का ध्यान अपनी ओर खींच लेता है।
दोहों से मुझे शुरू से ही लगाव रहा है। मुझे आज भी कबीर, रहीम के बहुत से दोहे याद हैं। यह मेरी अपनी ज़बान में कही जाने वाली काव्य-विधा है, जबकि ग़ज़ल को हम अपनी भाषा में लाने का अभी प्रयास ही कर रहे हैं। दोहा तो मेरे काव्य-प्रांगण में माँ का दर्जा रखता है, जबकि ग़ज़ल ऐसी प्रेमिका है, जिसे दुल्हन बनाकर घर लाने का प्रयास किया जा रहा है।
अनमोल- मेरे ख़याल से दोहा हिन्दी साहित्य की एक ऐसी विधा है, जिसने समय के साथ लगातार अपने आप में ज़रूरी बदलाव किये हैं और इसी वजह से हर दौर में इसकी प्रासंगिकता व लोकप्रियता बनी रही है, आप क्या कहेंगे?
माँझी सर- बिल्कुल। इसने हर दौर के आन्दोलन को आगे बढ़ाने में सदैव महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। भक्तिकाल में आध्यात्मिक रूप धारण किया, आज़ादी के आन्दोलन में वीर-रस का रूप लेकर जन-मानस में क्रान्ति की अलख जगाई और आज़ाद भारत में यह हर विषय पर बात करता नज़र आ रहा है, यही इसकी सबसे बड़ी विशेषता है। तेरह-ग्यारह के इस अर्द्धसम छन्द दोहे ने कभी किसी चुनौती से मुँह नहीं मोड़ा। यही वजह है कि कल भी यह जन-मानस में सराही गई, आज भी अपना विशेष स्थान रखती है और कल भी (भविष्य में भी) इसका सिंहासन सुरक्षित नज़र आता है।
अनमोल- आपके द्वारा तैयार ‘माँझी तुकान्त कोश’ के बारे में विस्तार से जानना चाहेंगे हम।
माँझी सर- अनमोल जी, सातवें-आठवें दशक से हिन्दी रचनाकार ग़ज़ल की ओर बढ़ रहे हैं और ग़ज़ल में ‘क़ाफ़िया’ एक विशेष अंग अथवा ख़ास शर्त की भूमिका में रहता है। इसी क़ाफ़िया को ‘तुक’ और ‘तुकान्त’ कहते हैं। मैंने देखा और महसूस किया कि अधिकांश लोग या तो इन क़ाफ़ियाओं (क़वाफ़ी) के चयन में चूक कर जाते हैं या फिर उन्हें अवसर पड़ने पर अच्छे क़ाफ़िया/तुकान्त शब्द मिल नहीं पाते हैं। ग़लत क़ाफ़िया लगाने पर रचना ख़ारिज हो जाती है और तुकान्त-शब्द न मिलें यानी इनका अभाव हो तो ग़ज़ल में अपनी पसंद के शे’र नहीं कहे जा सकते। बस जो क़ाफ़िया या तुकान्त-शब्द मिलें उन्हीं के अनुरूप बात कहने/लिखने के लिए रचनाकार को विवश होना पड़ता है।
तब मैंने सोचा कि क्यों न ऐसा कुछ किया जाए जो आगे आने वाले रचनाकारों को इस समस्या से मुक्ति दिला सके। तब मैंने एक तुकान्तकोश तैयार करने का मन बनाया। काम शुरू किया। छह महीने काम करने के बाद जब उस पर दृष्टि डाली तो वह अधूरा-सा लगा। उसमें मैंने तुकान्त-शब्द तो दे दिए लेकिन और कोई जानकारी नहीं दी कि यह शब्द किस भाषा का है, स्त्रीलिंग है पुल्लिंग है, क्रिया है या विशेषण है? ऐसी कोई जानकारी उसमें नहीं थी और न ही यह जानकारी थी कि जो शब्द ‘तुकान्त’ के नाम पर दिया गया है, उसका अर्थ क्या है? सिर्फ़ शब्दों की एक सूची भर था वह काम। मुझे पसंद नहीं आया। मैंने सब नष्ट कर दिया।
फिर से काम शुरू किया इसे ऐसा सार्थक तुकान्तकोश बनाने के लिए जो शब्दों के साथ-साथ उनकी भाषा, लिंग, अथवा क्रिया या विशेषण की जानकारी तो दे ही, साथ-साथ उस शब्द के अधिक से अधिक अर्थ भी प्रस्तुत करे। दो भाषाओं के प्रचलित एक-जैसे उच्चारण वाले शब्दों का अन्तर भी समझाने का भरपूर प्रयास किया गया है। मैं उस समय 1994 में ‘दिल्ली मिड्-डे’ (हिन्दी) का समाचार सम्पादक था। इस काम के जनून में नौकरी को अलविदा कह दिया और जुट गया अपने लक्ष्य को पाने में। पूरे चौदह साल (राम का पूरा बनवास) लगाकर एक-एक हज़ार पृष्ठों के दो खण्ड तैयार किये। योजना छह खण्ड तैयार करने की थी लेकिन बीच में ही व्यवधान पड़ गया। दो खण्ड तैयार करके प्रकाशक को दे दिए गये। टाइप हो गये, प्रूफ़ फ़ाइनल हो गये। एक खण्ड प्रकाशित भी हो गया। मगर दूसरा न छपा और न ही वापस मिला।
राॅयलटी पर प्रकाशक से विवाद हो गया। बात एकमुश्त राॅयल्टी की थी जिसका आधा पैसा एक खण्ड प्रकाशित होने पर मिलना था बाक़ी की धनराशि दूसरे खण्ड के बाद मिलनी थी मगर पहला खण्ड प्रकाशित होते ही प्रकाशक की नीयत में खोट आ गयी। राॅयल्टी के नाम पर आएँ-बायँ करने लगा। मतभेद बढ़ने लगे। नतीजा यह रहा कि दूसरे खण्ड का प्रकाशन रुक गया। मैंने दूसरा खण्ड वापस माँगा ताकि कहीं और से प्रकाशित करा सकूँ मगर वह भी उसने नहीं लौटाया। बाद में उसे कैंसर हो गया और उसने प्रकाशन ही बन्द कर दिया मगर मेरे लाख प्रयास के बाद भी मुझे दूसरा खण्ड नहीं लौटाया। अभी एक साल पहले यानि वर्ष-2016 में उसकी मृत्यु हो गई।
मेरा दूसरा खण्ड भी उसी के साथ समाप्त हो गया, क्योंकि उसकी फोटोकाॅपी मैंने कराई नहीं थी। इसका कारण यह था कि हाथ से लिखी मूलप्रति लगभग पाँच हज़ार पृष्ठों की थी, काफ़ी पैसे लगते फोटोकाॅपी कराने में, इसलिए मैं फोटोकाॅपी न करा सका।
प्रकाशक की मृत्यु के बाद मेरी मेहनत मिट्टी में मिल गई, बहुत निराशा हुई। सारा उत्साह उड़न-छू हो गया, इसलिए जो बाक़ी चार खण्ड और तैयार करने की योजना थी उस सब पर पानी फिर गया। हाँ, उस सदमे से अपने आपको बाहर निकालते हुए मैंने थोड़ा-बहुत काम और आगे बढ़ाकर उसे प्रकाशित कराने का प्रयास किया मगर अभी तक कोई प्रकाशक नहीं मिल पाया है। खुद छाप नहीं सकता, क्योंकि लगभग दो लाख का ख़र्च आता है। देखता हूँ क्या स्थिति रहती है इसकी।
हाँ, इसकी विशेषता यह है कि आपको अगर ‘घर’ शब्द के क़ाफ़िये यानि तुकान्त-शब्द चाहिए तो इसमें दस-बीस नहीं अपितु पूरे 3640 शब्द मिलेंगे। पहले शब्दों की सूची मिलेगी, फिर हर शब्द के बारे में विस्तार से जानकारी। आपको अगर ‘पल’ के क़ाफ़िया चाहिए तो उनकी संख्या 960 है। ‘आना’ के तुकान्त-शब्दों की संख्या 2430 है।
अनमोल- ‘माँझी उर्दू हिन्दी कोश’ के बारे में भी कुछ पढ़ने में आया था कहीं। इसके बारे में कुछ बताएँगे।
माँझी सर- अब तक प्रकाशित हुए उर्दू-हिन्दी कोशों में मुझे एक कमी महसूस हुई। भाषा-विज्ञानियों ने अपने-अपने कोशों में उन्हीं शब्दों को स्थान दिया है जो केवल अरबी-फ़ारसी से आये हैं, जबकि हिन्दी के उन शब्दों की पूर्णतः अवहेलना की गई है जो हिन्दी से उर्दू में लिये गये हैं और जिनके अलग करने से उर्दू भाषा का अस्तित्व भी संकट में पड़ जाएगा। अब कोई पाठक किसी रचना को पढ़ते समय अरबी-फ़ारसी के शब्दों के अर्थ उसमें ढूँढ लेता है मगर उसी रचना में आये हिन्दी शब्दों का अर्थ जानने के लिए उसे हिन्दीकोश का सहारा लेना पड़ता है। ऐसे में पाठकों को दो-दो कोशों का भार झेलना पड़ता है। मैंने इसी कमी को दूर करने के लिए ‘उर्दू-हिन्दी कोश’ तैयार किया। मेरा काम पूरा हो चुका है। प्रकाशित होने के बाद यह कोश लगभग 14-15 सौ पृष्ठों का होगा। लेकिन यहाँ भी समस्या प्रकाशक मिलने की आ रही है। बड़े बजट का काम है। हर कोई इसमें हाथ डालने से बचता है। सरकारी सहायता मैंने किसी काम में आज तक माँगी नहीं, अब इस उम्र में आकर हाथ क्यों फैलाऊँ?
अनमोल- आपकी भविष्य की साहित्यिक योजनाओं के बारे में जानना चाहेंगे।
माँझी सर- योजनाएँ तो अनेक हैं अनमोल जी, लेकिन प्रकाशकों के व्यवहार को देखकर मन मर-सा जाता है। अब मैं एक ऐसा वृहत ग़ज़ल कोश तैयार करना चाहता हूँ जिसमें नये-पुराने रचनाकारों की रचनाओं के साथ-साथ उनके साहित्यिक-सफ़र की जानकारी तो मिले ही, साथ-ही-साथ यह भी एहसास होता रहे कि ग़ज़ल ने कब कैसी करवट ली।
अनमोल- आपको सोशल मीडिया (फेसबुक, व्हाट्सअप, ब्लॉगर, वेब पत्रिकाओं आदि) पर भी बहुत सक्रिय देखा जाता है। युवा रचनाकारों का भी बढ़-चढ़कर मार्गदर्शन करते पाता हूँ आपको। सोशल मीडिया के आगमन के बाद क्या तब्दीलियाँ आयीं हैं जीवन में, बतौर एक लेखक।
माँझी सर- सोशल मीडिया के आने से जीवन में बहुत बदलाव आया है। काम करने और सोचने के तरीक़े और अन्दाज़ भी बदले हैं। अब इस मीडिया के माध्यम से हर समय व्यक्ति पूरे संसार से जुड़ा रहता है, सारी बातों की जानकारी उसे मिल जाती है और फिर वह निजता से बाहर आकर वैश्विक धरातल पर चिन्तन करता हुआ दिखाई देता है।
सोशल मीडिया पर अपनी बात, अपने आस-पास की बात और विश्व के दूर-दराज़ हिस्सों की बात सब साझा करता है, हर चर्चा में हिस्सा लेता है। ऐसे में कोई लेखक भी स्वयं को अछूता नहीं रख सकता। उसे अपनी रचनाओं का एक बड़ा पाठक-वर्ग इस मीडिया के माध्यम से मिल जाता है। फिर वह अपनी रचनाओं में ऐसे विषय उठाने लगता है, जिसमें अधिक से अधिक लोग रुचि लें।
जहाँ तक मेरी अपनी बात है, मैं इस मीडिया से बहुत उत्साहित हूँ। कल तक प्रकाशकों के व्यवहार से निराशा और उदासी की गर्द मेरे दिलो-दिमाग़ में चढ़ रही थी कि कुछ भी लिखने का क्या लाभ जब वह पाठकों तक पहुँच ही न सके (?) अब वह गर्द धीरे-धीरे छँट रही है। मैं अपनी रचनाओं को तो फेसबुक और वाट्सएप ग्रुप के माध्यम से पाठकों तक पहुँचा ही रहा हूँ, जल्दी ही ‘तुकान्तकोश’ और ‘शब्दकोष’ को भी वेवसाइट बनवाकर उस पर डालने वाला हूँ ताकि मेरे पाठक वहाँ से उन्हें पढ़कर लाभ ले सकें। अब मेरे अन्दर फिर उत्साह का संचार हो रहा है जिसकी परिणति जल्दी ही मेरी किसी नयी कृति के रूप में सामने आएगी।
अनमोल- बहुत सही ख़याल है आपका। साथ ग़ज़लकोश की योजना को भी एक वेबसाइट के माध्यम से साकार किया जा सकता है।
आपके व्यक्तित्व और कृतित्व के बारे में जानकार बहुत अच्छा लगा। ‘हस्ताक्षर’ के पाठकों को समय देने के लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया।
– देवेन्द्र माँझी