कविताएँ
1.
कलम,
आ
फिर से चलें
जीने
एक नया सफहा
कोरेपन का
कि
आसमां तो है
बेघर परिंदों की
बेबाक लकीरों से सना
तू आज लिख
इस जुबां पे
मुर्दा छालों की
दास्ताँ
कि
जिए थे
खामोश बुलबुले
एक उम्र,
ख़ला की
उधारी
तेरे अपने थे
तो चल
आज ये हिसाब भी
चुकता करें
तू टूट
मैं
खामोश होता हूँ
मिलेंगे,
जहाँ
हो सकें
बातें
बेलफ्ज़,
मुँह ज़ुबानी …..
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2.
जाना
चले जाना नहीं होता
जो
लौट आने को हो
जानते हुए भी
कि धड़कन
किसी अंत की श्रृंखला है
वेग के मंत्रमुग्ध
हम
धमनियों में कूद बैठे
अब लहू की तासीर तो
जिस्मों की वफ़ा ठहरी
सो
पहले भरे
फिर पके
अंततः
पोंछ दिए गए
अबकी
लौट आना
जाने जैसा न होगा
कि
समय के जिस्म पे
रूहों के नाप के
सभी सुराख़ बंद हैं……..
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3.
तुम
धुंए के
उठने तक
देह की हांडी
सम्भाले रखना
मैं चाहता हूँ
विरह की
धीमी आंच पे
ता उम्र पकना
कि
सांस सांस
फैली रहे
एकसार
कढ़ने की महक
कि
तू नमक की तरह
छुए
और मैं
पानी हो जाऊं
तू मिले
तो
जैसे
पीठ के ज़ख्म
मिलते हैं
कोसे पानी से
जैसे
जाड़ों की जमी
सांस
कंठ की तपिश
छूते ही
धुंध हो जाये
जैसे
कांच पे
पिघलती
बहकी बर्फ की नमी
सुनो,
तुम
रिश्तों के दरख़्त से
पतंग की तरह
न उलझना
बस
टूटते पत्ते की
सारी हरियाली
ताज़ा कोंपल को सौंप
चुपके से
मेरे बहाव पर
आ टिकना
फिर हम
ज़र्द मिट्टी को
नयी बरसातों से
निखारेंगे
सुना है
लौटतीं मुर्गाबीआं
सौंधी-सी सीलन को
बरगद के बीज
दे जाती हैं
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4.
स्थायित्वता
भ्रम है
रुकता
कुछ भी नहीं
हाँ
समक्रमिक
हो जाते हैं
प्रवाह
एक
मियाद तक……
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क्यों जन्मों की बात करते हो !!
– दर्शवीर