छन्द संसार
वाणी वंदना (कवित्त)
देवि! ब्रह्म लोक से उतर कर आज मेरे
श्वेत दृग-पंकजों में आसन लगाती आ।
कंठ पे विराज के बिछा दे शब्द-जाल और
रसना से अविराम उनको बहाती आ।
अपने मराल से माँ! मेरे मंजु मानस के
अनुपम भाव मोतियों को तू चुगाती आ।
वरदे! विचारधारा कर दे कलामयी औ’
पिंगल-पीयूष का पयोधि उमगाती आ।
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वाणी वरदानी मुझे ऐसा वरदान दे दे
लेखनी से झर-झर झरै लागे कविता।
काव्य का प्रकाश पुंज ऐसा प्रकटा दे अम्ब!
जर-जर जर-जर जरै लागे कविता।
कर की किताब यदि खोल दे तू एक बार
फूलन-सी फर-फर फरै लागे कविता।
वीणापाणि! वीणा एक बार झनकारि दे तो
पाद पंकजों में ढर ढरै लागे कविता।
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(हिन्दी कविता का इतिहास)
चंदबरदाई जी ने रच कर रासो एक
रासो की परंपरा को काव्य में ढला दिया।
कबिरा ने तानपूरे पर छेड़-छेड़ तान
माया-जीव- ब्रह्म सब एक में मिला दिया।
पद्मावती का सुचरित्र गढ़ जायसी ने
कविता में एक प्रेम-पंथ ही चला दिया।
शारदे! तुम्हारी ही तो पाकर कृपा की कोर
कवियों ने कविता का दीपक जला दिया।
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मैया ! तूने सूर को बनाया सूर के समान
तुलसी समान कौन काव्य का पुजारी है।
केशव की कविता में बुद्धि ही नसानी जो कि
हारि-हारि जीती और जीति-जीति हारी है।
प्रेम की दीवानी मीरा, विष का पियाला पिया
उसकी भी लेखनी माँ! शरण तुम्हारी है।
कवि रसखान सम कौन रसखान हुआ
लेखनी रहीम की सकल नीति हारी है।
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भूषण की लेखनी ने बावन लिखा के छन्द
औरंग का रंग रण-रंग में मिला दिया।
उधर बिहारी जी के काव्य में बिहार कर
विरहणियों ने निज दुख ही भुला दिया।
देव, मतिराम, पद्माकर औ घनानंद
कवियों ने काव्य की कला को ही जिला दिया।
कवि रतनाकर ने उद्धव शतक लिख,
उद्धव का ज्ञान चार छन्द में गला दिया।
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भारत के इन्दु सम भारतेन्दु हो गए हैं
मैथिली की शरण में गुप्त जी प्रत्यक्ष हैं।
कवि हरिऔध जो कि पांडित्य से पूर्ण काव्य
रचने में जाने कितने ही महादक्ष हैं।
राष्ट्रकवि दिनकर भानु सम भासमान
उपमा कहाँ लौ कहें कविता के कक्ष हैं।
अब कवियों की मातु! बाढ़ जैसी आ गई है
देश की धरा पे जो कि आज लक्ष-लक्ष हैं।
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(हिन्दी काव्य का इतिहास- छायावाद)
प्रकृति-पुजारी कवि पन्त के समान कौन
सूर्यकान्त सम कौन कवि कान्ति वाला है।
कविता के छन्द को ही तोड़ के मरोड़ दिया
समता करेगा कौन कवि ही निराला है।
नीर भरी बदरी-सी बरसी सो महादेवी!
शारदे! का एक ही प्रसाद अति आला है।
बच्चन की कविता का सामना करेगा कौन
उनका तो पूरा-पूरा काव्य मधुशाला है।
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शारदे! तुम्हारी ही तो पाकर कृपा की कोर
बड़े-बड़े पामर भी चतुर चितेरे हैं।
नीरज औ सोम सम चतुर रमा के नाथ*
भारत के भूषण** भी काव्य-मंच घेरे हैं।
निर्भय निडर होके करते हैं काव्य-पाठ
हास्य कवियों के भी तो गाहक घनेरे हैं।
मातु! मुझपे भी अब कीजिए कृपा की कोर
डारिए दया की दीठि दास हम तेरे हैं।
* रमानाथ अवस्थी
** भारत भूषण
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मातु हंस वाहिनी! ओ काव्य की प्रवाहिनी माँ!
रहो सदा दाहिनी माँ! तनिक निहारि दे।
श्वेत वस्त्र धारिणी! ओ मानस विहारिणी! ओ
सुषमा की सारिणी! कृपा की कोर पारि दे।
ओरी पदमासना! मिटा दे सब वासना तू
दासन के दास पे दया की दीठि डारि दे।
ऐसी ममता दे मातु! ऐसी समता दे मातु!
तेरा हर पूत तोपे तन मन वारि दे।
– चेतन दुबे अनिल