आलेख
मियाँ मुहम्मद बख्श क़ादरी के काव्य में एकता के स्वर
– भुपिन्दर कौर
प्रत्येक युग में प्रत्येक भाषा के कुछ रचनाकार ऐसे होते हैं, जिनकी रचनाएँ साहित्य और समाज में विशेष घटना की तरह प्रकट होती हैं। सह्रदय पाठक इन रचनाओं को ऐसे स्वीकार करते हैं, जैसे वे सदियों तक इनके इंतज़ार में थे। ऐसे रचनाकार अपनी विशेष भावना और सृजनशीलता से सहृदय पाठक को लगातार प्रभावित करते रहते हैं। ऐसे रचनाकारों में मियाँ मुहम्मद बख्श का स्थान अत्यन्त महत्वपूर्ण है।
काव्य एक महत्वपूर्ण एवं लोकप्रिय विधा है। किसी भी कलाकार को समझने के लिए उसके द्वारा प्रस्तुत कलाकृति का अध्ययन आवश्यक है। हर कलाकार अपने सुख-दुख के क्षणों को एक धागे में पिरोकर प्रस्तुत करता है। किसी भी व्यक्ति के बनने-संवरने में या निर्माण में उस युग की सामाजिक, सांस्कृतिक परिस्थितियां कारणीभूत होती हैं।
‘सूफी’ शब्द ‘सुफ’ से बनता है और अरबी भाषा में इसका मतलब ‘सुफ्फा है’, यानी ‘दिल की सफाई’।
सूफीवाद का पालन करने वाले संत सूफ़ी संत कहलाते हैं। यह इस्लाम धर्म की उदारवादी शाखा है। सूफ़ी संत, ईश्वर की याद में ऐसे खोए होते हैं कि उनका हर कर्म सिर्फ ईश्वर के लिए होता है और स्वयं के लिए किया गया हर कर्म उनके लिए वर्जित होता है। इसलिए संसार की मोह-माया उन्हें विचलित नहीं कर पाती। सूफ़ी संत एक ईश्वर में विश्वास रखते हैं तथा भौतिक सुख-सुविधओं को त्याग कर धार्मिक सहिष्णुता और मानव-प्रेम तथा भाईचारे पर विशेष बल देते हैं।
सूफ़ी वो है, जो अपने नश्वर अस्तित्व को परम सत्य की खोज में डूबा दे और दुनियावी ख्वाहिशों से मुक्त होकर आध्यात्मिकता और सत्यता से अपना रिश्ता जोड़ ले। सादगी, उच्च नैतिकता, न्यायप्रियता और दूसरों की इज़्ज़त करना सूफ़ी चरित्र की बुनियाद है। दुनियावी व शारीरिक इच्छाओं से बचना, आत्मा और अपनी ज़रूरतों पर काबू रखना सूफ़ी की आदत में होता है। और सूफ़ी अपने को तपा कर, मैं और तुम की बंदिशों से पवित्र हो जाता है।
मियाँ मुहम्मद बख्श का व्यक्तित्व बहुत प्रभावी रहा है और इसी प्रभावी व्यक्तित्व के कारण ही उन्होंने इतने विशाल काव्य का निर्माण किया। कभी किसी की कही हुई बात मन में बैठ जाती है तो बरसों तक निकल नहीं पाती। आपकी समस्त रचनाएं हृदयस्पर्शी, आत्मा को स्पर्श करने वाली, सहानुभूति से अनुरंजित एवं स्वाभाविक हैं।
सूफ़ी महाकवि मियाँ मुहम्मद बख्श सर्वश्रेष्ठ कवियों में से एक हैं। आप पर धर्म का बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा है। ईश्वर के संबंध में आपके विचार उदार हैं।
वाली अल्ला डे मरदे नहीं करदे पर्दा पोशी
की होया ये दुनिया यूटोन टूअर गए नाल खामोशी1
The saints (favorities of Allah) do not die, they just hide behind the veil
so what if they leave the world silently?
मियाँ मुहम्मद बख्श एक सूफ़ी संत, महात्मा और पंजाबी कवि थे। इन्हें रूमी-कश्मीर कहा जाता है। आपका संबंध कादिरी पंथ के साथ था। वह विशेष रूप से सैफ-उल-मलूक नामक कविता की एक किताब के रचनाकार और रोमांस त्रासदी मिर्ज़ा साहिबान के लेखक के रूप में प्रसिद्ध हैं।
मियाँ मुहम्मद बख्श का जन्म मीरपुर, आज़ाद कश्मीर के पास, खारी शरीफ नामक गाँव में हुआ था। आपका जन्म 1830 खारी शरीफ और मृत्यु 1907 खारी शरीफ कश्मीर में हुई। सईफ मुलूक पंजाब की महाकाव्य कल्पना ‘सैफुल मूक’ और ‘मिर्ज़ा साहिबान’ के लेखक मियाँ मुहम्मद बख्श खारी शरीफ, पाकिस्तान में मीरपुर वंश वह दमरीयन वाली सरकार की चौथी पीढ़ी के आध्यात्मिक वंशज थे, जिन्हें खारी शरीफ में दफन किया गया था। दमरीयन वाली सरकार की खालिफाह (धर्म गुरु) दीन मुहम्मद थी; और उनकी खालिफाह (धर्म गुरु) मियाँ शमसुद्दीन थी, जिनके तीन बेटे थे: मियाँ बहवल बख्श, मियाँ मुहम्मद बख्श और मियाँ अली बख्श। मियाँ मुहम्मद बख्श के पूर्वज गुज्जर गोर्सी मूल के थे, परन्तु बाद में वे आज़ाद जम्मू-कश्मीर के मीरपुर जिले में आकर बस गए। उनके परिवार पंजाब, पाकिस्तान के गुजरात जिले के उत्तर में एक गाँव बजरगवाल के थे, और फिर वर्तमान शहर मीरपुर से 10 कि.मी. दक्षिण में एक प्रसिद्ध सूफियों और संतों के गाँव खारी शरीफ में आकर बस गए।
मियाँ मुहम्मद बख्श का लालन-पालन बहुत ही अच्छे धार्मिक वातावरण में हुआ और घर पर ही प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त हुई। बाद में उन्हें अपने बड़े भाई मियाँ बहाल के साथ पास के गाँव संवल शरीफ धार्मिक विज्ञानों का अध्ययन करने के लिए भेजा गया। विशेषकर हाफिज़ मुहम्मद अली की मदरसा में हदीस का विज्ञान। हाफिज़ नासिर जो एक मज्जब था। उन्होंने सम्पूर्ण सांसारिक मामलों को त्याग दिया था; यह दरबार उस समय समाजवादी शरीफ में मस्जिद में था। बचपन से ही मियाँ मुहम्मद ने कविता के प्रति रूचि का प्रदर्शन किया था और इस रुचि को पूरा करते-करते वो बहुत सारे कवियों और संतों का अध्ययन करते थे। मदरसा में उस युग में हाफिज़ नासिर उनसे निवेदन करते थे कि जामी की कविता से कुछ पंक्तियाँ गाकर सुनाएं और इन पंक्तियों को इतनी कुशलतापूर्वक सुनाई जाने पर वह प्रसन्नता से एक अद्भूत आध्यात्मिक नशे में खो जाते थे।
मियाँ मुहम्मद बख्श अभी पन्द्रह वर्ष के थे, जब उनके पिता गंभीर रूप से बीमार हो गए और उन्हें आभास हुआ कि वे अपनी मृत्यु के समीप हैं। उनके सभी छात्रों और स्थानीय लोगों को उन्हें देखने के लिए बुलाया। मियां शमसुद्दीन ने अपने लोगों से कहा कि उन्हें अपने परिवार के माध्यम से पीर-ए-शाह घजाई कंधार दमरीयन वाली सरकार से प्राप्त आध्यात्मिक वंश को पारित करने का उनका कर्त्तव्य था। उन्होंने अपने ही बेटे, मियाँ मुहम्मद बख्श की और संकेत किया और वहाँ एकत्रित हुए लोगों से कहा कि वह उस विशेषाधिकार को सम्मानित करने के लिए इनसे ज्यादा उपयुक्त और कोई नहीं मिल सकता है। सभी उनके निर्णय से सहमत थे। युवा व्यक्ति की प्रतिष्ठा पहले ही फैल चुकी थी।
उन्नीस वर्ष की आयु में वह खन्नाभा में चले गए। उनके दोनों भाइयों ने अपने जीवन में धर्म और सांसारिक जीवन के पथ पर अग्रसर हो गए, परन्तु वे केवल आध्यात्म में रुचि रखते थे और कभी विवाह नहीं किया। अपनी औपचारिक शिक्षा पूरी होने के पश्चात् उन्होंने यात्रा करना प्रारम्भ कर दिया, जहाँ वह निर्जन स्थानों की तलाश कर रहे थे, जहाँ वह स्वयं प्रार्थना और आध्यात्मिक प्रथाओं में व्यस्त थे, उन्होंने श्रीनगर के लिए कुछ समय तक यात्रा की, जहाँ उन्होंने शेख अहमद वेली से बहुत लाभान्वित किया। उन्होंने बहुत काव्य रचना की परन्तु सब से अधिक प्रसिद्धि उनको किस्सा सैफुल-मलूक (सफरुल-इश्क) लिखने पर मिली। उनकी कविता पंजाबी की पोठोहारी उप-भाषा में है और उन्होंने फारसी और अरबी के शब्दों का प्रयोग भी दिल खोलकर किया है।
मियाँ मुहम्मद बख्श ने सांसारिक जंजाल को त्याग दिया। उन्होंने सरस काव्य की रचना की, जिसे आम जनता पढ़ सके। उन्होंने अपने काव्य में उच्चकोटि की सृष्टि की है। उनके काव्य को पढ़कर ऐसा प्रतीत होता है कि इस कवि का भाव और भाषा पर नैसर्गिक अधिकार है।
मियाँ मुहम्मद बख्श की दृष्टि में ईश्वर की भक्ति किसी मज़हबी किताब में कैद नहीं थी, अत: धार्मिक प्रपंच से दूर रहकर इन्होंने अपनी आस्था, श्रद्धा और पूजा से भक्ति काव्य की स्वतन्त्र रूप से रचना की। ईश्वर तथा समाज के प्रति मिया मुहम्मद बख्श के विचार इस प्रकार थे-
धुन्धान वाले मुर्रन ना खाली, खुद हजरत फर्मंवेय
वेखान सैफ मलूकी वालों जो लोरे सो पावे
काले इक इक विचार चले गोरे ख़त लियेएय
बाँहो बहार तियार सफ़र दा कुछ सुनेहे आएय
सबर करे तां अजर मिले गा, आई ख़बर किताबूं
सब्र उतारे कुफ़ल मोहम्मद हर हर मुश्किल बाबून
दानिश्मंदू सुनो तामामी, अर्ज़ फ़कीर करेंदा
आपू चंगा जेय कोई होवे, सब नू भला ताकेय्न्दा
इश्के करां आदम कीता मेहरम यार यगाना
आहे मालिक इबादत जोगे, केह हजीत इंसाना 2
संदर्भ-सूची
1. सैफ-उल-मुलूक, मियाँ मुहम्मद बख्श, उद्धत सईद अहमद, पृष्ठ- 8
2. वही, पृष्ठ- 18
– भुपिंदर कौर