मूल्याँकन
लोक एवं व्यवस्था के संदर्भों को चीन्हते नवगीत
– भवेश दिलशाद
न्याय माँगने, गाँव हमारे
जब तहसील गये
न्यायालय
खलिहान, खेत, घर,
गहने लील गये
लम्बा अरसा हुआ गीत या छन्द कविता की ऐसी कोई महफ़िल इस गीत के पाठ के बगैर नहीं उठती, जिसमें आचार्य भगवत दुबे मौजूद हों। साल 2009 से तो मैं ख़ुद इस बात का साक्षी हूँ, जब श्रद्धेय पिताश्री कमलकांत सक्सेना जी ने मासिक साहित्यिक पत्रिका ‘साहित्य सागर’ के तत्वावधान में भोपाल में ‘नटवर गीत सम्मान’ वितरण कार्यक्रम को ‘राष्ट्रीय गीत उत्सव’ का राष्ट्रव्यापी स्वरूप दिया था। तबसे अब तक करीब आधा दर्जन ऐसे आयोजनों में स्वयं दुबे जी से यह गीत सुनने का आनंद ले चुका हूँ।
यह गीत वाक़ई दुबे जी की प्रतिनिधि गीत रचना बन चुका है और वह पूरे देश के काव्य जगत में इससे पहचाने जाते हैं। यह नियति है कि इस गीत की रचना के सालों बाद दुबे जी के नवगीतों का संग्रह प्रकाशित हुआ है ‘भूखे भील गये’। यह शीर्षक इसी गीत की पंक्ति का एक अंश है, वह अंश भी पठनीय है-
कभी न छँट पाया जीवन से विपदा का कुहरा
राजनीति का इन्हें बनाया गया सदा मुहरा
दिल्ली, लोककला दिखलाने, भूखे भील गये।
हालांकि संग्रह का शीर्षक सिर्फ़ ‘भूखे भील’ होता तो ज़्यादा सार्थक रहता। फिर भी ज़्यादा अहम बात यह है कि इस संग्रह में शामिल गीतों का सुर और तेवर क्या है? इन गीतों या नवगीतों को क्यों पढ़ना चाहिए और इन्हें किस दृष्टि से पढ़ा व समझा जाए? इस बारे में चर्चा करना उचित समझता हूँ।
दुबे जी के सद्य प्रकाशित काव्य संग्रह ‘भूखे भील गये’ में 105 नवगीत दर्ज हैं, जिनमें मुख्य रूप से लोक जीवन की झांकियाँ, बदलते पारिवारिक व सामाजिक ढाँचे, प्रकृति के साथ खिलवाड़ को लेकर चिंता और स्मृतियों के चित्र प्रधान गीति रचनाएँ विशेष हैं। प्रस्तुत संग्रह के इस चतुर्भुज को कुछ संकेतों के माध्यम से प्रकाशित करने की चेष्टा करता हूँ।
‘आचार्य जी के गीत लोक परिवेश से दूर नहीं हैं। गाँव की पीड़ा की नब्ज़ का अहसास दुबे जी को भली भांति है।’ संग्रह की पूर्व सम्मति में वरिष्ठ गीतकार श्री मयंक श्रीवास्तव के इस कथन के अलावा, लोक जीवन की झांकियों के संदर्भ तो आप इस संग्रह के शीर्षक और शीर्षक गीत से समझ ही सकते हैं। साथ ही इस संग्रह में कई जगह आपको दमितों, श्रमिकों, मज़दूरों और ग्रामीणों के संदर्भ मिल जाएँगे। उदाहरण के तौर पर यह बंद देखें-
शोषणकारी क्रूर किया करते मनमानी हैं
अब इन दमितों ने मरने-मिटने की ठानी है
एक साथ मिलकर लूटेंगे, ये तहख़ानों को
यानी सिर्फ़ दमित की पीड़ा ही नहीं, उस दमित वर्ग का बदला हुआ चेहरा भी यहाँ बेनक़ाब करने की चेष्टा इशारों में है, जो गीत काव्य में सर्वथा नयापन है। एक तरह से यह भी कहा जा सकता है कि दुबे जी की नज़र बदलाव को पकड़ने के लिए सतत स्फूर्त है। 80 बरस की उम्र के करीब पहुँचते हुए और पाँच दशकों से ज़्यादा लम्बी काव्य यात्रा कर चुकने वाले रचनाकार के लिए यह शायद स्वाभाविक भी होता है। यही कारण है कि परिवारों और सामाजिक रिश्तों, बुनावटों व व्यवस्थाओं में पिछली आधी सदी में जो आमूलचूल बदलाव आये, उन्हें दुबे जी ने अपने गीत काव्य में दर्ज किया है।
श्री कुमार रवींद्र ने अपनी सम्मति में इस संग्रह की रचनाओं को ‘फिलवक़्त का हलफ़नामा’ कहा है, जो विचारणीय है। यह भी अहम है कि बदलावों के विषय को दर्ज करने में दुबे जी ने चिंतन, विश्लेषण अथवा तर्कों के स्थान पर पीड़ा, संत्रास, प्रश्न एवं चिंता के उपालंभों का प्रयोग किया है।
इस संग्रह के सबसे सार्थक गीत मेरी दृष्टि में प्रकृति विषयक रचनाएँ हैं और सबसे रोचक रचनाएँ वे हैं, जिनमें स्मृतियों के झरोखे से जीवन का पुनरावलोकन है यानी नॉस्टैल्जिक पोएट्री। ‘अग्नि, पवन, जल, व्योम, धरा के बिखरे सूत्र चुनें..’ प्रकृति विषयक एक सशक्त रचना में दुबे जी ने इस ग़लती को ठीक से चीन्हा है कि पंचतत्वों के साथ मनुष्य ने किस कदर खिलवाड़ किया है। यही नहीं, इस संग्रह से गुज़रकर लगता है कि प्रकृति से जुड़े गीतों में कवि की लेखनी सर्वाधिक प्रभावशाली हो जाती है। एक बंद और देखें:
टी.बी. के रोगी-सा सावन मुरझाया है
हाँफ हाँफकर मल्हार मेघों ने गाया है
सावन औ’ भादों अब धूल में नहाते हैं
ये सर्वथा नूतन उपमाएँ और बिम्ब अनुभवी कवि की लेखनी की गुणवत्ता बयान करते हैं। इसी तरह, स्मृति के गीतों में ऋजुता, लोकभाषा का चाव और ग्रामीण परिवेश का मोहक चित्रण बरबस ही ध्यान आकर्षित करता है। इनके इतर, दुबे जी के गीतों की भाषा उन गीतों में कठोर और चौक चौराहों पर होने वाले बहस-मुबाहिसों वाली भाषा है। जिनमें राजनीति, व्यवस्था और सामाजिक विद्रूपताओं पर कटाक्ष जैसे विषय प्रकाशित हैं।
प्रस्तुत संग्रह विविधवर्णी गीति कविताओं का गुलदस्ता है। एकाधिक गीतों में गीत या छन्द विमर्श भी शुमार है, तो एकाधिक गीतों में मिथकीय प्रतीकों के अवलंबन भी उल्लेखनीय हैं। इसके अलावा, समकालीन गीति साहित्य या नवगीत सृजन में जिन चिंताओं को रेखांकित किया जा रहा है, उसके दृष्टांत इस संग्रह में भी उपस्थित हैं। बहरहाल, करीब 50 पुस्तकों के रचनाकार दुबे जी अपने अनुभव और प्रदेय के कारण हमेशा श्रद्धा व श्लाघा के पात्र हैं और वह इसके बाद भी और बेहतरीन रचनाओं से हमें सराबोर करते रहें, इसी आशा एवं कामना के साथ शुभम।
समीक्ष्य पुस्तक- भूखे भील गये
विधा- नवगीत
रचनाकार- आचार्य भगवत दुबे
प्रकाशक- पाथेय प्रकाशन, जबलपुर
– भवेश दिलशाद