उभरते-स्वर
स्वयं को भूलकर माँ ने, मुझे जीना सिखाया है
फ़लक से देखकर मुझको सितारा टिमटिमाया है
किसी ने आज घर के द्वार पर दीपक सजाया है
नज़र हटती नहीं जो देख ले वो मेरे चेहरे को
सवेरे जागकर माँ ने सँवारा है, सजाया है
नहीं है याद कुछ भी जो किया हो स्वार्थ की ख़ातिर
स्वयं को भूलकर माँ ने, मुझे जीना सिखाया है
कभी जो उठ गया मैं नींद से अपनी अचानक ही
उसी फिर रात पूरी जागकर मुझको सुलाया है
हताशा ने कभी पकड़ा मिटाने को मेरा दामन
मुझे माँ ने भरोसा जीत का फिर से दिलाया है
पहनकर आज ऑफिस शान से ये जा रहा हूँ मैं
मेरी माँ ने पुरानी ऊन का स्वेटर बनाया है
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जान मेरी रूठ जाया भी करो
देखकर तुम मुस्कुराया भी करो
रात में छत पर बुलाया भी करो
कब तलक यूँ ही रहेंगे सुलगते
आग दिल की तुम बुझाया भी करो
यूँ मिला न करों शरीफों की तरह
रात में मुझको सताया भी करो
लग न जाए आज खुशियों को नज़र
तुम मुझे थोड़ा रुलाया भी करो
क्यों हमेशा तुम मनाती हो मुझे
जान मेरी रूठ जाया भी करो
– अवधेश कुमार शर्मा ध्रुव