आलेख
जीवन मूल्यों के निर्धारण में समकालीन हिंदी ग़ज़ल की परम्परा
– अवधेश कुमार जौहरी
हिंदुस्तान ही नहीं अपितु दुनियां की कई देशो में ग़ज़ल साहित्य की गौरवशाली परम्परा रही है |हिंदुस्तान में सदियों से ग़ज़ल सभी वर्गों को प्रभावित करती आ रही है|ग़ज़ल ने धीरे धीरे काल और परिवेश के अनुसार स्वं को आम बोलचाल की भाषा में ढाल लिया है | जिससे ग़ज़ल को खासो -आम ने सर आँखों पर बिठाया है|यद्यपि ग़ज़ल जीवन की सभी विषयो पर अपना हस्ताक्षर करता है ,तथापि आम आदमी की पीड़ाओ,कुंठाओ,और सामाजिक ,राजनैतिक ,आर्थिक विद्रुप्तावों पार जिस शिद्दत के साथ स्वतन्त्रोत्तर काल में गज़ले नज़्मे कही गयी ,उससे पहले नहीं |दुष्यंत कुमार की ग़ज़ल संग्रह ‘साये में धूप ‘ने देश-विदेश में नए कीर्तिमान स्थापित किये है ,इसी परम्परा में आज देश भर के सैकड़ो रचनाकार गज़ले कह रहे है,और पूरी शिद्दत के साथ कह रहे है | हिंदी साहित्य में ग़ज़ल कहने वालो की संख्या में खासी वृद्धि हुई है,यही कारण है की आज ग़ज़ल पर पी.एच.डी.और डी .लिट. जैसे शोध प्रबंध लिखे जा रहे है और लिखे जा चुके है|
यद्यपि हिंदी साहित्य में ग़ज़ल लेखन और गज़लगोई की परम्परा प्राचीन है|तथापि ये परिपुष्ट परम्परा को ले कर हिंदी ग़ज़ल की परिपूर्णता और दिनों दिन अग्रसर हो रही है | समकालीन हिंदी ग़ज़ल लेखन लगभग 1974-75 में शुरू हुआ था , जबकि हिंदी कविता में ग़ज़ल के नए रंग अमीर खुसरो एवं कबीर के काव्य में भी देखने को मिलते है ,तत्पश्चात तो मनो ग़ज़ल काव्य विधा का मनो एक बाढ़ ही आ गयी | भारतेंदु हरिश्चंद्र ,सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ,शमशेरसिंह ,त्रिलोचन ,बलबीर सिंह ‘रंग’,शम्भूनाथशेष,हरीकृष्ण प्रेमी,चिरंजीव ‘नीरज’,रामावतार त्यागी आदि आदि ने इस परम्परा को सम्मान पूर्वक गति देने में अविस्मर्णीय भूमिका का निर्वहन किया है ,यद्यपि उक्त परम्परा में परीपुष्ठ्ता हिंदी ग़ज़ल में दुष्यंत कुमार में ही आयी उनका स्पष्ट विद्रोह ,क्रांति ,चुनौती आम आदमी की बदहाली का दृश्य ,जो दुष्यंत कुमार ने खींचा है ,उससे ही उनके ग़ज़ल एवं कलम की ताकत को आँका जा सकता है ,उनकी युग प्रवर्तिक रचना के कारण ही संभवतया उन्हें समकालीन हिंदी ग़ज़ल का सूत्रधार और नए युग का सूत्रपात माना गया |
कहाँ तो तय था चिरागां हरेक घर के लिए |
कहाँ चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए ||
कुछ विद्वानों का ग़ज़ल के सन्दर्भ में मानना है की ग़ज़ल विशुद्ध रूप से हिन्दुस्तानी सभ्यता की देन है, दुनियां में और कहीं पर हिंदुस्तान के आलावा दो लाइनों का दोहा नहीं मिलता है ,दोहा प्राकृत मात्रिक छंद है जिसका साहित्य में सबसे प्राचीन प्रयोग अंग जनपद के सिद्ध कवि ‘सहरपा’ के अंगीक भाषा में लिखे पदों से प्राप्त होते है ,यहाँ यह बता देना प्रासंगिक होगा की ‘सहरपा’ को हिंदी साहित्य के प्रथम कवि होने का गौरव भी प्राप्त है|
ग़ज़ल की भाषा काव्य भाषा है जो दो सम्प्रदायों को जोड़ने वाली सशक्त विधा है हिन्दुस्तानी ही नहीं दुनिया के कई देश भाषा के आधार पर सम्प्रदायों को देखते हैं ,उर्दू भषा को इस्लाम का प्रतीक और हिंदी भाषा को हिन्दू का प्रतीक मानते है ,यह आग अंग्रेजों ने आज़ादी से पहले लगाई थी ,परन्तु समकालीन हिंदी ग़ज़ल ने दोनों ही भाषाओ और सम्प्रदायों को भाव भूमि प्रदान कर नए युग का सूत्रपात किया है, ग़ज़ल सिर्फ ग़ज़ल है ये कोई हिंदी या उर्दू की भाषिक विवाद का विषय नहीं है अपितु इससे उठ कर उन्मुक्तता की उड़ान भरने वाली एक भावपूरित साधना है |
उर्दू की नर्म शाख पर रूद्राक्ष का फल है |
सुंदर को शिव बना रही हिंदी की ग़ज़ल है ||
हालाँकि पूर्व में संकेत किया जा चूका है की काव्य के क्षेत्र में ग़जल का इतिहास बहुत पुराना है ,हिंदी में ‘अमीर खुसरो’ और उर्दू में ‘वाली’ को प्रथम गज़लकार माना जाता है | तेरहवीं शताब्दी में सूफी गज़लकारअमीर खुसरो जब —
जेहले मिसकी मकुन तमाफुल ,दूरी नैना बताये बतियाँ |
किताबे हींजरा न दारमें, जांन लेहूँ काहें न लगाये छतिया,||
जैसा शे’र कह कर ब्रज भाषा का पुट ग़ज़ल में लेते दिखाई देते हैं तो वहीँ ‘कबीर’ जैसे युग प्रवर्तक ने आपने सधुक्कड़ी भाषा में कहा है –
हमन है इश्क़ मस्ताना हमन को होशियारी क्या |
रहे आज़ाद या जग से हमन दुनिया से यारी क्या ||
वहीँ प्रेम दीवानी मीरा ने भी ‘ ओ कान्हा ’ कह कर हिंदी राजस्थानी भाषा का परिचय दिया ये ग़ज़ल के आरभ का युग था जब सभी भारतीय भाषाओँ और बोलियों में ग़ज़ल बड़े शिद्दत और सम्मान के साथ प्रवेश कर रही थी ग़ज़लगो अपनी उड़न के लिए भाव भूमि तैयार कर रही थी |
सोलहवीं शती में गोलकुंडा के बादशाह क़ुतुबशाह ने ग़ज़ल में दाख्हिनी हिंदी का प्रयोग किया ,जिसको ‘वाली’ ने गति प्रदान की फिर क्या कहना था की ‘मीर’ की गज़लगोई की मिठास ,मिर्ज़ा ग़ालिब का अंदाजेबयां ,’जैक’ के नए व्याकरण तथा ‘बहदुरशाह ज़फर आदि युग प्रवर्तक ग़ज़लकारों ने ग़ज़ल को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर साज़ और आवाज़ का प्रतीक बनाया ,वाही मुहम्मद इकबाल ने हिंदुस्तान में शुद्ध रूप से इस परम्परा को राष्ट्रीय स्तर प्रदान किया , राष्ट्रीयता,और देश भक्ति को समर्पित गज़लों को हिंदुस्तान के हवाले किया | ग़ज़ल को प्रगतिशील रंग देने वाले ग़ज़लकारों में सरदार ज़ाफरी ,कैफ़ी आज़मी ,साहिर लुधियानवी आदि का नाम बहुत ही सम्मान के साथ लिया जाता है आज़ादी के जंग में शामिल होने वाले नामी शायर थे ‘रामप्रसाद बिस्मिल’ अशफाक उल्लाह खान तथा ग़ज़ल को दार्शनिक स्पर्श देनेवालों ग़ज़लकारों में ‘फ़िराक गोरखपुरी’ तथा ‘बशीर बद्र ’,’वसीम बरेलवी ;कातिल शफयी जैसे नामी-ग्रामी शायरों का नाम बड़े ही सम्मान के साथ लिया जाता है |
समकालीन हिंदी ग़ज़ल से पूर्व ग़ज़ल की परम्परा हिंदी कवियों के नाम से जोड़ी जाती रही है | आधुनिक युग के प्रथम कवि ‘भारतेंदु हरिश्चंद्र’ ने ‘रास’ उपनाम से गज़लें कही ,तो ‘अयोध्या सिंह उपाध्याय ने ‘हरिऔध’ के नाम से ग़ज़ल के व्याकरण को पोषित किया , ‘निराला’ और ‘प्रसाद’ ने भी हिंदी में गज़लें कही है,जय शंकर ‘प्रसाद’ द्वारा रचित प्रेम की एक छटा देखिये –
सरासर भूल करते है उन्हें जो प्यार करते है |
बुराई कर रहे है और अस्वीकार करते है ||
उन्हें अवकाश ही इतना कहाँ है मुझसे मिलने की |
किसी से पूछ लेते है बस यही उपकार करते है ||
इसी परम्परा में श्री रूप नारायण त्रिपाठी ,एवं श्री बलबीर सिंह जी का नाम हिंदी ग़ज़ल की परम्परा में बड़ा नाम माना जाता है,और त्रिलोचन जी और शमशेर सिंह जी हिंदी ग़ज़ल की परम्परा के बहुत नामचीन व्यक्तित्व में गाणना की जाती है, जिनके गज़लों में हिंदी और उर्दुपन का मणि कांचनं सामंजस्य दीखता है |
यद्यपि पूर्व में हिंदी ग़ज़लों में कहीं न कहीं परम्परा ही मुखरित थी |परन्तु जब दुष्यंत कुमार की गज़लें प्रकाश में आयी तो निश्चित तौर पर नया तेवर ,नया आक्रोश,व्यंग था ,आम आदमी की व्यथा थी ,अतृप्ति थी ,असंतोष था ,सुगबुगाहट, छटपटाहट और, नयेपन का शंखनाद था काव्य की दुनियां में परिवर्तन की मशाल थी |ये सभी परिवर्तन १९७६ में पत्रकारिता के क्षेत्र से शुरू हुआ ,जिसका नाम था ‘सारिका’ जिसमें मूल विषय था “दुष्यंत–स्मृति-विशेषांक”इस प्रकाशन ने साहित्य में एक नए अध्याय के द्वार खोल दिए इस अंक में कुछ गजलें थी जो शासन और प्रशासन की गड़बड़ व्यवस्था पर आक्रोशित होती हुई,आम आदमी की पीड़ा ,कुंठा, अतृप्ति ,अन्तोष का स्वर मुखरित करती है चीखती पुकारती गज़लें कहती है –
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं|
मेरी कोशिश है की सूरत बदलनी चाहिए ||
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में ही सही |
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए ||
जैसी युगांत करी शे’र दुष्यंत कुमार ने कहे जिसका अनुसरण हजारो बार सम्मेलनों में साहित्य जगत में राजनीती जगत में लोगो ने आपनी बात को वज़न देने के लिए कहे अभी समाज की समस्याओं को लेकर कालांतर में सिने कलाकार आमीर खान ने ‘सत्य मेव जयते’ में भी इसी शे’र से धारावाहिक शुरू की थी | दुष्यंत कुमार की युगांतकारी गज़लें व्यवस्था की पोल खोलती हुई कहती है –
गूंगे निकल पड़े है जुबां की तलाश में |
सरकार के खिलाफ ये साज़िस तो देखिये ||
गूंगी बहरी सरकार के खिलाफ जनता की जुबान बन दुष्यंत कुमार ने वर्षों से त्रस्त जनता ,ठगी जनता को आत्म विश्वास का भाव पैदा करने में आहम भूमिका का निर्वहन किया , उन्होंने कहा
कौन कहता है आसमाँ में सुराख़ नहीं होता |
एक पत्थर तो तबियत से उछलो यारों ||
कहा जाता है है की ‘सारिका’ में जब “दुष्यंत –स्मृति-विशेषांक” छपा तो एक पत्रिका के चाहने वालों की संख्या एक दिन में एक लाख से अधिक था,चुकी इस पत्रिका ने सभी बंधन तोड़ दिए थे ये सिर्फ साहित्यकार वर्ग के पास ही नहीं अपितु आम जनता के पास आपनी पहुँच बनाने लग गयीजिससे साहित्य थी जिससे साहित्यजगत ने भी आपने पुराने घिसे पिटे अवधारणाओ को छोड़ने का संकल्प लिया, तब ही से हमे समकालीन हिंदी ग़ज़ल की शुरुआत मान लेना चाहिए |
अब दौर ऐसा आगया की हिंदी में ग़ज़ल एक आदत सी हो गयी और आदत कभी जाती नहीं जाहिर है की मंचों पर ग़ज़ल हावी हो गए,समकलीन हिंदी ग़ज़ल के एस तेवर से अन्य भाषाएँ भी प्रभावित होने लगी ,नतीजा ये था की अन्य भारतीय भाषाओ में भी ग़ज़ल कहने की परम्परा का सूत्रपात हो गया ,अब आलम ये है की अंग्रेजी भाषा में भी ग़ज़ल कही जा रही है ,इंग्लैण्ड के अनेक कवि मसलन –ब्रियान हेनरी ,डेनियल हाल ,और शेरोन ब्रियान जैसे नमी ग्रामी कवि बाकयदा अंग्रेजी भाषा में ग़ज़ल को आपनी कलम की ताकत बना रहे है ,उर्दू भाषा की निकलने वाली ‘शाइर’ नमक पत्रिका ने ‘’अंग्रेजी ग़ज़ल और गज़लकार’’ नमक शीर्षक से इनके बारे में छपा है |
यद्पि समकलीन हिंदी ग़ज़ल साहित्य की बात दुष्यंत कुमार से शुरू होती है हिंदी साहित्य में दुष्यंत कुमार ‘नई कविता दौर के अत्यधिक सशक्त हस्ताक्षर थे ,तथापि ग़ज़ल साहित्य की बनावट और बुनावट का जहाँ तक प्रश्न है ,वहाँ ग़ज़ल साहित्य हिंदी भाषा की अपनी उपज की नहीं है,ये सिर्फ हिंदी में स्थापित किया गया है, एक अमूल्य धरोहर के रूप में और ग़ज़ल साहित्य के लिए भी बहुत सही है ,की उसको अपने अस्मिता के विकास के लिए सुधि पाठको और रचनाकरों द्वरा हिंदुस्तान की सर ज़मीन मुहय्या करवाया गया | जहाँ उसको फलने और फूलने के लिए बहुत विस्तृत भाव भूमि तैयार मिल गयी |
ग़ज़ल शब्द अपने आप में सौंदर्य का बोधक है ,भावानुभूति प्रधान प्रेरणा दायक बहुआयामी शब्दों वाला अविस्मर्णीय काव्य विधा है,भौतिकवादी प्रतिपादन के आधार पर समकालीन ग़ज़लों को पूर्ण रूप से समझ पाना मुश्किल है क्योंकि परिस्थितियों में गुणातम्क परिवर्तन हुआ है ,समकालीन हिंदी ग़ज़लों के सामने वातावरण और परिस्थिति की कड़ी चुनौती का दौर भी है ,दुष्यंत कुमार के सामने विचारो का पूरा कुनबा हुआ करता था, पर आज विचारों में दूषित वातावरण भी है ,जिसको कुछ विद्वान् बौद्धिक आतंकवाद के नाम से जानते है, ग़ज़ल के लिए भावना और विवेकशीलता का लयात्मक सम्प्रेषणीयता की आवश्यकता होती है तथा प्रगतिशाली चेतना ने इस काव्य विधा को अत्यंत तीक्ष्ण और पैना बना दिया है जिससे दुष्यंत कुमार के बाद ग़ज़ल साहित्य का तेवर और अधिक सर पर चढ़ के बोलने लगा है |अब ग़ज़लकार की पैनी निगाहें सब कुछ देख लेती है ,म्कलिन हिंदी ग़ज़ल विषयवस्तु में सामाजिक विषमतायें ,ज्वलंत समस्याएँ ,विसंगतियां ,विरोधाभासथा, विद्रूपताए आदि आदि अनेक विषयों ने अपना अधिकार ग़ज़ल साहित्य पर किया है |
दुष्यंत कुमार के बाद ग़ज़ल साहित्य अपने सामर्थ्य और शक्ति के अनुसार आपने आपको उस मुकाम पर प्रतिष्ठित करता है जहाँ भाषिक भेद गौण हो जाते है और मानवीय भावना परक बाते श्रेष्ठ हो जाती है ,जहाँ पाठक और लेखक का संसार मानवीय चेष्ठाओं और जटिलताओं को यूँ का यूँ ग़ज़ल में उतार कर अभिक्ति प्रदान किया जाने लगा है दैनन्दिन ग़ज़ल पाठको और ग़ज़लकारों की बढ़ती संख्या में वृद्धि इस बात का प्रमाण है | गन के गलियारे से संसद के दरवाजे तक बड़े सम्मान से इसका नाम लिया जाता है | ये बात सर्व विदित है की ग़ज़ल मध्य युग में सिर्फ बुद्धिजीवियों और धनाढ्य वर्ग में ही प्रचलित थी समकालीन हिंदी ग़ज़ल ने आम आदमी तक पंहुचाया, पहले ग़ज़ल का विषय सिर्फ प्रेम और श्रृगार हुआ करता था जो अब आम आदमी की रोजमर्रा की पीड़ा संवेदना भी समाहित हो गयी हिंदी साहित्य के 1936 के बाद में प्रगतिशील आन्दोलन ने हिंदी और उर्दू अदब के साहित्यकारों को अतीत की रौशनी में भविष्य सोचने और समझने का मार्ग प्रशस्त करता है उस मार्ग का एक पड़ाव समकालीन हिंदी ग़ज़ल बनें जहाँ से अनेकानेक रस्ते फूटे और अपनी-अपनी मंजिल की तलाश में गज़लगोई चलती रही, दुष्यंत कुमार के पश्चात् एक पूरा का पूरा लब्ध प्रतिष्ठित ग़ज़लकारों का समूह ,मनीषी विद्वानों साहित्यकारों का ग़ज़ल चिंतन का बेबाक काफ़िला तैयार हो गया जिसमे बड़ी सिद्दत के साथ बेबाकी से जीवन के हर पहलु को छुआ है,संवारा है, साधा है ग़ज़ल के लिए सबसे आवश्यक है स्वस्थ कल्पना,परिपक्व सोच ,भाव तथा भावाभिव्यक्ति तथा इन सभी के लिए आवश्यक है ‘बहर’ फिर ‘काफिये’ और उसके बाद ‘रदीफ़’ हिंदुस्तान में ग़ज़ल की ऐसी ही परिपक्व ज़मीन है जहाँ पर आजमुन्नवर राणा ,निदां फ़ाज़ली,डॉ.जानकी प्रसाद,राहतइन्दौरी,बकौल कुमार ‘बरतर’,डॉ.कुंवर ‘बेचैन’ आर.पी.शर्मा,डॉ.दरवेश भारती ‘महर्षि’,डॉ.रामदशरथ मिश्र ,डॉ.शेरजंग गर्ग, डॉ.अमेन्द्र,कमलेश्वर, माणिक वर्मा,चाँदशेरी(कोटा),पुरुषोत्तम ‘यकीन’,अदम ‘गोंडवी’ डॉ.शम्भुनाथ तिवारी,दीक्षित दनकौरी,ज़ाहिर कुरौशी आदि ग़ज़लकारों ने इस ग़ज़ल की परम्परा को पुर जोर तरीके से आगे बढ़ाया है ,चाँदशेरी(कोटा) ने क्या ख़ूब कहा है –
एक लम्बी कतार बाकि है | मुफलिसों की पुकार बाकि है ||
कत्ल मासूम हो गये लाखों | फिर भी खंज़र की धर बाकि है ||
इनकी गजलों में आम बोलचाल की भाषा में आम आदमी की पीड़ा को अभिव्यक्ति मिल रही है इसी परम्परा में पत्र-पत्रिकाओ ने भी अपना स्थाई स्तम्भ के रूप में ग़ज़ल को स्थान दिया है ,‘दीक्षित दनकौरी’ ने ‘ग़ज़ल दुष्यंत के बाद’ में समकालीन हिंदी ग़ज़ल १९७५ के बाद लगभग सभी गज़लकारो की गजलों का संकलन किया है | इसके अतिरिक्त कथादेश,आज-कल ,नया-ज्ञानोदय,वसुधा,पहल,हंस,विभिन्न साहित्य अकादमी की पुस्तकों में भी गज़लों को स्थाई स्तम्भ के रूप में रखा गया है, जिससे ग़ज़ल साहित्य की धरा का सतत प्रवाह हो रहा है ,आवश्यकता इस बात की है की हिंदी में महत्वपूर्ण ग़ज़ल विधा का निष्पक्ष,तठस्थ, एवं वस्तुपरक आंकलन किया जाना चाहिए ताकिसमकालीन हिंदी ग़ज़ल, हिंदी में भी वो अपना स्थान बना सके जिसकी वो अधिकारनी है |
सन्दर्भ सूचि-
1. अच्छी गज़लें – सं.रमेश चन्द्र श्रीवास्तव (कुसुम प्रकाशन,इलहाबाद )
2. अमीर खुसरो और उनका साहित्य – सं. डॉ.भोला नाथ तिवारी
3. आधुनिक हिंदी काव्य में यथार्थवाद – सं. डॉ.नरेश (राजपाल एंड संस, दिल्ली १९७३ )
4. आवाजो के घेरें – सं. दुष्यंत कुमार (राजकमल प्रकाशन, दिल्ली १९६३ )
5. ग़ज़ल विधा – सं. आर .पी .शर्मा ‘महर्षि’
6. उर्दू की बेहतरीन शायरी – सं. प्रकाश पंडित (हिंदी पॉकेट बुक्स,दिल्ली १९८०)
7. ग़ज़ल एक यात्रा – सं.सूर्य प्रकाश शर्मा (विश्व भारती प्रकाशन,नागपुर(१९८८)
8. जलते हुए वन का बसंत – सं दुष्यंत कुमार (अनादी प्रकाशन ,इलहाबाद)
9. दुष्यंत कुमार ;रचनाएँ और रचनाकर – सं.गणेश अष्टेकर (पञ्चशील प्रकाशन,जयपुर)१९८१
– अवधेश कुमार जौहरी