मूल्यांकन
मानवतावादी दृष्टि का संग्रह : वह सांप सीढ़ी नहीं खेलता
– अरविन्द यादव
गणेश गनी समकालीन कविता के सशक्त हस्ताक्षर हैं, उनकी कविताएँ पहाड़ी झरनों के संगीत की मानिंद अंत:करण को एक अनोखी सुखानुभूति से सराबोर कर देती हैं। उनकी कविताओं की भाषा और भावों का जादू अनायास ही पाठक के मन को इस प्रकार सम्मोहित कर लेता है कि पाठक चाहकर भी उस सम्मोहन के तिलिस्म को तोड़ नहीं पाता। उनकी कविताएँ विविध लोकरंग की छटा बिखेरने के साथ ‘पल-पल परिवर्तित प्रकृति वेश’ के नयनाभिराम दृश्य इस प्रकार आँखों के सामने लाकर चुपचाप खड़े कर देतीं हैं, जिनसे यौवनोन्माद में उल्लसित प्रकृति का पाठक सहज ही साक्षात्कार कर लेता है। उनकी कविताओं में जो लोकोन्मुखता, जो कथ्यजन्यता तथा जो शब्द व्यंजना है, वह क़ाबिले-तारीफ़ है।
गणेश गनी का कविता संसार कल्पना लोक में विचरण नहीं करता अपितु पीठ पर बर्फ लादे दूर-दूर तक फैले उतुंग पहाड़ों की ऊबड़-खाबड़ ज़मीन पर क़दम-ताल करते हुए पहाड़ी पगडंडियों से उतर खेतों के रास्ते घर, घर की दहलीज और आँगन तक को समेटे विस्तृत भू-भाग तक प्रसरित दिखाई देता है।
गणेश गनी की कविताओं में जीवन के राग-विराग के साथ सामाजिक-राजनीतिक समस्याओं का कलात्मक चित्रण भी दिखाई देता है। उनकी कविताओं में भाषा के प्रयोग, शिल्प के गठन और कथावस्तु के चयन में भी अनोखी सूझ-बूझ का कौशल दिखाई देता है। उनकी कविताएँ जीवन के सूक्ष्म संदर्भों को गम्भीर अर्थ प्रदान करते हुए सघनता केे साथ समाज और जीवन के संवेदनसिक्त संसार को अनूठे बिम्बों और प्रतीकों के माध्यम से रूपायित करती हैं। उनकी कविताएँ जीवन जगत की यथार्थ अनुभूतियों से उपजीं सहजवृत्तियों को समाहित किए समय की भयावहता को व्यक्त करने वाली सूक्ष्म एवं गम्भीर वैचारिकता समेटे हुए हैं। इतना ही नहीं उनकी कविताएँ हमें सहज ही सामान्य जन के कठोर श्रम और क्रियाशीलता के लोक तक भी ले जाती हैं।
गणेश गनी की कविताओं में किसानों, मजदूरों और बेरोज़गारों के जीवन संघर्षों और उनकी दयनीय परिस्थितियों का यथार्थ चित्रण दिखाई देता है। आज किसान, मजदूर, बेरोज़गार युवाओं की दशा दयनीय है। अनथक परिश्रम करने के उपरान्त भी उन्हें दो वक़्त की रोटी मयस्सर नहीं है। वे जीवन की बुनियादी सुविधाओं से महरूम रहते हैं। अनवरत लड़ते-लड़ते वे कभी-कभी इतने टूट जाते हैं कि उनके पाँव थरथराने लगते हैं और एक दिन उनका सारा धैर्य चुक जाता है। जीवन के प्रति कोई आकर्षण शेष न रहने पर वे कायरता जैसे भावों से घिर जाता हैं। उनकी जिजीविषा समाप्त हो जाती है और वे आवेश में आकर ग़रीबी की रस्सी का फंदा डालकर मौत को गले लगा लेते हैं। उनकी कविता ‘वह कायर नहीं था’ ऐसे ही संघर्षमय जीवन का दस्तावेज़ है-
वो यूँ ही नहीं मरा
पहले-पहल तो
उसकी इच्छाओं को कुचला गया
जूते तले बेरहमी से
फिर धीरे-धीरे उसकी भूख मरी
और अन्त में प्यास भी
जब उसकी जिजीविषा ही मर गयी
तब जाकर उसने
आत्मा को ही मार डालने का फैसला किया
वे सभी हैरान थे
जो कहते थे आत्मा मरती ही नहीं
उनमें से एक कह रहा था
यह ग़रीबी रेखा से नीचे का आदमी था
दूसरा बोला
यह मजदूर था
तीसरा बोला
यह हलवाहा था
चौथा बोला
यह छात्र था
देखो इसके हाथ में क़लम है
सब नज़रें गड़ाए उसे घेरे रहे
और उसके होंठों पे एक
सबसे डरावनी मुस्कान तैर गयी
हाथ की क़लम
हल का फाल बन गयी
फिर फाल दराटी में बदला
दराटी के पैने दांतों की खौफनाक चमक से
भीड़ की आंखें चौंधिया गयीं
तो देखा कि ग़रीबी की रेखा ही
वह रस्सी थी
जिसके निशान आत्मा के गले पर थे
उसे यूँ ही कायर कहा गया
जबकि इस घटना से पहले
बड़े ही साहस से किया सब सहन
वह जानता है
मिट्टी नहीं मौसम उगाता है फसल
पर अभी मौसम प्रतिकूल है।
एक आम आदमी भूख के लिए ताउम्र अप्रतिहत संघर्ष करता है क्योंकि ज़िन्दा रहने के लिए रोटी सबसे पहली ज़रूरत है परन्तु आज वही उसके लिए अलभ्य है। वह एक-एक निवाले की खातिर जान जोखिम में डालने से भी पीछे नहीं हटता। युद्ध में लड़ने वाले सैनिक की मानिंद वह भूख से आजीवन जंग करता है। उसके बावजूद भी भूख की समस्या यथावत रहती है। उनकी कविता ‘उसकी पीठ फिर झुक जाती है’ इसी सत्य का बेबाक बयान है-
मैंने उसे हमेशा देखा है
टोपी, कोट और गाची पहने
घर से निकलने से पहले
उसका तैयार होना
योद्धा की भांति लगता है
पहले वो कोट पहनता है
ताकि पीठ की छीलन रुके
फिर वो गाची को कमर पर
कई-कई घेरे लपेटता है
ताकि भूख छिपी रह सके
इसी मजबूत कमरबंद के पीछे
वरना भूख का क्या है
पेट से उछलकर
सीधे सड़क पर आ सकती है
अंत में बड़े अदब के साथ
वो अपने दोनों हाथों से
रखता है टोपी अपने सर पर
और यही वो क्षण है
जब उसकी झुकी पीठ
अचानक हो जाती है सीधी
यह घर से निकलने का वक्त है
अगर आप सुनोगे
तो मैं शाम का किस्सा भी सुना सकता हूँ
इतना बता दूँ कि
शाम वाले दृश्य में
उसकी पीठ फिर झुक जाती है
पर यह थाली से रोटी का कौर
मुँह तक पहुंचाने का समय होता है।
आज रोजी-रोटी की तलाश में लोग गाँवों को छोड़; शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। बड़ा बनने की महत्वाकांक्षा में वे अपनी जड़ों से दूर शहरों में रहने के लिए अभिशप्त हैं। वे अपना घर, अपना गाँव, अपना पनघट और अपना बचपन किस प्रकार विवशता में त्याग देते हैं, उसका स्पष्ट चित्रांकन उनकी कविता ‘यह किसका घर है’ में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है-
बड़ा बनने की चाहत
और महत्वाकांक्षा ने
जीवन का यह खेल है खेला
पत्थर मारने पर भी देता था फल
अब उस पेड़ को भी भूला
आँगन, गाँव और पनघट को भी छला
हुआ जब सयाना तो
तुम्हें भी छोड़ चला।
गाँव की स्मृतियाँ कवि के अंत:करण में गहरे तक पैठी हैं। अब कवि को गाँव जाकर देखने पर भी अपना गाँव अपना नहीं लगता। भौतिकता की अंधी दौड़ ने उसकी वह ख़ूबसूरती उससे छीन ली है। वे पगडंडियाँ, वे वृक्ष, वे खेत और वह जंगल जहाँ गिल्ली-डंडा और कबड्डी खेलते उसका बचपन बीता था, वह जैसे समय की धुंध में कहीं खो गया है, की पीड़ा उनकी इसी कविता ‘यह किसका घर है’ में साफ-साफ दिखाई देती है-
गया मैं गाँव जब पिछले बरस
गाड़ी से उतरकर देखा और ढूँढा
खो गई थी वो पगडंडी
जो बलखाती उतरती हुई
जोड़ती थी गाँव को सड़क से
अब तो रास्ते सारे
जैसे मुड़े शहर की ओर
गया मैं गाँव जब पिछले बरस
एक खेत हमारे पुरखों का
कंटीली तार की बाढ़ से
कर रखा था कैद किसी ने
समय की रेत जीवन मुठ्ठी से
धीरे-धीरे फिसल रही है
अब चाहता हूँ
गमलों में जंगल बसाना
और एक्वेरियम में सागर सजाना
सपनों में सच्चे रंग मन भरना
रिश्तों के पक्के ताने-बाने बुनना।
आज भौतिकता की अंधी दौड़ में नदियाँ, जंगल और पहाड़ों को लगातार खत्म किया जा रहा है और उन जगहों पर आलीशान बंगले और होटल बनाए जा रहे हैं। उनकी कविता ‘जूं के पेट में हाथी’ में यह तस्वीर साफ-साफ दिखाई देती है-
असल में समय अब बदला है
ऐसा उसे लगता है इन दिनों
क्योंकि पहाड़ से पेड़ ही नहीं
बर्फ भी चुरा ली गयी है।
पहाड़ अतिथि हो गये हैं
बंगले की दीवारों के
और पेड़ खिड़की के
ताकि बंगले रातों में भी उजले दिखें
इसलिए पहाड़ में
नदियों पर कारोबार जारी है
पहाड़ सदमे में हैं
नदियाँ जड़ हो गयी हैं।
आज स्वकेन्द्रित मनुष्य रिश्तों को गौण मानकर इनकी उपेक्षा करने लगा है। दिनों-दिन ऊष्मिल-कोमल भावनाएँ छीज होती जा रहीं हैं। आपसी सम्बन्धों में एक अजीब-सा ठण्डापन भरता जा रहा है। आज रिश्तों के संस्पर्श मानव के श्रान्त-क्लान्त मन को विश्रामदायिनी शान्ति प्रदान नहीं करते, उनके कोमल मन को आल्हादित नहीं करते बल्कि इसके उलट वह आज मानव को बोझ लगते हुए दिखाई देते हैं। उनकी कविता ‘पीछे चलने वाली पगडंडियाँ’ की पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं-
साँसों की ऊंची उड़ान में
रिश्तों के गर्माहट भरे गुब्बारे
खो गए हैं कहीं अन्तरिक्ष में
पीछे चलने वाली पगडंडियाँ
बेसुध पड़ी हैं पहाड़ की गोद में
क्योंकि पिता अब बूढ़े हो रहे हैं तेजी से
महीनों तक अब नहीं निकलते बाहर
मृगछौनों की धमाचौकड़ी देखना
कब का छूट गया
पर अपनी बन्दूक को अब भी
चमकाते हैं कभी-कभी धूप में
और साधते हैं निशाना शून्य में।
दिनों-दिन बढ़ती संवेदनहीनता पर भी कवि की पैनी दृष्टि निबद्ध है। लगातार बढ़ती संवेदनहीनता मानव और देश को कहाँ ले जाकर खड़ी करेगी, उसकी पीड़ा उनकी इन पंक्तियों में दृष्टव्य है-
संवेदनहीनता धीरे-धीरे
बच्चों में भी आ रही है
संवेदनहीनता फिर आएगी
परिवार में और फिर समाज में
संवेदनहीन समाजों वाला देश
संवेदनहीन देशों वाली पृथ्वी
सोचो कैसी होगी दुनिया!
आज हिंसक सत्ताएँ विरोध व असहमति या अपने प्रतिरोध में उठी आवाज़ों को कुचलने के लिए बर्बर तरीकों को अख्तियार कर चुकीं हैं। आज ये सत्तासीन ताकतें उन आवाजों पर ताले डालने के लिए बर्बरता और क्रूरता की सारी हदें पार कर रही हैं। आज सत्ताधीश अपने हक़ के लिए संघर्षरत आन्दोलनकारियों को लहूलुहान कर सलाखों के पीछे मरने के लिए छोड़ देते हैं। वे उनके शब्दों से इतने भयाक्रांत हैं कि वे उनकी जुबान को हमेशा के लिए या तो बन्द कर देना चाहते हैं या उनकी जुबान को काट देना चाहते हैं। उनके बर्बर चरित्र और उनकी हिंसक वृत्तियों की भयावह तस्वीर उनकी कविता ‘पहरे’ में स्पष्ट रूप से दिखाई देती है-
आज शब्दों पर
प्रहार हो रहे हैं
शब्द टूट रहे हैं
मृत हो रहे हैं
वे संवाद नहीं कर सकते हैं
उन पर पहरे हैं।
जागृति, संघर्ष, आन्दोलन
ऐसे शब्दों को
किया गया है नज़रबंद
फिर भी डरे नहीं हैं शब्द
डटे हुए हैं व्यवस्था के खिलाफ
और भी मुखर हुए हैं।
शब्द कहीं हथियार न बन जाएँ
इसलिए वे चाहते हैं
शब्दों को मार डालना
या उनकी जुबान काट डालना
या कम से कम
शब्दों के अर्थ ही बदल डालना
चाहते हैं वे।
आज किस प्रकार शब्दों का इन्द्रजाल फेंककर आम आदमी को उसमें फंसाया जा रहा है, किस प्रकार सिर्फ जुमलेवाजी से जनता का पेट भरा जा रहा है, किस प्रकार सिर्फ और सिर्फ सद्भावना के शब्दों को उछालकर प्रेम और सद्भावना के संचार का दिखावा किया जा रहा है, प्रकार अच्छे दिनों का सपना दिखाकर लोगों को मूर्ख बनाया जा रहा है तथा जन-गण-मन की बात सुने बिना अपने मन की बात करके लोगों को बहलाया जा रहा है, उसका यथार्थ अंकन उनकी कविता ‘आप समझते हैं’ में दिखाई देता है-
आप समझते हैं
कि लाल किले के परकोटे से
अपने सम्बोधन में
मात्र मित्रो कहने भर से
सद्भावना का हो जाता है संचार
सम्पूर्ण पृथ्वी पर
आपके तेज-तेज चलने से ही
देश का विकास रफ्तार पकड़ लेता है
आप समझते हैं
कि जहाज के दरवाजे पर खड़े होकर
दाहिना हाथ ऊपर उठाकर
ज़ोर-ज़ोर से हिलाने भर से
दरिद्रता के बादल छट जाते हैं।
सरकारी रेडियो स्टेशन से
आपके मन की बात कर देती है
सबके मन का बोझ हल्का
आप जानते हैं यह भी
कि जनता सब जानती है
दिल्ली के तख्त का
शहंशाह नहीं चौकीदार बनाकर
जनता ने आपका सपना पूरा किया है
आप याद नहीं करना चाहते
हर संसदीय इलाके में
आदर्श गाँव बनाने का वादा
आपको मालूम है
अच्छे दिन आएँगे
ऐसा सौ बार कहने मात्र से
लोग मान लेंगे सच।
आज जहाँ मित्र और मित्रता जैसे शब्द अपना वजूद खोते जा रहे हैं। छल-फरेब से भरे यह रिश्ते दिनों-दिन अविश्वास का पर्याय बनते जा रहे हैं। ऐसे में उनकी कविता ‘जब कांधे पर हवा बैठ कर कहे’ मित्रता को इस प्रकार परिभाषित करती है-
दोस्तों की बातें ऐसी होती हैं
जैसे देवदार के पेड़ भर घनी छाँव
दोस्तों की बातें वैसी भी होती हैं
जैसे दिनों से भटके राही को
अचानक मिल जाए कोई गाँव
यह सच नहीं है
कि आज सच्ची बातें कहने वाले नहीं मिलते
पर यह भी तो सच है
कि अब सच्ची बातें सहने वाले नहीं मिलते
इसी कहने और सहने के बीच
घुटा रहता है कुछ-कुछ अनकहा।
गनेश गनी एक अनुभवी किस्सागो भी हैं, अतः स्मृतियों के सहारे अपनी बात कहने में भी सिद्धहस्त हैं क्योंकि स्मृतियों का मानव जीवन में बहुत महत्व है। स्मृतियाँ कभी-कभी मानव मन को सुखदानुभूति से आप्लावित कर देती हैं तो कभी जीवन के उन दुखद क्षणों से साक्षात्कार करवा देती हैं, जिनकी उपस्थिति अनायास मन को विह्वल कर देती है। उनकी कविता ‘मैं कहानी सुना रहा हूँ’ मेंं माँ की स्मृतियों की कातरता दृष्टि गोचर होती है-
तुमने जीवन भर न सोने की चूड़ियाँ पहनीं
न तो कोई बटुआ रखा अपने पास
तुमने कभी करवाचौथ के बारे में सुना भी नहीं
पर तुम्हारे अधिकतर दिन करवाचौथ जैसे ही बीते
हालांकि तुम्हारा जाना कोई नई घटना नहीं है
पर कुछ जल्दी जाने के कारण भी तो हैं
तुमने अपने जीवन के कुछ साल
इस अखरोट के पेड़ को दिए
कुछ साल पूर्णिमा के रोज चाँद ले जाता तुमसे
सामने नदी पार वाला मीठे पानी का झरना भी
तुम्हारे ही दिए बरसों को जी रहा है
बाकी तुम्हारे ही बचे हुए दिन पिता काट रहे हैं।
इन सबके अतिरिक्त उनकी कविता ‘आग’ शोषण, दमन, उत्पीड़न व अन्याय की आग के बरक्स संघर्ष और जनांदोलन की आग को सीने में प्रज्ज्वलित रखने की नसीहत देती हुई दिखाई देती है। वहीं ‘एक आदमी जश्न मना रहा है’ कविता समाज में बढ़ते धार्मिक वैमनस्य, अन्धविश्वास और भ्रष्टाचार की जड़ पर कुठाराघात करती है तो एक और दूसरी कविता ‘वो पूछते हैं पिता से’ दीवाली के उजाले में भी मासूम आँखों में छुपे भयावह अन्धकार के साथ असहाय हलवाहे की पीड़ा को महसूस लेती है।
इनके अलावा जहाँ ‘चाँद खींच ले गया’ और ‘थोड़ी मिट्टी माँगने आया हूँ’ में पर्यावरण के संरक्षण की आकुलता दिखाई देती है, वहीं ‘चेहरे’ शीर्षक कविता में आज के स्वार्थी मनुष्य की समयानुसार मुखौटा बदलने की प्रवृत्ति परिलक्षित होती है।
इसके साथ ही संग्रह की तमाम अन्य कविताएँ, जिनमें ‘यह उत्सव मनाने का समय है’, ‘घुरेई कहाँ नाचेगी’, ‘ऐ डरे हुए लोगो’, ‘प्रशस्ति के पीछे’, ‘यह समय नारों का नहीं हो सकता’ मानव जीवन की विसंगतियों को उजागर कर संवेदनशील हृदय को झकझोर कर रख देती हैं तथा पाठक को रुककर सोचने को मजबूर करती हैं।
कविता संग्रह ‘वह सांप सीढ़ी नहीं खेलता’ में 59 कविताएँ हैं। सभी कविताएँ भाषा, भाव, शिल्प और संवेदना में बेजोड़ हैं। कविताओं की भाषा सहज व सरल है। उनकी कविताएँ भाव और विचार दोनों ही स्तर पर मन को संस्पर्शित करने का माद्दा रखती हैं। यदि जहाँ-तहाँ प्रयुक्त आंचलिक शब्दों को छोड़ दिया जाय तो शब्द चयन भी उच्च कोटि का है। बिम्ब और प्रतीक उन्होंने चतुर्दिक विस्तारित प्रकृति और परिवेश से उठाए हैं। यही कारण है कि उन्हें आसानी से हृदयंगम किया जा सकता है और मुहावरे तो जैसे उनकी जेबों में भरे हैं, जिन्हें वह जेबों से निकाल प्रतीकों और बिम्बों के साथ पिरो; एक हार बनाकर कविता कामिनी के कंठ में पहना देते हैं, जिससे उसके सौन्दर्य में चार चाँद और लग जाते हैं। कुल मिलाकर काव्य संग्रह पठनीय एवं संग्रहणीय है।
काव्य संग्रह का आवरण आकर्षक तथा टंकण त्रुटि रहित है एतदर्थ लोकोदय प्रकाशन लखनऊ को भी साधुवाद के साथ गनेश गनी जी को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ।
समीक्ष्य पुस्तक- वह सांप सीढ़ी नहीं खेलता
विधा- कविता
रचनाकार- गनेश गनी
प्रकाशन – लोकोदय प्रकाशन, लखनऊ
संस्करण- प्रथम , 2019
मूल्य- 150 रुपये
पृष्ठ-132
– अरविन्द यादव