कविता
वापिस अपने गाँव चलें
बहुत हो गया सैर-सपाटा
सुख-दुःख यहाँ किसी ने न बांटा
फिर से नंगे पांव चलें
बूढ़ी माँ है राह निहारे
वापिस अपने गाँव चलें
शहर है सिर्फ मतलब का धोखा
दिखता भारी, खाली खोका
फिर से तू गुलेल उठा ले
चल अमियाँ की छाँव तले
बूढ़ी माँ है राह निहारे
वापिस अपने गाँव चलें
सूने घर में लग गए जाले
तू नापे बिल्डिंग के माले
जिस घर तूने जन्म लिया
फिर से चूल्हा वहाँ जला ले
बूढ़ी माँ है राह निहारे
वापिस अपने गाँव चलें
वही खेत, वही खले
लोग वहीँ रहते हैं भले
फिर बना ले सभी को अपना
मिल ले सबसे फिर गले
फिर से नंगे पांव चलें
बूढ़ी माँ है राह निहारे
वापिस अपने गाँव चलें
– अनुराग कुमार स्वामी