मूल्यांकन
लोकपक्ष को आशान्वित करता काव्य संग्रह : दुनिया लौट आएगी
– अनिल चतुर्वेदी
‘दुनिया लौट आएगी’ इस दौर के चर्चित युवा कवि शिव कुशवाहा का दूसरा कविता संग्रह है। उनके पहले संग्रह ‘तो सुनो’ से ही उनकी एक सशक्त पहचान हिंदी जगत में बन चुकी है। उनके इस ताजा संग्रह में 50 से अधिक कविताएँ हैं। इन कविताओं की पहली ख़ासियत तो यही है कि जब आप इन कविताओं से रूबरू होते हैं तो आद्योपांत उनमें लीन हो जाते हैं। बीच में छोड़ना मुश्किल हो जाता है।
वैसे भी कविता साहित्य की ऐसी विधा/कला/माध्यम है, जो सर्वाधिक ध्यान की माँग करती है। रीतिकालीन कवि बिहारी जब कहते हैं कि ‘तंत्री नाद, कवित्त रस का आनंद बिना उसमें पूरी तरह डूबे नहीं मिल सकता’ तो वे बिल्कुल सच कहते हैं।
कविता सत्य की पुनर्रचना करती है इसीलिए यह सृजन का सबसे सशक्त माध्यम है। अगर बारिश पर आप कविता पढ़ रहे हैं तो पाठक को बारिश होते हुए एवं उसमें भीगने का अहसास होना ही चाहिए। शिव कुशवाहा की कविताएँ इस प्रतिमान पर 24 कैरेट खरी उतरती हैं और यही उनकी सफलता और उनकी कविताओं की सार्थकता है।
‘दुनिया लौट आएगी’ संग्रह की पहली कविता ही मनुष्य को दुख व निराशा के बादलों के बीच संघर्ष एवं इस संघर्ष में विजयी होने की ज़बरदस्त आश्वस्ति देती है। कवि कहता है-
जैसे तेज़ हवाएँ
बादलों को छाँट देती हैं
उसी तरह कवि की लेखनी
छाँट देती है निराशा के बादल
आज के इस मानवद्रोही समय में जब मनुष्य महज उपभोक्ता बनकर रह गया है तब कवि का यह कहना-
मानव सभ्यता के
ख़त्म होने के
आखिरी पड़ाव पर भी
शब्दों में बची रहेगी दुनिया
और कविता में बचा रहेगा आदमी
यह बहुत गहरा भरोसा है। दरअसल कवि यह भरोसा पूरी मानव जाति को दे रहा है और यह अपने आप में बहुत बड़ी बात है। दरअसल इस तरह का भरोसा यूँ ही नहीं आता। समाज की प्रयोगशाला में तमाम परीक्षणों/परीक्षाओं से गुज़रकर ही किसी में कवि की चेतना आकार लेती है। कवि किसी कॉलेज या विश्वविद्यालय की पैदाइश नहीं हो सकता। शिव कुशवाहा का कवि व्यक्तित्व सामाजिक संघर्षों से ही निर्मित हुआ है तभी वह कह पाता है पूरे आत्मविश्वास के साथ कि सभ्यता के लोप हो जाने की स्थिति में भी कविता में बचा रहेगा आदमी।
कवि की निगाहें गाँवों में शहर के प्रवेश एवं इसकी वजह से विलुप्त होती ग्रामीण संस्कृति की तरफ भी जाती है। गाँवों में छप्पर बनाने की कला या सूखते कुएँ उसकी चिंता का सबब हैं। वह कहता है कि कुएँ सिर्फ प्यास बुझाने के स्रोत भर नहीं थे बल्कि वे अपने आप में एक जीवंत संस्कृति के वाहक थे-
कुएँ के मुहाने पर
खड़े होकर लोग
लगाते थे आवाज़
और उन आवाज़ों की
लौटती प्रतिध्वनियाँ सुनकर
ठहर जाते थे राही
शिव कुशवाहा की कविताओं में छायावादी सौंदर्य बोध भी जब तब मुखरित हो जाता है, जो उनकी कविताओं को समकालीनों से विशिष्ट बना देता है-
कल्पना के एक बिम्ब में
बन रहा अलक्षित-सा कोई अक्स
जो खोज रहा हो स्वयं में अपना ही अस्तित्व
अनजाने में जो निहार रहा हो
शाम के धुंधलके में
खोया हुआ अपना प्रतिबिम्ब
पाश्चात्य सभ्यता का सबसे नकारात्मक पहलू, जिसने हमारी सभ्यता/संस्कृति में ज़हर घोलने का काम किया/कर रही है वह है टूटते पारिवारिक रिश्ते व सामाजिक संबंध। परिवार को खड़ा करने वाले, सजाने संवारने वाले बुजुर्गों की उपेक्षा आज के भारतीय समाज की एक अत्यंत दुखद परिघटना है। कवि कहता है कि-
कदम दर कदम
जब साथ चलना ज़रूरी होता है
तब संतानें छोड़ देतीं हैं उनका हाथ।
‘चिड़ियां डर रही हैं’ इस संकलन की एक ऐसी कविता है, जो एक मामूली (आम आदमी पर तो एक राजनीतिक दल ने कब्जा कर लिया) आदमी के समक्ष ज़िन्दा रहने के ख़तरे को बखूबी उजागर करती है।
गिद्ध मंडरा रहें हैं चिड़ियों के ऊपर
वे घात लगाए देख रहे हैं
उनकी छोटी-सी दुनिया
और मौका मिलते ही खूनी पंजों से
नोंचकर फेंक देते हैं उनके पंख
दरअसल मनुष्य को सभ्य प्राणी इसलिए कहा गया है कि यहाँ ग़रीब, बेसहारा के लिए भी जीने का पर्याप्त अवसर उपलब्ध है। मत्स्य न्याय नहीं बल्कि सभी को बराबर मानकर। लेकिन आज इसी मानव सभ्यता पर ख़तरे के बादल मंडरा रहे हैं। लेकिन कवि आश्वस्त करता है, वह कहता है-
बिखर रही उम्मीद की
आखिरी किरण सहेजते हुए
ख़त्म होती दुनिया के आखिरी पायदान पर
केवल बचे रहेंगे शब्द
और बची रहेगी कविता की ऊष्मा
‘दुनिया लौट आएगी ‘ काव्य संग्रह का फलक बहुत व्यापक है। जीवन, समाज व उसके समक्ष उपस्थित आसन्न ख़तरों पर लगभग सभी पहलुओं से संबंधित कविताएँ इसमें शामिल हैं। शिव कुशवाहा अभी बिलकुल युवा हैं, आगे भी उनसे बहुत अपेक्षाएँ हैं।
समीक्ष्य पुस्तक- दुनिया लौट आएगी
विधा- कविता
रचनाकार- शिव कुशवाहा
प्रकाशन- प्रलेक प्रकाशन, मुम्बई
मूल्य- 160 रुपये
– अनिल चतुर्वेदी