ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
उसने पूछा उसे मिला क्या है
रब ने पूछा बता किया क्या है
हैरां आलम सवाल है करता
आख़िर इन्सान चाहता क्या है
यह लगा रोग बढ़ता जायेगा
इश्क़ के मर्ज़ की दवा क्या है
मेरी राहें जुदा, जुदा हैं तेरी
फिर भी रूदाद पूछता क्या है
मुझको दिल के क़रीब रहने दो
है जो चाहत तो फ़ासला क्या है
तुझको करनी है अपनी मनमर्ज़ी
बेसबब मुझसे पूछता क्या है
बागबां है गुलों की ख़िदमत में
ख़ार पूछे ‘अना’ ख़ता क्या है
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ग़ज़ल-
थी इक किरण की लालसा दिनमान मिल गया
सौदागरों की भीड़ में इन्सान मिल गया
गंगाजल उसके हाथ से दो घूँट जो पिया
मरते समय भी मुझको इक एहसान मिल गया
होती कभी परख कहाँ कपड़ों के रंग से
केसरिया रंग पहने भी शैतान मिल गया
किलकारियों की गूँज से चहका ये घर मेरा
नन्हीं परी के रूप में मेहमान मिल गया
उसने दिया था फूल जो हँसकर कभी मुझे
ऐसा लगा था नरगिसी बाग़ान मिल गया
लगने लगी थी ज़िन्दगी जब साँप-सीढ़ी तो
पदचिह्नों पर चली जो पथ आसान मिल गया
चिंगारियों-सी है ‘अना’ छेड़ो नहीं इसे
भड़की तो समझो मौत का फ़रमान मिल गया
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ग़ज़ल-
उनके फ़साने देख रही हूँ
करते बहाने देख रही हूँ
नादां हूँ पर उनकी निगाहें
और निशाने देख रही हूँ
यह दुनिया है फ़िल्मी पर्दा
झूठे फ़साने देख रही हूँ
मुझ-सा मूरख मिला न कोई
सब हैं सयाने देख रही हूँ
तू है बसा मन में तुझको मैं
रब के बहाने देख रही हूँ
मैं बच्चों में अपना बचपन
बीते ज़माने देख रही हूँ
तू है ‘अना’ मेरे दिल में हरदम
ख़ुद के बहाने देख रही हूँ
– अना इलाहाबादी