फ़िल्म समीक्षा
रजनीगंधा (1974) – फिल्म समीक्षा
कहानी-मनु भंडारी
पटकथा एवम निर्देशन- बासु चटर्जी
8/10
मुकेश का नाम सुनते ही हमें राज कपुर जी की तस्वीर याद आने लगती है! और अगर मैं कहूँ कि उन्हें सिर्फ एक बार ही बेस्ट सिंगर का नेशनल अवार्ड मिला है तो आप कहेंगे कि जरूर कोई राज साब का ही गीत होगा! पर आपको ये जानकर हैरानी होगी कि उन्हें ये सम्मान मिला 1974 की फिल्म रजनीगंधा के गीत “कई बार यूँ भी देखा है” के लिए! जिसमे नायक की भूमिका निभाई है अमोल पालेकर और दिनेश ठाकुर ने! योगेश के बोल है और संगीत है सलिल चौधरी का! ये फिल्म कई मायनों में भीड़ से अलग दिखती है, मसलन नेशनल अवार्ड विनिंग गाने के अलावा लगभग 2 घंटे की इस फिल्म में मात्र एक ही और गीत है! और वो भी फिल्म की एन्ड कास्टिंग के साथ, मतलब कहानी की बात की जाए तो बस एक ही गीत, वो भी नायक नायिका कोई नहीं गा रहा आकाशवाणी हो रही है! 1974 में एक रोमांटिक कहानी सिर्फ दो गीत के साथ, इतना भरोसा अपनी पटकथा पर सिर्फ बासु चटर्जी को ही हो सकता था! उनकी पटकथा ने बखूबी ये किया भी है, देखने वालों को बांधने में पूरी तरह सफल हुई है!
कहानी, अपने समय से आगे की है, जहाँ प्रेमिका को खुलेआम दूसरी बार प्रेम करते हुए दिखाया गया है! पहले प्रेम और दूसरे प्रेम के द्वन्द में फंसी नायिका जहाँ कभी बेबाकी से कहती है “सत्रह साल की उम्र में किया हुआ प्यार भी कोई प्यार होता है भला, मेरा बचपना” वहीँ कुछ समय बाद उसके मन से आवाज आती है”पहला प्यार ही सच्चा प्यार होता है”! ऐसे में अंत तक ये सस्पेंस बना रहता है कि, आखिर कौन सा प्यार सच्चा है!
अमोल पालेकर “संजय ” की भूमिका में जंच रहे है, औ उनका वो एक “सुविधाजनक” अंदाज जिससे वो अपने संवाद कहते है, संजय पर बिलकुल फिट बैठता है! विद्या सिन्हा ने दीपा का किरदार भी खूबी से निभाया है! लेकिन सबसे ज्यादा इम्प्रेस किया है दिनेश ठाकुर ने नवीन के किरदार में! ठाकुर साब जहां थिएटर के मंझे हुए कलाकार है और एक्टिंग से ज्यादा अपने डायरेक्शन के लिए जाने जाते है, इस फिल्म में बिलकुल सधे हुए लगे! दुबला पतला शरीर होने के बावजूद भी बासु चटर्जी ने उन्हें स्टाइलिश और एक रोबदार पर्सनालिटी का मालिक दिखया है, और ये उनकी अदाकारी ही है की वो लगे भी है! शायद अनुराग कश्यप ने इससे प्रभावित होकर ही गैंग ऑफ़ वासेपुर में नवाज भाई को लिया होगा!
मनु भंडारी ने बहुत ही लाजवाब कहानी लिखी है! बासु चटर्जी ने उसको पटकथा का रूप भी जबरदस्त तरीके से दिया है और ये फिल्म आपको कहीं भी बोर नहीं करती अगर शुरू के पाँच मिनट छोड़ दे तो! पहले पाँच मिनट का झोल मुझे भी समझ नहीं आया! उस सीन के साथ निर्देशक ने पूरी फिल्म का हिंट देना चाहा है , लेकिन एक कमर्शियल फिल्म में ऐसे सीन गैर जरूरी मालूम होते है! खैर नायिका के सपने से जागते ही फिल्म अपनी फ्लो पकड़ लेती है, और बिना गानों के भी पूरी फिल्म आपको बांधे रखती है!कहानी दीपा की है जो अपने पहले प्यार (नवीन) को भूल चुकी है और संजय के साथ अपनी आने वाली ज़िंदगी बुन रही है।यहीं उसे एक टीचर की जॉब इंटरव्यू के लिए बम्बई जाना पड़ता है जहाँ वो वापस नवीन से मिलती है। पहला प्यार फिर जाग उठता है, इंटरव्यू के बाद वो दिल्ली लौटती है। जहाँ संजय उसका इंतजार कर रहा है।अब दोनों में से वो किसको चुनती है यही फ़िल्म का क्लाइमेक्स है। कहानी में कई ट्विस्ट है,! और सभी बिल्कुल सटीक जान पड़ते है।
बासु चटर्जी का निर्देशन कमाल है, और जिस तरह उन्होंने रजनीगंधा फूल का इस्तेमाल किया है वो काबिले तारीफ है! एक सीन का खासतौर पे जिक्र करना चाहूँगा! दीपा जब बम्बई से लौट कर दिल्ली आती है , तब वो संजय नहीं नवीन के बारे में सोच रही है! ऐसे में वो अपने कमरे में जा कर नवीन को खत लिखना चाह रही है! वो नवीन का नाम लिखती है कि उसकी नजर सामने गुलदान में पड़े रजनीगंधा पर पड़ती है, ये वही फूल है जो संजय उसके लिए लाया था!वो पेपर फाड़ देती है, यहाँ एक पल को लगता है कि संजय से ही उसे प्यार है और वो नवीन को चिट्ठी नही लिखेगी। पर अगले ही पल वो अपना सर घुमा कर पैर फूलों की तरफ करती है और आराम से चिठ्टी पूरी करती है!बासु चटर्जी ने बड़े ही नायाब तरीके से रजनीगंधा का इस्तेमाल कर दीपा के मन की बात कह दी है!
संगीत का जिक्र मैं पहले ही कर चुका हूँ! दो गीत है और दोनों बहुत ही अच्छे है!
फिल्म को 1975 का बेस्ट फिल्म का फ़िल्मफ़ेयर भी मिला था जबकि नॉमिनेशन में “अंकुर” और” गर्म हवा” जैसी तगड़ी फिल्मे थी! लेकिन ये फिल्म अपनी सिम्पलिसिटी के दम पर ये अवार्ड जीतने में सफल हुई है! बासु चटर्जी की कुछ बेहतरीन फिल्मो में से एक है, और यही बात मैं अमोल पालेकर के लिए भी कह सकता हूँ! मुकेश के लिए क्यों ख़ास है ये मैं पहले ही बता चुका हूँ, कुल मिलाकर कहा जाये तो इससे जुड़े सभी लोगो की बेस्ट फिल्म में से है!
फिल्म के स्क्रिप्ट में कुछ गलतियाँ है, मसलन एक सीन में जब दीपा एग्जाम के लिए जा रही है और बारिश में फस गयी है, तो वो अपनी हाथ में वक़्त देखती है, जबकि उसने घडी पहनी ही नहीं है! वही वो अपनी दोस्त इरा को कहती है कि बम्बई पहली बार आयी है जबकि कहानी में ये कहा गया है कि उसने अपनी इंटर तक की पढाई बम्बई में ही की थी!इन दो के अलावा सिर्फ एक ही और गलती है वो मैं आपपे छोड़ता हूँ, फिल्म देखने के बाद अगर ढूँढ पाएं तो मुझे जरूर बताएं!
माना कि ये कोई इंस्पायरिंग या आइकोनिक मूवी नहीं है, पर भी इसे कम से कम 8 मिलने चाहिए! सो मैं इसे 8 ही दूँगा ! यूट्यूब पर उपलब्ध है! एक बार जरूर देखें!
– अमृत