अब स्वयं से सवाल कर लो !
इस सभ्य समाज में अरुणा शानबाग जैसे मामले विचलित कर देने वाले हैं.
सन 1973 का वो दिन निश्चय ही इतिहास में दर्ज़ कुछ गिने-चुने काले पृष्ठों में अंकित है, जब के.ई.एम. अस्पताल की नैसर्गिक ख़ूबसूरती वाली नर्स को सोहनलाल वाल्मीकि नाम के दरिंदे ने अपनी छद्म पौरुष- भूख के नाखूनों से नोचा, और उस अस्पताल की सबसे चहेती नर्स का कभी न पाट सकने वाले दर्द से सामना कराया.
पुरुषों का यह स्वभाव आदिकाल से चलता रहा है, और स्त्रियों की प्रायः इच्छाओं का मर्दन इसका ज्वलंत सबूत है. आप ‘हाँ’ करती हैं तो ठीक, वरना पौरुष का सबसे गन्दा रूप आप पर हावी होने लगता है. और तब न कोई पद होता है, न कोई जाति, धर्म जो उस भूख को नियंत्रित करे.
बयालीस साल तक कोमा में रहते हुए ज़िंदगी के एक-एक पल को मौत की तरह जीना, अरुणा से ज़्यादा उनके चाहनेवालों को सालता रहा. घर-परिवार वालों की इच्छामृत्यु वाली अपील को सरकार ने ठुकराकर जाने कौन-सा क़ानून सम्पोषित किया, और अरुणा की मृत्यु शय्या को कितना आरामदेह बनाया था! सरकारी दाँव-पेंचों का चिट्ठा सिर्फ़ इन्हीं बातों से नहीं खुलता, सोहनलाल जैसा अपराधी दूसरे आरोपों में सज़ा भुगतता है, पर यौन-उत्पीड़न के मामले से बरी हो जाता है, और NTPC जैसी प्रतिष्ठित कंपनी में काम भी करने लग जाता है.
आप किस समाज में रहते हैं, और कैसे क़ानून की आस रखते हैं, यह अरुणा के मामलों से ज़्यादा बेहतर उजागर होता है. साथ ही, उसी समाज के नैतिक मान्यताओं पर जाएँ, तो प्रायः मामलों में पुरुषों की मर्ज़ी का बलात् समर्पण आपको अगली बार तक बचाये रखता है, और उसका किंचित मात्र विरोध भी आपको ‘अरुणा’ बना देने के लिए चिंघाड़ करता है. घर, स्कूल, कॉलेज, सड़क, और आपके परिवार तक में आपको नोच देनेवाली आँखें आपको घूरती हैं और अपने अहम की छद्म तुष्टि के लिए मौके की ताक में रहती हैं. और यह प्रयास, आदिकाल से मनुजों के बुद्धिजीवी कहलानेवाले वर्ग की अगुआई भी करता आया है.
ऐसे कितने ही ‘सोहनलाल’ आपको आपकी गलियों में दिख जाएँगे, और उनकी आँखें उनके इरादों का चित्रण भी करती नज़र आ जाएंगी. हम सुरक्षित कब रहे हैं! हमारे बुज़ुर्ग कहते रहे हैं कि उनका दौर बेहतर रहा है, तब न इतने अपराध थे, और न इतनी बुरी सोच जिनके बीच हम सब आज साँस लेने को मजबूर हैं. जबकि सच्चाई इनसे कोसों दूर है. हम अपनी गन्दी सोच के ग़ुलाम तब भी थे, और आज भी हैं, और ऐसी ग़ुलामी हमें किसी पीढ़ी ने नहीं दी है. इसे हमने खुद से गढ़ा है; अपनी नाकामियों से, अपने ज़मीर को ग़ुलाम करके.
सोहनलाल जैसे लोग अपने घर-परिवार और विशेष रूप से उसकी संगतियों का सटीक नेतृत्व करते हैं. अरुणा का मामला भले ही बयालीस साल पुराना हो, पर उस समय भी आज जैसे ही हालात थे. ये समयों की सोच नहीं है. यह मानसिकता है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित तो नहीं होती, पर हर बार अपनी नयी जगह खुद से ढूँढती है, और उसका प्रदर्शन करने को आकुल रहती है. ऐसे गंदे लोग हमारी पुरानी पीढ़ियों में भी रहे हैं, और हम आज भी उन्हीं की आबो-हवा में डरते हुए जीने को मजबूर हैं.
इससे इतर, नारी- मन को अपेक्षाकृत कोमल कहा जाता रहा है, और इस तथ्य का सबसे सशक्त चित्रण उस अस्पताल की पुरानी और नयी ‘नर्सेज़’ ने किया है, अरुणा की उस असहनीय दशा में सेवा करते हुए बयालीस लम्बे सालों की साक्षी बनकर. इस वाक़ये से भी पुरुष और स्त्री वर्ग के एहसासों के फ़ासलों का प्रमाण मिलता है.
ऐसे विचलित कर देनेवाले मामलों की पुनरावृति न हो, इसके लिए हम कितने तैयार हैं, और इस संभ्रात सोच के कितने संवाहक, इसकी चर्चा अब आवश्यक है, इसलिए भी क्यूँकि दुर्भाग्य से हम नक़ाब पहने हुए लोगों के साथ उठते, जागते, रहते और काम करते हुए जीने का उपक्रम करते हैं.
ऐसे कितने ही मामलों को गंभीरता से नहीं लेकर हम कहीं किसी आशंका को अनदेखा तो नहीं कर रहे, यह सवाल स्वयं से पूछ लेना भरसक अब सामयिक हो चला है.
– अमिय प्रसून मल्लिक