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आधुनिकता का उत्तर-आधुनिक संदर्भ और स्त्री-विमर्श: अजय कुमार साव
उत्तर-आधुनिकता एक विश्व-व्यापी परिघटना होने के बावजूद प्रादेशिक संभावनाओं, अंतर्विरोधों के कारण अपनी परिणतियों में विशेष भी होती है। रवि श्रीवास्तव ने लिखा है- “पश्चिम के समृद्ध-शक्तिशाली देशों के लिए जो उत्तर-आधुनिक समय और समाज है, वही पिछड़े हुए देशों के लिए नव-औपनिवेशिक या उत्तर-औपनिवेशिक समय-समाज है।”1
इसमें दो राय नहीं कि भारतीय परिदृश्य में उत्तर-आधुनिकता का प्रत्यक्ष संबंध नव-औपनिवेशीकरण और इसके परिणामों से है। गंभीर सवाल यह है कि जब हाॅबर मास बतौर मैनेजर पाण्डेय यह मानते हैं कि- “आधुनिकता की योजना अब भी अधूरी है, इसलिए ज़रूरत इसके अंत और मौत की घोषणा की नहीं, उसे पूर्णता तक पहुँचाने की है।”2
यदि आधुनिकता की योजना अधूरी है, तब यह स्वीकार लिया जाना चाहिए कि उत्तर-आधुनिकता भारतीय परिप्रेक्ष्य में आधुनिकता का विकास है। भारतीय परिदृश्य में औपनिवेशिक और नव-औपनिवेशिक दो पहलू देखने को मिलते हैं। औपनिवेशिक दौर में नवजागरण की पृष्ठभूमि में घटित आधुनिकता का संदर्भ राष्ट्रीय रहा, जबकि नव-औपनिवेशिक दौर मुख्य रूप से वैश्विक आर्थिक-राजनीतिक प्रकरणों का सांस्कृतिक परिणाम रहा। सांस्कृतिक प्रतिकूलता के कारण आधुनिकता के अंत को सामाजिक आचरण में अवश्य ही देखा जा सकता है। अपनी जटिलता में मनुष्य उलझा रहा, द्रुत गति से आगे भी बढ़ता रहा, पर इस गति के गंतव्य की सकारात्मकता को लेकर आशंकित होने के बावजूद दिशा बदलने के सामर्थ्य की कौन कहें, सोच से भी मुक्त ही नहीं, जो कुछ उपलब्ध है, उसके साथ अपने को ट्यून करने में ही प्राप्त सफलता में जीवन की सार्थकता-बोध को विवश भी रहा। इसका यह आशय निकालना कि आधुनिकता का अंत हो गया, हास्यास्पद होगा।
माना कि समाज मूल्य-संक्रमण से गुज़र रहा था। सांस्कृतिक विघटन इस दौर का सत्य रहा। इसे ‘परादेशीय संबंध’ की अनिवार्यता के रूप में स्वीकारा गया। पर, यह कैसे स्वीकार लिया जाए कि साहित्य-कला में समय-समाज के प्रति रचनाकार-कलाकार भी विवेक-शून्यता से गुज़र रहे थे? इस दृष्टि से समाज में आधुनिकता का क्षरण अवश्य घटित हुआ, पर साहित्य में तो यह सुरक्षित है ही। साहित्य में विकसित इस आधुनिकता के स्वरूप को आधुनिकता का उत्तर-आधुनिक संदर्भ कहा जा सकता है।
स्त्री विमर्श को लें, तो स्त्री-मुक्ति के विविध आयामों में देह-मुक्ति, आर्थिक-आत्मनिर्भरता का विशेष महत्व रहा। समाज में देह का निजी मुक्त प्रयोग और आर्थिक रूप से पति-पुरुष पर निर्भर नहीं रहने में मुक्ति का अनुभव हुआ। पर, इसका परिणाम मुक्ति की जगह विकृति ही अधिक लाया। स्त्री-अस्मिता के नाम पर स्वैराचारिता ही अधिक घटित होने लगी। देह-मुक्ति निजी देह के मुक्त भोग का बहाना बन गया। स्त्री-पुरुष का दामंपत्य ही नहीं, दाम्प्तयेतर संबंध भी प्रदूषित हो गए। सशक्तिकरण के नाम पर आरक्षण भी समाज के कल्याण में कम ही प्रतिफलित हो पा रहा था। राजनीतिक आरक्षण का मामला स्त्री का हो या दलित का, व्यापक सरोकार से चूक गया। किसान ज़मीन के जिस ‘मरजाद’ से जुड़ा था, उससे मुक्त होकर अपनी संतान को सुंदर भविष्य देना उसे अनिवार्य प्रतीत हुआ। अर्थ-संस्कृति के सामने संबंध-अनुबंध बनते गए। मकान जितना बड़ा हुआ, समाज उतना ही छोटा होता गया। राष्ट्र की परिकल्पना भी नितांत निजी संदर्भों में कहीं गुम हो गई। जनतंत्र समाधान नहीं, एक विडंबना बनकर रह गया। सवाल यह है कि क्या साहित्य-कला इन विसंगतियों से मुँह मोड़ सकता है? कभी नहीं। यदि ऐसा हुआ, तब साहित्य सृजनात्मकता को खो बैठेगा। स्पष्ट है कि इन संदंर्भों में समाज भले ही दिशा खो बैठा, या फिर अपनी दिशा ही रच डाले, पर साहित्यकार अपनी विवेकपरकता में सक्रिय रहेगा ही। यह सच है कि इस दौर में आकलन-मूल्याँकन के लिए विषय अतीत नहीं रहा, बल्कि पाश्चात्य प्रभाव ही अधिक रहा। आधुनिकता के उत्तर-आधुनिक स्वरूप को इसी दिशा में समझा जा सकता है।
उत्तर-आधुनिकता का मामला नव-जागरणकालीन आधुनिकता का विकास किस प्रकार हो सकता है? यह विचारणीय पहलू है, पर इतना तो तय है कि समाज भले ही विसंगतियों से ग्रसित हो, पर साहित्यकार-कलाकार निष्क्रिय नहीं रह सकते हैं। इनकी सक्रियता अवश्य ही आधुनिकता की सूचना देती है। अपने सही अर्थ में समाज आधुनिक हो जाए, तब सृजन की अनिवार्यता ही क्यों? सृजन की उपस्थिति आधुनिकता का प्रमाण है। मृदुला गर्ग ने लिखा है- “वास्तव में वह (सृजन) समय को परास्त करने का ही प्रयास है। साहित्य में समय के हाथों परास्त होना, मेरी समझ में, समूचे मक़सद का पराजित होना है।”3
इस दृष्टि से उत्तर-आधुनिकता भारतीय परिप्रेक्ष्य में आधुनिकता का अंत या मौत या फिर विरोध नहीं है, और सीधे-सीधे विकास भी नहीं, बल्कि युगीन संदर्भ में बुद्धिजीवी समाज का विवेकपरक प्रस्थान-वृत्ति है।
स्त्री-विमर्श के तहत मुक्ति, अस्मिता, आर्थिक, राजनीतिक सशक्तिकरण के विशेष पहलू रहे हैं। मुक्ति ना तो मुक्त आचरण है, ना ही अस्मिता एकांत में निजी श्रेष्ठता-बोध है। स्त्री की मुक्ति को पुरुष से मुक्ति का फ़ैशन समाज का हिस्सा रहा है, तो अस्मिता को अकेले स्त्री संदर्भ में देखना प्रतिकारी होने के कारण अत्यंत सुखद और इसीलिए प्रीतिकर भी प्रतीत होता रहा। समाज में स्त्री-मुक्ति के इन आयामों के प्रति विमर्शकारी पहल अवश्य ही विचारणीय है। भले ही यह मान लिया गया है कि विमर्श एकालाप है, सब कुछ पहले से ही तय होता है, क्या कहना है, क्या नहीं कहना है? फ़ैशन बन चुके विमर्श का परिष्कार-संस्कार कभी समाप्त नहीं हुआ। ग़ौरतलब है कि उत्तर-आधुनिक भारतीय परिवेश में विमर्श की प्रचलित दिशा को मोड़ने के प्रयास में ही आधुनिकता के वर्तमान स्वरूप की पहचान संभव है।
विमर्श में स्त्री-संदर्भ मुक्ति के प्रयास में जो कुछ रच रहा था, वह आकस्मिक नहीं था, बल्कि नवजागरण के दौर की आधुनिकता का स्वाभाविक परिणाम ही था। नव-औपनिवेशिक परिवेश तो महज़ अनुकूल परिवेश था। प्रमिला के. पी. ने लिखा है- “आधुनिकता के दौरान पुरुष के कंधे के साथ कंधा मिलाने के आह्वान का ग़लत ढंग से वाचन हो गया। और स्त्री को ‘पुरुष-तुल्य’ मानने लगा ….. इस पूरे उपक्रम में एक भूल हुई कि हमने स्त्री को समान अवसर देने के बदले स्त्री-पुरुष समानता का दावा पेश किया। इसी सिलसिले में स्त्री के अनन्य प्रतिमान के बदले पुरुष प्रतिमान ने स्थान बनाया।”4
नव-औपनिवेशिक दौर में पुरुष जीवनशैली, जो स्वयं में दोषपूर्ण है, स्त्री-मुक्ति का प्रतिमान बन गई। सवाल यह भी किया जाना चाहिए कि पुरुष मुक्त है? सच तो यह है कि पुरुष भी अपनी सामाजिकता में संस्कारों से जकड़ा है। मुक्ति के व्यवस्थागत सरोकार की जगह पुरुष के प्रति प्रतिकार ही मुख्य हो चला। इस विडंबना को उसकी ऐतिहासिकता में विश्लेषित किया जाना आधुनिकता का उत्तर-आधुनिक स्वरूप निर्मित करता है। राजी सेठ मुक्ति-स्वतंत्रता के स्त्री-स्वरूप का संस्कार करती हुई लिखती हैं- “परिवर्तन की दिशा अपने मूल प्राकृत रूप को समझना है, पुरुषों के अखाड़े में कूदना नहीं। … स्वतंत्रता का अर्थ अपने जकड़े हुए जीव को मुक्त, समर्थ, सशक्त, समझदार करना है। जैसे अण्डे के अंदर के जीव के शक्तिशाली होने से वह अपना खोल तोड़कर ख़ुद-ब-ख़ुद बाहर आ जाता है, ऐसा ही स्त्री की आज़ादी का सवाल है।”5
यहाँ यह गंभीर मुद्दा है कि स्त्री मुक्ति या फिर स्वतंत्रता का जो अर्थ लेती है, उसमें सामर्थ्य की कोई जगह नहीं होती, यदि होती है तो सिर्फ़ बराबरी। बराबरी का ही परिणाम है कि जो कुछ एक पुरुष के लिए भी वर्जित माना जाता है, वह सब कुछ एक स्त्री करने में गर्व का बोध करती है। मुक्ति और स्वतंत्रता की इस दिशा को बड़ी तरजीह दी गई। समाज में घटित इस सत्य के विरुद्ध विमर्शकारी सरोकार में जो प्रयास हुआ, उसे भी आधुनिकता के अंत या विरोधिता के रूप में लिया ही नहीं जा सकता है। यही कारण है कि देवेन्द्र इस्सर ने लिखा है- “अस्मिता के क्षेत्र में हम कौन-सा रवैया अपनाते हैं? वर्चस्व के समीकरण का? स्त्री-पुरुष में ध्रुवीकरण का’? एकरूपता का? संकरण का या बाइनरी ओपोजोन या हाइफनेशन का?”6
विचारणीय है कि वर्चस्व का समीकरण स्त्री-दृष्टि में ख़ास क़िस्म के पुरुष निर्माण की ही पहल है, जो स्वयं में एक सुखद स्त्री-हठ ही है। ध्रुवीकरण, एकरूपता, संकरण की प्रक्रिया अंतत: अोपोजोन का ही परिणाम लाती है। मानव-सभ्यता की लघुतम ईकाई स्त्री-पुरुष है। स्त्री अपनी सामाजिकता में परस्पर अनुकूलन पर बल नहीं देकर इच्छानुसार पुरुष संसर्ग में या फिर पुरुष अस्तित्व की अनुपस्थिति में ही मुक्ति का आस्वादन करना चाहती है। ऐसी मनोवृत्ति के साथ जी-हुज़ूरी करना साहित्य का काम नहीं है। अर्चना वर्मा ने लिखा है- “हमसफ़र बहिनों का दायित्व है कि इस मुक़ाम में ‘पुरुष विनिर्माण’ की सामाजिक ज़्यादती को छोड़ दे।”7
यहाँ जिसे ज़्यादती कहा गया है, वह वास्तव में स्त्री की सर्वोपरि आकांक्षा ही है, जिसका संस्कार विमर्शकारियों के लक्ष्य के रूप में आधुनिकता का उत्तर-आधुनिक संदर्भ ही है।
स्त्री-मुक्ति में देह-मुक्ति मुख्य चरण है। देह-मुक्ति का आशय स्त्री-देह के प्रति पुरुष के फ़ैसले से मुक्ति लिया जाता है। इसे देह के मुक्त भोग से भी जोड़ा गया। राजेन्द्र यादव ने लिखा है- “मैंने कभी देह-मुक्ति की बात नहीं की, पर स्त्री की पहली क़ैद उसकी देह है। जब तक स्त्री अपनी देह से बाहर नहीं निकलेगी, तब तक उसकी मुक्ति-यात्रा संभव नहीं होगी। जब तक वह अपनी देह को लेकर ख़ुद फ़ैसले नहीं करेगी, तब तक उसकी मुक्ति का कोई अर्थ नहीं होगा।”8
यहाँ मुक्ति का अनिवार्य संदर्भ है, तो साथ ही उसकी विडंबनाएं भी। देह को पहली क़ैद बताना और फिर उससे संबंधित ख़ुद फ़ैसले लेना नव-औपनिवेशिक परिदृश्य में नकारात्मक परिणाम ही लाए हैं। सवाल किया जाना चाहिए कि बाज़ार में स्त्री देह में क़ैद नहीं है? साथ ही यह भी कि देह के इस्तेमाल संबंधी फैसले किसके हैं? इन सभी के ऊपर यह सवाल वज़नदार प्रतीत होता है कि आख़िर स्त्री देह-मुक्ति का क्या आशय समझती है?
अंतिम सवाल से ही देह-मुक्ति में स्त्री-मुक्ति का दिशागत स्वरूप समझना पहली ज़रूरत है। देह-मुक्ति ‘देह की मुक्ति’ नहीं होकर देह-संबंधी प्रचलित धारणा से मुक्ति है। देह के कारण स्त्री-जीवन पुरुष से कहाँ, किस तरह एवं क्यों फ़र्क़ लिए है? यह विचार करना अभीष्ट का प्रस्थान होना चाहिए। अर्चना वर्मा की स्वीकारोक्ति अवलोकनीय है- “एक स्त्री की हैसियत से मेरे लिए इस बात का अर्थ मेरी देह के बोझ और निरंतर असुरक्षित होने के एहसास से जुड़ा है।…. यह अन्य तरह-तरह के निषेधों और अवसरहीनताओं का उत्स भी है। यह तो अस्तित्व का वह प्राथमिक बिंदु है, जिससे अन्य आर्थिक, सामाजिक, पारिवारिक, सांस्कृतिक भेद-भाव फूटते हैं।”9
यहाँ जिन परिणामों का ज़िक्र है, उसके पीछे देह में स्त्री-जीवन का क़ैद होना ही मुख्य कारण है। देह की क़ैद का यहाँ आशय देह संबंधी धारणाओं का रूढ़ होना ही है। देह के कारण स्त्री असुरक्षित है, अवसरों के अभाव में सामाजिक भेद-भाव की चुभन महसूस करती रहती है। इसलिए देह-मुक्ति का मतलब देह संबंधी धारणाओं से स्त्री-बोध का मुक्त होना ही है।
यह सवाल कि स्त्री अपनी देह का जिस रूप में इस्तेमाल करती है, उसके पीछे क्या उसी का निर्णय होता है या कोई परिस्थिति विशेष के सक्रिय रहने की दिशा मुख्य रहती है? बाज़ार में विज्ञापन का स्त्री-देह के बिना स्वादरहित होना किसका नज़रिया है? स्वयं स्त्री का या बाज़ार का? अनार कली सलीम की गली छोड़कर निकल पड़ती है, सामंती व्यवस्था के तिरस्कार में स्त्री-मुक्ति का अनुभव होता है, पर अनार कली जाती कहाँ है? यह सवाल स्त्री-मुक्ति के संदर्भ में देह-मुक्ति की दिशा को उसके अंतर्विरोधों के साथ प्रस्तुत करने में सफल है। स्त्री के फ़ैसले का जायज़ा लिया जाना अपेक्षित है। अनार कली डिस्को जाना चाहती है। एक चांस चाहती है। चाहती है कि उसे हिप-हाॅप सिखा दिया जाए। इसके पीछे की सामंती क़ैद कारण है तो पुनः डिस्को में हिप-हाॅप करती हुई पुरुष की देह-भोग-वृत्ति को ही तुष्ट करती हुई देह में क़ैद हो जाती है। उसके फ़ैसले किस दिशा में सक्रिय हैं? यह विचारणीय है। यहाँ देह संबंधी धारणाओं से मुक्ति की कोई गुंजाइश नहीं है।
‘देह-दिशा’ प्रचलित देह-दृष्टि को खाद-पानी देने का काम करें, तब देह-मुक्ति की जगह देह-विकृति ही घटित होती है। इस संदर्भ में तीन आयाम मुख्यत: घटित हुए हैं- दांपत्य, परिवार-समाज एवं कार्य-क्षेत्र। स्त्री-पुरुष के प्राकृत यौन संबंध को सामाजिक दायरे में दांपत्य संदर्भ प्रदान किया गया है। पत्नी स्त्री के प्रति पुरुष पति की स्त्री-दृष्टि को स्त्री की निगाह से देखने और घोषित करने का साहस मृदुला गर्ग ने चित्तकोबरा उपन्यास में किया है। ‘औरत की निगाह में आदमी’ के बहाने पुरुष की स्त्री-दृष्टि का पोस्टमार्टम है। मनु का बयान है- “मेरा मूल्य मेरे ख़ूबसूरत जिस्म से है।”10
इसका आशय यह लिया जाना चाहिए कि ख़ूबसूरत जिस्म की उपलब्धि में ही स्त्री का होना मायने रखता है। वाजिब सवाल है कि आख़िर पुरुष की यह सोच बनी कैसेे है? कहानी ‘एक और विवाह’ की नायिका कोमल अपने एन. आर. आई. पति के साथ सहवास के सारे अपेक्षित प्रयोग करती है और सफल ही नहीं, पति के अनुसार अमेरिकन स्त्रियों को भी मात दे गई। यहाँ अमेरिकन स्त्रियों को मात देने में निहित व्यंजना विचारणीय है। अमेरिकन स्त्रियाँ पुरुष संसर्ग में देह के स्तर पर अधिक उन्मुक्त होती हैं। कोमल भी इस उन्मुक्तता की प्रतिद्वन्द्विता की मन:स्थिति को स्वीकार कर लेती है। पर, प्रेम का अभाव मनु और कोमल दोनों को ही सालता है। इन दोनों नारी पात्रों के माध्यम से मृदुला गर्ग यह स्थापित करती हैं कि दांपत्य में काम से परहेज़ नहीं है, पर काम को प्रेम से सहेजना अनिवार्य है। ज़रूरतों की कलात्मक आपूर्ति सर्वत्र एवं सर्वदा अपेक्षित है, पर काम के कलात्मक प्रदर्शन में ज़रूरतों की आपूर्ति विकारग्रस्त हो जाती है। प्रेम -काम के द्वंद्व के माध्यम से प्रेम-रहित काम-संबंध को अनुचित ठहराया गया है।
दांपत्य में स्त्री की देह के प्रति शुचिता-दृष्टि संस्कारगत दोष के तहत विचारणीय है। मृदुला गर्ग कहानी ‘कितनी क़ैदें’ में पत्नी अपने विवाहपूर्व यौन संबंध के कारण पति के साथ सहज नहीं रह पाती है। दूसरी ओर पति अपनी पत्नी के ऐसे संबंध को जानकर सहज रह पाएँगे, इसमें शंका है। स्त्री की देह के प्रति शुचितावादी अवधारणा से पुरुष-स्त्री दोनों ही प्रदूषित हैं। स्वयं माँ भी बेटी की यौन-शुचिता को लेकर चिंतित हैं। यौन-शुचिता के भंग होने का ही ख़तरा है कि घर-परिवार में बेटियों के लिए संस्कारों के नाम पर बंदिशें लगी रहती हैं। स्त्री-देह संबंधी प्रचलित धारणा से मुक्ति पूरे समय व समाज को चाहिए। देह की मुक्ति का आशय देह का मुक्त भोग नहीं! ऐसी, सामंती धारणाओं से मुक्ति है।
स्त्री-देह पुरुष के लिए चरित्रवान होने की कसौटी है। विवाहपूर्व या फिर विवाहेतर दैहिक संबंध चरित्रहीनता के सूचक हैं। देह के साथ जुड़ी नैतिकता के प्रतिमान आज भी मज़बूत हैं। इस रूढ़ नैतिकता से मुक्ति में भी देह-मुक्ति को देखा जाना चाहिए।
कार्य-क्षेत्र में स्त्री के प्रति नजरिया देह तक केंद्रित है। कार्य का क्षेत्र घर-परिवार हो या कार्यालय, या फिर मीडिया और राजनीति- कहीं भी स्त्री पुरुष के लिए देह से ऊपर महत्व नहीं रखती है। निम्नवर्गीय महिला हो या मध्यवर्गीय- सभी इस मामले में एक समान हैं। गीताश्री की कहानी ‘डाउनलोड होते हैं सपने’ और रंजनी गुप्त के उपन्यास ‘ये आम रास्ता नहीं’ को विवेचन का आधार बनाया जा सकता है। गीताश्री की नौकरानी सुमित्रा फ़्लैट कल्चर में जीवन-सुख प्राप्त करने के सपने देखती है और वेश्यावृत्ति तक पहुँच जाती है। आगे इससे मुक्ति के नाम पर डाँस ग्रुप ज्वाइन करती है, पर शर्त ग़ौरतलब है- “पूरी तरह डाँस में लगना होगा। कपड़े में नखरे नहीं। हर साइज़ के एक्सपोज़र वाले भी पहनने पड़ेंगे…इज़्ज़त पूरी मिलेगी … “11
देह के एक्सपोज़र से परहेज़ नहीं, फिर देह से मुक्त पुरुष समाज की कल्पना कैसे संभव होगी? इसी चिंता में रंजनी गुप्त राजनीति में स्त्री कार्यकर्त्ता के प्रति पुरुष नेता की देह-लोलुपता का ज़िक्र किया है। प्रदेश अध्यक्ष, जो नशे में है, कहता है- “सच ही सुनना चाहती है तो सुन, जंगली घास-फूस के बीच खिले गूलर के फूल की तरह खिलती हैं राजनीति में आई औरतें, जिन्हें हर कोई लपक कर अपने मुँह में गपक लेना चाहता है। यही है सौ फ़ीसदी सच।”12
यह महज विडंबना नहीं है कि स्त्री चाहे कामवाली हो या राजनीति करने वाली हो, है तो बस एक देह, जिसके साथ खेला जा सकता है। पुरुष का यह आचरण अवश्य ही अपराध-वृत्ति के अंतर्गत आता है, पर सवाल यह है कि आख़िर पुरुष की यह वृत्ति कहाँ से खाद-पानी का जुगाड़ करती है? दिनेश कुमार नायिका मृदु की असफलता पर टिप्पणी करते हैं- “उसकी (मृदु) विफलता में ही भावी स्त्री की सफलता के बीज निहित हैं। समझौतापरस्त होकर सरल होना किसी एक स्त्री को तात्कालिक सुख दे सकता है, पर वह समूची स्त्री जाति को स्थायी पराजय की ओर ढकेल देता है।”13
मनोवैज्ञानिक विश्लेषण यह है कि जब एक स्त्री अपनी महत्वाकांक्षाओं के तहत पुरुष से दैहिक स्तर पर समझौता कर लेती है, तब पुरुष की स्त्री-देह पाने की वृत्ति सहज ही अपनी बारंबार सफलता के प्रति आश्वस्त होती रहती है।
मीडिया में विज्ञापन का मामला हो या फिल्मों में कहानी की माँग के तहत आईटम सांग-डाँस का मुद्दा, इसके प्रभाव को पुरुष मनोविज्ञान की पृष्ठभूमि में परखा जाना चाहिए। ‘शीला की जवानी’, ‘मेरी जवानी सोडे की बोतल’ ‘मंहगी हुई है अँगड़ाई’ जैसे गीत-नृत्य और विज्ञापनों में स्त्री-देह के इस्तेमाल ने अवश्य ही स्त्री को पुरुष की नज़र में एक खिलौना बना रखा है। स्त्री-देह के प्रति पुरुष-दृष्टि अवश्य ही निंदनीय है, पर स्त्री-देह की सर्वत्र उपलब्धता आम-सी घटना भी नहीं रह गई है। पुरुष के लिए ज़रूरी पाठ है कि स्त्री को मात्र देह के रूप में नहीं ले। पर, कम विडंबना नहीं है कि स्त्री देह के़ रूप में ही परोसी जाती है, पोस्टर, विज्ञापन, आईटम सांग-डांस हो में, जिनके बीच रहना है पुरुषों को। स्त्री-मुक्ति की प्रक्रिया में देह मुक्ति के संदर्भ को उसके अंतर्विरोधों के साथ अध्ययन का विषय बनाना चाहिए। वास्तविकता तो यह है कि स्त्री की तथाकथित आधुनिकता उसका ख़ुलापन है और पुरुष का इस ख़ुलेपन के प्रति आग्रह आवारापन। स्त्री की आधुनिक जीवन शैली का उत्तर-आधुनिक समय और समाज में स्वभावगत एवं प्रभावगत विश्लेषण अनिवार्य है। ऐसी दशा में पुरुष के लिए मुक्ति की जगह स्त्री-देह के प्रति अभ्यस्तता ही एक मार्ग दिखता है। कितना रोचक प्रसंग है, समस्या का समाधान नहीं मिले, तो उसके अभ्यस्त हो जाओ, वह समस्या नहीं रहेगी, दिनचर्या बन जाएगी। विडम्बना ही है कि इस दिशा में पुरुष कहाँ है?
बाज़ार हो या राजनीति, घर-परिवार हो या समाज- कहीं भी देह मुक्ति संभव नहीं। इसके विपरीत देह-दृष्टि और भी मज़बूत हो रही है। इस दिशा को उसके कारणों के आलोक में समझना होगा। अरविंद जैन का विचार है- “स्त्री को ‘देह के हथियार’ से कितना सत्ता में ‘हिस्सा’ मिला या मिल पाया। हम अच्छी तरह यह जानते हैं कि पुरुषों के इस भयावह ‘खेल’ में स्त्री सहमति का निर्णय स्वयं ले रही है या सिक्का। देह के अर्थ-शास्त्र में स्वेच्छा और स्वायत्तता का निर्णायक आधार बिंदु क्या है?”14
स्त्री-देह सत्ता-प्राप्ति का माध्यम भी है और इसी देह में वह क़ैद भी है। स्त्री स्वयं अपनी देह के प्रति बाजार-दृष्टि से कहाँ तक मुक्त है। जिस दृष्टि से मुक्त हेना था समाज को, उसी दृष्टि को मज़बूत किए जा रही है। स्पष्ट है कि समय-समाज के इस उत्तर-आधुनिक परिदृश्य में साहित्य एवं कला की प्रतिबद्धता यदि सुरक्षित है, तो उसका दिशागत स्वरूप क्या है? आज ना तो आदर्श का दौर है और ना ही यथास्थिति के प्रति समर्पण में अपनी बौद्धिकता का परिचय मिलता है।
समय व समाज का वैश्विक परिणाम अपनी प्रादेशिकता में अवश्य ही आधुनिकता के लोप की सूचना देता है। प्रतीत होता है कि उत्तर-आधुनिकता नव-जागरणकालीन आधुनिकता के अंत की घोषणा या फिर विरोधिता का ही चरम है़ और है भी, पर यह समाज का यथार्थ है। साहित्य में इसका विरोध अवश्य ही है। इतना ज़रूर है कि इसकी प्रक्रिया विशेष है। उत्तर-आधुनिक समय में आदर्श हास्यास्पद है, विचारधारा व्यर्थ। ऐसी दशा में समाज की आधुनिकता-बोध से रहित दिशा का साहित्य में बोध कराना ही आधुनिकता की पहचान है। स्त्री की दृष्टि में देह-मुक्ति घातक है, तो इनकी नित नई सफलताओं और उपलब्धियों के बीच समय और समाज का देह संबंधी धारणाओं से मुक्ति अत्यंत भ्रामक। घातक और भ्रामक परिणामों के समक्ष उत्तर-आधुनिक दौर में किए गए स्त्री लेखन द्वारा ‘अपराध-बोध से मुक्ति’ का रूपक महज प्रतिक्रियात्मक नहीं रह जाए, इसीलिए स्त्री की मुक्ति को उससे संबंधित धारणाओं से जोड़कर देखा जाना स्त्री-विमर्श की उत्तर-आधुनिक आधुनिकता’ ही है। इसके लिए स्वयं स्त्री-समाज को भी यथावसर पहल करने की ज़रूरत है। स्मरण रहे कि जो कुछ सुविधाएँ उन्हें स्त्री समझ कर उपलब्ध कराई जाती हैं, उनके प्रति सजग रहें। यथाशीघ्र प्रदत्त अवसरों में निजी सामर्थ्य को विकसित कर समाज को निज के प्रति स्त्री होने की लाचारी-बोध से मुक्त करें। स्वयं के प्रति पुरुष-दृष्टि को परिष्कृत एवं संस्कारित होने का परिवेश उपलब्ध कराएँ। क़ानून तो सज़ा देने के लिए है ही, यह सभी जानते हैं। क़ानून के भय से कहीं अधिक ज़रूरत स्त्री के प्रति बनी धारणाओं से समय-समाज को संस्कारित करने की है। आचरण में सहजता मुक्ति के लक्षण हैं, पर सहजता की जगह लापरवाही विवेकशून्यता का पर्याय है, यह बोध ही सच्चे अर्थ में समय-समाज को आधुनिक बना सकता है। स्त्री के विकास के साथ पुरुष के मनोवैज्ञानिक संस्कार का अभियान शेष रह गया है। स्त्री को लेकर प्रचलित धारणाओं के बोझ से दबा समय-समाज मुक्ति की समझ रखने वाली स्त्रियों की प्रतीक्षा में है। स्त्री को भी अपने भीतर इंजेक्टेड स्त्रीपन से मुक्त होना है, तमाम तात्क्षणिक सुखद अनुकूलताओं में भ्रामक अस्मिता-लाभ का होम करते हुए यह काम स्त्री विमर्श कर रहा है, लेकिन गंतव्य से दूर है। घर-परिवार हो या समाज, जहाँ कहीं इस अवबोध से साहित्य वर्तमान भूमण्डलीकृत समय को समृद्ध कर रहा है, वहाँ आधुनिकता है। साहित्य-कला में यही उत्तर-आधुनिक ‘आधुनिकता’ है।
संदर्भ-सूची:
1. उत्तर-आधुनिकता: यथार्थ और विभ्रम, नेशनल पब्लिकेशन, द्वितीय संस्करण- 2011, पृष्ठ 120
2. हिंदी में आधुनिकता का उदय, पत्रिका ‘संवेद’, जुलाई, 2012
3. मेरे साक्षात्कार, किताबघर प्रकाशन, संस्करण-2012, पृष्ठ- 13
4. स्त्री: आध्यात्मिकता बनाम यौनिकता, राजकुल प्रकाशन प्रा. लि., संस्करण : 2010, पृ.- 15
5. लेख-स्त्री: स्वायत्तता के अर्थ, इक्कीसवाँ सदी की ओर, संपादन- सुमन कृष्णकांत, राजकुल प्रकाशन, पहला संस्करण- 2001, पृष्ठ- 86
6. साहित्य और स्वतंत्रता: प्रश्न-प्रतिप्रश्न, संस्करण: 2005
7. अस्मिता विमर्श का स्त्री-स्वर, मेघा बुक्स, संस्करण -2008, पृष्ठ -34
8. जवाब दो विक्रमादित्य, संस्करण: 2004
9. अस्मिता विमर्श का स्त्री-स्वर, पृष्ठ- 204
10. चित्तकोबरा, पृष्ठ- 105
11. रंजनी गुप्त, ये आम रास्ता नहीं
12. वही
13. जनसत्ता, 25 मई 2014
14. स्त्री-मुक्ति का सपना, भूमिका से
– अजय कुमार साव