क्या आपने भी ऐसा महसूस किया है कि हम जिस समाज में रह रहे हैं वह अब पहले से बहुत अधिक चिड़चिड़ा, ईर्ष्यालु, आत्मकेंद्रित और बदलाखोर प्रवृत्ति का होता जा रहा है? जहाँ किसी भी बात पर कोई आहत हो सकता है या क्रोधित होकर दूसरे पक्ष को हानि पहुँचा सकता है। लगता है जैसे प्रत्येक मनुष्य के भीतर एक ज्वालामुखी धधक रहा है जो बस फूट जाने को तैयार है। इसका परिणाम क्या और कैसा होगा, इसे सोचने-समझने का समय किसी के पास नहीं! लचर न्याय-तंत्र और ढीली प्रशासनिक व्यवस्था ने हिंसा, क्रूर हत्याओं, अपराध, बेईमानी और भ्रष्टाचार में लिप्त लोगों को आत्मग्लानि के भाव से मुक्त कर उनमें एक सहज गौरव भर दिया है कि ‘दम हो तो रोककर दिखाओ!’ जाहिर है कि इनके आगे सब बेदम हैं।
एक वर्ग जो नकारात्मक सोच और हिंसक घटनाओं पर आपत्ति दर्ज कर एक संवेदनशील समाज की माँग करता है, उसे न्यूटन का तीसरा नियम स्मरण करा अपनी बात को न्यायसंगत ठहरा दिया जाता है। उस पर भी बात न बनी तो तमाम उदाहरण रख दिए जाते हैं कि ‘जब फलाने वर्ष में ऐसा हुआ, तब तुम कहाँ थे?’ हाँ, तब वे नहीं थे या बुद्धि इतनी विकसित नहीं हुई होगी; पर अब तो है! पुराने राग को कब तक गाया जाएगा? उसकी आड़ में छुपकर कब तक दूसरों पर हमला होगा?
अन्याय तो अन्याय ही है, चाहे वह किसी भी युग में क्यों न हुआ हो। लेकिन अतीत में किए गए किसी और के गुनाहों की सजा, वर्तमान समाज क्यों भुगते और कब तक? यह कहानी तो फिर कभी खत्म होगी ही नहीं! प्रश्न यह है कि पुरानी गलतियों को सामने रख उनसे सीख लेना चाहिए या प्रेरणा? हमारे पुराणों ने तो उनसे सीख ले उन्हें न दोहराने की ही बात की है और कहा कि ‘जब जागो, तभी सबेरा’ लेकिन आस्था की तख्ती लटकाए समाज उन पुरखों के नैतिक मूल्यों, आदर्शों और संस्कारों की रक्षा की बात करते हुए स्वयं ही उसे कैसी बेरहमी से कुचल रहा है, यह तथ्य भी अब किसी से छुपा नहीं।
जब हम यह खोजने बैठते हैं कि समाज में यह परिवर्तन कैसे हुआ और कौन इसका जिम्मेदार है? तब किसी एक को उत्तरदायी ठहराना उचित नहीं। लेकिन यह समझ लेना अत्यंत आवश्यक है कि मानसिकता में बदलाव हमारे परिवेश, वातावरण और व्यवस्था से आता है, उस सोच से आता है जो जाने-अनजाने हमारे मन-मस्तिष्क में भरती ही चली जा रही है।
यह मीडिया के वर्चस्व का युग है, जहाँ दुनिया के बारे में हमारी धारणाएँ उनके द्वारा बताई कहानियों, सूचनाओं से बनती और बिगड़ती हैं। चाहे वह टीवी के विभिन्न समाचार चैनल हों, सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म या डिजिटल मीडिया, इन सभी का समाज पर एक निर्विवाद प्रभाव है। जनमत इनकी कही बातों से प्रभावित होता है और उसी आधार पर अपनी सोच को आकार, विस्तार देता है। इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि इन दिनों मीडिया की भूमिका ही सबसे महत्त्वपूर्ण है क्योंकि अप्रत्यक्ष रूप से यही लोगों को निर्देशित करता है और देश के सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और नैतिक मानदंडों को आकार देता है।
दुर्भाग्य यह है कि आधुनिक मीडिया की खबरों में ऊपर से नीचे तक यदि कहीं कुछ है तो वह है राजनीति, राजनीति और केवल राजनीति। चुनाव न हुए, देश की ऑक्सीजन हो गई जिसका हमेशा वातावरण में उपस्थित रहना जरूरी हो जैसे। पहले आता है कि चुनाव कब होंगे? कैसे होंगे? कहाँ होंगे? उसके बाद कि लीजिए अब यहाँ-वहाँ हो रहे हैं। देखें, जनता क्या कहती है? एग्जिट पोल क्या कहता है? सभी दलों की तैयारियाँ कैसी हैं? किसने, किसको कितना कोसा और क्यों कोसा? इन सब पर तूफ़ानी परिचर्चाओं का लंबा दौर दर्शकों के प्राण हर लेने को काफी है। उस पर भी देश को तोड़ने वाली बातें, गालीगलौज, अभद्रता को हाइलाइट कर कार्यक्रम इतना ‘मनोरंजक’ और सनसनीखेज बना दिया जाता है कि देशवासियों के मध्य जो होना है सो होता रहे, पर टीआरपी में कमी न आए! चुनाव बीत गए तो इस बात पर चर्चा कि किसका अनुमान सही निकला और किसका गलत? जो जीते, वो जीते क्यों और जो हारे वो हारे क्यों? जीतने का श्रेय कौन लेगा और हारने का ठीकरा अब किसके सिर फोड़ा जा रहा? अब शपथ होगी तो कौन किसको बुलाएगा और कौन बुलाने पर भी नहीं आएगा? चैनल के क्रांतिकारी इस पर भी लंबी बहस छेड़ देने की योग्यता रखते हैं। अब जब सब कुछ हो गया तो ‘ये वाले नेता, उन दूसरे नेताओं से मिलते हुए धर लिए गए! क्या वे दल बदलने की योजना बना रहे या बिक चुके हैं?’ जैसी खबरें राष्ट्रीय चैनलों का मुख्य विषय होती हैं। दिन रात चुनावी बहस, आपसी संघर्ष, विवाद और नकारात्मकता के प्रति इस जुनून के कारण स्थिति यह है कि राजनीति में घोर अरुचि रखने वाले लोग भी इससे प्रभावित होने लगे हैं। टीवी का ‘प्राइम टाइम’ अब ‘प्राइम बहस’ का रूप ले चुका है। लेकिन क्या देश के विकास का पर्याय बस चुनाव और उसकी खबरें हैं?
मीडिया को सनसनी फैलानी है, प्रथम आना है। लेकिन उनकी इस दौड़ में देश के प्रति उनकी कर्तव्यपरायणता कहीं नीचे खिसक जाती है। वे जानते हैं कि नाटकीय, चौंकाने वाले शीर्षक, विवादास्पद, जोड़-तोड़ कर बनाई गईं विभाजनकारी राजनीतिक बहसें और घोटालों के किस्से जितने अधिक होंगे, उतनी ही दर्शकों की संख्या बढ़ेगी। दूसरों के दर्द का सबसे अधिक मज़ा इन्हीं चर्चाओं में लिया जाता है। उनके लिए क्लिक का बढ़ना महत्त्वपूर्ण है लेकिन वे यह भूल जाना चाहते हैं कि इस क्लिक के साथ समाज में परस्पर क्रोध और अविश्वास भी बढ़ रहा है। नकारात्मकता से भरी प्रतिकूल खबरें दर्शकों को केवल परेशान ही नहीं करतीं बल्कि इनके कारण चिंता, निराशा और यहाँ तक कि आक्रामकता भी बढ़ती है। ये एक ऐसा समाज निर्मित कर रहीं हैं जो एक दूसरे के साथ नहीं, बल्कि विरुद्ध खड़ा हो रहा है। ये समाज दूसरों की गलतियों को इंगित करने में इतना व्यस्त है कि अच्छाइयों का उत्सव मनाना ही भूल चुका है।
क्या हम मीडिया से थोड़ी सकारात्मकता की माँग नहीं कर सकते? यदि जनता निरर्थक बहसों, अनर्गल बयानबाजी और बेसिरपैर की सनसनी पर प्रतिक्रिया न दे; तो मीडिया इस देश को स्वर्ग बनाने की क्षमता रखती है। कहाँ हैं अब वो रोज प्रसारित होते गीत जो ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा’ और ‘बजे सरगम हर दिशा से, गूँजे बनकर देशराग’ की बात करते थे? अब अलग-अलग सुर हैं और सबके अलग राग! इन दरबारी रागों में ‘जोड़ने’ नहीं ‘तोड़ने’ की कोशिश की जाती है।
जब हम सभ्यता के विकास की बात करते हैं तो इसका सीधा अर्थ है कि हम अप्रत्यक्ष रूप से हमारे वैज्ञानिकों और उन खोजों की बात कर रहे हैं जिनके कारण हम विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में आगे बढ़े हैं, लेकिन कैसी विडंबना है कि इन अभूतपूर्व नवाचारों के पीछे के व्यक्तियों को कोई नहीं जानता और नेताओं की तस्वीर सामने आ जाती है। हमारे यहाँ इतने मौसम विज्ञानी, अंतरिक्ष विज्ञानी, चिकित्सा विज्ञानी हैं। अद्भुत कलाकार और समाज के हितों के लिए कार्य करने वाले लोग हैं। जिनकी इक्का-दुक्का खबरों के अतिरिक्त कहीं कोई खबर नहीं मिलती। जबकि ये सभी, विभाजनकारी राजनीतिक हस्तियों की अपेक्षा अधिक ध्यानाकर्षण का केंद्र होना चाहिए। कितने ही लोग हैं जिनकी उपलब्धियाँ असाधारण हैं लेकिन ये मील के पत्थर भी प्रायः मुख्यधारा के समाचारों की सुर्खियां नहीं बन पाते और उनके स्थान पर नेताजी तालियाँ और तस्वीर बटोर लेते हैं। आज भावी पीढ़ियों को नेता नहीं बल्कि ऐसे रोल मॉडल की आवश्यकता है जो उन्हें विभाजन के बजाय ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रेरित करें।
क्या हम एक ऐसी दुनिया की कल्पना करें जहाँ मीडिया चैनल चिकित्सा जगत से जुड़ी विभिन्न संभावनाओं और सफल प्रयोगों का जिक्र करे। जहाँ जीव-जंतुओं और वनस्पति के संरक्षण की बात हो। जो पर्यावरण को बेहतर बनाने और वैज्ञानिक नवाचारों के बारे में सूचना देता हो। जहाँ मनुष्य की संवेदनाओं और सहृदयता से जुड़े सकारात्मक कार्यों की कहानियों को प्राथमिकता दी जाए।कितना अच्छा होगा अगर राजनीतिक लड़ाइयों के स्थान पर स्वतंत्रता संग्राम के किस्से हों। उन शोध वैज्ञानिकों के किस्से हों जिन्होंने बीमारियों से लड़ते हुए उसकी दवाई ईजाद की, उन इंजीनियरों के किस्से हों जिन्होंने तमाम प्रतिकूलताओं के बाद भी हमारे लिए सड़कें, इमारतें और पुल बनवाए। उन शिक्षकों की चर्चा हो जिन्होंने अपनी लगन और समर्पण से विद्यार्थियों का जीवन बना दिया। उन किसानों की बात हो जिन्होंने वैज्ञानिक सोच अपनाकर अपनी फसल की पैदावार चौगुनी कर दी। जीवन के हर क्षेत्र से जुड़े लोगों की खबरें हों और उसके साथ ही कहीं चुनाव की खबर भी हो। संतुलन तो तभी होगा न! मीडिया में ऐसा परिवर्तन न केवल नागरिकों को सूचित करेगा बल्कि अधिक रचनात्मक, आशावादी और जिम्मेदार भी बनाएगा। ऐसी कहानियाँ न केवल जनता को शिक्षित और प्रेरित करती हैं बल्कि विविध क्षेत्रों से जुड़े लोगों के बारे में कृतज्ञता, उस क्षेत्र के महत्व और उसके प्रति जागरूकता की भावना भी पैदा करती हैं।
हम जानते हैं कि विश्व भर में नकारात्मकता हावी है, लेकिन इसका यह मतलब बिल्कुल नहीं कि किसी की सहायता के कार्य नहीं होते हैं या कि कहीं कुछ अच्छा नहीं हो रहा। हमारे आसपास अनगिनत सकारात्मक कहानियाँ बिखरी पड़ी हैं जो प्रायः अनदेखी, अनकही रह जाती हैं। जब मीडिया ऐसी कहानियों को जगह देता है, तो यह समाज को उसकी सामूहिक शक्ति और मानव धर्म की निरंतर याद दिलाता है। ऐसे समाज में फिर उतनी लड़ाइयाँ नहीं होतीं क्योंकि अच्छी खबरें मिल-जुलकर रहने की, साथ की प्रेरणा देती हैं। जबकि नकारात्मकता से भरी आबादी निंदक, हिंसक, अहंकारी और कर्तव्य विमुख हो जाती है। इनकी भीड़ समाधान नहीं देती बल्कि समस्या पैदा करती है। नकारात्मक समाचारों के अत्यधिक संपर्क से तनाव, चिंता और यहाँ तक कि अवसाद भी बढ़ जाता है।
जब युवा पीढ़ी वैज्ञानिकों, चिकित्सकों, शिक्षकों और पर्यावरणविदों को सम्मानित होते देखती है तो उनके ही जैसा बनने की आकांक्षा रखती हैं। जब रोल मॉडल सकारात्मक हो, तो यह समुदायों को सामूहिक प्रगति की ओर प्रेरित कर सकता है। इसीलिए अगली पीढ़ी को वास्तविक जीवन के नायकों को देखने की ज़रूरत है जो दुनिया में सकारात्मक रूप से इसे सुंदर और सुविधाजनक बनाने में योगदान करते हैं, न कि उन विवादास्पद हस्तियों और अवसरवादियों की जो सत्ता पाने का संघर्ष और कुर्सी जमाए रखने की सोच लिए पनपते हैं।
मीडिया के पास दुनिया को आकार देने की शक्ति है – उसे श्रेष्ठ से श्रेष्ठतम या बद से बदतर बनाने की पूरी ताकत भी इन्हीं के पास है। अब यह निर्णय उन मीडिया घरानों का है कि वे कैसे समाज की संकल्पना कर रहे हैं? उन्हें राजनीतिक नाटकीयता और घृणा से प्रेरित कहानियों के शोर-शराबे में डूबे रहना है या इससे आगे बढ़ना है! हम इस देश के सभी पालनहारों से एक ऐसी दुनिया की अपेक्षा रखते हैं जो विभाजन, हिंसा और अराजकता पर एकता, बुद्धिमत्ता, करुणा और संवेदना को महत्व देती हो। ऐसी मीडिया हो जो दलगत राजनीति से इतर, सत्य के साथ बेबाक खड़ी हो। जो रचनात्मक चर्चा और सार्वजनिक कल्याण को प्राथमिकता देती हो।
क्या करें! जीवन कितना ही दुरूह क्यों न हो, हम आम नागरिक ख्वाब टूटने के डर से उन्हें देखना थोड़े ही न छोड़ देंगे!