वैदिक काल में होली पर्व को नवान्रेष्टि यज्ञ कहा जाता था। खेत के अधकचे-अधपके अन्न को होलक या होला कहा जाता है। यज्ञ में हबन करके प्रसाद ग्रहण करने का विधान समाज में था। चूंकि इसमें होला का दहन होता है। इसी से इसका नाम होलिकोत्सव पड़ा। इस पर्व को नवसंवत्सर का आगमन तथा वसंतागम के उपलक्ष्य में किया हुआ यज्ञ माना जाता था।
होली वस्तुतः किसानों के परिश्रम के फल का नया अन्न पैदा होने का त्यौहार है। नया अन्न सर्वप्रथम देवताओं को अर्पित करने की परम्परा भारत में प्राचीन काल से ही रही है, गीता में कहा है ‘तैर्दत्तानप्रदायेभ्दो यो भुंक्ते स्तेन एव स:।’ अर्थात् देवताओं को चढ़ाए बिना जो स्वयं खा लेता है वह चोर है। इसलिए जब-जब नया अन्न पैदा होता था तब-तब एक इष्टि (यज्ञ ) होता था। श्रौतसूत्रों में इस कृत्य को आग्रायण इष्टि कहा गया है। मनु ने इसे नवशस्येष्टि कहा है। वैदिक काल में ऐसा ही एक उत्सव था। इन्द्रमह या इन्द्र ध्वज का उत्सव। तैत्तिरीय ब्राह्मण में इन्द्र को शुनासिर कहा गया है। यानि इन्द्र कृषि कर्म का भी देवता था। संस्कृत साहित्य में बसन्त और बसंतोत्सबों का व्यापक वर्णन मिलता है।
‘होलाका’ पर्व परम प्राचीन है; इसकी पुष्टि महर्षि जैमिनि का कर्म मीमांसा शास्त्र कर रहा है। उसमें होलाकाधिकरण नामक एक स्वतन्त्र अधिकरण की ही रचना की गयी है। वात्स्यायन ऋषि ने भी आर्यों के प्राचीन पारम्परिक उत्सव-महोत्सवों में होलाका-महोत्सव को अन्यतम महोत्सव माना है। कुछ लोग इस पर्व को अग्नि देव का पूजन मात्र मानते हैं। इस दिन मनु का जन्म भी हुआ मानते हैं। अतः इस पर्व को मन्वादि तिथि भी कहते हैं। बैदिक पुराणों के मुताबिक ऐसी भी मान्यता है कि जब भगवान शंकर ने अपनी क्रोधाग्नि से कामदेव को भस्म कर दिया था। तभी से इसका प्रचलन हआ।
‘होलिका’ शब्द का अर्थ वेदों तथा पुराणों के पर्यालोचन से ‘होलिका’ शब्द का अर्थ अग्नि की ‘रक्षिका’ शक्ति होता है। इसी का होम-सम्बन्ध से ‘होलिका’ नाम हो गया है। ‘होलिका’ शब्द का निर्वचन करते हुए पुराण-पुरुष कहता है कि सर्वदुष्टापहो होमः सर्वरोगोपशान्तये। / क्रियतेऽस्यां द्विजैः पार्थ तेन सा होलिका स्मृता॥
‘होलिका से सम्बन्ध होने के कारण ही अनग्नि मनुष्यों द्वारा आग्रायणेष्टि के निमित्त ‘होलाका’ अग्नि में सेंके गये चने, गेहूँ और यव आदि अन्नों का नाम भी ‘होला’ पड़ गया है। आज भी लोग घर से लाए खेडा, खांडा और बडकालों को होली में डलकर गेहूं, जौ, गेहूं की बाली और हरे चने के झाड़ को सेंकते हैं। इसके पीछे यह भी भाव बताया जाता है कि इस समय नवीन धान्य जौ, गेहूं और चने की खेती पककर तैयार हो जाती है। इसलिए यज्ञेश्र को नवीन धान अर्पण करके उनकी पूजा की जाती है। यज्ञ विधि से इसे अर्पित करके नवातन्नेष्टि यज्ञ किया जाता है।
‘ॐ रक्षोहणं वलगहनं वैष्णवीमिदमहं तंवलगमुत्किरामि स्वाहा’ (यजु० 5 / 23) इत्यादि रक्षोघ्न मन्त्रों द्वारा पूजा की जाती है। जिसमें संक्षेपत: ‘होलिका’ पर्व के विज्ञान का उल्लेख है, उस पौराणिक मन्त्र से ‘होलिका’ (शमी-शाखा और तृणादि समूहों)- की स्तुति की जाती है। स्तोता कहता है- असृक्याभयसन्त्रस्तैः कृता त्वं होलि बालिशैः। / अतस्त्वां पूजयिष्यामि भूते भूतिप्रदा भव॥
रुधिरपान करने वाली ‘ढुण्ढा’ राक्षसी के भय से परित्राण पानेकी इच्छा से हे ‘होलिके’ (रक्षादेवि)! तुम्हारी पूजा और तुम्हारे भस्म की वन्दना करते हैं, हम सबको नीरोग और ऐश्वर्यशाली बनाओ।
पुराणों में ‘होलिका’ का लौकिक स्वरूप इस रूप में उपलब्ध है। चक्रवर्ती सम्राट् ‘रघु’ के शासन काल में एक ‘ढुण्ढा’ नामक भयावहा राक्षसी ने बालकों को उत्पीड़ित कर रखा था। उसके विनाश करने का उपाय पूछने पर भगवान् नारद ने कहा कि राजन् ! ‘ढुण्ढा’-नाश का एकमात्र उपाय ‘होलिका’ नामक अग्नि ही है। इसमें ‘सर्वदुष्टापह’ होम करना आवश्यक है। इस होम के अनुष्ठान का वर्णन पुराण करता है कि काष्ठमय आयुधों से सज्ज हर्षोल्लास के साथ घूमते हुए बालक मार्ग में उपलब्ध शुष्क काष्ठ, आरणा छाणा आदि का संग्रह कर के एकत्र कर दें। उस एकत्रित शुष्क काष्ठ एवं अन्य सामग्रियों का रक्षोघ्न मन्त्रोच्चारण पूर्वक पूजा करें। उसके बाद उसको प्रज्वलित कर दें। प्रज्वलन के साथ ही वहां उपस्थित बच्चे एवं बड़े सभी समवेत ऊँचे स्वर से आकर्षक ताल शब्दों के साथ गाते और देखते हुए इस प्रज्वलित अग्निदेव की तीन बार प्रदक्षिणा करें। प्रज्वलन के साथ ही उपस्थित बालक एवं बड़े लोग स्वेच्छा पूर्वक बिना कोई शंका के भाव से जिसके मन में जो भी भाव हो, जिसकी वाणी में जैसा शब्दकोष हो, निःसंकोच अपनी-अपनी भाषा में शब्दकोष हो, निःसंकोच अपनी अपनी भाषा में यथेच्छ उद्घोष करते रहें। ऐसे स्वच्छन्द, स्वतन्त्र, उन्मुक्त, शंकारहित अभय उद्घोष से वह पापिनी ‘ढुण्ढा’ राक्षसी इस शब्दाग्नि-ज्वाला से अवश्य ही वहां से दूर चली जाएगी। अट्टहास-परिहासों से लज्जावनता बनती हुई अवश्यमेव नष्ट हो जायगी।
अग्नि-प्रज्चालनरूपा ‘होलिका’ से ही इस राक्षसी का नाश होता है; अत: इसका नाम भी ‘होलिका’ हो गया। ‘होलिका’ का वैदिक स्वरूप फाल्गुनी पूर्णिमा में वैदिक ब्राह्मण अग्न्याधान रूप अग्निहोत्र का अनुगमन करते हैं, इस अग्निहोत्र-सम्बन्ध से भी यह पर्व ‘होलिका’ नाम से प्रसिद्ध हो गया है।
प्राचीनकाल से आज तक भारत में होली को आनन्द के महोत्सव के रूप में मनाया जाता रहा है। सामाजिक रूप से इसे जनमानस की ऊंच-नीच की दीवार को तोड़ने वाला पर्व माना जाता रहा है। कृषक इसे लहलहाती फसल काटने का तथा आनन्द-उल्लस का और भगवदीयजन इसे बुराई के ऊपर भलाई की विजय का पर्ब मानते हैं। होली पर्व का मुख्य सन्देश है बुराइयों की, कटुताओं की, बैमनस्यता की, दुर्भावों की होली जलाई जाये, इनका दहन किया जाये और प्रेम का, सद्भाव का, सदाचार का रंग सब पर बरसाया जाए। डॉ. हरिसिंह पाल ने अपने एक आलेख में एक प्राचीन श्लोक का उल्लेख किया है, जिसमें कहा गया है- गन्ध, माला, भूषण तथा बलस्त्रों से अलंकृत पुरुष और स्त्रियाँ नदी में अवभूथ स्नान करने के लिए गई। वहाँ युवतियाँ तेल, गोरस, सुगन्धित जल, हल्दी और कुंकुम आदि से एक-दूसरे को रंगने लगी। घत्तियी (चर्मयन्त्र ) से अपने देवरों और प्रियजनों को भिगो रही थीं। ये घत्तियाँ ही आधुनिक पिचकारियों की आदिरूप थीं। महाकवि माघ (750 ई. ) ने पिचकारी का वर्णन किया है।
शृंगानी दरुत कनकोज्वलानि गन्धाः, कौसुम्भपृथु कुचकुम्भ सार्गवासः माद्गीक प्रियतम सात्रिधान मासत्नारीणामिति जल केलि साधनानि। अर्थात तप्त स्वर्ण के समान उज्ज्वल केशरिया रंग का विशाल स्रानाच्छादन, वस्त्र प्रक्षालन तथा प्रियजनों का सानिध्य नारियों के जल क्रीड़ा के साधन थे। भविष्य पुराण के अनुसार नारदजी ने महाराज युधिष्ठिर से कहा था कि हे राजन! फाल्गुन पूर्णिमा के दिन सभी लोगों को अभय दान देना चाहिए ताकि सारी प्रजा उल्लासपूर्वक हँसे। विभिन्न प्रकार की क्रीड़ाएं करे। होलिका का विधिवत पूजन करे और अट्टह्मस करते हुए यह त्योहार मनाएं। होलिका पर्व अपने मूल रूप में बसन्तोत्सव और नई फसल का पर्व है।
महान पर्व होली के एक दिन पहले होलिका दहन होता है। होलिका दहन बुराईयों पर अच्छाई की जीत को दर्शाता है, लेकिन यह बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि हिरण्यकश्यप की बहन होलिका का दहन बिहार की धरती पर हुआ था। जनश्रुति के मुताबिक तभी से प्रतिवर्ष होलिका दहन की परंपरा की शुरुआत हुई। मान्यता है कि बिहार के पूर्णिया जिले के बनमनखी प्रखंड के सिकलीगढ़ में ही वह जगह है, जहां होलिका भगवान विष्णु के परम भक्त प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर दहकती आग के बीच बैठी थी। ऐसी घटनाओं के बाद ही भगवान नरसिंह का अवतार हुआ था, जिन्होंने हिरण्यकश्यप का वध किया था।
पौराणिक कथाओं के अनुसार, सिकलीगढ़ में हिरण्यकश्यप का किला था। यहीं भक्त प्रह्लाद की रक्षा के लिए एक खंभे से भगवान नरसिंह ने अवतार लिया था। भगवान नरसिंह के अवतार से जुड़ा खंभा (माणिक्य स्तंभ) आज भी यहां मौजूद है। कहा जाता है कि इसे कई बार तोड़ने का प्रयास किया गया। यह स्तंभ झुक तो गया, पर टूटा नहीं।
पूर्णिया जिला मुख्यालय से करीब 40 किलोमीटर दूर सिकलीगढ़ के बुजुर्गों का कहना है कि प्राचीन काल में 400 एकड़ के दायरे में कई टीले थे, जो अब एक सौ एकड़ में सिमटकर रह गए हैं। पिछले दिनों इन टीलों की खुदाई में कई पुरातन वस्तुएं निकली थीं। इस जगह प्रमाणिकता के लिए कई साक्ष्य हैं। उन्होंने कहा कि यहीं हिरन नामक नदी बहती है। वे बताते हैं कि कुछ वर्षो पहले तक नरसिंह स्तंभ में एक सुराख हुआ करता था, जिसमें पत्थर डालने से वह हिरन नदी में पहुंच जाता था। इसी भूखंड पर भीमेश्वर महादेव का विशाल मंदिर है।
मान्यताओं के मुताबिक हिरण्यकश्यप का भाई हिरण्याक्ष बराह क्षेत्र का राजा था जो अब नेपाल में पड़ता है। भागवत पुराण (सप्तम स्कंध के अष्टम अध्याय) में भी माणिक्य स्तंभ स्थल का जिक्र है। उसमें कहा गया है कि इसी खंभे से भगवान विष्णु ने नरसिंह अवतार लेकर अपने भक्त प्रह्लाद की रक्षा की थी। इस स्थल की एक खास विशेषता है कि यहां राख और मिट्टी से होली खेली जाती है। ग्रामीण मान्यताओं के मुताबिक जब होलिका भस्म हो गई थी और प्रह्लाद चिता से सकुशल वापस आ गए थे, तब प्रहलाद के समर्थकों ने एक-दूसरे को राख और मिट्टी लगाकर खुशी मनाई थी। तभी से ऐसी होली शुरू हुई।