भारत की संत परंपरा में नागा साधु एक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। वे हिन्दू धर्म के संन्यासी होते हैं जो विशेष रूप से शैव पंथ से जुड़े होते हैं। नागा साधु, भारतीय आध्यात्मिकता के ऐसे रहस्यमयी साधक हैं, जिनका जीवन तपस्या, त्याग और अलौकिकशक्तियों से भरा हुआ है। भगवान शिव के प्रतीक माने जाने वाले ये साधु अपने शरीर पर भस्म लगाते हैं, जो उनके वैराग्य और दिव्यता का परिचायक है।
नागा साधु बनने के दौरान एक साधक को अपने सांसारिक जीवन का त्याग ही नहीं, बल्कि अपने अस्तित्व को नए स्वरूप में ढालने का साहस करना पड़ता है। दीक्षा के दौरन कई कठोर और गुण प्रक्रियाएं होती हैं, जिनमें साधक को अपनी इच्छाओं और दर्द पर पूर्ण नियंत्रण करना होता है।
नागा साधुओं को सबसे ज्यादा प्रिय होती है भस्म। भगवान शिव के औघड़ रूप में भस्म रमाना सभी जानते हैं। ऐसे ही शैव संप्रदाय के साधु भी अपने आराध्य की प्रिय भस्म को अपने शरीर पर लगाते हैं। रोजाना सुबह स्नान के बाद नागा साधु सबसे पहले अपने शरीर पर भस्म रमाते हैं। यह भस्म भी ताजी होती है। भस्म शरीर पर कपड़ों का काम करती है।
धर्म को या तो शास्त्र से बचाया जा सकता है या फिर शास्त्र से। इन्हें शस्त्र और शास्त्र दोनों की शिक्षा दी जाती है। और ये दोनों कलाओं में निपुण होते हैं। भिक्षा मांग कर खाना खाना उनकी दिनचर्या में शामिल होता है। नागा साधुओं की उत्पत्ति प्राचीन भारत में हुई जब वे सनातन धर्म की रक्षा के लिए योद्धा-तपस्वी के रूप में स्थापित हुए। नागा साधुओं के पास मंदिरों की सुरक्षा के लिए तलवार, त्रिशूल, गदा, तीर धनुष और आयुध कौशल होते थे।
सनातन धर्म के वर्तमान स्वरूप की नींव आदि शंकराचार्य ने रखी थी। शंकराचार्य का जन्म ८वीं शताब्दी के मध्य में हुआ था। उस समय भारत समृद्ध तो बहुत था परन्तु धर्म से विमुख होने लगा था। ईश्वर, धर्म, धर्मशास्त्रों को तर्क, शस्त्र और शास्त्र सभी तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा था। ऐसे में आदि शंकराचार्य ने सनातन धर्म की पुनर्स्थापना के लिए कई बड़े कदम उठाए जिनमें से एक था देश के चार कोनों पर चार पीठों (चार धाम) का निर्माण करना।
भारत की धन संपदा को लूटने के लालच में तमाम आक्रमणकारी यहां आ रहे थे। कुछ भारत के अकूत खजाने को अपने साथ वापस ले गए तो कुछ भारत की दिव्य आभा से ऐसे मोहित हुए कि यहीं बस गए। लेकिन कुल मिलाकर सामान्य शांति-व्यवस्था बाधित थी।
आदि गुरु शंकराचार्य को लगने लगा था कि केवल आध्यात्मिक शक्ति से ही इन चुनौतियों का मुकाबला करना काफी नहीं है। इसके लिए अधर्मियों से युद्ध करने के लिए धर्म योद्धाओं की भी आवश्यकता थी। तब उन्होंने जोर दिया कि युवा साधु व्यायाम करके अपने शरीर को मजबूत बनाए और हथियार चलाने में भी कुशलता हासिल करें।इसके लिए उन्होंने कुछ ऐसे मठों का निर्माण किया जिनमे व्यायाम करने और तरह तरह के शस्त्र संचालन का अभ्यास कराया जाता था। ऐसे मठों को अखाड़ा कहा जाने लगा।
आदि गुरु शंकराचार्य ने नागा योद्धाओं की सेना तैयार की थी। दरअसल, आदि गुरु शंकराचार्य ने बाहरी आक्रमण से पवित्र धार्मिक स्थलों, धार्मिक ग्रंथो की रक्षा करने की जिम्मेदारी नागा योद्धाओं को दी थी। आदि गुरु शंकराचार्य पूरा भारतवर्ष में यह संदेश देना चाहते थे कि धर्म की रक्षा के लिए एक हाथ में शास्त्र और दूसरे हाथ में शस्त्र होने जरुरी है। अपने इस संदेश को देश के कोने कोने में पहुंचाने के लिए नागा साधुओं को भेजा था।
शंकराचार्य ने अखाड़ों को सुझाव दिया कि मठ, मंदिरों और श्रद्धालुओं की रक्षा के लिए जरूरत पडऩे पर शक्ति का प्रयोग करें। इस तरह विदेशी और विधर्मी आक्रमणों के उस दौर में इन अखाड़ों ने एक भारत को सुरक्षा कवच देने का काम किया।
विदेशी आक्रमण की स्थिति में नागा योद्धा साधुओं ने अनेकों युद्धों में हिस्सा लिया। पृथ्वीराज चौहान के समय में हुए मोहम्मद गौरी के पहले आक्रमण के समय सेना के पहुँचने से पहले ही नागा साधुओ ने कुरुक्षेत्र में गौरी की सेना को घेर लिया था, जब गौरी की सेना कुरुक्षेत्र और पिहोवा के मंदिरों को नुकसान पहुंचाने की कोशिश कर रही थी। उसके बाद पृथ्वीराज की सेना ने गौरी की सेना को तराइन (तरावड़ी) में काट दिया था।
इन नागा धर्मयोद्धाओं ने केवल एक में ही नहीं बल्कि अनेकों युद्धों में विदेशी आक्रान्ताओं को टक्कर दी। दिल्ली को लूटने के बाद हरिद्वार के विध्वंस को निकले “तैमूर लंग” को भी हरिद्वार के पास हुई ज्वालापुर की लड़ाई में नागाओं ने मार भगाया था। तैमूर के हमले के समय जब ज्यादातर राजा डर कर छुप गए थे, जोगराज सिंह गुर्जर, हरवीर जाट, राम प्यारी, धूलाधाडी आदि के साथ-साथ नागा योद्धाओं ने तैमूर लंग को भारत से भागने पर मजबूर किया था।
खिलजी के आक्रमण के समय नाथ सम्प्रदाय के योद्धा साधुओं ने कडा मुकाबला किया था। अहमदशाह अब्दाली के आक्रमण के समय जब मराठा सेना पानीपत में हार गई थी, तब मथुरा, वृन्दावन, गोकुल की रक्षा के लिए करीब 40000 नागा योद्धाओं ने भी अब्दाली से टक्कर ली थी। पानीपत की हार का बदला लेने के लिए जब पेशवा माधवराव ने अफगानिस्तान पर आक्रमण किया था तो नागा योद्धाओं ने अब्दाली के स्थानीय मददगारों को मारा था।
विचित्र भाव भंगिमाओं और मुद्राओं में दिखने वाले हमारे ये नागा साधु हमारे धर्म और संस्कृति के अद्भुत प्रतीक हैं, जिन्होंने सदियों से हिंदू, हिंदुत्व और सनातन की रक्षा के लिए अपने जीवन को न्योछावर कर दिया है। ये वही धर्म और शौर्य के प्रतीक नागा साधु हैं, जिन्होंने हमारे देश के अंतर्गत धर्म को छिन्न-भिन्न करने वाले आक्रांताओं के दांत खट्टे कर दिए थे, इतिहास के पन्नों को पढ़ने के बाद हमें सहज ही अंदाजा हो जाएगा कि किस तरीके से इन्होंने उन लाखों आक्रमण करने वाले लुटेरों को नेस्तनाबूद कर दिया था, जो हमारे धर्म और संस्कृति को नष्ट कर रहे थे।
इस युद्ध के बाद पड़े कुम्भ में नागा योद्धाओं को सम्मान देने के लिए पृथ्वीराज चौहान ने कुम्भ में सबसे पहले नागा साधुओं को स्नान करने का सम्मान और अधिकार दिया था। तब से यह परम्परा चली आ रही है कि कुम्भ का पहला स्नान नागा साधू करेंगे।
महाकुंभ के अंतर्गत सबसे बड़ा आकर्षण इन्हीं नागा साधुओं का होता है। महाकुंभ में इनके चार शाही स्नान होते हैं। पहला शाही स्तान महाकुंभ प्रारंभ होने के बाद होता है और अंतिम सरस्वती पूजा के पास आने के बाद संपन्न होता है। प्रशासन द्वारा उनके शाही स्नान पर अभूतपूर्व आयोजन किया जाता है ताकि इन्हें किसी भी तरह की कोई कठिनाई न हो।
इस समय 13 प्रमुख अखाड़े हैं जिनमें प्रत्येक के शीर्ष पर महन्त आसीन होते हैं। प्रयागराज के कुंभ में उपाधि पाने वाले को नागा, उज्जैन में खूनी नागा, हरिद्वार में बर्फानी नागा तथा नासिक में उपाधि पाने वाले को खिचड़िया नागा कहा जाता है। इससे यह पता चल पाता है कि उसे किस कुंभ में नागा बनाया गया है। वरीयता के हिसाब से इनको कोतवाल, पुजारी, बड़ा कोतवाल, भंडारी, कोठारी, बड़ा कोठारी, महंत और सचिव जैसे पद दिए जाते हैं। सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण पद सचिव का होता है। नागा साधु अखाड़े के आश्रम और मंदिरों में रहते हैं तथा तपस्या करने के लिए हिमालय या ऊंचे पहाड़ों की गुफाओं में जीवन बिताते हैं। जिस प्रकार सेना का अपना ध्वज होता है, उसी प्रकार अखाड़ों की भी अपनी ध्वजा होती है जिसे धर्म ध्वजा कहा जाता है।
शिव, विष्णु, शक्ति, सूर्य और गणेश को साक्षी मानकर इन्हें नागा सन्यासी बनाया जाता है और इन्हें भस्म, भगवा, रुद्राक्ष आदि चीजें दी जाती हैं। यह नागाओं के प्रतीक और आभूषण होते हैं। नागा सन्यासी को अपने बालों का त्याग करना होता है, या फिर संपूर्ण जटा को धारण करना होता है। एक नागा साधु को अधिक से अधिक सात घरों से भिक्षा लेने का अधिकार है। अगर सातों घरों से कोई भिक्षा ना मिले, तो उसे भूखा रहना पड़ता है। नागा सन्यासी केवल पृथ्वी पर ही सोते हैं। किसी को प्रणाम न करना और न किसी की निंदा करना तथा केवल संन्यासी को ही प्रणाम करना आदि कुछ और नियम हैं, जो दीक्षा लेने वाले हर नागा साधु को पालन करना पड़ते हैं।
भस्म ही की तरह नागा सन्यासियों को रुद्राक्ष भी बहुत प्रिय है। यह साक्षात भगवान शिव के प्रतीक हैं। ये मालाएं साधारण नहीं होतीं। इन्हें बरसों तक सिद्ध किया जाता है। ये मालाएं नागा सन्यासियों के लिए आभा मंडल जैसा वातावरण पैदा करती हैं। नागा सन्यासी अपने साथ तलवार, फरसा या त्रिशूल लेकर चलते हैं। चिमटा रखना अनिवार्य होता है। यह उनके व्यक्तित्व का एक अहम हिस्सा होता है।
महिलाओं की तरह नागा सन्यासियों को भी सजना-संवरना अच्छा लगता है। फर्क सिर्फ इतना है कि नागाओं की श्रंगार सामग्री, महिलाओं के सौंदर्य प्रसाधनों से बिलकुल अलग होती है। नागा साधु नियमित रूप से गेंदे के फूल की मालाएं धारण करते हैं, साथ ही हाथों पर और विशेषतौर से अपनी जटाओं में फूल लगाते हैं। नागा सन्यासी सबसे ज्यादा ध्यान अपने तिलक पर देते हैं। यह पहचान और शक्ति दोनों का प्रतीक है। रोज तिलक एक जैसा लगे, इस बात को लेकर नागा सन्यासी बहुत सावधान रहते हैं। नागा सन्यासी महंगे रत्नों की मालाएं भी धारण करते हैं। हालांकि उन्हें धन से मोह नहीं होता, लेकिन ये रत्न उनके श्रृंगार का आवश्यक हिस्सा होते हैं।
वर्तमान में कई अखाड़ों मे महिलाओं को भी नागा सन्यासिनी की दीक्षा दी जाती है। इनमे विदेशी महिलाओं की संख्या भी काफी है। वैसे तो महिला नागा सन्यासी और पुरुष नाग सन्यासी के नियम कायदे समान ही है। फर्क केवल इतना ही है की महिला नागा साधू को एक पिला वस्त्र लपेट केर रखना पड़ता है और यही वस्त्र पहन कर स्नान करना पड़ता है। नग्न स्नान की अनुमति नहीं है, यहाँ तक की कुम्भ मेले में भी नहीं।