हम भारतीयों ने प्रेम को सदा ही पवित्र माना है। समय-समय पर पौराणिक चरित्रों की दुहाई देते हुए भी नहीं अघाते। क्यों न हो, यह ईश्वरीय भाव ही तो है। तभी तो हर शय से ऊपर रखा है हमने प्रेम को। किस्से-कहानियों में सबसे ऊँचा दर्ज़ा दिया है। लेकिन फिर ऐसा क्यों होता है कि जब प्रेम पुष्प अपने ही घर-परिवार में पल्लवित होते दिखते हैं तो अनायास ही सारी समझदारी विलुप्त हो जाती है! प्रतिष्ठा पर भीषण भय के बादल मंडराने लगते हैं! नाक की चिंता सताती है! ‘लोग क्या कहेंगे’ की आड़ में अपने मन की बात कही जाने लगती है। माता-पिता की ज़िद के आगे कई बार बच्चे झुक जाते हैं, कई बार जान दे देते हैं। जबकि ये दोनों ही निर्णय किसी भी परिस्थिति में सही नहीं ठहराए जा सकते। आखिर ये कौन लोग हैं, प्रेम के नाम पर जिनकी भृकुटी तन जाती है? ये प्रेम को इतना निकृष्ट क्यों मानते हैं? प्रेम को स्वीकारने में आपत्तिजनक क्या है? क्या यह किसी की मनुष्यता को कमतर कर देता है?
हाँ, जहाँ देह का सुख, मन से ऊपर हो, वह छलावा है। मात्र आकर्षण भर होना प्रेम नहीं होता, क्योंकि यह तो परिस्थितिजन्य और अस्थायी भाव होता है। पानी के बुलबुले की मानिंद। जबकि प्रेम दैहिक नहीं, दैवीय घटना है। सोचिए, करोड़ों मनुष्यों से भरी इस दुनिया में एक ऐसा साथी जो हमारा मन पढ़ ले, उसे पाना कितनी अद्भुत बात है। फिर चाहे वह उम्र के किसी भी पड़ाव पर हो, मन से मन का जुड़ाव और जब इसकी अनुभूति हो, तो हर रिश्ता प्यारा लगने लगता है। किसी से कोई शिकायत नहीं रह जाती। स्वार्थी मानसिकता से लिप्त समाज में यदि कोई एक चेहरा अपना सा लगे, जो निस्वार्थ हमसे जुड़ा हो, हमारी हर खुशी में साथ हो और दुख को दूर करने के लिए जमीन-आसमान एक कर दे! तो उससे प्यार क्यों न हो! उसकी धड़कनों की ताल पर हमारी साँसें क्यों न चलें! समाज की नज़रों में यह पाप या अश्लील क्यों है?
प्रेम के रिश्ते को प्रायः सामाजिक मर्यादा की कसौटी पर कसा जाता है। दबाव यह रहता है कि पहले रिश्ते का अनुमोदन लिया जाए, उसके बाद ही प्रेम की अनुमति होगी! यह क्यों नहीं मान लिया जाता कि प्रेम यदि कोई पौधा है तो वह स्वच्छंद आकाश के नीचे ही फलता-फूलता है।
प्रेम सामाजिक मर्यादाओं के विरोध की बात नहीं है बल्कि सामाजिक सद्भाव की बात है। इस बात को समझने के लिए समाज को अपनी एक विकृत ग्रंथि से बाहर आना पड़ेगा। ये जो हम दूसरों के व्यक्तिगत जीवन में तांकझाँक कर अपने लिए चटकारे जुटाने के आदी हो गए हैं, यह शर्मनाक है। बहुधा लोग ओछी टिप्पणी भी कर डालते हैं। क्या हमने कभी विचार किया कि ‘पुलिस ने प्रेमी जोड़े को धर दबोचा!’, ‘लड़की प्रेमी के साथ फ़रार!’, ‘नौकरी पर चला बॉस से चक्कर’, ‘पड़ोसिन पर डाले डोरे!’… कितनी सरलता से कहा और लिखा जाने लगा है।
इन्हें पढ़कर मुँह पर हाथ रखकर ‘हौ’ कहने वालों का मानस समझिए। वे उसी ग्रंथि के शिकार हैं जिसका मैंने अभी-अभी जिक्र किया। अधिकांश को इन किस्सों का असल पक्ष कभी पता होता ही नहीं लेकिन रायचंद बने बिना मानते नहीं! यह भी तो हो सकता है कि वह लड़की, इस दुनिया में सबसे अकेली महसूस कर रही हो, जीने का कोई उद्देश्य नज़र नहीं आ रहा हो ऐसे में किसी ने हाथ थाम उसे जीने की एक वज़ह दे दी! या वह लड़का, हर तरफ से निराश हो, पीड़ित हो और इस लड़की ने उसे तमाम मुश्किलों को चीर आगे बढ़ने का रास्ता दिखाया हो! हम होते कौन हैं, किसी के रिश्ते पर न्यायाधीश बनने और अभद्र भाषा में अपनी टीका-टिप्पणी करने वाले! क्या हम एक नफ़रत पसंद समाज की ओर बढ़ रहे हैं? जाति-धर्म की दीवारें उठाकर किसका भला हो रहा है?
प्रेम में नियम और शर्तें नहीं होने चाहिए लेकिन समाज के पास इनकी एक लंबी सूची है। यह भी सत्य है कि कोई अपने बच्चों को पीड़ा में नहीं देखना चाहता। इसलिए यदि यह स्पष्ट है कि लड़का या लड़की किसी विकृत मानसिकता का शिकार हैं, कुचक्र में फँसने वाले हैं और रिश्ता ऐसे स्वार्थ से प्रेरित है जिसका कोई भविष्य नहीं; तब उनके शुभचिंतक होने के नाते, उनसे अधिक अनुभवी होने के नाते अपना पक्ष रखना और उन्हें बचाना अत्यंत आवश्यक है। कोई अवयस्क, परिस्थितियों को समझे बिना क्रांति पर उतर आए, तो उसे समझाना भी पड़ेगा। यदि ऐसी स्थिति नहीं है, दोनों आत्मनिर्भर हैं और अपना भला-बुरा समझते हैं तो उन्हें आशीर्वाद देकर विदा करने में ही सबका सुख है।
समाज की जिम्मेदारी स्पष्ट है, उसे प्रेमियों के रिश्तों को सेलिब्रेट करना ही होगा और प्रेम को आदर के भाव से देखना ही होगा। हम मनुष्य प्रेम करते हैं और हम मनुष्य ही समाज के रूप में उसका विरोध करते हैं। यह विरोधाभास क्यों? एक ही जीवन है और वह भी क्षणभंगुर! ऐसे में अपनी खुशी से जीने का अधिकार प्रत्येक मनुष्य को है। सबको अपना जीवन साथी चुनने का अधिकार है। हमें उनकी प्रसन्नता में, प्रसन्न होना चाहिए। लेकिन देखिए जरा, फिल्मी कलाकारों, नेताओं या आम आदमी के निजी जीवन पर प्रतिक्रिया करने वालों का स्तर भी अब कैसे रसातल तक जा पहुँचा है।
क्या ऐसा नहीं लगता कि ‘चक्कर चल रहा’, ‘लफड़ा’, ‘टांका भिड़ा है’ जैसे विश्लेषणों से हमने सृष्टि के सबसे खूबसूरत भाव को अत्यधिक घिनौना और निकृष्ट मान लिया है! प्रेम की जब भी बात हो, तब क्या इस विषय पर थोड़ी मानवीय संवेदना, मृदुता और सरलता से ठहरकर नहीं कहा जा सकता? इसे सहजता से समझा और स्वीकारा नहीं जा सकता?