सत्यांशु सिंह व अर्केश अजय की स्क्रीन राइटिंग, तान्या छाबड़िया की टाइट एडिटिंग ने पूर्व तिहाड़ जेलर सुनील गुप्ता की आपबीती और सुनेत्रा चौधरी की लिखी किताब “ब्लैक वारंट” जो कि रोली बुक्स द्वारा 2019 में प्रकाशित हुई थी, को एक दम तो नहीं पर हां काफ़ी हद तक पर्दे पर उतार कर रख दिया है।
सनद रहे फिल्म मेकिंग एक ज्वाइंट एफर्ट वाला उपक्रम है यहां किसी एक डिपार्टमेंट की चूक या नासमझी पूरे प्रोडक्ट पर भारी पड़ती है पर शो-रनर विक्रमादित्य मोटवानी इस बात के लिए तारीफ़ के हकदार है कि उन्होंने पूरी की पूरी टीम से बेहतरीन काम लिया है। विक्रम को हम सेक्रेड गेम्स, उड़ान, लुटेरा, जुबली, या हालिया रिलीज CTRL आदि फिल्मोग्राफी से जानते हैं और उनके दर्शक विश्वास करते है कि उनके सानिध्य में बना प्रोजेक्ट उम्दा ही होगा। सीरीज में रंग संयोजन का प्रभाव बेहद बेहतरीन बन पड़ा है, जिस पर बैकग्राउंड स्कोर ने चार चांद लगा दिए हैं।
यूं कि जबसे हमने फिल्में देखना शुरू किया है हम सब किसी ना किसी में फिल्म में हम किरदारों या कहानी की मार्फ़त जेल के दृश्यों से रुबरु होते रहे हैं। जहां भले ही वो 1932 की, I Am a Fugitive From a Chain Gang हो या Escape from Alcatraz या The Shawshank Redemption या भारतीय पट्टी की कर्मा या सजा-ए-कालपानी या मधुर भंडारकर कृत “जेल” या हो डेविड फिंच की mindhunter हमने विभिन्न तरीकों से जेल में रहते किरदारों को देखा है, उनके जीवन के अनुभवों को समझा और जेल के जीवन के बारे में हमारी समझ को परिपक्व किया है परन्तु सुनील गुप्ता के किरदार के साथ यात्रा करते हुए आपको जेल भी कथ्य न लगकर खुद एक किरदार लगने लगती है जो अपनी कथा खुद सुना रही है।
इसी सबके कुल प्रभाव को उत्पन्न करने के विषय में इस सीरीज ने हद दर्जे का मकाम तो हासिल किया है मुझे इश्क़ के मकाम याद आने लगते है:-
दिलकशीं (Attraction), उन्स (Attachment), मोहब्बत (Love), अकीदत (Trust), इबादत (Worship), जुनून (Madness), मौत (Death)
हम फिल्म वालों के लिए ये सब इश्क ही तो है। पर जिस प्रकार इश्क के सात मकाम होते हैं, अभी ब्लैक वारंट का इश्क रास्ते में है मुकाम तक नहीं पहुंचता है। उसी प्रकार “ब्लैक वारंट” सात एपिसोड्स आपको साथ अलग अलग कथाकर्मों से रुबरु करवाते हुए कथा की अलग अलग ऊंचाई तक ले जाते हैं पर गरम करके ठंडा छोड़ते हुए।
जेल में गैंगवार, अनुचित व्यापार को बिना किसी लाग लपेट व छलविहीन बहादुरी के साथ दिखाया गया है, जैसे जैसे कहानी एपिसोड्स के साथ आगे बढ़ती है आप पात्रों के व्यवहार में वो बसावट और स्थायित्व महसूस करना शुरू कर देतेहैं। जैसे खुद कहानी के प्रणेता सुनील गुप्ता की भाव भंगिमाएं और चेहरे की दृढ़ता में हर गुजरते समय के साथ परिवर्तन निर्देशक के रिसर्च वर्क और मानव व्यवहार की समझ को दर्शातीहैं।
भले ही सीरीज की शूटिंग भोपाल और मुंबई में हुई हो पर दर्शक को एक पल भी दिल्ली दूर नहीं लगती। बीच-बीच में डायरेक्टर ने अपनी कहानी को उस दौर के साथ कदमताल करते दिखाने के लिए दिल्ली की पुरानी वीडियो की स्टॉक फुटेजेस भी इस्तेमाल में ली है। एपिसोड्स की कलरिंग फ्लैट ऑरेंज टील हो या autumn/winter ऑरेंज टील आपको 1980 के टेक्नीकलर की याद दिलाते हुए रियलिस्टिक लगती है। अधिकतर डायलॉग्स एकदम सधे और सटीक है जहां कोई भी चीज थोपी हुई नहीं लगती, केवल कुछ एक जगहों को छोड़कर जहां लेखक उस 80’s के दौर को त्याग कुछ ज्यादा ही मिलेनियल हो गए है।
हालांकि मैं 2019 में ही “Black Warrant : Confessions Of A Tihar Jailer” या सुनेत्रा की लिखी हुई एक और किताब “Behind Bars” उनके प्रथम प्रकाशन वर्ष में ही पढ़ चुका हूं तो मुझे महसूस होता है कि शो मेकर्स ने उन ब्रीफिंग्स को ठीक ठीक विजुलाइजेशन प्रदान किए है। भले ही गलतियां गिनाई जा सकती है पर भर्त्सना नहीं की जा सकती। क्योंकि अभी भी मेकर्स ने गेंद अपने पाले में ही दबाई हुई है।
सभी एक्टर्स ने अपनी अपनी कैपिसिटी में बेहतरीन काम किया है जिस से मुकेश छाबड़ा के गुट द्वारा की गई कास्टिंग एक दम परफेक्ट महसूस होती है, इतने कि आप किरदार निभाते हुए एक्टर्स की असली पहचान, नाम और पुराना काम भूल जाते हैं और ऐसा लगता है मानो तिहाड़ खुद आपको जेलर सुनील गुप्ता, विपिन दहिया और डीसीपी तोमर, शिवराज सिंह मंगत,सैनी, SP मुखोपाध्याय, या चार्ल्स शोभराज, रंगा-बिल्ला, या मकबूल बट के किरदारों से मिलवा रही है।
हर एपिसोड की कहानी और किरदारों की ज्यादा जानकारी सीरीज का मजा खराब कर सकती है इस वजह से Netflix पर release हुई इस सीरीज को आप खुद परखें और आंकलन करें। मेरी नजर में ये सिनेमा को समर्पित एक से ज्यादा बार देखी जाने वाली रचना है जहां गलतियों की गुंजाइश बरकरार रहती है पर जिसका हर डिपार्टमेंट फिल्म स्कूल का एक एक lesson है। मेरी तरफ से सीरीज को मिलते है पांच में से साढ़े तीन स्टार। जाइए और पहली फुर्सत में ही निपटा लीजिए।
नीचे इस लाइन को भी पढ़ रहे है?
आइए अगर आप आगे पढ़ने के शौकीन है तो फिर एपिसोड दर एपिसोड विमर्श कर लेते है।
*”सांप”* – एपिसोड 1 (ब्लैक वारंट) कथा के किरदारों को सेट करने में समय लेता है और जेल के रूटीन वर्क, स्थान परिचय, और माहौल को जमाते छोटी छोटी बातों का जेल की दुनिया में गहरा औचित्य समझाता है उदाहरणतः जेल में सांप का पकड़ा जाना 15 दिन की छुट्टी का पर्याय माना जाता है। जेल का सेटअप और कलरिंग दर्शक पर प्रभाव जमाने में कामयाब होता है। आप जेल की बारीकियां और कारीगरियाँ सीखतेहैं और इस एपिसोड के अंत तक आते आते सीरीज से जुड़ जातेहैं। बाकी सांप का औचित्य पूरी सीरीज पर फन बनकर छा जाएगा, कैसे इसके लिए आपको आगे के एपिसोड्स देखने पड़ेंगे।
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*”फांसी कोठी”* – एपिसोड 2 (ब्लैक वारंट) जेल में फांसी की प्रक्रिया के के दो तरफा गहरे दबाव को जाहिर करती है, सदा खिलंदड़ रहने वाले विपिन दहिया हो या जेलर सुनील या रंगा बिल्ला सभी अपनी मानसिक दशा को फांसी लगने और सजा याफ़्ता को फांसी की पटरी तक ले जाने में जिस प्रकार का भाव और भंगिमाएं दर्शक को प्रस्तुत करते है को देखना अद्वितीय अनुभव है व इन सब दृश्यों पर दिए गए बैकग्राउंड स्कोर ने दृश्यों का प्रभाव चौगुना कर दिया है। मै यहां एक्टर्स के नाम लिख सकता था पर ये एक्टर्स की मेहनत की तारीफ है कि वो आपको किरदारों के रूप में याद हो जाते है। और एपिसोड के लेखन की बारीकी आपको अगले एपिसोड के लिए बेकरार कर देती है। दहिया के स्वभाव का मेंशन यहां खासतौर पर इसलिए बनता है क्योंकि पहली बार किसी को फांसी लगते देखने के उसके चेहरे पर जो भाव है वो आपको psychological रूप से दहला देते है। वो कहते है ना असली अभिनय वो है जब अभिनय अभिनय ना लगे। बस, इस सीन में उन्होंने ऐसा कुछ खास नहीं किया है पर केवल वो किया है वो सबसे मुश्किल है और वो है किसी प्रक्रिया से पहली बार गुजरने पर अपने को सामान्य बनाए रखने का प्रयास। उनके चेहरे के वो एहसास देखने लायक है और एक्टिंग तारीफ के काबिल।
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*”धाकड़”* – एपिसोड 3 (ब्लैक वारंट) जेल में सरवाइव करना है तो माचो बनना पड़ेगा, जीवन में आगे बढ़ना है तो धाकड़ को और ज्यादा सुपर धाकड़ बनना पड़ेगा और स्क्रीनप्ले में धाकड़ बनने के लिए और सीरीज को धाकड़ बनाने के लिए और भी सब- प्लॉट्स जोड़ने पड़ेंगे, किरदार जोड़ने पड़ेंगे तो भरी जेल और जेल परिसर में घूमते हजारों नछतर मुर्दा चेहरों में कोई तो ऐसा होना चाहिए ना जो इन धाकड़ों की मुर्दा जिंदगी में धड़कन भर दे और फिल्मों में ये काम कामदेव को सौंपा जाता है। कामदेव भी ऐसा डंक मारता है कि पहले उसके चपेट दहिया आता है और उसके उपसंहार में JNU के स्टूडेंट्स का revolt रिवेंज, ज्यादा बताने से मजा खराब हो जाएगा जाकर देखिए इस धाकड़ों की धाकड़गिरी को एपिसोड 3 में।
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*”टीम प्लेयर”* – एपिसोड 4 (ब्लैक वारंट) हर पल तो जीवन भी एक सा नहीं रहता, कहानियों में घटनाओं के उतार चढ़ाव ही कहानियों को आगे बढ़ाते है भले ही वो जीवन में घटी हो या फिल्मों में। धाकड़ कब तक धाकड़ रहते इश्क और मुश्क छुपाए नहीं छुपते पर कास्टिंग की तारीफ और निर्देशक की समझ कहूं या रिसर्च का कमाल की एपिसोड 4 का कालखंड है 1983 वो साल जिस साल इंडिया पहला क्रिकेट का वर्ल्ड कप जीता, जिस साल भारतीय सिनेमा को एक नया चेहरा मिला “मीनाक्षी शेषाद्रि” और सुनील को मिली मीनाक्षी जैसी नक्शे वाली गर्लफ्रेंड या फ़ोन-ए- फ्रेंड कहूं तो ज्यादा बेहतर होगा। और मीनाक्षी शेषाद्रि वो हीरोइन थी जो आते ही भारतीय पर्दे पर दर्शकों के दिलों की धड़कन बन गई थी। और जिस लड़की की कास्टिंग सुनील गुप्ता के अगेंस्ट की गई है उसका गेटअप मीनाक्षी शेषाद्रि के करीब है अब ये संजोग है या रिसर्च, फिलहाल मै इसको निर्देशक का फैसला मानता हूं और सिनेमा लवर्स के लिए एक विजुअल ट्रीट तो जब तक मिले एंजॉय कीजिए, पर अफसोस मुखोपाध्याय तिहाड़ ज्यादा एंजॉय नहीं कर पाते क्योंकि तबादला जो करवा रहे है। पर क्यों? क्या जेल इतनी बुरी जगह है? अगर नहीं तो सुनील गुप्ता यानी हमारे नायक इस कहानी के सूत्रधार का परिवार क्यों ऐसा महसूस करता है जैसे बेटा नौकरी ना करके कोई अपराध कर रहा हो, जिसे समाज के सामने बयान करने में शर्म आती हो।
“अंकल जी, तिहाड़ में जेलर हूं मैं। हम जेलरों के घरवाले हैं ना, खुल के बोल नहीं पाते है कि हम क्या काम करतेहैं। क्या है ना समाज के लिए जेल कचरे की पेटी जैसा है और उस पेटी पे ढक्कन है हम! तो लोगों को हमसे भी बू आती है, लेकिन आप मुझसे पूछिए मैं बताता हूं।”
प्लॉट्स-सब प्लॉट्स अच्छे बन पड़े है और कहानी को गति प्रदान करते है। अब इस एपिसोड के खत्म होते होते आप पूरी तरह से सीरीज की गिरफ्त में हैं। हो सकता है कुछ मिनट के लिए थकान का अनुभव भी हुआ हो पर उसे ये कहकर भी तो माफ किया जा सकता है कि “सब एपिसोड्स होत न एक समाना”।
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*”जेल का खाना”* – एपिसोड 5 (ब्लैक वारंट) बिना ज्यादा कहानी खोले इतना कहना बनता है कि अब कहानी के सुनील के चरित्र के मैच्योरिटी और कुछ कर दिखाने की ललक दिखाई देनी शुरू होती है और वो नजदीक से सिस्टम की कमियां और उनकी वजह से बंद बेकसूरों के बारे में सोचना शुरू करता है। यहां भी रिसर्च टीम की दाद देनी पड़ेगी कि उन्होंने उस दौर में होने वाली छोटी से छोटी सीन प्रॉपर्टी को ध्यान दिया है जैसे कैमलिन की पेंसिल, गोल्ड स्पॉट की बोतलें, रेडियो सेट, जालियों का कलर, ड्रेस डिजाइन दिखाया है पर कई जगह चूक भी हुई है जहां से की प्रॉपर्टी दौर के हिसाब से नहीं है मसलन, बेबी के घर में लगे बिजली बोर्ड के स्विच, रेस्टोरेंट में स्टील का रोटीदान आदि और फिल्मांकन के नजरिए से दूसरी फांसी करतार और उजागर के दृश्यों का हल्का फिल्मांकन। पर ये सब खेल का हिस्सा है जैसे हर दिन एक सा नहीं हो सकता हर एपिसोड भी चुस्त गति से नहीं बढ़ सकता। कहीं ना कहीं सीरीज का ठहराव लेना बनता है जिसमें सुनील का जेल और कैदियों के परिप्रेक्ष्य से वेलफेयर एफर्ट्स का सेटअप जमाया गया है। पर अन्य किरदारों के अभिनय के गिरावट महसूस की गई है जैसे कि बस शूट को निपटा देना भर चाह रहे हो। अंततः जब सुनील चारों तरफ से परिस्थिति वश मजबूर होकर अपने पाप धोने के लिए खुद जेल का खाना खाने बैठता है तो उसके जेहन का गिल्ट उभर कर आता है इस प्रकार अंत भला तो सब भला, इसी सिंबॉलिज्म की वजह से इस एपिसोड के कथानक को ढेरों कमी होते हुए भी जायज माना जा सकता है।
कई बार जब कुशल पतंगबाज जूनियर पतंगबाजों को अपनी पतंग थोड़ी देर के लिए थमा कर रेस्ट लेता है तो स्थिर कुशल हाथों से उड़ती पतंग भी कुछ देर के लिए हिचकोले तो खा ही लेती है। बस वहीं हिचकोले निर्देशन में दिखाई दिए है। खैर!
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*”कंबल”* – एपिसोड 6 (ब्लैक वारंट) अपने नाम की तरह ही अपने गिरह में कई राज़ छिपाए ये एपिसोड एक बार फिर तिहाड़ में चल रही पात्रों की मनोवैज्ञानिक व्यथा को उघाड़ते हुए तिहाड़ में घट रही धांधलियों पर कंबल डालने का काम भी करता है पर सबसे कमजोर दृश्यांकन के साथ।
तिहाड़ जहां 1984 तक सब कुछ इतना फ़ैला हुआ था कि लेखक और निर्देशक दोनों खुद भी इस बात के कन्फ्यूज हो गये कि शूट करते वक्त मशीन के बुने स्वेटर कोरियन क्रोशिया स्वेटर का स्टाइल और फूड फीडिंग ट्यूब का साइज उसे याद नहीं रहा। साथ ही ये याद नहीं रहा कि हरियाणवी पात्र डायलॉग बरसाते वक्त कब राजस्थानी एक्सेंट पकड़ ले रहा है कब वेस्टर्न यूपी का एक्सेंट पकड़ ले रहा है कब वो सिर्फ एक सनकी हरियाणवी जेल अधिकारी “दहिया” से बेतुके मिलेनियल संवाद पर उतर आ रहा है लेखकों को याद रखना चाहिए कि खड़ी बोली के प्रभाव और प्रवाह में “न” को “ण” बोल देना और जीजा साले के गुलाब जामुन वितरण प्रसंग पर हरियाणवी भाषा और सहजता नहीं टिकी है। उस दौर की भाषा सहजता के लिए उन्हें कम से कम उस दौर की बहुचर्चित हरियाणवी फिल्म “चंद्रावल” ही देख लेनी चाहिए थी।
साथ ही ये भी की 1976 में ही तिहाड़ के 1 किलोमीटर के रेडियस में उस समय 55 बिस्तर वाला दीन दयाल उपाध्याय अस्पताल खुल चुका था जहां तब भी मरीज ले जाए जाते थे, और आज भी ले जाए जाते है, जबकि राम मनोहर लोहिया सेंट्रल दिल्ली में पड़ता है जो कि तिहाड़ से काफी दूर है। बाकी सब कल्पनाओं की स्वतंत्रता के झोंक में स्वीकार्य है कि किसी सरकारी कारणवश ऐसा होता भी होगा। पर सैनी साहब की फांसी के बाद उस जा चुके व्यक्ति के मन की पीड़ा चेहरे पर दिखाने में निर्देशक ने सिर्फ फैंटेसी से काम चलाया है। हम यहां लाश का जो प्रारूप देखते है उसमें भयंकर टेक्निकल मिस्टेक है। गर्दन की हड्डी जब टूटती है तो गर्दन 4 इंच लम्बी निकल आती है होंठ तनाव छोड़ देते है फांसी लटके इंसान की मुर्दा आंखों के कंचे हो या जीभ सब रक्तहीन सफेद हो जाता है पर जिस कलर टोन में ये सब दर्शकों को नजर आता है शायद ही प्रभाव छोड़े क्योंकि और भी बहुत सी डीटेल्स होती है जो यहां बताना ज्यादा ठीक नहीं क्योंकि ये विषय ये बताने पर केंद्रित नहीं है कि मैने असल में कितने लोगों को असल फंदे से लटका देखा है या डायरेक्ट ने कितनों को। पर फिर भी डायरेक्टर्स को ऐसे संवेदी दृश्यों को या तो सांकेतिक रूप से दर्शाना चाहिए या फिर टोटल रिसर्च करके। एक आम दर्शक को भी इतना डिटेल समझने का हक तो है कि जब खून शरीर में दौड़ना बंद कर देता है तो जिस्म कैसा पीला-सफ़ेद पड़ जाता है और जीभ भी, शरीर का ढीलापन भी।
खैर ये एपिसोड कहानी को एक तल और गहराई तो प्रदान करता है पर दृश्यात्मक रूप से कमजोर पड़ जाता है।
मकबूल भट के किरदार को सुनील गुप्ता जितना जान पाए निर्देशक ने शायद विवाद से बचने के लिए उस से कम फिल्माना ही उचित समझा हो। सुनील गुप्ता एक सुलझे हुए समझदार इंसान का किरदार है जो धीरे धीरे सारी कुटिल चालें सीख भांप कर भी अपना किरदार सहेजे हुए है। जहान कपूर ने करवट करवट इस किरदार को ऐसा निभाया है कि आपको पता ही नहीं चलता कि ये किरदार देखते देखते कब इतना मैच्योर हो गया और आपको आंखों में चुभा भी नहीं। बाकी सब उनके अभिनय कौशल के सामने बौने पड़ने लगते है। सिवाय मकबूल भट के किरदार के, कुछ एक्टर अपनी प्रेजेंस भर से फ्रेम में रंग भर देते है। उनकी ठंडी चीरती चीखती आंखें कैमरे की मार्फ़त दर्शकों की आंख में झांक कर मूक संवाद करने में कामयाब होती है। उसकी चुप्पी उस किरदार का USP है। जेल के झगड़े और झगड़ों की सियासत और बरकत के बीच किरदारों में पनपती उथली सतही बॉन्डिंग आपको फील होती है पर पेट नहीं भर पाती।
अगला episode यानी episode 7 इस सीरीज का आखिरी एपिसोड है पर मुकाम अभी बहुतेरे बाकी है, इसी उम्मीद में की कुशल जादूगर अपनी अंतिम ट्रिक हमेशा बचा कर रखते है
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*”डबल उम्रकैद”* – एपिसोड 7 (ब्लैक वारंट)
“बहुत पहले सांप मारा था हमारे एक लड़के ने, अब वो मर चुका है।”
इस एपिसोड की बात किसी सीधे तरीके से नहीं हो सकती। इसको या तो सिनेमा के “डॉली जूम” या “वर्टिगो इफेक्ट” की सांकेतिक भाषा से समझ सकते है या माइथोलॉजी के “ओरोबोरोस” या “इनफिनिटी स्नेक” के संकेत चिन्ह से। क्योंकि ये एपिसोड अपने नाम के अनुसार एक प्रकार की “डबल उम्रकैद” की बात करता है। यानी जब तक आप इस ‘इनफिनिटी लूप’ यानी इस ‘तिहाड़’ का हिस्सा रहेंगे तब तक कैदी तो आते जाते रहेंगे पर वहां का परमानेंट स्टॉफ जैसे कोई निराशावादी, नकारात्मक जीवन भोगने को इस कदर मजबूर है कि रोज शाम आते ही वे अगले दिन के सूरज उगने की उम्मीद छोड़ देते हों।
पर फिर अचानक आसमान में सुबह की पीलक फूटने लगती है और ये अंतहीन लगने वाला लूप टूट कर एक लीनियर रेखा में बह उठता है। क्या पता ये भ्रम ही हो पर उस लकीर पर सभी किरदार अपने अभिनय व जीवन क्षमताओं की ऊंचाइयों को छूते है। भले ही वो मंगत का किरदार हो तोमर का किरदार हो या दहिया या सुनील या दुग्गल व अन्य सभी।और जिस किरदार का ज्यादा जिक्र जानबूझ कर अभी तक नहीं किया गया यानी “चार्ल्स शोभराज” वो भी अपनी क्षमता के दायरों से परे जाकर अपनी कुटिल योजनाओं का सहज रूप से क्रियान्वयन करने में जुट जाता है, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार जेल प्रशासन अपनी सुधार योजनाओं को।
इन दो अलग अलग छोरों के विपरीत दिशा में बढ़ने से ये इनफिनिटी स्नेक एक लीनियर रेखा लगने लगती है, और तब हमें दिखाई देता है बहुप्रतीक्षित, बहुचर्चित, सुख-सुकून का प्रतीक यानि “तिहाड़ का मोर”।
6 एपिसोड तक चलती संघर्ष गाथा में एक अनूठी शांति का अनुभव!
और तब दर्शक जान पाते हैं कि ब्लैक वारंट साइन करने के बाद जज भी अपनी कलम की निब इस उम्मीद में इसलिए तोड़ देता है ताकि ‘जुर्म-सजा-जुर्म-सजा’ के अंधकार लूप का ये सिलसिला ये आरोबोरोस ये इनफिनिटी लूप कभी तो खत्म हो और जीवन एक सीधी रेखा के समान उपजाऊ उत्पादकता सा बह निकले।
सात एपिसोड की इस रस्साकशी और संघर्षमय सीरीज में अब हर तरफ शांति और खुशी है ऐसे मौके पर मिठाई होना तो बनता है….
है ना दोस्तों! पर सरकारी खर्चे पर कैसे? चलिए B class वालों में से किसी समर्थ को ढूंढते है। मिला? मिला? मिला क्या? जी हां, B class वाले चार्ल्स शोभराज ने लड्डू मंगवाए हैं। एक तेज उत्साहपूर्ण सिंफनी, गहरी नींद, क्योंकि केवल नींद Sorry गहरी नींद ही सभी कुरूप वास्तविकताओं की गहन थकान से इंसान को दूर ले जाती है। है ना? मौत का क्या है, जब तक जेल है उसका खेल तो बदस्तूर चलता ही रहेगा, अभी तो इंदिरा के हत्यारे बाकी है, अफ़ज़ल बाकी है, अन्ना हजारे बाकी है पर इस सीजन केवल इतना ही।
और यार अंत में; सुनील गुप्ता की फैमिली के एंड कास्टिंग क्रेडिट्स में नीलू डोगरा को सुनील गुप्ता के मामा जी और जगरूप जीवन जी को बुआजी बना दिया है। कम से कम ऐसा तो नहीं करना था भाई! ले देकर कैरेक्टर एक्टर्स को एक क्रेडिट का सुख ही तो मिलता है।
दूसरे सीजन की व्यापारिक चाह में डायरेक्टर ने अभी बहुत कुछ बचा कर रखा है इसी वजह से मैने शुरुआत में इसे बेतरतीब इश्क के मुकाम कहा था जहां इश्क केवल “अकीदत” तक पहुंचता है मुकाम तक नहीं। फिर मिलेंगे किसी और रुख, किसी और जानिब किसी और फिल्म की चर्चा में तब तक:
नमस्ते!