बैंगलोर में हुई आत्महत्या ने सोशल मीडिया में जो बहस छेड़ी है वह स्त्रियों के #Me Too आंदोलन की तमाम स्मृतियों को सामने ले आई है। अंतर यही कि इस बार पुरुष अपना दर्द अभिव्यक्त कर पा रहे हैं या यूँ समझिए कि उन्हें अपनी ‘मन की बात’ कहने का अवसर मिल गया है। पर क्या उनके मन की बात जानने का यह सही समय है? अब जबकि चर्चा न्याय-अन्याय, सत्य-असत्य, उचित-अनुचित की होनी चाहिए थी, तब इन बुद्धिजीवियों ने स्त्री-पुरुष विमर्श छेड़ रखा है। इस बहाने कइयों की खुन्नस भी सामने आ रही है। लग रहा, जैसे स्त्री जाति को कोसने का अवसर कहीं इनसे चूक न जाए!
होना यह चाहिए कि सर्वप्रथम तो सामान्यीकरण से बचा जाए और दूसरा एकपक्षीय निर्णय सुनाने से। न तो दोनों पक्षों के सारे तथ्य सामने हैं और न ही हमने उस स्थिति को जिया है। इसलिए त्वरित टिप्पणी देने वाले हम होते कौन हैं? प्रत्येक व्यक्ति का हर घटना के प्रति पृथक दृष्टिकोण होता है, परिस्थितियों से जूझने का और जीवन जीने का शिष्टाचार भी सभी में एक सा नहीं रहता। कुछ अत्यधिक संवेदनशील होते हैं और कुछ को किसी भी बात से कोई अंतर ही नहीं पड़ता! किसे क्या करना है और वह कब, कैसी प्रतिक्रिया देगा, यह व्यक्ति विशेष पर निर्भर करता है।
समाज की एक इकाई के रूप में हमारा यह उत्तरदायित्व है कि हम हमारे सामाजिक वातावरण को जीने लायक बनाएं, ऐसा बनाएं कि प्रत्येक व्यक्ति यहाँ चैन की साँस ले सके, परेशानी के समय वह हमारे बीच आने से डरे नहीं! उसे यह भरोसा हो कि वह जब अपनी बात कहेगा तो कोई उसका उपहास नहीं करेगा। यह नहीं कि स्त्री के प्रति संवेदना अधिक उफान मारें और पुरुष की कोई परवाह ही न हो। जब कोई हादसा होता है तो हमारा विमर्श ‘मानव’ के लिए हो, ‘सजीव’ के लिए हो, सही-गलत के लिए हो और यह लिंग आधारित तो कतई न हो।
मृत्यु वरण करने वाले की हताशा बहुत कुछ कहती है। जब कोई यह कहे कि “यदि सिस्टम से हार जाऊँ तो मेरी अस्थियों को गटर में बहा देना”, तो हमारे समूचे न्याय-तंत्र का सिर शर्म से झुक जाना चाहिए कि वह कानून और व्यवस्था जो व्यक्ति को दिलासा देने, उसे हिम्मत बंधाने और उसका सहारा बनने के लिए निर्मित किये गए थे आज उन्हीं पर से आम नागरिकों का भरोसा कैसे उठ चुका है! सब जानते हैं कि न्यायपालिका की चौखट पर एड़ियाँ घिसते-घिसते मौत आ जाएगी पर न्याय फिर भी न मिलेगा। वहाँ व्यक्ति एक तय की गई तारीख पर आता है, अगली तारीख लेने के लिए। कौन, कैसे, कब आ रहा है इससे किसी को क्या ही लेना-देना! दुर्भाग्य से हमारी लचर और जीर्ण-शीर्ण न्याय व्यवस्था की यही विकृत तस्वीर है। उस पर भ्रष्टाचार की दीमक ने आम आदमी की आत्मा तक नोच रखी है। लेकिन फिर भी इसके सामने हाथ जोड़ने के अतिरिक्त और कोई विकल्प भी नहीं!
इस बात की स्वीकारोक्ति में कोई हर्ज नहीं कि कानून, स्त्रियों के पक्ष में अधिक दिखाई देते हैं और कई बार इसकी आड़ में स्त्रियाँ भी लाभ ले सकती हैं लेकिन बात यह भी तो है कि हमारे समाज में वे लंबे समय तक न केवल उपेक्षित रहीं बल्कि उनके प्रति अपराध ने वीभत्सता की सारी सीमाएं लांघ ली हैं। उस पर अपराधियों के हौसले बुलंद हैं और उन्हें ‘सिस्टम’ का भय भी नहीं! स्त्रियों का अपना संघर्ष, अपनी वेदना है इसलिए उनसे तुलना कर इस घटना की निंदा करना तर्कसंगत नहीं लगता। हाँ, पुरुषों की सामाजिक अनुकूलता पर अवश्य बात की जा सकती है और उसमें बदलाव लाने के प्रयास भी होने चाहिए। क्योंकि भारतीय समाज में पुरुष पर बहुत बोझ है और इससे वह बच भी नहीं पाता। उसे अच्छी नौकरी लेनी है, अच्छा घर बनाना है। अच्छा बेटा, अच्छा पति, अच्छा पिता बन सभी की उम्मीदों पर खरा उतरना है। सुपरमैन की तरह पलक झपकते ही घर-गृहस्थी के सारे काम भी निबटाने है। वह कभी कह भी नहीं सकता कि “मैं थक गया हूँ/ आज बाजार जाने का मन नहीं है/ यार तुम खुद कर लो न!” दिन-रात पिसते रहने के बावजूद भी वह परिवार की अपेक्षा के अनुकूल नहीं बन पाता और लगभग हर सदस्य को उससे कोई न कोई शिकायत रह ही जाती है।
अब इस वातावरण में वह अपना दुख, अपनी परेशानी किससे साझा करे? कौन उसे सुनने को बैठा है? सबके लिए तो वह एक पैसे कमाने की मशीन भर है। “मर्द को दर्द नहीं होता”, उसे इसी बात का अहसास कराने को कहा जाता होगा कि वह अपने दर्द की नुमाइश न करने लगे। इसीलिए प्रायः पुरुष कुछ नहीं कहते। कुछ ने अपने आप को समाज के मानदंडों के साँचे में ढाल लिया है और इसका हिस्सा बन गए हैं। उन्हें दृढ़ निश्चयी, आत्म विश्वासी और कभी-कभी कठोर भी मान लिया जाता है क्योंकि अपने हृदय के कोमल भावों, संवेदनाओं और जीवन की व्यथा को वे कभी, किसी से साझा न कर सके। वे जो संस्कृति की इस सभ्यता में ढल न सके, जिनसे दर्द बर्दाश्त न हुआ, उन्होंने चुपचाप ‘अलविदा’ कह दिया। और इस मनोवृत्ति का सबसे प्रमुख कारण है, हमारे द्वारा उन पर पूर्व निर्धारित परंपराओं, नियमों और पुरुष होने के अहंकार का ठप्पा लगा देना। उनकी परवरिश ही ऐसे होती है कि “तुमको किसी भी हाल में रोना नहीं है, तुम तो इस दुनिया में परिवार का पेट पालने के लिए ही आए हो, तुम्हें सबके दुखड़े सुनने हैं पर अपना नहीं सुना सकते क्योंकि तुम तो समस्या का समाधान हो, तुम्हें क्या ही समस्या हो सकती है! पुरुष होकर रोते हो? क्या लड़कियों की तरह….!” अब ऐसे समाज में अपनी भावनाओं को किसके सामने उड़ेले पुरुष? वह टूटता है, बिखरता है और स्वयं को समेटने की कोशिश भी करता है, जब कुछ नहीं सूझता तब वह कहीं दूर भाग जाना चाहता है। इतनी दूर जहाँ कोई आवाज उस तक न पहुँचे।
पर क्या ‘आत्महत्या’ जीवन की समस्याओं का समाधान है या उससे भागने का एकमात्र विकल्प? क्या कोई समस्या, जीवन से भी बड़ी हो सकती है? ‘सॉरी’ बोलकर सबसे विदाई लेकर हमेशा के लिए चले जाना निस्संदेह अत्यंत पीड़ादायक रहता होगा और यह निर्णय भी व्यक्ति हारकर ही लेता होगा लेकिन उस पीड़ा का क्या जो उसके जाने के बाद उम्रभर के लिए उसके माता-पिता को जीने लायक नहीं छोड़ती! जिनके आँसू ही अब उनके साथी हैं, जो प्रतिदिन सोचते होंगे कि काश! यह क्रूर निर्णय लेने से पहले उनके बेटे ने एक बार उनसे बात कर ली होती! उनके बारे में सोचा होता। उन निर्दोष बच्चों पर क्या गुजरती होगी, जिन्हें अनाथ छोड़ एक पिता ने मृत्यु को चुन लिया! यह ‘काश’ उनके दिल की दीवारों पर एक सीलन की तरह नहीं चिपका रह जाएगा?
समझ नहीं आता कि आत्महत्या की प्रवृत्ति बढ़ती क्यों जा रही है! क्या यह इतना आसान है? उस जिजीविषा का क्या, जहाँ अधूरा शरीर लिए भी लोग सहर्ष जी रहे, फुटपाथ पर सोने वालों के चेहरे भी दिन में एकाध बार खिल उठते हैं, गंभीर बीमारियों से लड़ते हुए भी व्यक्ति का जीवन से मोह भंग नहीं होता! इनसे कितनी हिम्मत मिलती है और फिर सारा खेल मन का ही तो है। हमें हारना नहीं है! जब जीवन मिला है तो पूरा खेलकर जाना है, बीच में अधूरा नहीं छोड़ना चाहिए। दुनिया वाले तो कष्ट देंगे ही, हमें उन अपनों का चेहरा देख जी लेना चाहिए जिनकी पूरी दुनिया हम पर टिकी है। जियेंगे, तो दस बार हारने के बाद एक दिन जीतेंगे भी जरूर! सबका अच्छा समय आता है, हमारा भी आएगा… । बस, यही विश्वास बनाए रखना है।