बालमन की आशा और विश्वास से भरी हुई अंतर्मन की बेचैनी अर्थात छटपटाहट का साक्षात्कार, समाज की विरोधाभासी स्थितियों के मध्य धीरे – धीरे धुंधला पड़ता जा रहा है जिसमें अभिभावकों की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं से जुड़ी हुई अधिकतम व्यस्तता के आगे, अपने अस्तित्व की भीख मांगते बच्चों की दीन – हीन दशा और उससे उत्पन्न हुई दिशा आज सर्व मानव आत्माओं के समक्ष सबसे जीवंत प्रमाण के रूप में बनी हुई है। सब कुछ जानने एवं समझने की आपाधापी और होड़ से स्वयं को अलग – थलग पड़ता देखकर, उपेक्षा की पीड़ा अर्थात हृदय विक्षोभ से भर उठता है जिसकी किलकारियां केवल बाल्यावस्था की उपस्थिति का प्रतीक मात्र बनकर रह गई हैं।
‘उजड़ते बचपन और बिखरते जीवन’ के मध्य बालमन के आत्मीय प्रतिनिधित्व में अंतरध्वनि का शंखनाद आज वैचारिक क्रांति के रूप में प्रज्वलित होने लगा है जिसे संपूर्ण सामाजिक परिदृश्य ने – ‘बचपन बचाओ आंदोलन …’ के तहत थाम रखा है और पुनर्जीवन की आकांक्षाओं को साकार करने में यथाशक्ति के साथ अनवरत संलग्न हैं। आज ‘बाल ह्रदय की गहराइयों में छिपी हुई समाज की भावी श्रेष्ठतम कल्पनाएं अपने मुखर स्वरूप में यह अभिव्यक्त कर रही हैं कि –’अब धरती पर बड़े – बुजुर्गों का स्वर्ग अवतरित हो जाना चाहिए क्योंकि वहां कम से कम श्रेष्ठ अभिभावकों की प्राप्ति … ’ सुनिश्चित रूप से संभव हो सकेगी।
मानव जीवन की विराटता के अंतर्गत अबोध हृदय स्वयं की स्वतंत्रता का मौलिक विचार से युक्त प्रतिपादन – ‘सजीवता के प्रति बालमन की उन्मुक्त अवधारणा को संपूर्ण रूप से धारण …’ कर सदा अग्रसर रहते हुए चिंतनशीलता को एक – ‘नवीन आयाम प्रदान करके व्यावहारिक जगत में उपयोगी अर्थात सार्थकता पूर्ण कार्य संपादित …’ करने की अभिलाषा रखते हुए गतिशील रहता है। बालमन के मनोभाव से उत्पन्न स्थितियां अपने से जेष्ठ एवं श्रेष्ठ के प्रति आदर – सत्कार से भरपूर रहती हैं जिसमें बड़े – बुजुर्गों के द्वारा बच्चों को प्रदान किए जाने वाले – ‘आशीष, स्नेह, दुलार, आत्मीय प्रेम और अति सूक्ष्म कोमल भावनाओं का अनवरत रूप से सम्मान तथा उन्हें मार्गदर्शन एवं परामर्श से संबद्ध …’ व्यवहार कुशलता की प्राप्ति का सुखद संयोग निश्चित ही – ‘बचपन के अंतर्मन को संतुष्ट कर ही देगा यह अपेक्षा …’ बाल हृदय में सदा बनी रहती है।
अबोधता के सुकोमल स्वरूप की सक्षमता में अभिवृद्धि करने के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष – ‘पारिवारिक शांति के साथ, सामाजिक समरसता हेतु श्रेष्ठ वातावरण के निर्माण का नैतिक उत्तरदायित्व, उत्कृष्ट पालना प्रदान करने में निपुण अभिभावक …’ का होता है जिसमें राष्ट्र निर्माण की जीवंत पुनर्स्थापना हेतु भावी पीढ़ी के वृहद योगदान को निर्धारित किया जाना, जवाबदेही पूर्ण अति उपयोगी कार्य है। सामाजिक जीवन की संस्कारगत अनिवार्य, प्रतिबद्धता बाल हृदय की विनम्रता से ओतप्रोत होकर मन एवं बुद्धि के कुशल सामंजस्य के द्वारा प्रवाहित होती है जिसमें राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में नागरिक बोधगम्यता की जिम्मेदारी का निर्वहन संपूर्ण जवाबदेही के सानिध्य में संपन्न किया जाना आवश्यक होता है।
जीवन की जीवंतता का यथार्थ कुरेदती अबोधता के अनुत्तरित प्रश्न का ‘यथोचित निष्पक्ष समाधान, भले ही जिस अपेक्षित – मर्यादित एवं लोकोपयोगी स्वरूप में बाल हृदय प्रत्युत्तर की दीर्घकालीन प्रतीक्षा करते हैं जबकि उनकी प्राप्ति कई बार ’विलंब से होने के पश्चात भी बालमन की अभिभावक के प्रति भावपूर्ण मनोवृति, संपूर्ण समर्पण के रूप …’ में बनी रहती है जिसमें जीवन की संवेदनशील भूमिका का – भूत, वर्तमान एवं भविष्य से जुड़ा हुआ पवित्र पक्ष सामान्यतः विद्यमान रहकर, नवसृजन – नवांकुर, नवबोध – नवोदय, नवपथ – नवनीत, के व्यापक स्वरूप में सदैव गतिशील बना रहता है।
बाल हृदय की गहराइयों में छिपी हैं समाज की भावी श्रेष्ठतम कल्पनाएं, जिन्हें विश्व मानवता के निर्माण की आधारभूमि – उज्जवल स्थितियों के व्यापक स्वरूप में प्रस्फुटित होने की सुनिश्चित संभावना को तलाशने की नैतिक जिम्मेदारी अभिभावक द्वारा स्वीकार करते हुए – उजड़ते बचपन में बाल मन को छोटी – छोटी खुशियों की पोटली प्रदान करके, बाल जीवन की अंतरध्वनि के सकारात्मक संदर्भ और प्रसंग का संज्ञान लेकर स्वयं के अंतःकरण को सार्थकता की पृष्ठभूमि में – ‘परिवर्तित, रूपांतरित, परिवर्धित, परिमार्जित एवं परिष्कृत…’ किया जाना अधिकारिक रूप से संपूर्ण – व्यक्तित्व, कृतित्व तथा अस्तित्व को आत्महित के सानिध्य में कल्याणकारी तथा सर्व लोक हेतु – मंगलकारी स्वरूप में परिणित करने के समदृश्य स्वमेव ही सिद्ध हो जाता है।”
सजीवता के प्रति बालमन की उन्मुक्त अवधारणा :
जीवन की जीवंतता का यथार्थ कुरेदती अबोधता के अनुत्तरित प्रश्न अर्थात अनसुलझे रहस्यों की खोज में भटकती मन:स्थितियां सचमुच बाल सुलभ चेष्टाओं का पर्याय होती हैं। समाज द्वारा प्रासंगिक घटनाओं और उनसे संबद्ध पहलू सामान्यतः स्वीकार कर लिए जाते हैं परंतु विरोधाभास की स्थिति निर्मित होने पर उन्हें कुछ समयावधि के लिए स्थगित कर दिया जाता है। जीवन की दुर्लभ अवस्थाओं के प्रति बाल हृदय सदा से ही उत्सुक रहा करता है जिसे किन्हीं निर्धारित अवधारणाओं में कैद नहीं किया जा सकता है। बाल समझ की चिंता भले ही लोक व्यवहार में टाल दी जाती हो परंतु वह कभी भी, किसी भी स्थिति में सुप्त नहीं हुआ करती है। भाव भंगिमाओं के माध्यम से अपनी ओर आकृष्ट कर लेने की अद्भुत क्षमता बच्चों में सन्निहित होती है।
साधारण स्थितियों में हमारे द्वारा ध्यान नहीं दिए जाने की कोशिशें, अबोधता की विभिन्न अवस्थाओं से जुड़ी प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष सक्रियता के समक्ष प्रायः शिथिल ही पड़ जाती हैं। कई बार विभिन्न परिस्थितियों के अंतर्गत कुछ क्षणों का संतोष दिलाने की पहल का परिणाम भले ही कुछ समयावधि के लिए बाल हृदय की प्रसन्नता का सबब बन जाया करता है लेकिन वह वास्तविक सत्यता की खोज में अपेक्षित मन:स्थिति के साथ संतुष्ट हो जाने की बात मन ही मन ढूंढता रहता है। सजीवता के प्रति बालमन की धारणाओं में निडरता का समावेश व्यावहारिक परिवेश में दिखाई देता है जबकि प्रबुद्धता से जुड़ी हुई अवधारणा का प्रतिफल किसी न किसी रूप में भयभीत स्थितियों की भयावहता से आक्रांत रहता है।
बाल सुलभ मनोभाव के व्यवहारिक मानदंड :
व्यावहारिक जीव – जगत के गतिशील व्यवहार के अंतर्गत शारीरिक वेदना पहुंचाने वाली निर्जीव वस्तुओं के प्रति हम नकारात्मक भाव प्रदर्शित तो कर देते हैं परंतु अवचेतन मन में बदले की भावना को अति सूक्ष्म रूप से स्थाई – स्थान भी प्रदान करा देते हैं। सामाजिक दृष्टिकोण शीघ्रता से परिपक्वता के सपनों को देखता है और बाल सुलभ चेष्टाओं से विभिन्न स्तर पर व्यवहार करने के मानदंड अंतर्मन में ही निर्धारित कर लेता है। समझ और ज्ञान का सहसंबंध जब अपनी कल्पनाओं को रेखांकित करने का प्रयास करता है तब हम लापरवाही के वशीभूत होकर नासमझ होने का अभिनय करने लग जाते हैं। मानवीय हृदय की गहराई सामान्य तौर पर बालमन को उकेरती तो है परंतु दिशा दिग्दर्शन का निर्धारण अपने अनुसार करने की हठधर्मिता समाज के लिए प्रश्नचिन्ह छोड़ जाया करती है। पारिवारिक एवं सामाजिक संदर्भों के अंतर्गत सभी कुछ कुशलक्षेम स्वरूप में ही प्राप्त होगा, यह अपेक्षा बाल हृदय की गहराइयों में छिपी, श्रेष्ठतम कल्पनाओं के साकार स्वरूप में सदा ही विद्यमान रहा करती है जिसके परिणाम स्वरूप – मातृ देवो भव:, पितृ देवो भव:, आचार्य देवो भव:, सत्यं वद, धर्मं चर, के अनुकरण एवं अनुसरण में बालमन, जीवन पर्यंत निष्ठावान बना रहता है।
श्रेष्ठ वातावरण के निर्माण का नैतिक उत्तरदायित्व :
परिवार जीवन की प्रथम पाठशाला है यह सत्य बाल हृदय की गहराई से अभिव्यक्त होता है क्योंकि यहीं से संपूर्ण कल्पनाओं का अभ्युदय होता हुआ स्पष्ट रूप से दिखलाई पड़ता है। माता – पिता की पालना का परिणाम जहां बच्चों के संपूर्ण व्यक्तित्व विकास का आधार बनता है वहीं शिक्षकीय पृष्ठभूमि में गुरुजी द्वारा शिक्षा – दीक्षा ग्रहण करने की क्रमबद्धता उसके संस्कार को परिमार्जित करने के साथ – साथ परिष्कृत भी करती है। एक नागरिक के रूप में अपने कर्तव्यों एवं अधिकारों का बोध उसे समाज से ही ज्ञात होता है जिसमें सहगामी बन जाने की अवस्थाएं बाल हृदय का मार्ग प्रशस्त किया करती हैं। बाल सुलभ चेष्टाओं में अवरोध की प्रबल संभावनाओं का स्थान सामान्य रूप से परिवार एवं समाज ही होता है जहां अच्छाई या बुराई का अवबोध वह विभिन्न स्थितियों एवं परिस्थितियों में स्वयं की जीवंत उपस्थिति दर्ज करके आसानी से कर सकता है।
अभिभावक की जिम्मेदारी द्वारा उत्तरदायित्व के निर्वहन स्वरूप में – बालमन के प्रायः सभी क्रियाकलाप सहज रूप से बिना किसी निर्धारित एवं मर्यादित मूल्यांकन के स्वीकार किया जाना, जिसमें उचित एवं अनुचित के प्रति उदासीनता का भाव और विचार बच्चों के मूलभूत संस्कार निर्धारण का अति महत्वपूर्ण कारण बन जाया करता है। जीवन की संपूर्ण शक्ति के विनियोजन द्वारा श्रेष्ठ वातावरण की व्यवस्था बनाए रखने का उत्तरदायित्व किसी भी स्थिति में अभिभावकों का इसलिए हो जाता है क्योंकि संतानोत्पत्ति की सजगता का वास्तविक आधार सर्वप्रथम उनके द्वारा ही व्यावहारिक रूप से सुनिश्चित किया जाता है।
राष्ट्र निर्माण की जीवंत पुनर्स्थापना में योगदान :
बच्चों के लालन – पालन के प्रति सकारात्मक नजरिया माता – पिता की जिम्मेदारी ही नहीं बल्कि व्यापक संदर्भ में राष्ट्र निर्माण की जीवंत प्रक्रिया हेतु विशिष्ट योगदान भी है। शिक्षकीय समाज तक पहुंचने से पूर्व स्वभाव एवं आदतों का स्वरूप पूर्णत: परिवार एवं समाज द्वारा निर्धारित हो चुका होता है जिसमें विकास एवं परिमार्जन का पुट ही शेष रह जाता है। संस्कार परिवर्तन के प्रति गुंजाइश पूर्ण नजरिया बना भी लिया जाए उसके बावजूद भी जो कुछ विरासत में मिला है उसमें अत्यधिक दबावपूर्ण स्थितियां अर्थात बल प्रयोग के पश्चात भी बदलाव नहीं लाया जा सकता है। सामाजिक जीवन में प्रविष्टता का यथार्थ इस बात का प्रतीक है कि यथोचित स्वरूप में – ‘एक संस्कार युक्त श्रेष्ठ नागरिक ’ की प्रवेशता समाज में हुई है। परिवार से लेकर शिक्षा जगत की श्रृंखला से गुजर जाने के पश्चात तक की स्थिति, किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व के लिए संपूर्ण जीवन की यात्रा का वृतांत नहीं हो सकता है। अतः जीवन की संपूर्णता के विधिवत निर्धारण में समाज और उसका नैतिक रूप से दबाव ही एक जिम्मेदार नागरिक का सही दिशा में निर्माण कर सकता है। जीवन का यथार्थ जब समाज के सम्मुख प्रकट होता है तब वह प्रत्येक नागरिक के विभिन्न व्यवहार की परिणिति में सम्मिलित व्यापक स्वरूप का –’सुखांत एवं दु:खांत के निहितार्थ से जुड़ा हुआ परिस्थितिजन्य फलितार्थ ’ होता है।
किसी भी व्यक्ति को दोषी इसलिए नहीं माना जा सकता क्योंकि उसकी विविधतापूर्ण जीवन की पृष्ठभूमि का निर्माण पारिवारिक भावभूमि के साथ सामाज की अवधारणा से संबंधित परिदृश्य तथा परिवेश के वैचारिक स्वरूप में अनेकानेक व्यक्तियों एवं व्यवस्थाओं से जुड़ी –’सामाजिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक, मनोवैज्ञानिक, दार्शनिक, धार्मिक, आध्यात्मिक ’ तथा विभिन्न प्रकार के मत – मतांतर के मध्य हुआ है।
सामाजिक जीवन की संस्कारगत अनिवार्य प्रतिबद्धता :
जीवन की विराटता के मध्य विभिन्न स्थितियों के निर्माण होने से लेकर उसमें एक निश्चित कालखंड गुजारने के पश्चात ही एक व्यक्ति अपने वास्तविक जीवन को सही तरीके से जी पाता है। व्यक्तिगत स्तर पर उत्पन्न होने वाली अच्छाई एवं बुराई के साथ निर्णयात्मक पहल का निर्धारण व्यक्ति के संस्कारों की तरफ इशारा किया करता है इसके साथ ही वह उसकी शिक्षा – दीक्षा तथा सामाजिक दबाव से उत्पन्न होने वाली स्थितियों का आकलन करने में भी पूरी तरह से सक्षम होता है। सामाजिक जीवन की प्रतिबद्धता जहां संस्कारगत स्वभाव को दर्शाती है वहीं वह उसके सफलतम उपलब्धिपूर्ण स्वरूप को उदाहरण के रूप में समाज के सामने पूरे विश्वास के साथ प्रस्तुत भी करती है। सुकोमल मन:स्थिति की परिणिति कठोरतम स्वरूप में आखिर कैसे? और किन परिस्थितियों में घटित हो गई? और हम स्वयं संपूर्ण परिदृश्य की विरोधाभासी स्थिति?को आधार बनाते हुए दोषमुक्त होकर मूक या बधिर कैसे हो जाएं? यह विधि की विडंबना नहीं बल्कि इसे समाज की अत्यंत गोपनीय साजिश ही कहा जाना उचित एवं न्याय संगत होगा।
राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में नागरिक बोधगम्यता की जिम्मेदारी :
मनुष्य जीवन की गरिमापूर्ण स्थितियों के अंतर्गत अनायास ही कैसे एक मानव जाति की उत्पत्ति का मानवीय स्वरूप? सामाजिक कुरूपता से जुड़े हुए कलुष अर्थात विपत्ति के रूप में दृष्टिगोचर हो रहा है? और उसके निर्माण के घटक अपने कर्तव्य पर प्रश्नचिन्ह लगाने से बचने के उपाय आखिर क्यों खोज रहे हैं? बाल हृदय को गोद में खिलाने से लेकर – जीवन की जीवंतता का यथार्थता से संबंध स्थापित करते हुए वास्तविक जीवन के पथ निर्धारण करने तक और समाज में गतिशील होने की बजाय अवरोध का रूप धारण करने वाला वह बालमन, आज इतना निरीह प्राणी कैसे हो गया? और क्या इसकी दशा और दुर्दशा का जिम्मेदार पारिवारिक पृष्ठभूमि से लेकर संपूर्ण समाज क्यों नहीं है? जीवन की सामान्य स्थितियों में अपने उत्तरदायित्व को सीमित दायरे में कैद रखने की प्रवृत्ति से बाहर निकलकर ही बाल हृदय की संवेदनाओं को अनुभव किया जा सकता है तथा जीवन के अंत तक चाहे वह निर्माण अथवा विनाश का कारक ही क्यों ना बने? इसकी संपूर्ण नैतिक जिम्मेदारी के साथ मूल्यपरक जवाबदेही परिवार और समाज को पूर्णरूपेण स्वीकार करनी ही होगी तभी हम नागरिक बोधगम्यता के सानिध्य में राष्ट्रीयता के बीज को श्रेष्ठतम संस्कारों के माध्यम से रोपित करके –’मनुष्य, मनुष्यता और संवेदनशीलता का विधिवत रूप से निर्माण कर सकेंगे।
बालमन की अभिभावक के प्रति भावपूर्ण मनोभूमि :
ज्ञान, विज्ञान और अनुसंधान के सानिध्य में मानवीय चिंतन के विभिन्न पक्ष से संबंधित मनोवैज्ञानिक विश्लेषण आज इस बात की पुष्टि कर चुके हैं कि – बाल हृदय की संवेदनाओं के विभिन्न पक्ष बड़े ही सुदृढ़ रहा करते हैं जिसमें सकारात्मक मनोभाव अपने सबल स्वरूप में विद्यमान रहते हुए संपूर्ण सक्रियता के साथ सदा क्रियाशील होते हैं। मातृबोध से प्रारंभ हुआ विराटता से युक्त विशाल नजरिया, मानवता को इंगित करते हुए राष्ट्रीयता के अवबोध तक स्वयं को – निमित्त, निर्माण और निर्मलता के उज्जवल स्वरूप में बनाए रखता है जहां केवल उसे प्रेरणात्मक रूप से उत्सर्जित करने की आवश्यकता ही होती है। बालमन की अभिभावक के प्रति भावपूर्ण रागात्मकता उनकी अनिश्चितता का प्रतीक ही नहीं है बल्कि सुरक्षात्मक पहलुओं को भी स्पष्ट करने से वह नहीं चूकते हैं। जीवन में शुभ भावना का स्वरूप जब स्वयं की अभिव्यक्ति को चेतना के पवित्र दिग्दर्शन के साथ प्रकट करता है तब अंतर्मन कह उठता है कि – हमारे साथ, परिवार का व्यवहार सुखद ही रहेगा तथा उनसे जुड़ी श्रंखला भी हमारा साथ निभाएगी, यह अंतःकरण में छिपे रहस्य भले ही सामान्य स्थितियों में उजागर नहीं होते हैं परंतु अपनेपन के एहसास का प्रमुख कारण अवश्य ही बन जाया करते हैं।
यदा – कदा विरोध के स्वर अथवा प्रहार का प्रतीकात्मक स्वरूप में प्रकटीकरण होता हुआ बालमन के सम्मुख किसी कारण से परिलक्षित भी हो जाता है तो उसके प्रति नैसर्गिक रूप से उदासीनता के भाव स्वत: ही अंतर्मन में प्रस्फुटित होते देर नहीं लगती है।
जीवन की संवेदनशील भूमिका का वर्तमान स्वरूप :
संपूर्ण व्यक्तित्व के विकास में पारिवारिक वातावरण की खिन्नताएं जहां बाल मन:स्थिति के व्यवस्थित विकास में अवरोध का कारण बन जाया करती हैं वहीं शैक्षणिक वातावरण द्वारा दबावपूर्ण नीति का भी मन मस्तिष्क पर विपरीत एवं गहरा आघात पहुंचता है। सामाजिक घटकों के अंतर्गत असामाजिक तथा नकारात्मक तत्वों से पूरी तरह उबा हुआ व्यथित, बालमन केवल अपनी सहज, सरल एवं प्रश्नवाचक शैली से युक्त अभिव्यक्ति की टोह में रहता है। बाल हृदय के अंतरजगत में यह मान्यता सदा विद्यमान रहती है कि इस दुनिया में सब कुछ सकारात्मक स्वरूप में ही है जिसमें समाधान की स्थितियां अति शीघ्रता से मुझे प्राप्त हो जाएंगी। व्यक्तिगत स्तर पर बच्चों के स्वभावगत स्वरूप में जीवन के भविष्य को लेकर – श्रेष्ठ, शुभ एवं पवित्र भाव जगत अंतःकरण में संजोए हुए सदा ही उपस्थित रहते हैं लेकिन यदा – कदा, उमंग और उत्साह के अभाव में बालमन के साथ घटित एवं फलित का वर्णन …, अब अनायास ही वह बालक नहीं कर सकता है। भटकाव एवं अलगाव की अनुभूतियों से भरा हृदय एक सही ठिकाने की जुगाड़ में अपनी उत्पत्ति के संबंध में अनसुलझे पहलुओं की खोज में आज भी पूरी तन्मयता के साथ संलग्न है।
हृदय विदारक घटनाओं का साक्षी – स्वयं ही व्यक्ति, सामाजिक व्यवस्था में संबद्धता के साथ विभिन्न समूहों से उनके उत्तरदायित्वपूर्ण व्यवहार के साक्ष्य मांग रहा है ताकि वह अपने जीवन की स्पष्ट एवं पारदर्शी भूमिका आज की प्रासंगिकता के अनुरूप तय कर सके। स्वर्ग एवं नर्क की कल्पनाओं में जीने वाला मनुष्य आज अपने ही व्यक्तिगत एवं सामाजिक स्वरूप में स्वयं के वर्तमान की दशा और दुर्दशा से इस कदर निराश एवं हताश हो चुका है कि उसे सुधारने हेतु वह स्वयं को सक्षम बना पाने के विविध उपाय ढूंढने में निरंतर रूप से लगा हुआ है।
विश्व मानवता के निर्माण की आधारभूत स्थितियां :
सामान्यतः अपने ऐसो आराम में क्षणिक स्तर पर कटौती के भय से अतीत पर रोने एवं हास्य के अभिनय करने वाले समाज ने अपनी संतति को तरजीह देने की तकल्लुफ कभी भी नहीं की। जीवन के आध्यात्मिक पक्षों की विराटता को नासमझी की स्थितियों में सराबोर कर, आज का समाज अपनी संरचना को खंडित धर्म की स्थिति ही बताना चाहता है जिसमें वह, अर्थात नई पीढ़ी चिंतन के पक्ष में – मैं और मेरा संप्रदाय ही सर्वश्रेष्ठ हैं, के दावानल में जलते हुए जीवन व्यतीत कर सके। मानवता की चादर ओढ़कर केवल जाति एवं उप जातियों के स्वरूप में विभाजित हुआ समाज अपनी उपाधि को ढोने का अभिमान रखते हुए अपनी संतानों के सुकोमल मन पर, एक अंधकार युक्त धब्बा छोड़ना चाहता है जिससे कि वह – विश्व मानव बनने …की बजाए एकांगी परिवेश के अंतर्गत केवल अभिभावक के भौतिकता से युक्त सुख को भोगने का अंश मात्र ही बनकर नहीं रह जाए। जीवन की जीवंतता का यथार्थ कुरेदती अबोधता के अनुत्तरित प्रश्न का ‘यथोचित निष्पक्ष समाधान, भले ही जिस अपेक्षित – मर्यादित एवं लोकोपयोगी स्वरूप में बाल हृदय प्रत्युत्तर की दीर्घकालीन प्रतीक्षा करते हैं जबकि उसकी प्राप्ति कई बार ’विलंब से होने के पश्चात भी बाल मन की अभिभावक के प्रति भावपूर्ण मनोवृति, संपूर्ण समर्पण के रूप …’ में बनी रहती है जिसमें जीवन की संवेदनशील भूमिका का – भूत, वर्तमान एवं भविष्य से जुड़ा हुआ पवित्र पक्ष सामान्यतः विद्यमान रहकर, नवसृजन – नवांकुर, नवबोध – नवोदय, नवपथ – नवनीत के व्यापक स्वरूप में सदैव गतिशील बना रहता है।
उजड़ते बचपन में बिखरते जीवन की अंतरध्वनि :
बालमन की आशा और विश्वास से भरी हुई अंतर्मन की बेचैनी अर्थात छटपटाहट का साक्षात्कार, समाज की विरोधाभासी स्थितियों के मध्य धीरे – धीरे धुंधला पड़ता जा रहा है जिसमें अभिभावकों की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं से जुड़ी हुई अधिकतम व्यस्तता के आगे अपने अस्तित्व की भीख मांगते बच्चों की दीन – हीन दशा और उससे उत्पन्न हुई दिशा, आज सर्व मानव आत्माओं के समक्ष सबसे जीवंत प्रमाण के रूप में बनी हुई है। सब कुछ जानने एवं समझने की आपाधापी और होड़ से स्वयं को अलग – थलग पड़ता देखकर, उपेक्षा की पीड़ा अर्थात हृदय विक्षोभ से भर उठता है जिसकी किलकारियां केवल बाल्यावस्था की उपस्थिति का प्रतीक मात्र बनकर रह गई हैं। ‘उजड़ते बचपन और बिखरते जीवन ’ के मध्य बालमन के आत्मीय प्रतिनिधित्व में अंतरध्वनि का शंखनाद आज वैचारिक क्रांति के रूप में प्रज्वलित होने लगा है जिसे संपूर्ण सामाजिक परिदृश्य ने – ‘बचपन बचाओ आंदोलन … ’ के तहत थाम रखा है और पुनर्जीवन की आकांक्षाओं को साकार करने में यथाशक्ति के साथ अनवरत संलग्न हैं। आज ‘बाल ह्रदय की गहराइयों में छिपी हुई समाज की भावी श्रेष्ठतम कल्पनाएं अपने मुखर स्वरूप में यह अभिव्यक्त कर रही हैं कि –’अब धरती पर बड़े – बुजुर्गों का स्वर्ग अवतरित हो जाना चाहिए क्योंकि वहां कम से कम श्रेष्ठ अभिभावकों की प्राप्ति … ’ सुनिश्चित रूप से संभव हो सकेगी।
इस प्रकार जीवन की जीवंतता का यथार्थ कुरेदती अबोधता के अनुत्तरित प्रश्नों – का सहज, सुलभ एवं सरलतम, समाधान सुनिश्चित रूप से – बाल हृदय की गहराइयों में अदृश्य स्वरूप में छिपा हुआ है जो अत्यधिक दुर्लभ अर्थात मूल्यवान, अनमोल – सुख, शांति और आनंद से भरपूर तथा सामाजिक समरसता से सराबोर, समाज की भावी, श्रेष्ठतम से ओतप्रोत – श्रेष्ठ, शुभ एवं पवित्र कल्पनाएं, धरोहर के रूप में विद्यमान हैं जिन्हें विश्व मानवता के निर्माण, परोपकार एवं कल्याण की आधारभूमि द्वारा उज्जवल स्थितियों के व्यापक स्वरूप में प्रस्फुटित होने की सुनिश्चित संभावना को तलाशने और उन्हें विधिवत तरीके से सदुपयोग करने की नैतिक जिम्मेदारी अभिभावक द्वारा स्वीकार करते हुए – उजड़ते बचपन में बाल मन को छोटी – छोटी खुशियों की पोटली प्रदान करके, बाल जीवन की अंतरध्वनि के सकारात्मक संदर्भ और प्रसंग का संज्ञान लेकर स्वयं के अंतःकरण को सार्थकता की पृष्ठभूमि में – ‘परिवर्तित, रूपांतरित, परिवर्धित, परिमार्जित एवं परिष्कृत…’ किया जाना, अधिकारिक रूप से संपूर्ण – व्यक्तित्व, कृतित्व तथा अस्तित्व को आत्महित के सानिध्य में कल्याणकारी तथा सर्व लोक हेतु मंगलकारी स्वरूप में परिणित करने के समदृश्य स्वमेव ही सिद्ध हो जाता है।”