व्यंग्य साहित्य के उत्तरोत्तर विकास और उसकी बढ़ती लोकप्रियता पर दृष्टि डालें, तो यह दृष्टिगोचर होता है कि व्यंग्य जाने अनजाने में एक महत्वपूर्ण साहित्यिक विधा बन चुका है। वर्तमान समय में व्यंग्य को केवल एक मनोरंजन का माध्यम नहीं माना जा सकता है, यह समाज के समकालीन मुद्दों पर गहरी टिप्पणियाँ और समाज में व्याप्त विद्रूपताओं पर गंभीर करुणा भी दिखाता है। जहाँ पहले व्यंग्य को हल्के-फुल्के हास्य का साधन माना जाता रहा था, वहीं आज के व्यंग्यकार समाज की विकृतियों, पाखंड और दोहरे मापदंडों को बड़ी ही कुशलता से उजागर कर रहे हैं।
पिछले कुछ दशकों में व्यंग्य लेखन ने नई ऊँचाइयों को छुआ है। एक समय था जब व्यंग्य मुख्यतः समाचार पत्रों के एक निश्चित कॉलम तक ही सीमित था, जहाँ पाठक इसे हल्के-फुल्के मनोरंजन के रूप में पढ़ते थे। परंतु आज स्थिति बदल गई है। व्यंग्य अब समाज का आईना बनकर उसकी जटिलताओं को उजागर करने का महत्वपूर्ण साधन बन गया है। बहुत से नए लेखक अपनी साहित्यिक यात्रा की शुरुआत व्यंग्य लेखन से कर रहे हैं, क्योंकि इसमें अपनी बात कहने की स्वतंत्रता और एक नए दृष्टिकोण से समाज को देखने की क्षमता है।
व्यंग्य लेखन में भाषा की सरलता लेखक को एक कम्फर्ट ज़ोन प्रदान करती है, जहाँ वह बिना किसी बोझ के अपनी रचनात्मकता को मुक्त रूप से व्यक्त कर सकता है। व्यंग्य लेखन में भाषा की जटिलता को इग्नोर करना न केवल संभव है, बल्कि यह अक्सर लेखन को अधिक प्रभावी और प्रासंगिक बना देता है। व्यंग्य का मुख्य उद्देश्य होता है सामाजिक विडंबनाओं और समस्याओं को उजागर करना, और इसके लिए भाषा का सरल और सीधे सपाट लहजा अधिक सशक्त हो सकता है। जटिल और अलंकृत भाषा में बात घुमा-फिराकर कहने की बजाय, व्यंग्यकार अक्सर सीधी, सटीक और सरल भाषा का प्रयोग करता है ताकि उसका संदेश व्यापक दर्शकों तक सहजता से पहुँच सके।
सरल भाषा व्यंग्यकार को एक ऐसा मंच देती है जहाँ वह बिना किसी भाषा की जटिलताओं में उलझे, अपने विचारों को स्पष्ट और बेधड़क तरीके से प्रस्तुत कर सकता है। हास्य और व्यंग्य तभी प्रभावी होते हैं जब वे सीधे पाठक के दिल और दिमाग तक पहुँचते हैं, और इसके लिए शब्दों की जटिलता से बचना ही बेहतर होता है। व्यंग्य का मज़ाकिया और आलोचनात्मक स्वर अपने आप में पर्याप्त है पाठक को सोचने पर मजबूर करने के लिए, इसीलिए व्यंग्य में भाषा का लालित्य और अलंकरण अक्सर गौण हो जाता है।
व्यंग्य की इस बढ़ती लोकप्रियता का एक बड़ा कारण यह है कि यह साहित्य की अन्य विधाओं की तुलना में अधिक प्रासंगिक और ज्वलंत मुद्दों पर चर्चा करता है। जहाँ कहानियाँ, उपन्यास और कविताएँ भावनाओं और कल्पनाओं की दुनिया में ले जाती हैं, वहीं व्यंग्य यथार्थ की कठोरता को अपने तीखे शब्दों के माध्यम से प्रस्तुत करता है। यह समाज के उन पहलुओं पर चोट करता है, जिन पर लोग सामान्यतः चर्चा करने से कतराते हैं। व्यंग्यकारों के तीखे शब्दों में वह शक्ति होती है, जो पाठक के मनोमस्तिष्क को हिला कर रख देती है।
हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, और केपी सक्सेना जैसे महान व्यंग्यकारों ने व्यंग्य को सिर्फ एक विधा नहीं, बल्कि एक सामाजिक आंदोलन के रूप में स्थापित किया है। इनका लेखन समाज के पाखंड और खोखले मूल्यों पर तीखा प्रहार करता है। इन लेखकों के व्यंग्य लेखन में व्यंजना और परिहास के माध्यम से समाज की विद्रूपताओं को इस तरह प्रस्तुत किया गया है कि पाठक एक बार सोचने पर मजबूर हो जाता है। व्यंग्य केवल शब्दों का खेल नहीं, बल्कि सामाजिक सच्चाई को उद्घाटित करने का एक सशक्त माध्यम है। हर व्यंग्यकार ने इसे अपने अनुभव और दृष्टिकोण के अनुसार परिभाषित किया, लेकिन सभी का यह मानना था कि व्यंग्यकार की दृष्टि गहरी और उसकी समझ व्यापक होनी चाहिए।परसाई का कहना था कि व्यंग्यकार समाज का सबसे सजग प्रहरी होता है, जो उन बातों को उजागर करता है जिन्हें अन्य लोग नज़रअंदाज़ कर देते हैं। हरिशंकर परसाई, जिन्हें आधुनिक हिंदी व्यंग्य का स्तंभ कहा जाता है, का मानना था कि व्यंग्य एक हथियार है, जो समाज के पाखंड और खोखलेपन को उजागर करता है। उनका कहना था, “व्यंग्यकार का धर्म है, सवाल उठाना और उन चीजों को दिखाना जिन्हें समाज अनदेखा कर देता है।” परसाई के लिए व्यंग्य केवल हास्य नहीं था, बल्कि सामाजिक आलोचना का सबसे सशक्त साधन था। उन्होंने अपने व्यंग्य के माध्यम से समाज के खोखले आदर्शों और विषमताओं पर करारा प्रहार किया।
शरद जोशी, एक और महान व्यंग्यकार, का भी मानना था कि व्यंग्य एक दर्पण है, जो समाज को उसकी सच्ची तस्वीर दिखाता है। उनका कहना था, “व्यंग्यकार केवल लिखता नहीं, बल्कि समाज की उन विडंबनाओं को पकड़ता है जो साधारण व्यक्ति के ध्यान से बच जाती हैं।” उनके व्यंग्य में समाज की गहरी समझ और जीवन के कटु यथार्थ की प्रस्तुति होती थी, जो पाठकों को सोचने पर मजबूर करती थी।
रवीन्द्रनाथ त्यागी का मानना था कि “व्यंग्य एक ऐसी कलात्मक शैली है, जिसमें समाज की सबसे कड़वी सच्चाई को भी सहजता से पेश किया जा सकता है।” उनका लेखन गहरी सामाजिक समझ पर आधारित था और उन्होंने अपने व्यंग्य के माध्यम से समाज के विभिन्न पहलुओं पर सटीक टिप्पणियाँ कीं। त्यागी का मानना था कि व्यंग्यकार को समाज की हर परत को ध्यान से समझना चाहिए, तभी वह सशक्त व्यंग्य रच सकता है। केपी सक्सेना व्यंग्य की ताकत को समझने वाले साहित्यकारों में से एक थे। उनका कहना था कि “व्यंग्यकार वह है जो समाज की कमियों को ऐसे प्रस्तुत करता है कि लोग हंसते हुए उसे गंभीरता से लें।” उनका लेखन समाज की समस्याओं पर हल्के-फुल्के अंदाज़ में चोट करता था, लेकिन उसमें व्यंग्य की धार कभी कम नहीं होती थी। उनके लेखन में हास्य और व्यंग्य का अद्भुत संतुलन देखने को मिलता था।
आज के समय में व्यंग्य केवल एक शैली भर नहीं रह गई है, यह समाज के विभिन्न पहलुओं को समझने और उसकी आलोचना करने का एक सशक्त माध्यम बन चुका है। व्यंग्यकार की दृष्टि व्यापक होती है, वह समाज के हर पहलू को गहराई से परखता है। चाहे वह राजनीति हो, सामाजिक असमानता हो, धार्मिक पाखंड हो, या फिर आर्थिक विषमता हो, व्यंग्य इन सभी विषयों पर तीखा प्रहार करता है। यह लेखन शैली समाज के पाखंडों को न केवल उजागर करती है, बल्कि पाठक को उन पर गहराई से सोचने के लिए भी मजबूर करती है।
कुछ आलोचक व्यंग्य को साहित्य की मुख्यधारा में स्थान नहीं देते। उनका मानना है कि व्यंग्य केवल एक शैली है, जो समय-समय पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराती रहती है, लेकिन साहित्य का एक स्वतंत्र अंग नहीं है। परंतु यह विचार अब पुराना हो चुका है। आज व्यंग्य को एक समर्पित विधा के रूप में मान्यता मिल चुकी है। अमृतराय जैसे साहित्यकारों ने व्यंग्य को साहित्य की एक विशिष्ट और महत्त्वपूर्ण विधा माना है। उनके अनुसार, व्यंग्य का उद्देश्य केवल हंसी उत्पन्न करना नहीं होता, बल्कि समाज की जड़ता और उसके खोखलेपन को उजागर करना होता है।
व्यंग्य की शक्ति उसकी भाषा में निहित होती है। जहाँ अन्य विधाओं में भाषा केवल विचारों और भावनाओं को व्यक्त करने का साधन होती है, वहीं व्यंग्य में भाषा एक हथियार की तरह काम करती है। यह पाठक के मन-मस्तिष्क को झकझोरती है, उसे सोचने पर मजबूर करती है। व्यंग्यकार की कलम समाज के उन मुद्दों को छूती है, जो अक्सर अनदेखे रह जाते हैं।
आधुनिक व्यंग्य लेखन में श्याम चंद्र घोष का यह कथन पूरी तरह सटीक बैठता है कि “व्यंग्य एक परिपक्व मानस की उपज है।” यह परिपक्वता केवल अनुभव और सामाजिक चेतना से आती है। जो लेखक समाज की वास्तविकता को गहराई से देखता है, वही सशक्त व्यंग्यकार बन सकता है। अच्छा व्यंग्यकार वही है जो समाज की जटिलताओं को सहजता से प्रस्तुत कर सके, ताकि पाठक उसे न केवल पढ़े बल्कि महसूस भी करे।
आज के दौर में, जब समाज कई तरह की चुनौतियों से जूझ रहा है, व्यंग्य लेखन की महत्ता और भी बढ़ जाती है। यह समाज के उन पहलुओं को उजागर करता है, जिन पर बात करना आवश्यक है, लेकिन लोग अक्सर उनसे कतराते हैं। व्यंग्यकार की कलम न केवल समस्याओं को उजागर करती है, बल्कि उन्हें हल करने के मार्ग भी सुझाती है।
संक्षिप्त में अगर कहना चाहें तो हम कह सकते हैं कि व्यंग्य के जीर्ण शीर्ण हुए मंदिर का जीर्णोद्धार हो चुका है, भविष्य में एक बुलंद इमारत नजर आ रही है। व्यंग्य अब साहित्य की मुख्यधारा का एक अभिन्न हिस्सा बन चुका है।