मुंबई विश्वविद्यालय के प्रोफेसर श्रीधर विश्वनाथ कुलकर्णी हेड ऑफ डिपार्टमेंट केमिस्ट्री जिसके पिता विधानसभा में आला अधिकारी रहे हैं, पर आरोप लगा है अतिवामपंथी विचारधारा और उग्रवादी विचारधारा के लेख लिखने, जनता को भड़काने और दंगे जैसे हालात पैदा करने का।
साल 1962 के चुनाव में कुलकर्णी और उसके पिता के बीच तनाव की वजह थी उनके आपसी वैचारिक मतभेद। इधर कुलकर्णी ने क्रांतिकारी शिक्षक संगठन बना लिया और उधर सरस्वती राज्य समिति की मेंबर बन गई। जो अब श्रीधर के लिए पार्टी में अड़चन है। महत्वाकांक्षी है सरस्वती और श्रीधर नाटककार होने के साथ-साथ अभिनव नाट्य संस्था से जुड़ा हुआ है। जहां का एक लड़का सावंत अति मार्क्सवादी है।
खबर है कि 19 वीं सदी में इंटरनेशनल मार्क्सवादियों के लिए परम पवित्र था। अति मार्क्सवादी होने के चलते श्रीधर की धर्मपत्नी उसे छोड़कर जा चुकी है। जीवन पूरी तरह नाटकीय जीवन जीने वाला प्रोफेसर श्रीधर अब क्या करेगा? एक ही नाटक में आपातकाल, श्रीधर की वैचारिक क्रांति, पारिवारिक स्थिति और देश के राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक हालातों पर बात करता हुआ नाटक ‘उद्धवस्त धर्मशाला’ का मंचन कल जवाहर कला केन्द्र, जयपुर में फोर्थ वॉल संस्था की ओर से प्रस्तुत किया गया।
कसकर भरे हुए प्रेक्षागृह में जब गोविंद पुरुषोत्तम देशपांडे के नाटक ‘उद्धवस्त धर्मशाला’ का मंचन आरंभ हुआ तब अपने आरंभ के साथ ही यह नाटक एक गर्म माहौल में तब्दील होने लगा। ऐसा बहुधा कम होता है कि कोई नाटक अपने आरंभ के साथ ही धीरे-धीरे आपको अपनी गिरफ्त में इस कदर लेकर चला जाए कि आप सब कुछ भूल उस नाटक के वैचारिक तत्वों पर, उसके संवादों पर ध्यान केंद्रित करने लगते हैं।
यह नाटक आपातकाल के दौरान बॉम्बे विश्वविद्यालय की आंतरिक राजनीति पर भले ही आधारित हो किंतु इसके साथ ही इस नाटक में जिस वैचारिक द्वंद्व से इसके पात्र जूझते हैं वह दर्शक को भी समृद्ध करने लगता है। नाटक में जिस प्रोफेसर श्रीधर कुलकर्णी पर विश्वविद्यालय की ओर से गठित आयोग की जांच को दर्शाया गया। उस जांच के दृश्यों के बीच में कुलकर्णी के दूसरे पहलू जब उजागर होने लगते हैं तब यह नाटक कुलकर्णी के निजी और राजनीतिक जीवन के द्वंद्व को टटोलता नजर आता है। समग्र रूप से कहा जा सकता है कि मूल लेखक जीबी देशपांडे और विशाल विजय के निर्देशन से बना यह एक ऐसा नाटक है जो दर्शक, पाठक एवं चिंतक की विचारधारा और कर्तव्यों के बीच संघर्ष को बेहतरीन तरीके से प्रस्तुत करता है। और अंत में आपातकाल की घोषणा के साथ आपको उस शून्य में छोड़ जाता है जहां बैठकर आप इस नाटक के वैचारिक तत्वों पर तीखी बहस कर सकते हैं।
आजादी से पहले का बना मुंबई विश्वविद्यालय और मंच पर जांच आयोग कमेटी के पीछे लगी तख्तियां इस बात की बानगी प्रस्तुत करती है कि बतौर लेखक और बतौर निर्देशक दोनों ने रंगमंच और नाटक के हर एक जरूरी तत्व को केंद्र में रखा है।
किसी भी नाटक को लिखने, उसके मंचित होने में कई अहम पहलू होते हैं। रंगमंचीयता के हिसाब से नाटक को लिखा जाना, कलाकारों द्वारा उन पात्रों के साथ न्याय कर पाना, उनकी अभिनेयता, रूप सज्जा, मंच पर पात्रों के कदमताल, हाव भाव वेशभूषा इत्यादि के साथ रंग संयोजन और साउंड की जरूरी व मूलभूत जानकारी लेखक के साथ ही निर्देशक को भी भली भांति हो तो वह नाटक अपने मंचन से ही आपको उसे पढ़ने का सुख भी प्रदान कर देता है तो वहीं उसे पढ़ने पर उसके मंचन का भी सुख प्रदान कर देता है।
ग़ौरतलब है कि यह नाटक ‘उद्धवस्त धर्मशाला’ फोर्थ वॉल संस्था की ओर से 2014 में पहली बार मंचित किया गया था। और अब 10 वर्षों बाद भी इसके पुनः मंचन से मालूम होता है कि इसमें वही ऊर्जा ताज़गी आज भी बरकरार है तभी इसे आज भी वैचारिक रूप से समृद्ध कलाकार एवं निर्देशक खेल रहे हैं।
जवाहर कला केन्द्र में हुए इस मंचन में मुख्य भूमिका निभाने वाले कलाकारों में हृतिक शर्मा (श्रीधर कुलकर्णी), वैभव दीक्षित (वी.सी. जांभेकर), गौरव गौतम (एम.एल.सी. पी.वाई), अंकित शर्मा (रजिस्ट्रार वैलेंकर), जय मुकुंद (प्रो. क्षीरसागर), योगेंद्र सिंह (काका), प्रेरणा पूनियां (सरस्वती) और शैफाली वीर (माधवी) की भूमिकाओं में शामिल थे। हालांकि कल मंचित हुए नाटक ‘उद्धवस्त धर्मशाला’ में सभी कलाकारों ने महत्वपूर्ण एवं दमदार भूमिकाएं निभाईं किंतु हृतिक शर्मा और योगेन्द्र सिंह का अभिनय दर्शनीय था। अपने हाव भावों के माध्यम से जब कोई कलाकार आपके भीतर उन भावों को उपजाने की क्षमता रखता हो तो उसकी अभिनय क्षमता और कला आपको आकर्षित कर ही लेती है।
फोर्थ वॉल नाट्य संस्था के इस नाटक का निर्देशन विशाल विजय, जो पहले भी कई नाटक जवाहर कला केन्द्र में कर चुके हैं और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से रंगमंच की पढ़ाई कर चुके हैं, ने किया और सह निर्देशन एवं प्रस्तुति संयोजन का कार्य अनुभवी कलाकार योगेन्द्र सिंह ने किया। इस नाटक के बैकस्टेज टीम में विनय सैनी और साक्षी का योगदान रहा, जबकि ध्वनि के लिए विक्रम बॉन्ड, प्रकाश के लिए विमल मीणा, रूप सज्जा के लिए असलम पठान और मंच सामग्री के लिए ईशाना पारीक शामिल थे।