हिंदी साहित्य के आधुनिक काल का आरम्भ हिंदी के महनीय विद्वान आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने साल 1900 से स्वीकृत किया है। इसी श्रेणी में उन्होंने लाला श्रीनिवास का ‘परीक्षागुरु’ पहला उपन्यास स्वीकृत किया है। हालांकि इतिहास लेखन की परम्परा में विभिन्न विद्वानों के बीच मतभेद भी देखने को मिलते हैं। जिसमें डॉ. गोपालराय पंडित गौरीदत्त के लिखे ‘देवरानी जेठानी की कहानी’ को पहला उपन्यास स्वीकार करते हैं। इसी कड़ी में डॉ. विजयशंकर शुक्ल श्रद्धाराम फिल्लौरी के लिखे ‘भाग्यवती’ को पहला उपन्यास स्वीकार करते हैं। साहित्य में उपन्यास लेखन परम्परा में समयानुसार परिवर्तन भी होते नजर आते हैं। जिसमें कई प्रकार के विमर्शों ने भी जन्म लिया। स्त्री, दलित, आदिवासी, किसान इत्यादि।
यहाँ यह कहना सर्वथा उचित होगा कि ‘उपन्यास’ का अर्थ जीवन को समीप रखकर उसका अध्य़यन करना है। जिसमें जीवन के प्रतिनिधित्व का दावा करने वाले पात्रों और उसके कार्यों का चरित्र चित्रण होता है। दुनिया के इस विशाल फलक पर मानव जो भी कुछ देखता है, सुनता है और करता है उसका चित्रण हमें उपन्यास के रूप में मिलता है। उपन्यास की कथावस्तु का आधार मानव जीवन और उसके क्रियाकलापों से जुड़ा हुआ होता है। प्रेमचन्द उपन्यास को व्याख्यायित करते हुए कहते हैं – “मैं उपन्यास को मानव-जीवन का चित्र समझता हूँ। मानव चरित्र पर प्रकाश डालना और उसके रहस्यों को खोलना ही उपन्यास का मुख्य स्वर है।”
साहित्यकार द्वारा लिखा गया साहित्य एक सामाजिक संस्था के रूप में कार्य करता है और इस तरह साहित्यकार उस निसृत समाज का एक सामाजिक प्राणी बनकर हमारे समक्ष उपस्थित होता है। प्रत्येक जागरूक एवं संवेदनशील साहित्यकार की कृतियाँ सामाजिक धरातल पर अपने परिवेश को, समाज के सभी पक्षों गोया कि राजनीति, अर्थ, परिवार, धर्म, संस्कृति, मनोविज्ञान आदि का वास्तविक चित्रण कर उसे कहानी के रूप में परिलक्षित करती है। इसी तरह किसानों की समस्याओं और उनके जीवन के इर्द-गिर्द घूमती कहानियों को भी लेखकों ने विमर्श का केंद्र बनाकर कई उपन्यास लिखे। जिसमें ‘संजीव’ का लिखा शोधपरक ‘फांस’ उपन्यास सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। सामाजिक संदर्भों में देखें तो फाँस उपन्यास में हमें दलितों के प्रति भी उपेक्षा का भाव देखने को मिलता है। एक जगह वे जब “जोशी जी मुर्दाबाद! के नारे लगाते हुए कहते हैं कि- जोशी जी मुर्दाबाद, के नारे लगने लगे! उनका शक सही निकला! 2003 में सरकार ने किसानों के बीज, खाद, ऋण, मुआवजा के लिए ‘टास्क फोर्स’ का गठन किया और उसका डायरेक्टर बना दिया जोशी को…..उन्हीं के बूते वह बाघ-सा दहाड़ता फिरता था, पर नहीं। एक बार जो टूटना शुरू हुआ तो खंड-खंड टूटता ही चला गया शेतकरी आन्दोलन का विश्वास।”
उपन्यास की इन पंक्तियों में दलितों के द्वारा किये गए आंदोलन की झलक भी देखने को मिलती है। जिस तरह प्रेमचंद अपने समकालीन समय के किसान को चित्रित कर अपनी उपन्यास लेखन कला का परिचय देते हैं ठीक वैसे ही संजीव के उपन्यास का किसान शिबू पूरे भारत की सामाजिक संरचना में प्रवेश कर सम्पूर्ण समाज का प्रस्तुतिकरण करता नजर आता है। ‘फाँस’ तथा इस जैसी तमाम अन्य किसान पीड़ा पर आधारित रचनाएँ हमें समाज का एक वह आईना दिखाती है, जहाँ हमेशा से ही सामंतों, धनाढय तथा ब्राह्मणवाद का बोल बाला रहा है। इसी पीड़ा को विद्यासागर नौटियाल ने उत्तराखंड के गाँवों के किसानों की समस्याओं को ‘भीम अकेला’ उपन्यास में उजागर किया है।
कुछ इसी तरह राजू शर्मा ने अपने उपन्यास ‘हलफनामें’ में किसान आत्महत्या के साथ-साथ जल संकट को दर्शाया है। यह उपन्यास किसान जीवन की पृष्ठभूमि में लिखा गया है, जो लेखन की परम्परा में एक नये चिंतन के साथ हमारे समक्ष उपस्थित होता है। किसानों की आत्महत्या के प्रसंग पर ‘हलफनामें’ हिंदी का पहला उपन्यास भी है। किसान जीवन के विभिन्न रंग हमें मिथिलेश्वर के उपन्यास ‘तेरा संगी कोई नहीं’ में किसान त्रासदी, खेतों से किसान की जुड़ी हुई भावना और नयी पीढ़ी का पलायन प्रस्तुत करता नजर आता है। पंकज सुबीर ने भी ‘अकाल में उत्सव’ उपन्यास में गाँवों तथा किसान जीवन के दुःख-दर्द को समेटा है। इस उपन्यास में नजर आता है कि किसान जीवन में वर्तमान समय में सुख कम और उसके बनिस्पत दुःख कहीं अधिक है। इसमें भी किसान आत्महत्या का जिक्र उसके पात्रों के रूप में मिलता है। किसान जीवन की त्रासदी के मद्देनजर ‘वीरेन्द्र जैन’ के लिखे उपन्यास ‘डूब’ में किसान जीवन की त्रासदी और उनके कटु अनुभवों से जुड़ी हुई समकालीन समस्याएं दृष्टिगोचर होती हैं। बाढ़, अकाल, बे-मौसम बारिश, प्राकृतिक आपदाएं, कर्ज, खाद-बीज, अशिक्षा, अंधविश्वास, सरकारों की अनदेखी आदि बातें किसानों के गले की फांस बनकर उन्हें समस्याओं के दलदल से घेरे हुए, पात्रों के रूप में नजर आती हैं।
किसान जीवन के संघर्षों से दो चार होते हुए ‘आखिरी छलांग’ जैसा उपन्यास लिखने वाले शिवमूर्ति उत्तरप्रदेश के सुल्तानपुर जिले के कुरंग गाँव में मार्च 1950 को एक साधारण कृषक परिवार में जन्में, जिन्हें अन्य बच्चों की तरह ही स्कूल से विशेष लगाव नहीं था। 13-14 वर्ष की उम्र में परिवार की जिम्मेदारियाँ सर आ जाने से शुरुआती जीवन आर्थिक संकटों से घिरा पड़ा, जिसके उसके बाद विभिन्न कार्यों को करते हुए उन्होंने पहले परिवार को सम्भाला और उत्तरप्रदेश लोक सेवा में चुने गये। परिवार की आर्थिक स्थिति को ऊंचा करने में आजीवन लगे शिवमूर्ति साल 2010 में एडिशनल कमिश्नर के पद से सेवा निवृत हुए, आरम्भिक जीवन गाँव से जुड़ा होने के कारण इनके साहित्य में अक्सर गाँव अनायास ही आ जाता है,फिर चाहे कहानी लेखन हो या उपन्यास। उनकी कहानियों ‘तिरिया चरित्तर’, ‘सिरी उपमा जोग’ और उपन्यास ‘आखिरी छलांग’,‘तर्पण’, ‘त्रिशूल’ आदि सभी गाँव की चेतना से ओत-प्रोत नजर आते हैं। उनकी रचनाओं के पात्र भी गाँव की लोक संस्कृति से गहरा जुड़ाव रखे हुए दिखाई पड़ते हैं। यही वजह है कि आलोचकों ने यह पाया है कि किसी हद तक ये फणीश्वरनाथ रेणू से आंचलिक साम्यता रखे हुए हैं।
‘आखिरी छलांग’ उपन्यास ‘नया ज्ञानोदय’ पत्रिका के जनवरी 2008, अंक में सर्वप्रथम प्रकाशित हुआ था। एक लघु उपन्यास का रूप लिए यह कथा किसान जीवन के सभी पहलुओं को उजागर करती दिखाई देती है। किसान की बेबसी और उसके बाद उस बेबसी से उपजी आखिरी लड़ाई की कहानी को छलांग के रूप में दर्शाया गया है। उपन्यास का नायक है ‘पहलवान’, जो एक किसान है और उसका जीवन उन्हीं समस्याओं से जूझता नजर आता है, जिसमें कहीं समस्या के रूप में खेती है तो कहीं उस पर होने वाले खर्चे, तो कहीं अपनी बिटिया के लिए वर की तलाश, जो दहेज के कारण पूरी नहीं हो पा रही। तो कहीं बेटे की पढ़ाई का खर्चा। इसके अलावा सरकारी ऋण भी उसके जीवन की गति को बाढ़ बनकर रोके नजर आता है।
किसान जीवन में किसानों को सबसे अधिक यंत्रणा झेलनी पड़ती है कृषि और उससे जुड़ी सरकारी योजनाओं की। पहलवान भी इन्हीं परेशानियों से जुझता है। “तीन साल हो गये गन्ने का बकाया अभी तक नहीं मिला। सोसायटी से ली गई खाद का कर्ज न चुका पाने के चलते पिछले साल पकड़ लिए गये थे। हर दूसरे महीने ट्यूबवेल के बिल की तलवार सिर पर लटक जाती है।” यूरिया, बेहतर गुणवत्ता वाली खाद और बीज इत्यादि को इकट्ठा करना एक छोटे किसान के लिए बड़ी समस्या बन गई है, वहीं समय पर खाद का प्रबंध न होने पाने से बिना खाद के ही उपज लेनी पड़ती है और कम पैदावार से आर्थिक संकट गहराता है, और कहीं सब ठीक से हो जाए और पैदावार अच्छी हो जाए तो किसान की फसल कौड़ी के मोल बिकती है। जिससे उसका नफा तो दूर खर्चा तक पूरा नहीं हो पाता। खेती में प्रयोग होने वाले सभी सामान रोज महंगे होते जाते है वहीं किसान की फसल बाजार में जाते ही मंदी छाने लगती है।” छोटे किसानों के लिए “सारे हालात तो मर जाने के है, ज़िंदा कैसे रहा जाए।” लेखक द्वारा कही गई यह पंक्ति पूरे उपन्यास का सार वाक्य बनकर उभरती है। घर खर्च और अगली उपज के लिए पहलवान ने अपना एक खेत रहन पर रख रखा है, जिसको वह अभी तक छुड़ा नहीं पाया। इसके ऊपर सहकारी समिति का 3200 रुपये का कर्ज न उतार पाने के कारण अमीन पहलवान की सरे बाजार बेइज्जती करता है। इसी तरह गांवों के लोगों को लोन के झांसे में बैंकों के द्वारा फंसाया जाता है, जिसके चलते पांडे बाबा जैसे किसान विक्षिप्त होकर आत्महत्या कर लेते हैं, पर लोन है कि उतरता ही नहीं।
वर्तमान दौर में किसानों के जीवन में दहेज रूपी दानव समय के साथ और अधिक फैल गया है। गरीब के लिए अपनी लड़की ब्याहनी जीने मरने के समान हो जाती है। कर्जा और जमीन बेचने के अलावा कोई रास्ता उन्हें दिखाई नहीं देता। लड़के वाले अपने बेटे के ऊपर किये खर्चों को लड़की वालों से ले लेना चाहते है। लड़के की पक्की नौकरी में दी गई रिश्वत तक वे लड़की वालों से वसूलना चाहते हैं। पहलवान जब अपनी बेटी के लिए वर की तलाश में निकलता है तो उसे भी इसी दानव का सामना करना पड़ता है। फिर इसी उपन्यास के एक पात्र मामाजी ही बोले- “आजकल तो सड़े-गले बहेल्ला लड़कों का तिलक भी इक्यावन हजार से शुरू हो रहा है भईया / मोटर साइकिल के बिना तो बात ही आगे नहीं बढ़ती। जब बण्डा जैसे मुँह वाले लड़के हीरो होण्डा मांग रहे है तो हमारा भांजा तो लाखों से एक है।”
यह यह उपन्यास हमारे ही तथाकथित भारतीय समाज की सोच को दर्शाता है, जिसमें गरीब के घर कोई अपना लड़का ब्याहना नहीं चाहता। क्योंकि उनकी सोच है कि- “किसी रईस के घर से आयेगी तो उसके साथ घर में रहीसी आ जायेगी। किसी दरिद्र के घर से तो इस घर में भी उनके साथ-साथ दलिदर की पैसारी हो जायेगी।” इन्हीं दुर्भाग्यों से लड़ता हुआ किसान पूरा जीवन इसी दलिदर को घर से भगाने में लगा रहता है। सरकारी योजनाएं भी उसके इस दुर्भाग्य को नहीं हटा सकती क्योंकि योजना का लाभ कभी पूरी तरह उसे मिलता ही नहीं। सभी सरकारी तन्त्रों में व्याप्त भ्रष्टाचार किसानों की उम्मीदों पर चोट ही करता है। आखिरी छलांग में भी पहलवान का व्यवस्था के प्रति रोष है पर वह कभी बाहर नहीं आता उसके मन में ही चलता रहता है। ऐसा नहीं है कि किसान जागरूक नहीं है परन्तु उसकी गरीबी और लाचारी उसे व्यवस्था से लड़ने की इजाजत नहीं देती।
शिवमूर्ति ने अवध की धरती के किसानों की बेबसी को अपने उपन्यास और कहानियों में उकेरा है परन्तु देखा जाए तो यह पूरे भारत के छोटे किसानों की आपबीती है। उन्नति के पथ पर अग्रसर होते हुए देश में भी किसानों की अवस्था इक्कीसवीं सदी में इतनी ही दयनीय है जितनी की प्रेमचंद के गोदान में होरी की। वह भी अपना कर्ज चुकाने में उस समय अक्षम था और शिवमूर्ति का पहलवान भी 3200 रुपये के कर्जे को चुका पाने में खुद को असमर्थ पाता है। कई बार परिस्थितियों के दबाव में किसानों में आत्महत्या की प्रवृत्तियाँ हावी हो जाती है। परंतु शिवमूर्ति का पहलवान इस व्यवस्था के प्रति पूरे जोश से आखिरी छलांग की तैयारी में लग जाता है। यही सकारात्मकता आज के समाज के लिए जरूरी है ताकि नकारात्मक प्रवृत्तियों से छुटकारा मिल जाए।