भारत एक संस्कृति एवं विरासत प्रधान देश है। सांस्कृतिक विरासत में भारत की संस्कृति तथा पुराने वेद-पुराण, उपनिषद, रामायण, महाभारत आदि कुछ ऐसी पूज्य ग्रंथों में हमारी संस्कृति विरासत के रूप में मिली है। भारतीय विरासत हर चीज में अपना एक अलग ही इतिहास लिए हुए है और काफ़ी हद तक फैली हुई हैं और हर क्षेत्र में भारतीय विरासत का नाम है चाहे वह नृत्य हो खान-पान हो, रहन-सहन, औषधियाँ हो, धार्मिक स्थल हो, धार्मिक ग्रन्थ हो। हमारे देश की हर चीज पूरी दुनिया से अलग है। हमारे देश में हर चीज को पूजनीय माना जाता हैं। जैसे कि पेड़-पौधे, नदी इत्यादि को देवी-देवता मान के पूजा जाता है।
गुजरात में नवरात्रि का विशेष महत्व है। इसे राज्य के सबसे बड़े त्योहारों में से एक के रूप में मनाया जाता है। डांडिया और गरबा गुजरात की सांस्कृतिक धरोहर का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं, जो शरद नवरात्रि के दौरान मनाए जाने वाले पारंपरिक नृत्य रूप हैं। ये नृत्य धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक रूप से अहम माने जाते हैं, विशेष रूप से नवरात्रि पर्व के दौरान देवी दुर्गा की आराधना के रूप में प्रस्तुत किए जाते हैं। जबकि गरबा और डांडिया एक ही आयोजन का हिस्सा होते हैं, दोनों में तकनीक और प्रदर्शन के रूप में मामूली अंतर होता है। गरबा मुख्य रूप से देवी शक्ति की पूजा का प्रतीक है, जबकि डांडिया में रासलीला का चित्रण होता है।
नवरात्रि, जिसका अर्थ “नौ रातें” है, दिव्य स्त्री शक्ति का उत्सव है। यह उत्सव तीन दिनों के तीन समूहों में विभाजित है, प्रत्येक समूह देवी दुर्गा के विभिन्न रूपों को समर्पित है, जिनमें दुर्गा स्वयं (योद्धा देवी), लक्ष्मी (धन की देवी) और सरस्वती (ज्ञान की देवी) शामिल हैं। इस अवधि के दौरान डांडिया और गरबा का आयोजन किया जाता है, जिससे श्रद्धा प्रकट होती है और अच्छाई की बुराई पर विजय का उत्सव मनाया जाता है।
नवरात्रि के दौरान मनाए जाने वाले डांडिया और गरबा नृत्य मुख्यतः गुजरात राज्य में प्रचलित हैं, लेकिन अब भारत के अन्य क्षेत्रों और विश्व भर में भारतीय समुदायों के बीच लोकप्रिय हो गए हैं। डांडिया और गरबा की लयबद्ध ताल, रंगीन परिधान और उत्साहपूर्ण वातावरण आनंद, भक्ति और सामुदायिक बंधन का प्रतीक हैं।
नवरात्रि का प्रत्येक दिन एक विशिष्ट रंग का महत्व रखता है – भक्त दिन के रंग का पालन करते हैं और उसी से मेल खाते हुए कपड़े पहनते हैं। गरबी के नाम से जाना जाने वाला एक मिट्टी का बर्तन रखा जाता है और इसका उपयोग आरती के लिए किया जाता है। उत्सव के प्रत्येक दिन देवी शक्ति की आरती की जाती है।
देवी पूजा में अनुष्ठान होते हैं। व्रत होते हैं। कठिन दिनचर्या होती है। शास्त्रों में देवी अनुष्ठान में नृत्य के कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं मिलते हैं। डांडिया, गरबा जैसी लोक-संस्कृति की परंपरा इससे बाद में जुड़ती चली गई। इस नृत्य की जड़ें कृष्ण से जुड़ी हुई हैं। प्रचलित अनुश्रुतियों के अनुसार, भगवान श्री कृष्ण ने डांडिया रास का आरंभ ब्रज क्षेत्र के वनों में किया था। जब कृष्ण जरासंध के भय से मथुरा छोड़ द्वारिका चले गए थे, तब उनके साथ गोप और ग्वाले भी गए। गोप की परंपरा में हल्दीरास या हल्दीराशक नृत्य था, जो इनके साथ गुजरात पहुंचा।
महिला-पुरुषों द्वारा डंडे से किया जाने वाला यह नृत्य भारत का सबसे प्राचीन नृत्य है। इन्हें गुजरात में मालधारी कहा जाता है। आज भी कच्छ में डांडिया करने वाले मालधारी हैं। पर्वती काल में हाथ में डंडे लेकर किया जाने वाला यह नृत्य महिलाएं करने लगीं। इसे गरबा कहा जाने लगा, बाद में यह नवरात्र की संस्कृति में जुड़ गया। अब यह व्यापक लोकसंस्कृति बन गई है। इसे विभिन्न राज्यों में किया जाने लगा है। अब तो यह नौरात्र में प्रमुख अंग की तरह शामिल है।
डांडिया रास नृत्य में रास के कई रूप हैं, लेकिन गुजरात में नवरात्रि के दौरान “डांडिया रास”, सबसे लोकप्रिय रूप है। रास के अन्य रूपों केवल एक बड़ी छड़ी प्रयोग किया जाता है जहाँ राजस्थान से डांग लीला और उत्तर भारत से “रासा लीला” में शामिल हैं। “डांडिया” या लाठी 18 इंच लंबे होते हैं।
डांडिया रास, जिसे “सौंदर्य का नृत्य” भी कहा जाता है, यह नृत्य रासलीला पर आधारित है, जो भगवान कृष्ण और गोपियों के बीच हुए प्रेम और भक्ति का प्रतीक है। डांडिया रास में, नर्तक एक-दूसरे के साथ नृत्य करते हुए डांडिया छड़ियों को आपस में टकराते हैं।
गरबा शब्द “गर्भ” से निकला है, जिसका अर्थ होता है “माँ के गर्भ का सम्मान” या “जीवन का स्रोत।” गरबा एक धार्मिक नृत्य है, जो देवी अम्बा या दुर्गा को समर्पित होता है। यह नृत्य एक गोलाकार समूह में किया जाता है, जहां नर्तक एक घेरा बनाकर गरबा की परंपरागत धुनों पर नाचते हैं। गरबा नृत्य के दौरान, नर्तक दीप (दीया) या मिट्टी के बर्तन का प्रयोग करते हैं, जिसे गरबी कहते हैं, और यह जीवन के चक्र का प्रतीक माना जाता है।
गरबा का इतिहास पौराणिक काल से जुड़ा हुआ है, विशेष रूप से महिषासुर के विरुद्ध देवी दुर्गा की विजय के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। यह नृत्य पुराने समय से गाँवों में देवी मंदिरों के प्रांगण में किया जाता था, और आज भी इसे बड़े पैमाने पर नवरात्रि के उत्सव के दौरान देखा जाता है।
डांडिया नृत्य विभिन्न संस्कृतियों, समुदायों और जातियों को एक साथ लाने का काम करता है। यह एक ऐसा मंच है, जहाँ लोग अपने मतभेदों को भूलकर एकसाथ आते हैं और नृत्य के माध्यम से अपने हर्ष और उल्लास को प्रकट करते हैं। इस नृत्य का आयोजन केवल धार्मिक नहीं है, बल्कि यह भारतीय सामाजिक संरचना का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया है। डांडिया में पुरुष और महिलाएं, दोनों समान रूप से भाग लेते हैं, जो लिंग समानता और समावेशिता का भी प्रतीक है।
डांडिया के साथ जुड़े गीत और संगीत भी इसकी विशेषता को और बढ़ाते हैं। पारंपरिक गुजराती गानों के साथ, तबले, ढोल और अन्य वाद्ययंत्रों की ध्वनियाँ इस नृत्य को जीवंत बना देती हैं। इसके साथ ही, रंगीन परिधान, चमकदार गहने, और विभिन्न प्रकार की पारंपरिक वेशभूषा इस नृत्य को एक दृश्य सौंदर्य प्रदान करती हैं। वेशभूषा के माध्यम से क्षेत्रीय परंपराएँ और सांस्कृतिक धरोहर की झलक भी मिलती है।
डांडिया का आयोजन केवल नवरात्रि के धार्मिक अवसर तक सीमित नहीं है। यह नृत्य भारतीय समाज में मेल-जोल, एकता और सामाजिक संबंधों को मजबूत करने का काम करता है। डांडिया रातों में हर उम्र और वर्ग के लोग हिस्सा लेते हैं, जिससे यह नृत्य लोगों के बीच भाईचारे और आपसी प्रेम को बढ़ावा देता है।
आज के दौर में, डांडिया केवल ग्रामीण क्षेत्रों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह देश-विदेश के महानगरों में भी धूमधाम से मनाया जाता है। ग्लोबलाइजेशन और आधुनिकता के बावजूद, डांडिया ने अपनी पारंपरिकता और सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखा है। इसके साथ ही, नए संगीत और फ्यूज़न की वजह से डांडिया युवाओं के बीच भी बेहद लोकप्रिय है। विभिन्न इवेंट्स और कॉरपोरेट आयोजनों में भी डांडिया का आयोजन किया जाता है, जो इसके महत्व को और बढ़ाता है।
डांडिया और गरबा केवल नृत्य नहीं हैं, बल्कि सामुदायिक एकता के प्रतीक भी हैं। गरबा के वृत्ताकार निर्माण समानता और एकता का प्रतीक हैं, जहाँ प्रतिभागी, उनकी पृष्ठभूमि के बावजूद, सामंजस्यपूर्ण ढंग से एक साथ चलते हैं। अहमदाबाद, वडोदरा और सूरत जैसे शहरों में, हजारों प्रतिभागियों के साथ विशाल गरबा और डांडिया कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। सामाजिक एकता की भावना स्पष्ट होती है, और यहां तक कि जो लोग कदमों से अनजान हैं, उन्हें भी शामिल होने और सीखने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।
परंपरागत रूप से निहित होते हुए भी, डांडिया और गरबा एक वैश्विक परिघटना के रूप में विकसित हुए हैं। भारतीय प्रवासी इन नृत्यों को संयुक्त राज्य अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम, ऑस्ट्रेलिया और कनाडा जैसे देशों में ले आए हैं, जहां उन्हें उत्साहपूर्वक मनाया जाता है। पारंपरिक लोक धुनों का समकालीन संगीत, आकर्षक प्रकाश प्रदर्शन और विस्तृत मंच सजावट के समावेश ने डांडिया और गरबा को एक आधुनिक स्वरूप प्रदान किया है।
गरबा और डांडिया न सिर्फ पारंपरिक नृत्य हैं, बल्कि ये भारतीय संस्कृति और समाज में देवी दुर्गा और भगवान कृष्ण की आराधना के महत्वपूर्ण माध्यम भी हैं। इनके माध्यम से भारतीय संस्कृति की गहरी धार्मिक और सांस्कृतिक जड़ें स्पष्ट रूप से दिखाई देती हैं। इन नृत्य रूपों की अनूठी विशेषता यह है कि वे परंपरा के मूल्यों से जुड़े रहते हुए भी समय के साथ खुद को समायोजित करने की क्षमता रखते हैं। यही कारण है कि वे भारतीय विरासत के अविनाशी एवं प्रिय पहलुओं में से एक बन गए हैं।
‘सर्वाबाधाविनिर्मुक्तो धनधान्यसुतान्वित:, मनुष्यो मत्प्रसादेन भविष्यति न संशय’