आपने देखा है हडसन तट ? कोई बात नहीं, पूरा तट आपके नज़रों के सामने आ खडा होगा उसके बाद ही कहानी के पात्र नमूदार होंगे ! ये वादा रहा ! और तट ही क्यों, उपन्यास के इन एक सौ अट्ठारह पन्नों में ऐसे कई अद्भुत, मनोरम, मजेदार दृश्य, कल्पनालोक खुलते जायेंगे कि आप पाठकगण दांतों तले उंगलियाँ न दबा लें तो कहना ! शिवना प्रकाशन से हाल में आया यह उपन्यास वैसे तो बालसाहित्य है लेकिन रोचकता और कल्पनाशीलता की चाशनी में लपेट जीवन मूल्य, व्यवहारिक ज्ञान और नैतिकता के पाठ हम व्यस्क पाठकों के मानस की आवश्यकताओं की भी पूर्ति करते हैं | ‘रॉकी’ ने एक जगह ‘डॉगी’ को कहा था, “ये पुरानी दकियानूसी बातें करना घटिया सोच है | अब नस्ल, जाति, धर्म, रंग, संप्रदाय आदि की बातें करना घटिया सोच है|”
“…वह जलन, ईर्ष्या, प्रतिशोध, बदला जैसी पुरानी बातों को ही मानता है | इस तरह नई दुनिया कैसे बनेगी ?” लेखक पात्रों के माध्यम से एक बेहद उत्कृष्ट समाज की सोच सामने लाते हैं |
“बालसाहित्य मनीषी” प्रबोध गोविल जी के कहन के अंदाज़ से तो सभी भलीभांति परिचित हैं ही | कहीं बेहद सरल उदाहरणों से गूढ़ पहेलियाँ सुलझा देते हैं – डायनासोर अपने बड़प्पन में अकेला रह कर ही तो मारा गया !” और कई-कई जगह तो हँसा-हँसा कर लोट-पोट कर देते हैं – बादामी शैतान डौगी ने रॉकी पर जब हमला किया तो रॉकी जान की परवाह करने के बजाये सोचता है कि ‘वह नुचे हुए पंखों में विवाह के दिन कितना बदसूरत दिखता |’ कितनी भी बड़ी मुश्किल हो, जरा होश संभालो तो अपनी भूली हुई शक्तियां याद आ जाती हैं ! और बात-बात पर इंसानों की प्रवृति पर तंज कसते चलते हैं – “इंसान तो जाति धर्म ही नहीं, जन्मकुंडली तक मिलाते हैं |”
किसी कौतुहल की तरह एक से बढ़ कर एक पाठ दिमाग में उतरता रहा, “केवल धन और यश कमाना ही पर्याप्त नहीं…इससे आगे भी बढ़ कर कुछ सोचना चाहिए !” हम मनुष्यों ने अपने कपड़ों, रहन-सहन, खान-पान को लेकर कितने पूर्वाग्रह पाल लिए हैं ! हमें तो अपने दुःख, उचाटपन, गुस्से जैसे प्राकृतिक आवेगों को संभालना नहीं आता ! फिर क्या प्रेम को जानना-समझना इतना आसान है ? हडसन के तट से उठे इस प्रश्न ने शहर, राज्य देश की सीमायें लांघते हुए एक सार्वभौमिक रूप ले लिया ! प्यार है क्या ? दिखेगा कैसे ? इसको मापा कैसे जाए ? उपन्यास “हडसन तट का जोड़ा” में प्यार की खोज की जो यात्रा होती है तो प्यार के सारे राज एक-एक कर खुलते जाते हैं ! हर बार पाठक कह उठता है, हाँ यही तो है प्यार ! और फिर समझ आता है कि नहीं, यह प्यार नहीं !
इसी विषय को लेकर अध्याय सत्रह और अट्ठारह में जो वातावरण रचा है आपने वह अद्भुत बन पड़ा है ! एक से बढ़ कर एक तर्क, कड़क प्रश्न ! दो दिलों के प्यार, दो जिस्मों का प्यार सभी हदें तोड़ता हुआ परिंदे, इंसानों, मशीनों तक फिर धन, व्यवसाय, बच्चों से प्यार, अपने देश से प्यार ! लेकिन उसी प्यार में गोली !! लेखक के कलम में वो जादू है जो शब्दों, तर्कों, प्रश्नों का सनसनाता, भावों का तरंगित एक दृश्य खड़ा कर देतें हैं और पाठक विस्मित रह जाता है |
ऐश के बहाने लेखक कमसिन युवाओं को यह समझाते हैं कि दीवानगी में कोई कदम उठाने से पहले अपने ‘पर तौल लो’ ! कहीं अपनी उन्मुक्त उड़ान से अनभिज्ञ न रह जाओ | अध्याय बीस में स्त्री विमर्श का यह छोटा सा अनुच्छेद बड़े काम का है, “मर्दों की तो हमेशा से यही तमन्ना रहती है कि उनकी पत्नी हर बात में उनसे कमतर हो |…अच्छा हुआ जो उससे पीछा छूटा |”
प्रवासी पंछियों द्वारा समूह में उड़ान भर विकट यात्रा पर जाना जबरदस्त टीम वर्क सिखाता है वहीँ समूह के मुखिया की जिम्मेदाराना भूमिका भी बताता है | पक्षियों की सामाजिक समझ एवं प्रवृति का तथ्यात्मक आधार लिया गया है | बन्दर महाराज का यह कहना कि, “..सबकी बात का सराहना करता हूँ कि आपने अपने मित्र को किसी खतरे से बचने के इरादे से जोखिम उठाकर भी इसका साथ दिया |” बच्चों में मित्रता के सद्गुण भरेगा ! वहीँ बन्दर द्वारा अपने माता पिता और बेटे के लिए अपार प्रेम को रेखांकित करते हुए पारिवारिक मूल्यों को संजोया है | यह वहीँ यात्रा थी जिसमें प्रत्येक कदम पर प्यार की परिभाषा अपना रूप बदल रही थी |
हमने ज्ञान, कौशल, जीवन मूल्य, नैतिकता, संवेदनशीलता इत्यादि तमाम तरह की बात की | एक बात जो आज के समय की महत्वपूर्ण मांग है वह है यौनशिक्षा ! इस मुद्दे पर आ कर जहाँ हर कोई शब्दों में हाथ तंग पाता है वहीँ उपन्यास में इस तन के बुखार, प्राकृतिक आवेग को सरल और सहज शब्दों में खोल कर रख दिया है यह संसार | बिना उत्कंठा जगाये एक अबूझ पहेली सुलझा दे रहा है | लेखक ने इतने पेचीदे विषय को समझाने के लिए इंसान पात्र नहीं ले कर पक्षी पात्रों का मानवीकरण किया है | शारीर की विभिन्न क्रियायों, आवेगों पर बेहतरीन तार्किक कहानी पढ़ते-पढ़ते पाठक कह उठता है, यह तो बड़ी स्वाभाविक सी बात है, हमने अनावश्यक ही बात को तूल दे रखा है और सारी दुनिया में यौनिकता को कितना बड़ा बवाल बना कर रख दिया है |
कहानी में जहाँ-तहाँ जीवन दर्शन झाँक रहा है, “यही तो है ज़िन्दगी | जो कुछ मिल जाये उसकी कीमत नहीं समझते हम, जो नहीं है उसे ढूंढते रहते हैं |” जबकि मौत का पंजा बाज सा झपट्ता है तो शोक के दो पल भी मयस्सर नहीं होते ! बूढ़े चाचा के जान से चले जाने पर ऐश को रोना नहीं आया, सहानुभूति तो थी ही | सहज वृति, जिव की, प्राण की !” इस तरह के जीवन दर्शन किशोर वय में ही किसी अनजाने अपराधबोध से मुक्त करने में सहायक सिद्ध होते हैं |
जब ऐश प्यार जानने और समझने के लिए अकेले ही पूरी दुनिया का चक्कर लगाते हुए जीवन के कई राज समझते जा रही थी तब उसने जिस तरह अपने पर झपट्टा मारते बाज को माफ़ कर दिया, जिस तरह उसने बूढ़े चाचा को उनके कृत के लिए माफ़ कर दिया, जिस तरह उसने एक युवा नर के मन की इच्छा को समझा, ऐसा लगा कि यह बाल कहानी आध्यात्म की ऊँचाई तक ले जाती है !
भाषा और शैली की बात की जाए तो साहित्य का उद्देश्य प्रमुखतः इस नई पीढ़ी की शब्दावली समृद्ध करना होता है | सरल शब्दों के बीच-बीच में तद्सम-तद्भव शब्दों को बारीकी से पिरोया गया है | उदाहरणार्थ – भिनसारे, एकाग्रचित, वज्रपात हुआ, बेसाख्ता, धृष्टता, कुपित, तन्द्रा … खुबसूरत व्यंजना, ‘रात के गर्भ से उजाला निकलने को कसमसा ही रहा था |” या एक रूपक देखिये, “…चन्द्रमा भी बहुत पतला सा, किसी गाय के सींग की भांति ही चमक रहा था…” या फिर “जमीन के कंधों पर पानी की थपकियों का शोर |”
उपन्यास में इतने सारे कहावतें, मुहावरे प्रयुक्त कहुए हैं कि उनकी एक पूरी सूची तैयार हो सकती है | सूक्तियां जैसे, “…स्त्रियाँ बीती बातें याद रखने में ज्यादा समर्थ होती हैं जबकि पुरुष अतीत भूल कर वर्तमान में जीना पसंद करते हैं |” या “क्षमा कर देना तो संतों का गुण होता है !” ; “खोजने से क्या नहीं मिलता !”; “जो लोग जीवन भर कहीं आते-जाते नहीं, एक ही जगह जमे रहते हैं वो कितने खुदगर्ज हो जाते हैं| घाट-घाट का पानी पी लेने वाले तो खुद बहते पानी की भांति निर्मल हो जाते हैं | उन्हें दूसरे के दुःख दर्द और विचारों क सम्मान करना भी आ जाता है |”
‘हरियाली और रास्ता’; ‘दूर गगन की छाँव में’ ; ‘मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है’ आदि वाक्यांश किसी फिल्म के गाने या संवाद की याद दिलाते हैं | पाठक को बरबस ही ध्यान आ जाता है कि प्रो. गोविल ने ‘जबाने यार मनतुर्की’ और ‘साहेब सायराना’ सरीखी जीवनियाँ भी लिखीं हैं !
चाहे ‘अकाब’ हो या ‘जल तू जलाल तू’ उपन्यासों की ही तरह इसमें भी कहानी का वितान कई-कई देशों तक फैलते-फैलते पूरी दुनिया का हो जाता है | किसी शहर के किसी एक कोने में और उसके पात्र आधी से अधिक और कभी तो पूरी दुनिया का चक्कर लगा कर भारत आते हैं | कितने ही देशों का नाम उद्धृत हुआ है और हडसन तट की ऐश का भारत आना होता है जहाँ से कहानी एक जबरदस्त मोड़ लेती है |
पाठक से बात करता कई चमत्कारों और कौतुहल से भरा यह उपन्यास बालमन और मष्तिष्क क्षुधा के लिए बेहद पौष्टिक भोजन है !
सुधि पाठक, आप यह उपन्यास पढना शुरू करें उसके पहले आपसे एक बात पूछनी है, आपने किसी के पीछे एक छोटा लाल निशान देखा ? नहीं नहीं, बस यूँ ही…