समूचे भूखंड पर भारत ही एकमात्र देश होगा जहाँ प्रतिभाओं का सबसे ज्यादा अनादर किया जाता है, खासकर बिहार और उत्तर प्रदेश। हमारी पूरी सोच नकारात्मकता पर आधारित है, हमें चीजों/व्यक्तियों का मूल्य तब पता चलता है जब हम उसे खो चुके होते हैं।
बिलकुल ही साधारण परिवार से निकल कर अपने मुल्क में सबसे कम उम्र में स्नातकोत्तर होने के बाद बर्कले विश्वविद्यालय से पीएचडी होकर नासा का वैज्ञानिक बना, जिसे अमेरिका सरकार अपनी नागरिकता देने तो तत्पर थी, परन्तु सब कुछ को ठुकरा कर देश हित के लिए वापस स्वदेश आ गया हो और आईआईटी, कानपुर में शिक्षक बना हो…….वह सौभाग्यशाली व्यक्ति दुर्भाग्य से एक ढाबा में जूठे बर्तन धोता हुआ दिखे….. आजम खान जैसे स्तरहीन राजनीतिज्ञों की भैस तक को खोज निकालने वाली सरकार/प्रशासन को इसकी भनक भी न हो…….तो यह चमत्कार सिर्फ और सिर्फ भारत में ही देखा जा सकता है। जिसे कभी बर्कले यूनिवर्सिटी ने जीनियसों का जीनियस कहा था।
इसे नियति का कहें अथवा सरकारी तंत्र की लापरवाही। लेकिन, कड़वा सच यह है कि जिस इंसान ने महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन के सिद्धांत को कटघरे में खड़ा कर दिया तथा जिसके गणितीय शोध का लोहा संपूर्ण विश्व ने माना, वह पूरी जिंदगी सिजोफ्रेनिया बीमारी से पीड़ित होकर गुमनामी की जिंदगी जीता रहा।
जिस देश में जनता से उसके मेहनत के द्वारा उपार्जित धन पर सरकारों की सदैव वक्र दृष्टि बनी रहती हो, किस प्रकार उसके समूचे पैसे को कर के नाम पर वसूल लिया जाये, ताकि राजनीतिज्ञों की अय्यासी देश सेवा के नाम पर चलती रहे, जिस देश में आयकर विभाग के छापे के दौरान बोड़ा का बोड़ा रुपया सड़कों पर लावारिश फेंक दिया जाता हो, नोटबंदी के दौरान रद्द हुए करेंसी का समुचित उत्तर के अभाव में लाखों करोड़ रूपये जला दिए गए, नाले-नदियों में बहा दिया गया हो…….उस मुल्क में वशिष्ठ नारायण के समुचित इलाज के लिए पैसे नहीं थे।
बिहार स्थित ग्राम बसंतपुर आरा (से करीब 22 किमी उत्तर-पश्चिम में अवस्थित है। इन्होंने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा अपने गाँव में प्राप्त की। उसके बाद इनका दाखिला नेतरहाट में जहाँ से ये उच्चतर माध्यमिक बोर्ड, बिहार में प्रथम स्थान प्राप्त करते हुए पास किए। साइंस कॉलेज, पटना में बीएससी (प्रतिष्ठा) प्रथम वर्ष में ही इनकी प्रतिभा को देखते हुए पटना विश्वविद्यालय ने इन्हें तीनों वर्षों की परीक्षा एक साथ प्रथम वर्ष में ही देने की छूट दे दी थी, और उन्होंने अकेडमी के सारे पुराने मापदंडों को ध्वस्त कर दिया था। तब तक वशिष्ठ नारायण अपने सहपाठियों और गुरुओं बीच गणित के कठिन प्रश्न को कई तरीकों से हल करने के लिये मशहूर हो चुके थे।
उसके कुछ ही महीने बाद विश्वविद्यालय के पटना कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग में गणित सम्मेलन का आयोजन किया गया था। उस सम्मेलन में विश्व प्रसिद्ध गणितज्ञ डा. जॉन एल केली अमेरिका के कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, बर्कले से पधारे थे। आयोजकों ने वशिष्ठ नारायण का परिचय डा. केली से कराया। उन्होंने वशिष्ठ नारायण को कई कठिन प्रश्न हल करने को दिया। वशिष्ठ नारायण की प्रतिमा से डा. केली बहुत प्रभावित हुए और तत्काल बर्कले आकर आगे की पढ़ाई का निमंत्रण दे दिया। वशिष्ठ नारायण ने अर्थाभाव के कारण बर्कले जाने में अपनी असमर्थता जतायी। डा. केली ने उनका सारा खर्च वहन करने का भरोसा दिलाया।
पटना विश्वविद्यालय प्रशासन ने उनके स्नातक डिग्री लेने के बाद उनका पासपोर्ट व वीजा बनवाकर उन्हें डा. केली के पास कैलिफोर्निया भेज दिया। डा. केली ने भी अपना वादा निभाया और अपने मार्गदर्शन में रिसर्च कराया। वशिष्ठ नारायण ने भी पूरे लगन और मेहनत के साथ रिसर्च कर पीएचडी की डिग्री प्राप्त कर उस जमाने का एक कीर्तिमान स्थापित किया। कम उम्र में एक अति कठिन टॉपिक ‘रिप्रोड्यूजिंग कर्नल्स एंड ऑपरेटर्स विद ए साइक्लिक वेक्टर’ पर 1969 में पीएचडी प्राप्त कर लेने के कारण वे अमेरिका में भी मशहूर हो गए। डॉ. वशिष्ठ नारायण सिंह प्रतिष्ठित नासा में एसोसिएट साइंटिस्ट प्रोफेसर के पद पर बहाल हुए, जो किसी के लिए भी एक सपना होता है।
एक घटना प्रसिद्ध है जिन दिनों विश्व के प्रसिद्ध अंतरिक्ष केंद्र नासा में अपोलो 14 और 15 की लांचिंग का कार्य जोरों पर चल रहा था, तब अचानक वहां काम कर रहे 31 कंप्यूटर जो गणना का कार्य कर रहे थे बंद पड गये तब उस गणना के कार्य को मैनुअली करने का कार्य डॉ वशिष्ठ नारायण सिंह अपने गणितीय कौशल से करने लगे, जिस पर वहां उपस्थित वैज्ञानिक इसे असंभव और अविश्वसनीय मानने लगे। लेकिन जब कंप्यूटरों ने काम करना शुरू किया तो उसके गणन और डॉ वशिष्ठ नारायण सिंह के मैनुअल गणन के कार्य के परिणामों को समान पाकर उपस्थित सभी वैज्ञानिक अचरज में पड गये और उनकी गणितीय कुशाग्रता पर ताली बजाने लगे। इस घटना के बाद डॉ सिंह के जादुई मैथेमेटिकल स्किल्स की चारों ओर चर्चा होने लगी।
अपनी पी एच डी पूरी करने के बाद वह वाशिंगटन यूनिवर्सिटी में सहायक प्रोफेसर के रूप में पढ़ाने लगे जो उस समय किसी भी भारतीय के लिये बडे गौरव की बात थी। सन 1960 से 1970 तक वह कई प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों में अध्यापन का कार्य करते रहे। महान गणितज्ञ डा. वशिष्ठ नारायण सिंह गणित के जादूगर थे। हमारे देश के महान गणितज्ञों में श्रीनिवास रामानुजन के बाद जिस प्रसिद्ध गणितज्ञ का नाम लिया जाता है वह डॉ वशिष्ठ नारायण सिंह का है।
परंतु कुछ ही वर्षों में उन्हें राष्ट्रप्रेम सताने लगा और वे 1972 में भारत लौट आए, जबकि अमेरिका उन्हें अपनी स्थायी नागरिकता प्रदान करना चाह रही थी जिसे उन्होंने ठुकरा दिया। घर लौटने पर पूरे इलाके में उनका शानदार स्वागत हुआ। उनके माता-पिता की प्रतिष्ठा आसमान पर पहुंच गई।
भारत लौट कर वह अध्यापन के काम में लग गये। इस बीच उन्होंने आई आई टी कानपुर, टाटा इन्सिट्युट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च मुंबई और इंडियन इंस्टीट्यूट स्टैटिस्टिकल, कोलकाता में प्राध्यापक के रूप में कार्य किया। जहां उनके विद्यार्थी उनसे पढ़ कर अपने को सौभाग्यशाली मानते हैं।
कहावत है कि “जीवन का पहिया कभी सीधे नहीं चलता, उसमें कई उतार चढाव आते हैं! ऐसा ही डॉ. वशिष्ठ नारायण सिंह के मेधावी जीवन के साथ भी हुआ।
एक तो वशिष्ठ नारायण बहुत ही साधारण पृष्ठभूमि के थे और इसके विपरीत उनका विवाह वंदना रानी सिंह से 1973 में एक संभ्रांत परिवार में हो गया। वे खान-पान और रहन-सहन तथा विचार से भी साधारण थे और संयुक्त परिवार के समर्थक थे। इसके विपरीत उनकी पत्नी आधुनिक और एकल परिवार विचारधारा में विश्वास रखती थी। यही वह समय था जब वशिष्ठ नारायण असामान्य व्यवहार करने लगे थे। वशिष्ठ नारायण सिंह की भाभी प्रभावती जी बतलाती हैं कि “छोटी-छोटी बातों पर बहुत गुस्सा हो जाना, पूरा घर सिर पर उठा लेना, कमरा बंद करके दिन-दिन भर पढ़ते रहना, रात भर जागना उनके व्यवहार में शामिल था”। जल्द ही कुल मिलाकर यह शादी बेमेल साबित हो गई और तलाक की नौबत आ गईं। तलाक की प्रक्रिया में वशिष्ठ इतने प्रताड़ित और अपमानित हुए कि वे पागल हो गये।
अपने समूह से कट जाना भी उनके पागलपन का एक महत्वपूर्ण कारण बना। 1974 में उन्हें पहली बार सिजोफ्रेनिया नामक बीमारी ने उनके मस्तिष्क पर प्रहार किया जिसके परिणामस्वरूप आते-आते उनकी नौकरी छूट गई और उन्हें रांची के मानसिक आरोग्यशाला, कांके में भर्ती होना पड़ा।
बेहतर इलाज के क्रम में अपने छोटे भाई अयोध्या सिंह के साथ 1986 में पुणे जाने के क्रम में वह बीच रास्ते में एक बड़े स्टेशन पर उतर कर लापता हो गए। काफी प्रयास के बाद भी नहीं मिले। सन 1992 में बसंतपुर का नजदीकी बाजार गंगा पार डुमरी, जिला छपरा पड़ता है। वहां उनके नजदीक गांव के दो युवकों ने किसी होटल में जूठे प्लेट धोते हुए देख कर पहचानते हुए कहा ‘अरे इ त बसीठ काका बाड़न’। इसकी पुष्टि लगभग दूसरे लड़के ने भी की। किसी तरह उन पर निगरानी रखते हुए लड़कों ने स्थानीय थाने को सूचना दी। यह सूचना तेजी से फैलते हुए जिलाधीश के मार्फत तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव तक पहुँची। लालू यादव ने वशिष्ठ बाबू को तत्काल पटना बुला लिया।
मुख्यमंत्री आवास पर उनका अच्छा स्वागत हुआ और स्नान कराकर उन्हें नया कपड़ा पहनाया गया। मुख्यमंत्री ने वशिष्ठ बाबू से पूछा- “आउर का दीं?” तब वशिष्ठ बाबू ने जवाब दिया- “तोहरा पासे का हवे कि हमरा के देबअ, चार आना पइसा द”। सभी लोग अवाक। उसके बाद वशिष्ठ बाबू को उनके पैतृक आवास ग्राम बसंतपुर पहुंचा दिया गया। उनके छोटे भाई अयोध्या सिंह बताते हैं कि जब भी वे वशिष्ठ बाबू से 1986 से 1992 के गुमनामी काल के बारे में पूछते हैं तो उनका एक ही उत्तर होता है “छोड़अ ई सब ना पूछे के”, अब उनसे इस बारे में कोई सवाल नहीं करता था।
वशिष्ठ बाबू विक्षिप्त नहीं थे, दरअसल हमलोग उनके प्रति अपनी लापरवाही से एक कुंठा और अपराध-बोध से ग्रसित थे कि हमने उन्हें विक्षिप्त घोषित कर दिया / मान लिया। व्यक्तिगत तौर पर वशिष्ठ बाबु से पिछले कई वर्षों से जुडा हुआ था। हाल के कुछ वर्षों तक वशिष्ठ बाबु जो कुछ बडबडाते रहते थे, उसे सुनकर दिल्ली विश्वविध्यालय के भौतिकी के प्राध्यापक ने गाड़ी में लौटते समय मेरे पूछने पर कहा—– वैज्ञानिक जी जो बडबडा रहे थे, वहां तक तो हमलोग अभी पहुंचे भी नहीं हैं। अंतिम बार २ वर्ष पूर्व जब मेरी उनसे अंतिम बार मुलाकात हुई थी जब वह पूर्णतया स्वस्थ थे और हम लोग एक खटिया पर बैठ कर चाय पिए, चाय पीने के उपरान्त वशिष्ठ बाबू ने अपने भाई को कहा कि खैनी बनाव, तो मैंने मजाक में उन्हें कहा , काका खैनी हेल्थ खातिर ठीक नइखे तो उन्होंने कहा ‘ खैनी इज नॉट इन्जुरिअस टू हेल्थ, इट इज बुद्धिवर्धक चूर्ण’ ……क्या पागल आदमी ऐसे बोल सकता है कभी। पागल वो नहीं पागल हम लोग हैं…… जो प्रतिभाओं की कद्र नहीं करना जानते हैं।
चूँकि वशिष्ठ बाबू राजनीतिज्ञों के लिए वोट बैंक नहीं थे, तो राजनीतिज्ञों को उनके लिए वक्त भी नहीं था क्यूंकि वे न तो मंदिर-मस्जिद चिल्ला रहे थे और न ही जातिवाद की ही बात कर रहे थे।
गणित के क्षेत्र में वशिष्ठ नारायण सिंह को कोई भगवान समझता था, तो कोई जादूगर। इन्होंने इस क्षेत्र में कई ऐसे सिद्धांत का आविष्कार किया है जो आज भी प्रचलित है। एक वक्त वह भी था जब इन्होंने आइंस्टीन के सापेक्षता के सिद्धांत को चैलेंज कर दिया था। इनके इस चैलेंज से सभी गणितज्ञ हैरत में पड़ गए थे अपने आप में गणित के महारथी कहलाने वाले वशिष्ठ नारायण सिंह ने मैथ में रेयरेस्ट जीनियस कहा जाने वाला गौस की थ्योरी को भी चैलेंज कर दिया था। इन सभी को चैलेंज करते हुए उन्होंने अपने हिसाब से सिद्ध कर सभी के सामने दिखाया। जिसका आज भी देश विदेश के शोधार्थी अध्ययन करते हैं।
अपनी विलक्षण गणितीय प्रतिभा का प्रदर्शन करते, जो उनके व्यक्तित्व का परिचय बन गया। अपनी अकल्पनीय गणितीय प्रतिभा के कारण वह अपार लोकप्रियता को पाते चले गये जो हमारी अमूल्य धरोहर सिद्ध हुई। श्रीनिवास रामानुजन की भांति उनके जीवन की गाथा भी किसी परी कथा से कम नहीं है जिसने गणित जैसे कठिन विषय में उपलब्धियों का स्वर्णिम अध्याय लिखा।
सिज़ोफ्रेनिया रोग से वह लंबे समय तक जूझते रहे और अपने अंतिम दिनों तक गणित के पठन-पाठन को कभी नहीं छोडा। 14 नवंबर 2019 को इस जीनियस गणितज्ञ ने अपने जीवन की अंतिम सांस ली। इस मृतक व्यक्ति की लाश को लावारिश लाश की तरह व्यवहार करते हुए बाहर रख दिया गया, बड़े बड़े विकास के दावे करने वाली सरकार के राजधानी के सबसे बड़े अस्पताल के पास इस व्यक्ति के लिए एक शव वाहन उपलब्ध नहीं था जो उसे बसंतपुर, आरा तक पहुँचा सके। यदि चिकित्सा उन्हें ठीक नहीं कर सकती थी तो कम से कम हम सबों का नैतिक दायित्व था कि हम उन्हें गौरवशाली मौत की सुविधा तो दे देते! वो भी न दे सके, क्या दोबारा वैज्ञानिक जी आयेंगे?
भारत का स्टीफन हाकिंग कहे जाने वाले वशिष्ठ नारायण सिंह के मृत्यु के पश्चात राज्य एवं केंद्र सरकार की तंद्रा टूटी और अपनी बेशर्मी के दाग को छुपाने के लिए उन्हें मरणोपरांत पद्मश्री से सम्मानित किया गया। यदि समय रहते राज्य / केंद्र सरकार उनका समुचित इलाज करवाती तो यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि वशिष्ठ बाबू बहुत पहले ही गणित के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित हो चुके होते। गणित का यह अनगढ़ा हीरा बिना तराशे ही जहाँ से कूच कर गया जिसके साथ न जाने गणित के कितने रहस्य खाक में मिल गए।