सुभाष पाठक ‘ज़िया’ ग़ज़ल की दुनिया में तेज़ी से उभरता एक चर्चित नाम है, जो उर्दू और हिन्दी की साझा विरासत को एक साथ लेकर आगे बढ़ रहा है। इसका प्रमाण यह है कि उनका पहला ग़ज़ल संग्रह ‘दिल धड़कता है’ सन २०२० में उर्दू में आया, जिसे ‘मध्य प्रदेश उर्दू अकादमी, भोपाल’ ने प्रकाशित किया था और अब दूसरा ग़ज़ल संग्रह ‘तुम्हीं से ज़िया है’ हिन्दी में ‘अभिधा प्रकाशन’ से प्रकाशित होकर आया है। इसमें उनकी 106 ग़ज़लें और कुछ अशआर संकलित हैं।
‘तुम्हीं से ज़िया है’ ग़ज़ल संग्रह के फ्लैप पर मशहूर शायर आलम ख़ुर्शीद ने लिखा है, “सुभाष पाठक ज़िया की कुछ ग़ज़लें पढ़कर अंदाज़ा हुआ कि इश्क़ ओ मुहब्बत के अलावा भी उसके पास कहने को बहुत कुछ है। वह अपनी बात गंभीरता से कहना चाहता है और इसके इज़हार के लिए मुख्तलिफ़ अंदाज़ भी अपनाता है। अपने नाम के अनुरूप उसके यहाँ सुभाषिता की मधुरता भी है और सुभाषिता की चमक भी। मुख्तलिफ़ और मुश्किल ज़मीनों में कही गयीं उनकी ग़ज़लें यह सरगोशी करती हैं कि ग़ज़ल की सिंफ़ से उसका लगाव फ़ितरी है और क़ुदरत ने उसे कुव्वते गोयाई से भी नवाज़ा है.”
ग़ज़ल -आलोचक ज्ञानप्रकाश विवेक ने इसकी भूमिका में लिखा है, “ … सुभाष पाठक ‘ज़िया’ की एक ग़ज़ल पुस्तक पहले भी छप चुकी है. यहाँ वो ज्यादा आत्मविश्वास से, नया मुहावरा गढ़ते हुए ग़ज़लें कह रहे हैं. शब्दों के प्रति सजगता और शेर को सघनता से कहने का कला-कौशल भी उन्होंने अपने अनुभवों से अर्जित किया है.”
पुस्तक में अनेक उर्दू शायरों और ग़ज़ल गायकों ने भी शुभाकांक्षाएं और अपनी सम्मतियाँ प्रदान की हैं.
इस संग्रह की ग़ज़लों से गुज़रते हुए यह आभास हो जाता है कि सुभाष पाठक ‘ज़िया’ का लबो-लहजा परंपरागत ग़ज़ल के बहुत क़रीब है। ये ग़ज़लें शिल्प, भाषा और अंदाज़े-बयाँ में रिवायत का दामन नहीं छोड़ती हैं, लेकिन ये भी संकेत देती चलती हैं कि समय के साथ वे बड़ी तेज़ी से जदीदियत के खुले आँगन में उतरने को आतुर हैं। आइये संग्रह के चुनिन्दा अशआर से उनकी ग़ज़ल-यात्रा का अवलोकन करते हैं. सबसे पहले आत्मकथ्य के रूप में आया उनका यह शेर अपने सरोकारों का कुछ बयान करता है, देखें-
हमारा दर्द जरा सख़्त था कि जैसे बर्फ़
ग़मों की आंच से गलने लगा कि जैसे बर्फ़
उनका यह ह्रदयस्पर्शी और बेलाग अंदाज़ उनकी अभिव्यक्ति के तेवर का भी उद्घाटन कर देता है, जो यहाँ ग़ौरतलब है-
क्यूँ न अब उसके रूबरू रोयें
अपने आँसू नहीं लहू रोयें
अर्थात शायर की आत्मपीड़ा यूँ जग-पीड़ा बनकर व्यक्त होने लगती है-
सब गुज़रते हैं मेरे सीने से
मैं हूँ इक पायदान चौखट का
पायदान जिस पर लोग पाँव पोंछ कर भीतर आते हैं। यहाँ इसकी व्यापकता की अभिव्यक्ति हुई है-
तमाम रंग जो आँखों में भर लिए इक साथ
सो अब किसी की भी रंगत पता नहीं चलती
आधुनिकता के दौर में सबसे त्रासद पक्ष यह है कि सम्बन्धों के बीच की आत्मिक संवेदना निरंतर क्षीण होती जा रही है. संवेदनहीनता पर ज़िया का यह मार्मिक शेर यहाँ दृष्टव्य है-
कौन है किसको फ़र्क़ पड़ता है
घर में रोयें कि कू ब कू रोयें
इसी तरह जीवन-मूल्यों में हो रहे पतन और बढ़ती स्वार्थ की वृत्ति को शायर ने व्यंग्यपूर्ण ढंग से यहाँ पेश किया है-
इंतिहा शायद यही है लालचों के दौर की
कोयलें करने लगी हैं दोस्ती अब काक से
लेकिन पिता-पुत्र के ख़ून के रिश्ते तक इतने सतही और उथले होते जा रहे हैं कि ज़िया कह देते हैं-
लाड़ले ने ख़त के बदले पैसे भिजवाए मगर
बाप मिलने की तमन्ना दम ब दम करता रहा
हम जानते हैं कि परम्परागत उर्दू ग़ज़ल का वर्ण्य विषय रूमानियत है, कल्पनाशीलता है, वायवीयता रहा है, इसीलिये इन ग़ज़लों के भावबोध में भी उसी रूमानियत के तत्व सर्वत्र उपस्थित मिलते हैं-
शाम समेट रही है आँचल मेरे पास रहो
फैल रहा है रात का काजल मेरे पास रहो
चाँद सितारों ने ओढ़ा है बादल का कंबल
कूक उठी है दिल में कोयल मेरे पास रहो
शायर ने अपनी ग़ज़लों में प्रेम के साथ भावात्मकता बेहद परिष्कृत होकर व्यंजित हुई है, और शायर का अंतर्जगत यहाँ आलोकित होकर प्रकट हुआ है-
मैं मरीज़े इश्क तुम्हारा हूं मुझे तुमसे ही तो शिफ़ा मिले
न दवा करो न दुआ करो मुझे सुबह शाम मिला करो
ज़िया अपनी ग़ज़लों के लिए मधुर विषय चुनते हैं और वैसी ही कोमल भाषा भी इस्तेमाल करते हैं. लगता है जैसे यहाँ तरल अनुभूतियों के अनेक झरने बह रहे हैं, जो न केवल इनकी कल्पनाशीलता को ऊंचाई देते हैं, बल्कि एक क्लासिकी अंदाज से प्रवाहित होती नजर आती हैं। आज के इस प्रेम-विमुख होते समय में शायरी में यह प्यार, मुहब्बत या अपनापन का तत्व अपेक्षित है। शायद इसीलिए आज भी अनेक उर्दू शायर प्यार और श्रृंगार की नयी भाव-भूमि पर विचरण कर रहे हैं। यहाँ मन की अनुभूतियों को ग़ज़ल का विषय इसलिए भी बनाया गया है क्योंकि प्रेम हमेशा जिंदगी से बावस्ता रहता है और आज की ज़िन्दगी में प्रेम मन की भावुकता से नहीं बल्कि यकीन और आपसी समझ का पर्याय है। ज़िया भी प्रेम की आधुनिक परिभाषा यूँ प्रस्तुत करते हैं-
इश्क़ क्या है मुझे नहीं मालूम
मैंने तो तुझ पर ऐतबार किया
लेकिन यथार्थ-जीवन में आजकल बेमेल सम्बन्धों की जैसे भरमार है. आज यह आदमी को दोहरी ज़िन्दगी जीने को यूँ मजबूर करती है-
जिस्म बिस्तर पर ही रहा शब भर
दिल न जाने कहां-कहां भटका
व्यक्ति ही नहीं समाज में भी अब जो विसंगतियाँ आ रही हैं, जो राजनीतिक विद्रूपता है, उसे भी ज़िया ने अपनी ग़ज़लों में चित्रित किया है-
मिलाना चाहते हैं हाथ हिंदू और मुस्लिम पर
सियासत है कि इनको पास भी आने नहीं देती
अपने परिवेश को चित्रित करता उनका यह शेर भी न केवल पर्यावरण की चिंता में आया है बल्कि सामाजिक व्यवहार में भी यही घुटन मिलती है, देखें-
सांस लेना मुहाल है अब तो
है धुआँ ही धुआँ फ़िज़ाओं में
प्रकृति में आ रहे बदलाव को चित्रित करते हुए शायर पनघट की उस जीवन्तता को पर याद करता है-
ए ‘ज़िया’ जब से आ गए हैं नल
तब से पूछा न हाल पनघट का
अथवा घटते जलस्तर पर यह कहता है कि-
शजर से टूटते पत्ते उतरता झील का पानी
यह कोई रुत नहीं है दर्द क़ुदरत ने उकेरा है
यह सही है कि ग़ज़ल प्रेम-भावना की अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है, उसका वाहक है. प्रेम वह आवश्यक तत्व है जहां शायर का प्रेम-बोध पाठक के प्रेम बोध को अभिप्रेरित करता है। ऐसी ग़ज़लों में प्रेम के विविध पक्षों का उद्घाटन हुआ है तथा प्रेम की अभिव्यक्ति के विभिन्न रूपों के भी दर्शन हुए हैं। प्रेम वास्तव में अपने पात्र के प्रति सानिध्य की कामना का ही तो भाव है। इनके यहाँ प्रेम जीवन की कमजोरी नहीं बल्कि एक ताकत बनकर उपस्थित हुआ है और इसमें जीवन के प्रति आस्था, विश्वास, समर्पण और संघर्ष की शक्ति साफ़ दिखाई देती है-
चलो आइने से मिलो और ख़ुद को निहारो संवारो तुम्हीं से ज़िया है
थकन को उतारो न यूँ थक के हारो वफ़ा के सितारों तुम्हीं से ज़िया है
तुम्हारी सदा यूं सुनहरी है जैसे कोई चांद चमके है काली घटा में
मुझे जिंदगी के घने जंगलों में मुसलसल पुकारो तुम्हीं से ज़िया है
यद्धपि ग़ज़ल का स्थाई भाव प्रेम ही रहा है, जिसकी अनुभूति, मस्ती, मिलन, वियोग जैसे संचारी भाव में व्यक्त होती रही है, लेकिन आज ग़ज़ल जीवन की परिधि को विस्तार दे रही है. उसका अभीष्ट भी यह है कि जब तक ग़ज़ल जन-पीड़ा की आंच से तप कर नहीं निकलकर आती है तब तक वह अपने समय का स्वर नहीं बन पाएगी और उचित प्रभाव भी उत्पन्न नहीं कर पाएगी. मसलन, इस शेर में शायर का अपना दर्द, जमाने के दर्द में विस्तार पा रहा है-
जितना बेरंग वक्त होता है
उतना गहराए शायरी का रंग
और यह भी कि-
दिल तो ‘कॉमन’ सी चीज़् है यारो
मुझसे उसका यकीन टूटा है
यहाँ वे हुस्न और इश्क की परिधि को भी विस्तार दे रहे हैं, और रूमानियत को नया अर्थबोध देने का प्रयास कर रहे हैं। वास्तव ज़िया जीवन की उजास के शायर हैं। अपने उपनाम से और शायरी से भी ज़िया रौशनी के पैरोकार बनकर उजाले की अभ्यर्थना करते हैं। इस तरह ये शायरी हमें निराशा से आशा के उजाले में ले जाने वाली शायरी बनकर प्रस्तुत हुई है। इसमें उजाले की आवृत्ति अनेक बार है-
है तमन्ना अगर उजालों की
तो हिफ़ाज़त करो चराग़ों की
मैं जानता हूँ न निकलेगा रात में सूरज
मैं चाहता हूँ मगर एक रात ऐसी भी
या फिर यह कि-
थकन से चूर हूँ प्यासा हूँ मैं अकेला भी
है उस पे धूप भी कितनी शदीद सांकल खोल
अन्धेरेपन से उजाले के लिए संघर्ष का आह्वान करता यह सामर्थ्यवान शेर है-
जरा सा ही कंकर मचा दे समंदर में हलचल मेरे जुगनुओ तुम ये सोचो
अंधेरी हैं रातें मगर रौशनी का कोई तीर मारो तुम्हीं से ज़िया है
बग़ावत से भरा शख्स अनेक दुखों को चुपचाप बर्दास्त करता है तब कही जाकर विद्रोह करता है-
बला की आग जिगर में छुपाई थी उसने
वह शख़्स शक्ल से जो सर्द था कि जैसे बर्फ़
और यह भी कि-
जो कहा नहीं जो सुना नहीं वो समझ लिया वही कर लिया
कि ख़मोशियां हुई हैं ज़ुबां यही ज़िन्दगी का सुकून है
यहाँ अनेक कामयाब शेर उपस्थित हैं, जो आज के अवसाद भरे समय में हमें हौसला देते हैं-
हमारे पर कतरने से न होगा कुछ
हमारे हौसले परवाज़ करते हैं
मनुष्यता की रक्षा में यदि त्याग और बलिदान की जरूरत है तो करना चाहिए। यह संदेश देता शायर का यह बहुत प्रेरक और अभिनन्दनीय शेर देखिये-
आँच ईमान पर न आने दे
ज़िन्दगी रूठे रूठ जाने दे
अर्थात शिल्प की दृष्टि से ये सफल ग़ज़लें हैं। इनमें तगज्जुल और भाषा की मुहावरेदारी बरकरार है.चूँकि ज़िया ग़ज़ल के पारंपरिक सौंदर्य से वाकिफ हैं, इसलिए इन ग़ज़लों में बड़े ही कलात्मक लहज़े का प्रयोग मिलता है। वे शब्दों की कलाबाज़ी नहीं करते बल्कि असर पैदा करने के उद्देश्य से परंपरागत शब्द-सौंदर्य को बढ़ाते हैं और उन शब्दों में नए अर्थ भरते हैं, मसलन यह शेर देखें-
आओ कि साहिलों पे घरौंदे बनाए हम
तुम थपथपाओ रेत सनम पाँव हम रखें
वे एक-एक शब्द से संगीत उत्पन्न करना चाहते हैं क्योंकि उन्हें मामूली सी बात भी दिलकश अंदाज में कहने का हुनर आता है। इसीलिए ये ग़ज़लें गेयता और संगीतात्मकता के लिए भी अनुकूल हैं। ज़िया स्वयं भी तरन्नुम से ग़ज़लें पढ़ते हैं। यहाँ स्पष्ट है कि ज़िया पाठक ने ग़ज़ल के बाहरी सौंदर्य पर अधिक श्रम किया है. इसीलिये शिल्प की परिपक्वता भी आई है। यद्धपि इनकी ग़ज़लें रवानी, ताज़गी सौंदर्यबोध की नवीनता लिए हुए भी हैं, लेकिन इनमें अभी वह प्रभाव नहीं आ पाया है, जो यथार्थ की अनुभूति से निसृत होकर विश्वसनीय बनता है। इस विश्वसनीयता की ज़रूरत इसलिए है कि वर्तमान जीवन और समाज पहले से कहीं अधिक जटिल, विसंगत विद्रूप और संशयपूर्ण होता जा रहा है. आज समाज में बहुआयामी विघटन, विचलन और बिखराव बढ़ रहा है, इसकी छवियां अभी ज़िया की ग़ज़लों में आना बाकी हैं।
इन ग़ज़लों में हिंदी-उर्दू भाषा की निकटता साफ़ दिखाई देती है. ज़िया पाठक की ग़ज़लें हिंदी और उर्दू की साझी विरासत की भाषाई जमीन पर उतरी हैं, इसलिए इनमें पूरे अवाम की आवाज है. यहाँ दोनों भाषाओं को आदर और सम्मान मिला है, तभी हिंदी और उर्दू दोनों ही समुदाय बराबर से पसंद करते हैं।
तात्पर्य यह है कि यह ग़ज़ल संग्रह एक ऐसा गुलदस्ता है, जो महकता भी है और पाठकों के मन को महकाता भी है. ज़िया ने बड़े सलीके से ग़ज़ल के इस गुलशन को सजाया संवारा है, जहाँ प्रेम अपनी पूरी महक के साथ उपस्थित है. ये ग़ज़लें एक संभावनाशील शायर की ग़ज़लें हैं, जिसका आधे से अधिक हिस्सा अनुभूति को ही समर्पित किया गया है. यहां अतीत की स्मृतियां भी हैं, वर्तमान की आंच है, और सुंदर भविष्य की कामना है और इस कामना के लिए संघर्ष का आह्वान भी है. इस संग्रह की शक्ति इसकी सादगी, इसकी मधुरता और अंदाज ए बयां है. मेरे विचार से ये बार-बार पढ़ी और सुनी जाने वाली ग़ज़लें हैं. उन्होंने युवाकाल में ही अपनी शायरी को न केवल चार चाँद लगाए हैं, बल्कि अपने उज्जवल भविष्य के प्रति पूर्णत: आश्वस्ति भी प्राप्त की है.
मुझे पूरा विश्वास है कि ज़िया की इस किताब का ग़ज़ल की दुनिया में भरपूर स्वागत होगा.