आज सिनेमा मनोरंजन के सबसे महत्वपूर्ण संसाधनों में से एक है। एक सदी से अधिक लम्बे वक्फे से सिनेमा व उसमें निहित संगीत हमारे जीवन का अभिन्न अंग बना हुआ है। फिर चाहे कोई भी पर्व हो, तीज-त्यौहार हो या फिर धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक किसी भी तरह का कार्यक्रम। ये सब सिनेमा-संगीत के बिना अधूरे नजर आते हैं। हर अवसर को एक सुरीला अंजाम देना हो तो कार्यक्रम के अनुरूप गीत गाये भी जाते हैं, जो आज हमारे लोक सिनेमा के चलते खासे पॉपुलर हुए हैं। सिनेमा के आरम्भ से ही फिल्मों में मानव मन का प्रत्येक भाव प्रतिबिंबित होता आया है। यही कारण है कि फिल्मी गीत-संगीत मानव मन का दर्पण है।
मूक फिल्मों का दौर आरम्भ होने के साथ ही सिनेमा का उद्भव हुआ लेकिन कुछ समय बाद ही आई ‘आलम आरा’ ने फिल्मों को बोलना सिखाया। और न केवल उन्हें आवाज़ प्रदान की बल्कि फिल्मों में गीत-संगीत का चलन भी इसी फिल्म से प्रारम्भ हुआ। भारत में सिनेमा के आगमन से पूर्व मनोरंजन का प्रमुख साधन ‘नाटक’ हुआ करता था, जो विभिन्न प्रांतों में विभिन्न रूपों में खेला जाता था। नाटकों की बात करें तो यह परंपरा इस देश में सदियों पुरानी है। प्राचीन भारत ने संस्कृत नाटकों का स्वर्ण युग देखा है। “भारत में फिल्मों का प्रदर्शन साल 1896 से आरम्भ हुआ जब ‘ल्यूमियर ब्रदर्स’ की फिल्मों का प्रदर्शन मुंबई के वाटसन होटल में किया गया था। इसके पाँच साल बाद 1901 में हरिश्चंद्र सखाराम भातवाडेकर ने पहली भारतीय फिल्म ‘दि रिटर्न ऑफ रेंगलर परांजपे का निर्माण किया। इसके लिए उन्होंने 1897 में लंदन से एक सिने कैमरे का आयात किया। भारत की पहली ‘फुल लेंथ स्टोरी फिल्म’ का निर्माण धुंडीराज गोविंद फालके जिन्हें आज दादा साहेब फालके के नाम से जाना जाता है ने किया।”1
सिनेमा दृश्य तथा श्रव्य दोनों प्रकार का माध्यम होने के कारण समाज के हर वर्ग को अवश्य प्रभावित करता आया है। इसका एक बड़ा कारण इसमें यथार्थ तथा कल्पना का अद्भुत सम्मिश्रण होना भी है जो सिनेमा को रोचक तथा प्रेरक बनाता है। साहित्य तथा सिनेमा दोनों ही समाज के दर्पण कहे गये हैं। दोनों ही समान रूप से समाज को प्रभावित करते हैं तथा समाज इन दोनों को प्रभावित करता है। “समाज का अच्छा-बुरा, उन्नति-अवनति, उत्थान-पतन, विपन्नता-संपन्नता सभी कुछ साहित्य और सिनेमा दोनों के माध्यम से उजागर होते हैं। साहित्य और सिनेमा दोनों ही सामाजिकों की ज्ञान-पिपासा को तृप्त करते हैं। ये दोनों ही माध्यम मनोरंजन भी करते हैं तो शिक्षा भी देते हैं। राष्ट्र का इतिहास, आजादी का संघर्ष, सांस्कृतिक चेतना, पर्व-उत्सव, मेले-प्रदर्शनियाँ, रीति-रिवाज, विवाह रस्में रहन-सहन, खान-पान, खेल-व्यायाम, शिक्षण-प्रशिक्षण, दर्शन मनोविज्ञान, सामाजिक समस्या और चुनौतियाँ सब कुछ हमें साहित्य तथा सिनेमा में उद्घाटित होता दिखाई देता है। राजनीति, पुलिस, भ्रष्टाचार, चोरी-डकैती, अत्याचार, शोषण, बलात्कार, अन्याय, अव्यवस्था, जन्म व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष, बेरोजगारी, जनसंख्या का प्रकोप, मानवीय कमजोरियाँ, प्राकृतिक प्रकोप पर्यावरण प्रदूषण, राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय चुनौतियाँ, आतंकवाद वैचारिक विरासत, साहित्यिक रचनाओं का अंतरण आदि हमें साहित्य तथा सिनेमा में एक साथ देखने को मिलता है।”2
हिंदी सिनेमा में कालजयी साहित्यिक रचनाओं की तरह ही कई सार्वजनिक रूप से फिल्में बनीं हैं जिनमें ‘आलमआरा’, ‘रुदाली’, ‘गोदान’, ‘गबन’ ‘शतरंज के 4 खिलाड़ी’, ‘मदर इंडिया’, ‘लज्जा’, ‘चक दे इंडिया’ ‘चित्रलेखा’ मुगल-ए-आज़म’, ‘ब्लैक’, ‘अभिमान’, ‘आनंद’, ‘तारे जमीं पे’ आदि यादगार भी रहीं हैं। इसी श्रृंखला में ‘सद्गति’, ‘देवराज’, ‘परिणीता’, ‘अनुभव’, ‘अंकुर’, ‘मंथन’, ‘सारा आकाश’, ‘रजनीगंधा’, ‘गर्म हवा’, ‘दामुल’, ‘चक्र’, जुनून’, ‘आक्रोश’, ‘अर्धसत्य’ ‘मोहन जोशी हाज़िर हो’, ‘एक रुका हुआ फैसला’, ‘दो आँखें बारह हाथ’, ‘पाकीजा’, ‘सारांश’ जैसी फिल्मों को आप और हम कैसे भुल सकते हैं ख़ास करके जो साहित्यिक आस्वाद के साथ प्रदर्शित की गई हैं उन्हें तो साहित्य प्रेमी कम से कम कभी नहीं भुला पाता।
सिनेमा सर्वाधिक प्रभावकारी माध्यम है जो हर वर्ग के, हर उम्र के, हर क्षेत्र और राज्य के दर्शकों, श्रोताओं को अपनी ओर आकृष्ट भी करता है तो विमुग्ध भी करता है तथा उन्हें प्रेरक भी बनाता है। “दर्शकों की कच्ची दिमागी मिट्टी पर हिंदी सिनेमा जो बीजवपन करता है, वह समाज में पल्लवित पुष्पित होता स्पष्ट दिखाई देता है। प्रकारांतर से सिनेमा एक उस शिक्षक की भूमिका का निर्वाह करता है जो कक्षा में बैठे सैकड़ों विद्यार्थियों का यदि ठीक सृजन करता है तो वे राष्ट्र निर्माण के लिए प्रस्तुत होते हैं और यदि वह शिक्षक की भूमिका में विफल हो जाता है तो तैयार होने वाली पीढ़ी राष्ट्र के लिए घातक हो जाती है। शिक्षा केवल सैद्धांतिक नहीं होती, संस्कारों के निर्माण को भी होती है वही होनी भी चाहिए।”3 क्योंकि साहित्य में समाज प्रतिबिंबित होता है और जिस तरह सामान्य बुद्धिजीवी वर्ग यह विचार अपने में रखता है कि जैसा समाज, वैसा सिनेमा तथा जैसा सिनेमा वैसा समाज। तो वह ये भी सोचता है कि एक अच्छा साहित्य जैसे समाज को दिशा प्रदान करता है वैसे ही एक अच्छा सिनेमा भी ठीक उसी प्रकार दिशा प्रदान कर सकता है। इसलिए वर्तमान दौर में ख़ास करके वेब सीरिज के युग में अच्छे सिनेमा को बनाने, देखने तथा साहित्यिक सिनेमा को बढ़ावा दिए जाने जैसी बातें उठाई तथा उनकी जरूरत महसूस की जाने लगी है।
68वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों की घोषणा जब इस साल की गई तब भी बुद्धिजीवी वर्ग के बीच में यह सुगबुगाहट होनी शुरू हुई। कारण कि हिंदुस्तान के सबसे प्रतिष्ठित फिल्म पुरस्कारों में इस भी बार दक्षिण भारतीय फिल्मों का दबदबा रहा। जबकि साहित्य पर पूर्णत: आधारित एक भी फिल्म को राष्ट्रीय पुरुस्कार नहीं मिला। हालांकि यह पुरुस्कार न मिलने का गाहे-बगाहे नहीं बल्कि बहुधा यह कारण रहता है कि अधिकांशत: फिल्म निर्माता, निर्देशकों को इस पुरुस्कार के लिए आवेदन करने की प्रक्रिया ही नहीं ज्ञात रहती। लेकिन बावजूद इसके इन पुरुस्कारों में साहित्य में एक तरह से कहा जाए तो फिल्म पत्रकारिता को पुरुस्कृत करने की बात आई तो भी इस साल बेस्ट फिल्म क्रिटिक के लिए भी कुल जमा 24 किताबें आई लेकिन उनमें से किसी को भी राष्ट्रीय फिल्म पुरुस्कार के लायक नहीं समझा गया।
फिल्मों की बात की जाए तो इस बार दक्षिण भारत की फिल्म ‘सूराराई पोट्टरु’ ने बेस्ट फीचर फिल्म का पुरस्कार अपने नाम किया। वहीं, फिल्म की लीडिंग लेडी ‘अपर्णा बालामुरली’ को बेस्ट एक्ट्रेस चुना गया। इस फिल्म के लिए साउथ सुपरस्टार ‘सूर्या’ को भी बेस्ट एक्टर का अवॉर्ड मिला। बॉलीवुड की फिल्मों में जिन्हें हिंदी सिनेमा के नाम से भी लोग जानते हैं, पुकारते हैं उसमें साल 2020 में रिलीज हुई फिल्म ‘तान्हाजी- द अनसंग वॉरियर’ के लिए अजय देवगन को बेस्ट एक्टर चुना गया।
भारत सरकार द्वारा स्थापित इस अवार्ड लिस्ट में इस बार क्रमश: निम्न फिल्मों को पुरुस्कार हेतु चुना गया।
सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म: सूराराई पोट्टरु (तमिल) , सर्वश्रेष्ठ अभिनेता: अजय देवगन (तान्हाजी), सूर्या (सोराराई पोट्टरु) , सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री: अपर्णा बालामुरली (सूराराई पोट्टरु) , सर्वश्रेष्ठ निर्देशक: सच्चीदानंद के.आर (ए.के.अयप्पन कोशियम) , सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता: बीजू मेनन , सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री: लक्ष्मी प्रिया चंद्रमौली , सर्वश्रेष्ठ बाल कलाकार: टकटक(अनीश मंगेश गोसावी) और सुमी (आकांक्षा पिंगले और दिव्येश इंदुलकर) , सर्वश्रेष्ठ स्क्रीनप्ले: सूराराई पोट्टरु , सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशन: अला वैकुंठपुरमलो
सर्वश्रेष्ठ पार्श्व गायक: राहुल देशपांडे (एमआई वसंतराव) और अनीश मंगेश गोसावी (टकटक) , सर्वश्रेष्ठ पार्श्व गायिका: नंचम्मा सर्वश्रेष्ठ गीत: मनोज मुंतशिर(साइना) , सर्वश्रेष्ठ संगीत: विशाल भारद्वाज (1232 किलोमीटर) , सर्वश्रेष्ठ कोरियोग्राफी: संध्या राजू (नाट्यम) , सर्वश्रेष्ठ स्टंट कोरियोग्राफी: अय्यप्पनम कोशियुम , सर्वश्रेष्ठ ऑडियोग्राफी: डॉलू , सर्वश्रेष्ठ छायांकन (बेस्ट सिनेमोटोग्राफी): अविजात्रिक , सर्वश्रेष्ठ कॉस्ट्यूम: तान्हाजी , सबसे लोकप्रिय फिल्म: तान्हाजी , सर्वश्रेष्ठ संपादन (बेस्ट एडिटिंग): शिवरंजिनियम इनम सिला पेंगलुम , सर्वश्रेष्ठ प्रोडक्शन डिजाइन: कप्पला , सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म (हिंदी)- तुलसीदास जूनियर , सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म (कन्नड़)- डोलू , सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म (तमिल)- शिवरंजनियम इन्नुम सिला पैंगुल्लम , सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म (तेलुगु)- कलर फोटो , सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म (असामी)- ब्रिज, सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म (हरियाणवी) – दादा लखमीचन्द, सर्वश्रेष्ठ डॉक्युमेंट्री फिल्म रजत कमल – द एडमिटेड
यूँ तो हमारे देश में बरसों से कई फिल्म पुरस्कार समारोह आयोजित होते रहे हैं। सितारों की मौजूदगी और उनके द्वारा देर रात तक चलने वाले रंगारंग कार्यक्रम ऐसे समारोहों को लोकप्रिय भी बनाते रहे हैं। बावजूद इसके जो प्रतिष्ठा, गरिमा, महत्त्व, गौरव राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों को पाने का है. वह अद्धभुत ही है। सच कहा जाए तो राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार देश का सर्वाधिक प्रतिष्ठित फिल्म पुरस्कार है और बरसों से चली आ रही इस परंपरा का आज तलक कोई सानी नहीं है। भारत देश के स्वतंत्र होने के बाद से ही कला, संस्कृति, सिनेमा और साहित्य आदि को प्रोत्साहित करने और श्रेष्ठ कार्य करने वालों को पुरस्कृत करने की आवश्यकता जब आन पड़ी तो उसी के अंतर्गत विभिन्न समितियों का गठन किया गया। “साल 1949 में गठित एक समिति, इंक्वारी समिति भी थी। इस समिति ने शिक्षा, संस्कृति के मूल्यों को लेकर बनी सर्वोत्तम एवं सर्वोत्कृष्ट फिल्मों को प्रति वर्ष राजकीय पुरस्कार से पुरस्कृत करने की सिफारिश की गई थी। जिससे उच्च तकनीक की तथा अच्छी फिल्मों के निर्माण को प्रोत्साहन मिल सके। सूचना प्रसारण मंत्रालय द्वारा इन सिफारिशों को साकार करने के लिये साल 1953 में प्रदर्शित फिल्मों का मूल्यांकन करते हुए साल 1954 में साल 1953 की सर्वोत्तम फिल्मों को पुरस्कार दिये गए।”4 इस तरह से देश में राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों की शुरुआत साल 1954 में हुई थी। उस समय देश के राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद थे और सूचना प्रसारण मंत्री बी. वी. केसकर थे। इन राष्ट्रीय पुरस्कारों को उस समय राजकीय फिल्म पुरस्कार कहा जाता था।
“प्रथम राष्ट्रीय फिल्म समारोह में सर्वश्रेष्ठ फिल्म का प्रथम स्वर्ण पदक मराठी फिल्म ‘श्यामची आई’ को मिला था तथा सर्वश्रेष्ठ वृत्त चित्र का स्वर्ण पदक ‘महाबलीपुरम’ को दिया गया था। इसके अलावा हिंदी फिल्म ‘दो बीघा ज़मीन’ के साथ-साथ बांग्ला फीचर फिल्म ‘भगवान् श्रीकृष्ण चैतन्य’ और बच्चों की फिल्म ‘खेला घर’ को और दो वृत्त चित्र ‘होली हिमालयाज़’ और ‘ट्री ऑफ़ वेल्थ’ को भी योग्यता प्रमाणपत्र देकर सम्मानित किया गया था। दरअसल भारत की पहली फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ 3 मई 1913 को प्रदर्शित हुई थी, इसलिये जब 2013 में देश में सिनेमा के 100 साल मनाने का समारोह हुआ तो उससे एक वर्ष पहले ही राष्ट्रीय पुरस्कार समारोह आयोजित करने की तिथि भी 3 मई करने का निर्णय लिया गया था। साल 2012 के 59 वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से यह समारोह प्रति वर्ष 3 मई को नई दिल्ली के विज्ञान भवन में ही आयोजित होता आ रहा है।”5
राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में हर कैटेगरी के आधार पर अलग-अलग अवॉर्ड दिया जाता है। जिन्हें रजत कमल, स्वर्ण कमल आदि नाम से जाना जाता है। कुछ अवॉर्ड में नकद पुरस्कार भी दिया जाता है, जबकि कुछ कैटेगरी में सिर्फ मेडल ही दिया जाता है। दादा साहेब फालके पुरस्कार के विजेता को पुरस्कार स्वरूप स्वर्ण कमल, 10 लाख रुपये, प्रशस्ति पत्र और शॉल प्रदान किया जाता है। वहीं सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म विनर को स्वर्ण कमल और ढाई लाख रुपये दिए जाते हैं। कई कैटेगरी में रजत कमल और डेढ़ लाख रुपये तक भी दिए जाते हैं और कई फिल्मों में एक लाख रुपये दिए जाते हैं। यह हर कैटेगरी के आधार पर तय किया जाता है। वैसे तो इसे राष्ट्रपति की ओर से दिए जाने वाले पुरस्कारों में शामिल किया जाता है। कई सालों से यह अवॉर्ड राष्ट्रपति की ओर से ही दिए जा रहे हैं, लेकिन कुछ सालों से उप राष्ट्रपति या सूचना प्रसारण मंत्री भी ये अवॉर्ड देते नजर आ रहे हैं। कुछ साल पहले राष्ट्रपति के कार्यक्रम में शामिल न होने पर भी काफी बवाल हुआ था, जब कुछ अवॉर्ड राष्ट्रपति ने जबकि कुछ अवॉर्ड तत्कालीन मंत्री ने दिए थे। बीते साल 2021 में इन पुरस्कारों का वितरण उप राष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने किया।
तो ये तो रहा राष्ट्रीय फिल्म पुरुस्कारों का अब तक का लेखा जोखा। बात अब मूल कहानी की तो साहित्य पर आधारित सिनेमा का अगर हम जिक्र करें तो वे फिल्में यहाँ अमूमन नदारद दिखाई देती हैं। फिर भी कुछ फिल्में हिंदी सिनेमा में हिंदी साहित्य पर आधारित हिंदी में बनी हैं। साहित्य पर आधारित बनने वाली पहली मूक फीचर फिल्म दादा साहेब फालके ने बनाई जो भारतेंदु हरिश्चंद्र के नाटक ʽहरिश्चंद्रʾ पर आधारित थी। इसके बाद कहने को साहित्यिक कृतियों को लेकर ढेरों फिल्में बनी लेकिन उनमें से कुछ अपवादों को छोड़कर अधिकांश असफल ही साबित हुई। पहली बार हिन्दी सिनेमा में स्थापित लेखक का नाम लिया जाए तो कथा सम्राट ‘प्रेमचंद’ का आता है। उनकी कई कहानियों और उपन्यासों पर फिल्में बनीं जिनमें सबसे पहले उनकी लिखी कहानी ʽमिलʾ थी। प्रेमचंद की इस कहानी पर ‘मोहन भावनानी’ के निर्देशन में फिल्म ʽमिल मज़दूरʾ बनी। लेकिन इस फिल्म पर मुंबई में प्रतिबंध लग गया जबकि पंजाब में यह ʽगरीब मज़दूरʾ के नाम से प्रदर्शित की गई। मुंशी प्रेमचंद के लिखे पर इसी तरह ʽशतरंज के खिलाड़ीʾ पर ʽद चेस प्लेयर्सʾ, ʽसद्गतिʾ पर इसी नाम से, ʽदो बैलों की कथाʾ पर ʽहीरा मोतीʾ , ‘पंच परमेश्वर’ कहानी पर ʽसांच को आंच नहीʾ बनी।
“प्रेमचन्द के अलावा पं. चंद्रधर शर्मा ʽगुलेरीʾ की प्रसिद्ध कहानी ʽउसने कहा थाʾ पर इसी नाम से फिल्म का निर्माण किया गया। फिल्म ʽतीसरी कसमʾ राजकपूर और वहीदा रहमान की ये फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी ʽमारे गए गुलफामʾ पर बनी। वहीं निर्मल वर्मा की कहानी ʽमाया दर्पणʾ पर निर्देशक कुमार शाहनी ने इसी नाम से फिल्म बनाई। तो एच. के. वर्मा ने ‘अमृता प्रीतम’ की कहानी ʽकादम्बरीʾ पर इसी नाम से फिल्म बनाई।”6 निर्देशक मणिकौल ने हिंदी हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार मोहन राकेश की कहानी ʽउसकी रोटीʾ पर इसी नाम से फिल्म बनाई। गुलजार तो इस मामले में और भी कई कदम आगे निकले तथा ‘कमलेश्वर’ की दो कहानियों पर ʽकाली आंधी’ पर ‘आंधी’ और ʽआगामी अतीतʾ पर ʽमौसमʾ बनाई और दोनों ही फिल्में मील का पत्थर साबित हुईं। कमलेश्वर की ʽतलाशʾ कहानी को लेकर ही निर्माता निर्देशक ‘शिवेंद्र सिन्हा’ ने ʽफिर भीʾ नामक फिल्म का निर्माण किया। “फिल्मकार ‘बासु चटर्जी’ जो बांग्ला भाषी थे लेकिन उन्होंने हिन्दी साहित्य का गहरा अध्ययन किया तथा परिणाम स्वरूप ‘मन्नू भंडारी’ की प्रसिद्ध कहानी ʽयही सच हैʾ पर आधारित एक बहुत खूबसूरत फिल्म ʽरजनीगंधाʾ का निर्माण किया जो काफी लोकप्रिय साबित हुई। हिन्दी फिल्मों की इस नई धारा को समांतर सिनेमा भी कहा गया। मणिकौल भी फिल्म निर्देशन में एक बड़ा एवं स्थापित नाम है उन्होंने मोहन राकेश, विजय दान देथा, मुक्तिबोध, विनोद कुमार शुक्ल आदि की रचनाओं पर फिल्में बनाकर सबसे ज्यादा साहित्यिक फिल्म बनाने का भी एक रिकॉर्ड सा कायम किया।”7 कुमार शाहनी ने निर्मल वर्मा की कहानी ʽमाया दर्पणʾ पर इसी नाम से फिल्म बनाई। इसके इलावा दामुल, परिणिति, पतंग, कोख जैसी फिल्में भी साहित्यिक रचनाओं पर ही बनी थी। इसी तरह ‘केशव प्रसाद मिश्र’ के उपन्यास ‘कोहबर की शर्त’ पर फिल्म निर्देशक ‘गोविन्द मूनिस’ ने ‘नदिया के पार’ साल 1982 में निर्देशित की जिसके गीत आज भी गाये, गुनगुनाये जाते हैं। इस फिल्म का एक गीत ‘कौन दिशा में ले के चला रे बटोहिया’ तो इतना खासा प्रसिद्ध हुआ की गाहे-बगाहे आपको कहीं न कहीं सुनने को मिल ही जाता है।
इसी तरह ‘भीष्म साहनी’ के चर्चित उपन्यास ‘तमस’ पर इसी नाम से ‘दीपा मेहता’ ने साल 1998 में फिल्म का निर्माण किया। इस फिल्म का एक अन्य नाम ‘1947 का अर्थ’ भी सुनने को मिलता है। ‘यशपाल’ का ‘झूठा सच’ पर ‘खामोस पानी’, ‘कृष्णा सोबती’ के ‘जिन्दगी नामा’ पर ‘ट्रेन टू पाकिस्तान’ फिल्म निर्देशक ‘खुशवंत सिन्हा’ ने निर्देशित की। वहीं लेखक, उपन्यासकार ‘कृष्ण चंदर’ के उपन्यास ‘पेशावर एक्सप्रेस’ पर साल 2014 में प्रसिद्ध फिल्म निर्माता, निर्देशक ‘यश चोपड़ा’ ने बहु चर्चित फिल्म ‘वीर जारा’ का साल 2004 में निर्माण किया। वहीं ‘श्याम बेनेगल’ ने उपन्यासकार ‘धर्मवीर भारती’ के उपन्यास ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ पर साल 1992 में इसी नाम से फिल्म का निर्माण किया। ‘पति पत्नी ओर वो’ , ‘डाक बँगला’ , ‘काशी का अस्सी’ , ‘पंचलैट’, ‘त्रिया चरित्र’ , ‘उसने कहा था’ , ‘यही सच है’ , ‘आसाढ़ का एक दिन’ , ‘मलबे का मालिक’ , ‘चरनदास चोर’ , ‘दुविधा’ जैसी कई कहानियों तथा उपन्यासों पर बेहद चर्चित फ़िल्में तो बनीं लेकिन इनमें से कुछ एक ही नेशनल अवार्ड से सम्मानित हो सकीं।
इस तरह आरम्भिक दौर के सिनेमा में काफी फिल्में साहित्य पर आधारित बनीं लेकिन अधिकांशतः सफल फिल्मों में नहीं गिनी जाती। वहीं वर्तमान हाल फिलहाल के कुछ दशकों को देखा जाए तो जैसे साहित्यिक फिल्मों का अकाल सा पड़ा हुआ है। कई फिल्मकारों, मेकर्स तथा लेखकों, एक्टर आदि की जमात से जब इस बारे में मेरे द्वारा पूछा गया तो उनके जवाब भी कुछ इसी तरह अचम्भित से कर देने वाले से ही लगे। एक नजर में उन सबका कहना हमारे या आम बुद्धिजीवी वर्ग के सोचने जैसा ही है।
दिल्ली विश्वविद्यालय से सेवानिवृत ‘प्रोफेसर राजेंद्र गौतम’ का कहना है कि – पुरुस्कार चाहे साहित्य के हों या फ़िल्मों के हों वे अक्सर विवाद ही पैदा करते रहे हैं यद्यपि उनके माध्यम से एक व्यापक सामाजिक, राष्ट्रीय स्वीकृति साहित्य और फिल्मों को मिलती है। सिनेमा का जो राष्ट्रीय अवॉर्ड (नेशनल पुरुस्कार) है ये भी विवाद ग्रस्त रहे, चर्चा में भी रहे लेकिन इनके माध्यम से कई बहुत अच्छी कृतियाँ भी हमारे सामने आईं। 1953 में आरम्भ होने वाला ये जो सिलसिला है जो 2020 तक की फिल्म अब तक पुरुस्कृत की गईं हैं तो यदि इन 67 वर्षों में यदि हम सरसरी तौर पर देखें तो एक खास बात यह नजर आती है कि हिंदी की अपनी अलग फिल्मों को यदि छोड़ दें और सारी फिल्मों में जो श्रेष्ठ फिल्में घोषित हुई है तो एक विचित्र सा डेटा हमारे सामने आता है। देश की सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा की केवल 15-16 फिल्में ही पुरुस्कृत हुई हैं। इनमें 15-16 में अकेले बांग्ला भाषा की कृतियों पर बनी या बंग्ला फिल्में जो हैं वो 67 में से एक बहुत बड़ा नम्बर लगभग एक तिहाई दिखने वाला ये जो नम्बर है वो बंग्ला का है तो हिंदी सिनेमा की ये भी एक विचित्र कहानी कहता है। इसी तरह से हिंदी और बंग्ला के बाद जो बचती हैं फिल्में उनमें जो बड़ी संख्या बचती है या दिखाई देती है वो कन्नड़, मलयालम में ज्यादा है और फिर तमिल , फिर कुछ मराठी भाषा की फिल्में ही प्रमुखतः दिखाई देती हैं। ये जो द्विभाजन है ये ही अपने आप में बड़ा अजीब सा भारतीय समाज का, भारतीय भाषाओं, भारतीय साहित्य का, भारतीय फिल्में जो बनती हैं उनका एक रूप हमारे सामने प्रस्तुत करता है।
सवाल अक्सर ये उठाया जाता है कि साहित्य पर आधारित फिल्में हिंदी में कम क्यों? वैसे तो हिंदी साहित्य से जुड़ी फिल्मों के बारे में और जो समूचे साहित्यिक सन्दर्भ जो हैं उनके बारे में चर्चा होती रही है लेकिन हमें ये मानना पड़ेगा कि हिंदी की साहित्यिक कृतियों पर जो आधारित जो फिल्में हैं तुलनात्मक दृष्टि से बहुत कम है। यदि विदेशों के जो महान उपन्यास है उनकी हम तुलना करें तो कोई भी ऐसा उपन्यास नजर नहीं आता जो चर्चित हो गया हो और उस पर एक दो नहीं सात, आठ या दस-दस बारह-बारह फिल्में मैंने देखी हैं एक ही उपन्यास पर बनते हुए। चाहे वह ‘द ओल्ड मैन एंड द सी’ या ‘गुड बाय मिस्टर चिप्स’ हो या और बहुत सारे ऐसे उपन्यास है जहां एक ही उपन्यास पर अनेक फिल्में बनी हैं। हिंदी में हम देवदास को एक हिंदी नहीं बल्कि भारतीय साहित्य कहें इसे जिसमें देवदास को एक अपवाद कह सकते हैं जिसमें कुछ फिल्में हिंदी में और बंग्ला में बहुत सारी बनी। बंग्ला की साहित्यिक कृतियों में फिल्में बहुत ज्यादा बनी हैं खास कर ‘शरत चन्द्र’ और ‘रविन्द्र नाथ’ के उपन्यासों की यदि हम बात करें तो वो हमें दिखाई देती हैं। यद्यपि हिंदी की पहली राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त होने वाली फिल्म जो थी वो साहित्यिक कृति पर आधारित थी ये तो इतना नहीं कहा जा सकता लेकिन वो देश के एक बहुत बड़े साहित्यकार पर आधारित थी, कह सकते हैं। वो थी ‘मिर्जा गालिब’ जो 1954 में पुरुस्कृत हुई। ‘मिर्जा गालिब’ खुद एक बड़े साहित्यकार को सामने रखती है। उसके बाद तो 1964 में ‘ख्वाजा अहमद अब्बास’ की ‘शहर और सपना’ उनके द्वारा लिखी हुई आई हमारे सामने, देखा जाए तो ये भी एक साहित्यिक कृति पर आधारित है। वन्स चोरी, वन्स थाउजेंड नाइसन ये ख्वाजा का जो अपना अनुभव है ख्वाजा अहमद अब्बास जो हमारे हरियाणा के पास पानीपत से थे उनके साथ जुड़ी हुई एक कहानी है। फिर इसके बाद ‘तीसरी कसम’ 1966 में राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त करती है। ‘फणीश्वरनाथ रेणु’ की ‘मारे गए गुलफ़ाम’ या ‘तीसरी कसम’ दोनों नाम उसके मिलते हैं उस पर आधारित ये कहानी है। उसके बाद जो 70,80 का दौर है हिंदी फिल्मों का, वो जरूर एक महत्वपूर्ण दौर उस रूप में रहा कि वो भले ही सीधे-सीधे साहित्यिक कृति ना हो लेकिन साहित्यिक दृष्टि चाहे ‘भुवन शोम’ है, ‘दामुल’ है, ‘प्रतिशोध’ है, ‘मृग्या’ है उन फिल्मों को देखें फिर मृणाल सेन जो थे ‘मृग्या’ तथा ‘भुवन शोम’ के निर्देशक रहे। मृग्या को तो उन्होंने जो ओड़िया कहानीकार थे ‘भगवती चरण पाणिग्रही’ उनकी कहानी पर आधारित ये फ़िल्म बनाई। इसी तरह से ‘भुवन शोम’ का भी साहित्यिक आधार बंग्ला कहानीकार का रहा। ‘मृणाल सेन’ की ये दो फिल्में राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त करती हैं। इसमें भी जो टच है वो साहित्य का विशेष रूप से मिलता है। लेकिन यदि हम दूसरी भाषाओं की बात करें तो वहां जरूर हमें साहित्यिक कृतियों पर आधारित फिल्में ज्यादा मिलती हैं। हिंदी में मिलती तो हैं लेकिन उतनी ज्यादा नहीं कह सकते। ये कुछ ऐसा लगता है कि जैसे हमारा जो हिंदी समाज है जिसे हिंदी बैल्ट कहते हैं, कोई इसे काऊ बैल्ट भी कहता है जिसमें यू. पी., बिहार और फिर इसके दोनों ओर फैला हुआ जो इलाका है खास कर राजस्थान तक चले आते हैं, इधर हिमाचल तक चले आते हैं तो ये जो हिंदी बैल्ट है इसकी साहित्यिक कृतियों पर निश्चित रूप से कम फिल्में बनी हैं ये एक गौर करने का मुद्दा जरूर है।
अब क्या इसमें पुरुस्कार प्रदान करने में कोई नीति ऐसी है कि साहित्यिक कृतियाँ पुरुस्कृत नहीं होती हैं तो ये मैं नहीं मानता क्योंकि यदि ऐसा होता तो फिर बांग्ला, तमिल, कन्नड़ और मलयालम की जो साहित्यिक कृतियों पर बनी फिल्में जो हैं वे कैसे पुरस्कृत होती हैं? इसलिए मुझे तो लगता है कि शायद हिंदी फिल्मों का जो पॉपुलर फिल्मों का रिश्ता है वो ज्यादा मजबूत रखने की ओर रुझान रहा इसलिए साहित्यिक कृतियों पर उतनी फिल्में नहीं बनीं। जितनी अन्य भाषाओं में बनी। शायद वो जो कलात्मक गहराई कहीं लगता है कि बाजार में बाधा न बन जाए मुझे ये एक कारण लगता है। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि? बाजार और कला दोनों का संगम हमें मिले कहीं ‘राजकपूर’ की ‘मेरा नाम जोकर’ जैसी फिल्में हम देखते हैं तो एक संगम नजर आता है। तो हिंदी का फ़िल्म निर्माता जैसे अभी एक फ़िल्म ‘दादा लखमी’ जो हमारे बहुत ही कलात्मक फ़िल्म हरियाणवी साहित्य के पुरोधा कह सकते हैं जिन्हें या पर्यायवाची कह सकते हैं, संस्कृति पुरुष कह सकते हैं ‘लखमी चंद’ पर बनी है। लखमी चन्द पर बनी ये फ़िल्म खुद किसी साहित्यिक कृति पर भले आधारित ना बनी हो लेकिन एक साहित्यकार को हाई लाइट करती है। वो साहित्यकार भले लोक का साहित्यकार हो और अभी उसकी संगीत से जुड़ी हुई जो विशेषताएं, काव्य से जुड़ी हुई विशेषताएं उस फिल्म के माध्यम से सामने आईं हों लेकिन ये अपने आप में एक ऐतिहासिक क्रांतिकारी रचना है। भविष्य में हमें कामना करनी चाहिए कि कुछ उस तरह की चीजें आएंगी।
वहीं ‘आफत-ए-इश्क’ जैसी प्यारी सी फिल्म बनाने वाले निर्देशक ‘इंद्रजीत नट्टोजी’ का मानना है कि – Many of our current films are not working because the Hindi film industry has disconnected from its primary cultural roots. One is either aping the west or remaking movies from the South. Tamil, Telegu and Malayalam films already have stories deeply rooted in their respective indigenous and cultural sensibilities. Hindi writers from Premchand to Geetanjali Shree offer stories that can instantly connect with their readers. Bollywood can do well by seeking stories in its own milieu. As a Hindi film director with a Bengali mother tongue, I may not speak the language fluently, but I have a deep connection and understanding of the Hindi language thanks to the literature I studied in school and colleagues who are fabulous Hindi writers. I look forward to delving into that rich treasure trove of Hindi literature in my storytelling in films.
तो दूसरी ओर हाल ही में हरियाणवी भाषा में 68वें नेशनल अवार्ड में पुरुस्कृत होने वाली फिल्म ‘दादा लखमी’ के लेखक ‘राजू मान’ इस सवाल को वाजिब करार देते हुए कहते हैं कि- जो साहित्यिक रचनाएँ या कृतियाँ हैं उन पर आधारित फिल्मों को इतनी ज्यादा तवज्जो अगर नहीं मिलती उसका पहला कारण ये है कि वो जो रचनाएँ हैं वो पहले से ही काफी पुरुस्कृत हो चुकी होती हैं। सिनेमा उनका सिर्फ एक तरह से वीडियो वर्जन होता है। दूसरी बात ये एक विशेष वर्ग के लिए बनाई गई फिल्में होती हैं क्योंकि बहुत ही साहित्यिक और बुद्धिजीवी टाइप के लोग इन्हें देखते हैं और ये बड़े वर्ग तक नहीं पहुंचती। जबकि अवार्ड उन फिल्मों को दिया जाना चाहिए जो ज्यादा लोकप्रिय हों या लोगों, दर्शकों तक पहुंचती हो। देखा ये भी गया है कि साहित्यिक रचनाओं पर बनी फिल्मों को भले ही कम अवार्ड मिलते हों लेकिन उन साहित्यकारों , कृतिकारों की बायोपिक बनाई जाए तो उन पर मिलते हैं पुरुस्कार मिलते हैं जैसे ‘मिर्जा गालिब’ की बायोपिक को मिला और हाल में देखें तो ‘दादा लखमी’ को। यही दो मुख्य कारण हैं मेरी नजर में।
अपने निर्देशन में पहली ही फिल्म ‘दादा लखमी’ के लिए इस बार राष्ट्रीय फिल्म पुरुस्कार जीतने वाले एक्टर तथा फिल्म निर्देशक ‘यशपाल शर्मा’ का साहित्य को नजरअंदाज करने के पीछे का कारण कहीं-न-कहीं सकारात्मक नजर आता है। जब वे अपने जवाब में कहते हैं कि – हमें एक बात जानना बहुत जरूरी है कि ये सवाल हम किस तरह कर सकते हैं? क्योंकि हमें क्या मालूम इसके पीछे का इतिहास? क्या हमने सारी फ़िल्में देखीं हैं? क्या हमें मालूम है कि इसमें जो फ़िल्में आती हैं उनमें से कितनी साहित्याधारित होती हैं? बहुत सारा साहित्य भी इसमें आता है। बहुत सारी फ़िल्में ऐसी भी आती हैं जो किसी-न-किसी रूप में साहित्य से जुड़ी हुई हैं। फिर उनमें कोई बायोपिक फिल्म ही क्यों न हों। तो वो सब भी साहित्य ही हुआ मेरी नजर में। साहित्य में किसी भी रूप में फिल्म जुड़ी हुई होती हैं फिर वे सत्य घटना वाली ही क्यों न हों।
‘केसरी’ फिल्म से प्रसिद्ध हुए एक्टर ‘राकेश चतुर्वेदी ओम’ का मानना है कि – साहित्य पर जितनी फिल्में बनती हैं या बननी चाहिए वो बन नहीं रही हैं। और अगर बनती है तो जिस तरह उनका निर्माण होना चाहिए वो उस लेवल तक पहुँच नहीं पाती हैं क्योंकि साहित्य पर बनने वाली फिल्मों पर पैसा लगाने वाले लोगों का रुझान भी ज्यादा नहीं होता है। आजकल जिस तरह का सिनेमा आ रहा है उसमें लोगों को फटाफट जैसे फ़ास्ट फूड बनता है उस तरह की चीजें चाहिए होती हैं। और जब बनती हैं कुछ अच्छी तो वे जरूर वहाँ तक पहुंचती हैं। ये मामला एक तरह से अंडे और मुर्गी वाला मामला है कि पहले अंडा आया या मुर्गी? ऐसे में जब सारी चीजें सही बैठ जाती हैं तो उन्हें राष्ट्रीय पुरुस्कार मिलता ही है। और एक बात सिर्फ साहित्य ही क्यों? बल्कि अगर किसी साहित्य से जुड़े हुए लेखक पर बने तो उसको भी तवज्जो मिलती है। उदाहरण के लिए जैसे ‘दादा लखमी’ को मिला लेकिन ऐसी फिल्में बने तो सही। लोगों की ना तो हिम्मत होती है बनाने की और ना ही उसमें पैसा डालने वाले लोगों की हिम्मत होती है। फिर अगर एक आध बनती भी हैं तो वे उस स्तर की नहीं बन पाती पैसे के अभाव में जिस स्तर पर उन्हें राष्ट्रीय सम्मान दिया जा सके। इसमें कभी-कभी जबरदस्ती मसाले डाल दिये जाते हैं। ‘प्रेमचंद जी’ के एक उपन्यास ‘सेवासदन’ पर एक फिल्म बनी थी जो आज तक रिलीज ही नहीं हो पाई, उसका आज तक कोई नाम लेवा ही नहीं हो पाया। उस फिल्म के कुछ अंश जरूर मैंने देखे थे लेकिन वो अगर रिलीज होती, दर्शकों तक अगर पहुँच पाती या उसे आगे बनाया जाता तो बेहतर हो सकती थी। लेकिन जब जेब में अमावस हो तो हिम्मत टूट जाती है। लोगों को लगता है साहित्य बस पढ़ने की चीज है फिल्म बनाना उन्हें सही नहीं लगता, न उन्हें कोई फ़ायदा नजर नहीं आता बिजनेस नजर नहीं आता उन फिल्मों में उन्हें। राष्ट्रीय पुरुस्कार न मिलना ही बहुत बड़ा कारण नहीं है इसमें उसके पीछे और भी बहुत सारे कारण है। किसी जमाने में ‘तीसरी कसम’ , ‘गोदान’ , ‘गबन’, ‘दामूल’ , ‘निर्मला’ , ‘सद्गति’ ऐसी फिल्मों पर काम हुआ करता था। लोग चाहते थे बनाना, वे बनाते भी थे। अब ले देकर कोई ‘काशी का अस्सी’ पर आती है वो किस लेवल पर पहुँच पाती हैं देखते हैं हम। इसलिए सबसे पहले लोगों का विचार तो बने ऐसी फिल्मों को बनाने का। साहित्य में ऐसी कई कहानियाँ रहीं हैं जो समकालीन हैं आज भी। ऐसी भी कई कहानियाँ हैं जिन्हें आज के संदर्भ में भी रखकर देखा जा सकता है लेकिन दर्शकों तक पहुंचना बहुत बड़ी बात है। कुलमिलाकर न तो ज्यादा रुझान है लोगों का इस तरफ या कुछ आती भी हैं तो वे उस लेवल तक नहीं पहुँच बना पाती।
फिल्म निर्देशक ‘गौरव चौधरी’ का मानना है कि – फिल्म मेकिंग में “कंटेंट” ही सबसे कीमती चीज है पर मुंबई का बहुतायत प्रोड्यूसर वर्ग उसे रद्दी के भाव खरीदना चाहता है, क्योंकि लंबे समय से उसे लगता आया है की पैकेजिंग के नाम पर वो लुभा लेगा। “इन्हे फ्री का लेखक चाहिए जो घुटने मोड़ कर इनकी बहियां भरे।” यही वजह है की आज बॉलीवुड नाम से पुकारे जाने वाली प्रतिभा-समृद्ध इंडस्ट्री के पास ना ही तो सिनेमाई दर्शक बचे है ना अच्छा संगीत, ना अच्छा कंटेंट इसी वजह से दर्शकों के पास भी कोई वजह नहीं बची की वो मुंबईया सिनेमा हर दूसरे प्रोडक्ट पर अपना पैसा खराब करें, तिस पर हॉलीवुड और दक्षिण भारतीय समृद्ध कंटेंट! और हर बार कुछ नया पेश करने की उनकी ललक और कला दर्शकों को वाकई लुभा रही है। एक समृद्ध इतिहास और कामयाब पुरखे अर्जित करने वाला उपक्रम नालायक पीढ़ियों की ROI की भूख भेंट चढ़ रहा है, अरे आप कंटेंट की इज्जत करो, कंटेंट पर काम करो कला को व्यापार की दृष्टि से देखना बंद करो ROI अपने आप आएगा। बाकी ये “बायकॉट बॉलीवुड” जैसी बातें निरा वाहियात शगूफा है।
पंजाबी सिनेमा के प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक ‘ अमरदीप गिल’ का साहित्य से अछुता नेशनल अवार्ड के बारे में कहना है कि – जहाँ तक साहित्य का सवाल है पिछले दो-तीन सालों में मैंने ऐसा कुछ विशेष नहीं देख पाता हूँ कि जिसमें फिल्मों में कोई साहित्य नजर आया हो। दूसरी बात यह कि जो पिछले चार-छ: सालों से जिस तरह का माहौल चल रहा है बल्कि एक दशक के करीब से तो एक खास तरह का राजनीतिक मुद्दा, राजनीतिक खेल ही इसमें नजर आता है। इसमें भी जिसकी सरकार है उसके हक में बोलने वाले अभिनेता, अभिनेत्रियां हैं या उनके हक में बनने वाली जो फिल्में हैं उनको ही प्रमोट किया जा रहा है। यहाँ तक की गीतकार को भी उसी को नेशनल अवार्ड दिया जा रहा है जो उनका गुणगान करता है जिस समय की सरकार है। इस बात का कोई यहाँ कोई मतलब रह नहीं जाता है कि जो नेशनल अवार्ड हैं वो साहित्य पर आधारित फिल्मों से अछूते क्यों हैं। क्योंकि साहित्य रहने ही नहीं दिया गया तो फिर अवार्ड के लिए कहाँ से ज्यूरी खोज लाती फिल्मों को? ज्यूरी भी उन्हीं की हैं, फिल्में भी उन्हीं की हैं, एक्टर भी उन्हीं के हैं, डायरेक्टर भी उन्हीं के हैं। मुझे हैरानी तब होती है जब ‘तान्हा जी’ जैसी फिल्म को अवार्ड मिलता है या तान्हा जी जैसा कैरेक्टर करने से ‘अजय देवगन’ को नेशनल अवार्ड मिलता है। जहाँ गाने लिखने के लिए किसी ‘मनोज मुंतशिर’ को अवार्ड मिलता है तो मुझे हैरानी हुई। सच कहूँ तो हैरानी नहीं भी हुई क्योंकि इस बात का मुझे पहले से ही भान था। फिर ऐसे लोग जब अपने यू ट्यूब चैनल चलाते हैं या किसी चैनल पर बोलते हैं तो पता चल जाता है कि फलां व्यक्ति पद्म श्री लेने की तैयारी कर रहा है, ये नेशनल अवार्ड लेने की तैयारी कर रहा है या उसके बाद कुछ ओर पद्म भूषण वगैरह लेने की तैयारी कर रहा है, ये सब पहले से दिखने लगता है। ज्यादातर उन्हीं लोगों को ही अवार्ड भी दिये जा रहे हैं जो सरकारों के हक में बोलकर चारण कवि बन जाते हैं। तो ऐसे में क्या अवार्ड, क्या साहित्य, क्या फिल्में कुछ भी किसी का भी कोई मतलब नहीं रह जाता। यह भी ठीक है कि उनका समय है उनको मुबारक उनका समय यह आम लोगों का या उनसे अलग सोचने वालों का समय नहीं है, यह उनका समय नहीं है जो सरकार की खामियां हैं जहाँ राजनीतिक पार्टी की खामियों पर अंगुलियाँ रखी जाती हैं यह उनका समय तो नहीं ही है।
‘सांकल’ जैसी खूबसूरत फिल्म के निर्देशक ‘दैदीप्य जोशी’ का इस बारे में यह मत है कि साहित्य पर सिनेमा एक अच्छा विषय है लेकिन साहित्य पर बनी फिल्मों को नेशनल अवार्ड मिलना एक अलग विषय है। देखा जाए तो साहित्य अपने आपमें एक पूर्ण विधा है उसको किसी सिनेमा की जरूरत नहीं है। उसको किसी विजुअल्स की जरूरत नहीं है बल्कि वो लिखा ही इस तरह होता है कि उसमें विजुअल्स अपने आप ही मौजूद होते हैं। हिंदुस्तान में कई सारी कृतियों पर सिनेमा बना है अच्छी-अच्छी कहानियों पर, उपन्यासों पर। राष्ट्रीय पुरुस्कारों से वंचित क्यों है ऐसा साहित्य इसके कई कारण हो सकते हैं क्योंकि कई बार ऐसा होता है कि साहित्य या किसी कहानी या किसी उपन्यास पर जिस तरह से बात कही गई होती है वो उस तरह से फिल्म के अंदर शायद न आ पाई हो यह भी एक कारण हो सकता है। कुछ तो पुरुस्कार मिले ही हैं साहित्यिक कृतियों को नेशनल पुरुस्कार। मुझे लगता है कि साहित्य और फिल्मों को यहाँ अलग-अलग ही आंकना चाहिए। एक साथ देखना इन्हें ठीक नहीं है क्योंकि दोनों अलग विधा है। फिल्म किसी भी कथा पर हो या किसी की बायोपिक हो या किसी साहित्यिक कृति पर हो उसे समान रूप से देखा जाना चाहिए और देखा जाता है। तभी इस श्रेणी में पुरुस्कार शायद कम ही आते हैं हाँ यह हो सकता है की श्रेणियाँ विकसित की जा सकती हैं अगर साहित्य को बढ़ावा देना है या उसे स्पोर्ट करना है किसी तरह से तो राष्ट्रीय पुरुस्कारों में एक श्रेणी विकसित की जा सकती है कि जिसमें यह कहा जा सकता है कि श्रेष्ठ साहित्यिक कृति पर आधारित फिल्म या डॉक्युमेंट्री। यह कार्य किया जा सकता है। क्योंकि सिनेमा से पहले साहित्य ही था और साहित्य का बड़ा स्थान आज भी है। लोग आज भी किताबें पढ़ना चाहते हैं, लेख पढ़ना चाहते हैं सब तरह की कहानियाँ पढ़ना चाहते हैं। साहित्य सब जगह विद्यमान है कहीं गया नहीं है उसका अपना एक वजूद है, उसे किसी पुरुस्कार की जरूरत नहीं है।
एक दशक से फिल्मी दुनियां में अपनी अलग छाप छोड़ने वाले एक्टर व थियेटर कलाकार ‘मनवीर चौधरी’ इस दिशा में विचार करते हुए कहते हैं कि – मुझे सबसे पहले तो यह बात नजर आती है कि हमारे यहां नेशनल अवार्ड सबसे सम्मानित और बड़ा सम्मान है। दूसरी बात हमारे यहां नेशनल अवार्ड हमारे यहां पर जिस तरह की भी सरकार होती है वो रूलिंग पार्टी के आइडियल आर्टिस्ट या मेकर्स को तवज्जो मिलती है। चाहे हो फ़िल्म साहित्य पर बनी हो या साहित्य पर ना बनी हो। तीसरी बात साहित्यिक भाषा या साहित्य को जहां तक पढ़ने और समझने की बात है वो हमारे स्कूल , कॉलेजों में जैसे हमारे शिक्षक हमें पढ़ाते हैं उनका समझाना और उन्हें समझना उतना मनोरंजक नहीं होता जितना फ़िल्म में देखकर समझना होता है। तो कहीं न कहीं साहित्य पर फ़िल्म बनाते समय अमूमन मेकर्स शायद वो स्तर छू नहीं पाते हैं। इसलिए ही सम्भवत नेशनल अवार्ड के लिए कम से कम साहित्य पर बनी फिल्मों को ध्यान में रखा जाता है। कहीं न कहीं वे उसे कहने में चूक जाते हैं। साहित्य एकदम लॉजिकल व सटीक बात करता है। फिर जिस स्वाद या टेस्ट के अनुसार ऑडियन्स देखना या लेना पसंद करती है तो चूक कहीं न कहीं अवश्य हो जाती है। कई सारी फ़िल्म है जो साहित्य पर आधारित हैं और उन्हें नेशनल अवार्ड मिले हैं लेकिन ये आंकड़ा भी कोई बहुत बड़ा या गर्व करने वाला नहीं है। जिनको भी मिले हैं उनमें डायरेक्टर अपनी बात पूरी तरह से कहने में कामयाब हुए हैं। इसमें भी कई बार आप जिस विचारधारा के समर्थक हो या जिस पार्टी विशेष के समर्थक हो , विचारक हों फिर चाहे वो नेता है या अभिनेता उन्हें एक सोसायटी में बने रहने के लिए भी कई बार ऐसा करना पड़ता है। जिन कृतियों पर फिल्में बनी हैं अब तक और उन्हें अवार्ड नहीं मिला तो उनके बारे में अब कुछ कहना एक तरह से भेदभाव वाली बात होगी कि वो ही क्यों कोई और क्यों नहीं। मुझे लगता है ‘श्री लाल शुक्ल’ के ‘राग विराग’ उपन्यास पर अगर अच्छे से फ़िल्म बनाई जाए तो निश्चित तौर पर उस फ़िल्म को नेशनल अवार्ड मिल सकता है। क्योंकि यह उपन्यास अपने भीतर जो एक व्यथा लिए हुए है शायद उस तरह की व्यथा-कथा को कहने की उसे समझने की सबसे ज्यादा जरूरत हमारे समाज को और देश को है। आज के वर्तमान दौर में तो यह और भी प्रासंगिक है कारण इसमें हमारे समाज के लिए बेहद जरूरी मैसेज भी है। इस उपन्यास का मैं इसलिए भी जिक्र कर रहा हूँ क्योंकि इस उपन्यास पर एक थियेटर शो भी मैं कर चुका हूं लेकिन थियेटर शो बेहद सीमित लोगों के लिए होता है। ऐसी कृतियों पर अगर फिल्में बनेंगी तो निश्चित ही उन्हें नेशनल अवार्ड भी मिलेगा।
राजस्थान के प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक ‘गजेंद्र श्रोत्रिय’ का साहित्य पर आधारित सिनेमा को नेशनल अवार्ड में नजर अंदाज किये जाने के पीछे मत है कि – साहित्य पर बनी फिल्में जा नहीं पाती हैं या उन पर बनती कम हैं और उनमें जो बनती भी हैं उनमें से कितनी नेशनल अवार्ड तक सबमिट हो पाती हैं क्योंकि नेशनल अवार्ड की प्रक्रिया जो है वो फिल्में उठाते नहीं हैं उनके लिए आपको अप्लाई करना पड़ता है। तो कई दफा प्रोडयूसर्स की नजर अंदाजी भी हो सकती है। बाकी मुझे ऐसा नहीं लगता है कि साहित्य पर बनी फिल्मों को नेशनल अवार्ड देने में सरकार को कोई परहेज होगा। कारण मुख्य यही है कि साहित्य पर फिल्में ही कम बन पाती हैं जो बनती हैं वो पूरी तरह प्रचार प्रसार में नहीं आ पाती हैं, रिलीज नहीं हो पाती हैं या उनके प्रोडयूसर्स के पास जो छोटे फिल्म निर्माता है तो वे अपनी फिल्मों को दर्शकों तक नहीं पहुंचा पाते हैं। रिसोर्स की कमी एक कारण है जिसके चलते निर्माता अपनी पहुँच नहीं बना पाते हैं नेशनल अवार्ड तक। बाकी साहित्य पर अगर फिल्में बने तो उनमें से बहुत से निर्माता इतने तो सजग होंगे, ऐसे होंगे की नेशनल अवार्ड तक वो अप्लाई कर सकें। फिर सरकार अगर उनकी छंटनी करे, फिल्मों के लिए उनकी कोई कमेटी हो जो चुने अवार्ड के लिए तो इसमें कुछ अच्छा कार्य हो सकता है लेकिन अगर प्रोसेस ही अगर अप्लाई करने का है तो जैसे मेरे स्वयं के साथ ऐसा हो चुका है कि मैं ‘कसाई’ नेशनल अवार्ड के लिए नहीं भेज पाया। उसमें अप्लाई करने की तारीख आदि कब निकल जाती हैं पता ही नहीं चलता। ऐसे ही कुछ कारण रहते होंगे फिर सिनेमा अगर अच्छा बना हुआ है तो मुझे नहीं लगता नेशनल अवार्ड देने में वहाँ की ज्यूरी को परहेज होगा सिर्फ इसलिए कि वो साहित्य पर आधारित है।
हाल ही में नेशनल अवार्ड से पुरुस्कृत हुई फिल्म ‘दादा लखमी’ फिल्म में लखमी चन्द का अहम किरदार निभाने वाले एक्टर ‘हितेश शर्मा’ का इस बारे में कहना है कि – साहित्य के लिए जिस तरह साहित्य अकादमी पुरुस्कारों का जो स्थान है वैसा ही फिल्मों के लिए नेशनल अवार्ड भी मायने रखता है। साहित्य पर आधारित सिनेमा को अवार्ड दिया जाना चाहिए। ‘दादा लखमी’ को जैसे हाल ही में मिला है तो वो भी कहीं न कहीं साहित्य ही है। फिल्मों में अमूमन जिन्हें अवार्ड मिलता है वे साहित्यिक ही कहीं जानी चाहिए मेरे ख्याल से बाकी विशुद्ध रूप से साहित्य पर मिलेगा तो इससे लेखकों को भी हौसला मिलेगा निश्चित ही।
एक अन्य फिल्म निर्देशक ‘ कोंसिक्वेस कर्मा’ जैसी अच्छी फिल्मों से चर्चा में आए फिल्म के निर्देशक ‘शादाब अहमद’ का इस मामले में कहना है कि – इंडिया में हर भाषा की फिल्म्स में बस एक्शन और फंडा फिल्म्स ही ओडियन्स देखना पंसद करती हैं इसलिए सारे नामी प्रोडक्शन हाउस इसी होड़ में लगे हुए हैं। और जब कोई नया फिल्म मेकर कोई अलग फिल्म या रिच इंडियन लिट्रेचर से लेकर कुछ बनाता है तो उसको ओडीयन्स स्पोर्ट नहीं करती हैं। यदि उससे कोई बड़ा नाम ना जुड़ा हो जो की सम्भव नहीं होता नये फिल्म मेकर्स के लिए। इसलिए नये फिल्म मेकर्स भी वही फंडा या एक्शन फिल्मों को मिमिक करने की कोशिश करते हैं अपने स्वतन्त्र प्रोजेक्ट्स में। जो की कम बजट और स्पोर्ट ना मिलने की वजह से खुद कहीं नहीं जा पाते।
‘दादा लखमी’ फिल्म के साथ ही बंगाली भाषा की ‘अविजात्रिक’ फिल्म को भी इस साल नेशनल अवार्ड दिया गया है। इन दोनों ही फिल्मों के लिए सिनेमैटोग्राफी करने वाले नेशनल अवार्ड विजेता सिनेमैटोग्राफर ‘सुप्रतिम भोल’ का मानना है कि- बंगाली फिल्मों में देखा जाए तो कई फिल्मों को अवार्ड मिला है जो साहित्य पर आधारित हैं। जैसे ‘वायनाकम’, ‘अपराजितो’ , ‘पाथेर पाँचाली’ , ‘अपूर संसार’ या अभी ‘अविजात्रिक’ जैसी कई फिल्मों को नेशनल अवार्ड मिला है ये सभी किसी न किसी साहित्यिक कृति पर ही आधारित हैं। ‘अपराजितो’ फिल्म तो इसी नाम के उपन्यास पर इसी नाम से दो बार भी बन चुकी है। तो नेशनल अवार्ड अवश्य ही उन फिल्मों को दिया जाना चाहिए जो उम्दा कन्टेंट लेकर आये वरना जिसके पास 300-400 करोड़ रुपये हैं वो कुछ भी बना सकते हैं। अच्छे सिनेमा के लिए पैसे के साथ-साथ बल्कि उससे कहीं ज्यादा मेहनत की जरूरत होती है।
संदर्भ ग्रन्थ सूची :-
- भाषा पत्रिका, सिनेमा विशेषांक, सम्पादकीय , जुलाई-अगस्त 2020, पृष्ठ – 7
- सिनेमा : समाज, साहित्य और संवेदना की सशक्त अभिव्यक्ति, डॉ. पूरनचंद टंडन, जुलाई-अगस्त 2020, पृष्ठ – 9
- हिंदी साहित्य और सिनेमा में समाज हित और राष्ट्रीयता का भाव, डॉ. अमित सिंह, जुलाई-अगस्त 2020, पृष्ठ – 33
- सिनेमा और साहित्य , हरीश कुमार, संजय प्रकाशन, वर्ष 1998, पृष्ठ – 84
- वही पृष्ठ संख्या – 88
- अशोक भौमिक , सत्तर का सिनेमा ओर समाज, जनसत्ता 29 मई 2016, पृष्ठ – 7
- साकेत सहाय , साहित्य, सिनेमा और समाज, जनसत्ता , 11 दिसम्बर 2016 , पृष्ठ – 4