अभिभावकों के रहते बच्चे हमेशा बच्चे ही होते हैं फिर वे आठ साल के हों या अड़सठ साल के ही क्यों न हों। बच्चों को जन्म देने का, इस दुनिया में लाने का निर्णय यदि हमारा है तो उनको सदा ही संभालने, समझने, समझाने की जिम्मेदारी भी तो हमारी ही ठहरी। यह बहुत बड़े दायरे वाला विषय है इस पर फिर किसी रोज चर्चा करेंगे। फिलहाल एक वाकया साझा कर रही हूँ, जिसे अनदेखा कतई नहीं किया जा सकता।
बेटी की बारहवीं की परीक्षाओं के बाद लगातार सीयूईटी व भिन्न-भिन्न निजी विश्वविद्यालयों की परीक्षाओं को दिलवाने की भागदौड़ में एक बात सामने आई, जिसमें जरा सी अनदेखी या कहूँ कि पूरी तरह ध्यान न देने पर एक अच्छा, बड़ा मौका किसी बच्ची के हाथ से जाने वाला था।
सेंटर था एक गाँव के पास बना इंजीनियरिंग इंस्टीट्यूट जहाँ एक विषय की परीक्षा होनी थी। शहर से दूर सेंटर था तो हमने सारी तयशुदा गाइडलाइंस पर बारीकी से अमल करके बेटी को समय से पहले लेकर निकलने का निर्णय किया, ताकि ढूँढ कर सही जगह सही समय पहुँच सकें। उस वक्त बारिश भी औचक ही झूर के दस्तक देती रहती थी। जिसके कारण कीचड़, गड्डे और ट्रैफिक जाम आम सी बात थी।
सेंटर ढूँढ कर ठीक बताये गये प्रवेश के समय पर हम वहाँ पहुँचे, बच्चे भीतर जा रहे थे। हमारी बेटी भी बड़े से गेट के भीतर जरूरी चैकिंग के बाद चली गई। पेपर बंटने, पढ़ने और हल करने का समय अलग-अलग बँटा था। हमने गाँव में भटकने की बजाय वहीं पार्किंग में रुकना ठीक समझा, कि क्या पता बच्ची को कोई जरूरत आन पड़ी तो वह हमें बाहर न पाकर घबराये नहीं।
हम वहाँ बैठे-बैठे देख रहे थे अभिभावकों या दोस्तों-रिश्तेदारों को लड़कियों को सेंटर तक छोड़कर तुरंत चले जाना। इसी बीच बताई गई गाइडलाइंस फॉलो ना करने की वजह से बहुत सी लड़कियों को प्रवेश नहीं करने दिया जा रहा था। वे घबराहट में रो रहीं थी। कुछ लड़कियाँ वहाँ उपस्थित गिनेचुने अभिभावकों से मोबाइल लेकर सम्बन्धियों या जो छोड़कर तुरंत निकल गये उनका नंबर मिला रहीं थी। अनजान नंबर समझकर कहीं उठाये नहीं गये या जो भी कारण रहे हों शायद, कुछ लड़कियाँ बुरी तरह रोने लगीं।
इसी भीड़ में ज्यादातर वे लड़कियाँ थीं जो दिये गये समय के आखिरी मिनिट या सेकेंड पर सेंटर पहुँची, जबकि परीक्षा शुरू होने के पहले प्रवेश के लिए लगभग एक घंटे का समय दे रखा था।
रोती हुई बच्चियों में से एक को बिलकुल भी भीतर नहीं जाने दिया गया, तब वहाँ उपस्थित सभी लोगों ने मनुहार की तब पर्चा बटने के बाद वह भीतर चली तो गई, परंतु मुख्य परीक्षा कक्ष से उसे बैरंग लौटा दिया गया, तब तक बाहर उसके परिवार वाले सज्जन भी आ चुके थे व गेटकीपर से बहस कर रहे थे। बच्ची जैसे रोती हुई गई थी, वैसी ही रोती हुई वापिस भी आ गई। उन सज्जन के संग कार में बैठी और वापिस चली गई।
इसी वाकये के संग बमुश्किल पाँच-दस मिनिट के अंतर पर एक और बच्ची भीतर बिल्डिंग से बाहर भेज दी गई। उसके पिता उसे छोड़ने आए थे और हमारी ही तरह वे भी बाहर पार्किंग में रुके हुए थे। बच्ची बुरी तरह रो रही थी और पिता भी घबराये से, असहाय दिख रहे थे। लोगों ने बच्ची को घेर लिया। परीक्षा प्रारंभ होने ही वाली थी तो मुझसे रहा नहीं गया, मैंने स्वामी जी से कहा कि मैं जाकर देखती हूँ। बिना समय गँवाये में बच्ची के पास थी। मैंने उसके पिता से पूछा कि क्या हुआ है यह रो क्यूँ रही है। वे कुछ बोल नहीं सके एक पल को लगा कि कहीं मासिक धर्म की समस्या तो नहीं, वह मैं आसानी से हल कर सकती थी क्योंकि कहीं बाहर जाते हुए मैं मेरे पर्स में एक सेनेटरी पैड तो रखती ही हूँ। पर यहाँ मामला कान के छोटे टॉप्स का था।
बच्ची के पिता उन्हें खोलने की भरसक कोशिश कर रहे थे, पर समय की टिकटिक ने उनके हाथों में मानो कंपकंपी भर दी थी। मैंने गेटकीपर के बैठने की जगह पर डली कुर्सी पर बच्ची को बिठाया और उसका एक कान का स्टड मैं खोलने लगी। दूसरा एक और कोई भद्र महिला थीं उन्होंने संभाल लिया। उन दोनों टॉप्स को खोलने में हमारे तगड़े-ढीले हो गये, क्योंकि वे पिता की कोशिशों से और भीतर घप गये थे, देखकर लगा कि महीनों से पहने हुए है तभी वे कान की लौर में धंसे हुये थे। बच्ची के कान एकदम लाल ताते हो चुके, तिस पर पेंच की तरफ खून भी छलछला आया। राम का नाम लेकर मैंने और उस महिला ने असंभव को संभव कर लिया। उसके टॉप्स निकालकर पिता को थमा दिए और बच्ची की लौर पकड़ कर कस कर दबा ली ताकि खून रुक जाए। उसके हाथ में भी चौड़ी मौली में स्वास्तिक पिरोया था। मैं वह भी उतारने लगी तो वह मना करने लगी, मैंने पूछा कि “बेटा ये पूजा का है क्या?” उसने रोते हुए हाँ में सिर हिलाया। उसमें धातु नहीं थी सो फिर रहने दिया। मैंने उसके आँसू पोंछे और उसे कहा कि अब फौरन दौड़ लगा ले। उसके उठते ही मैंने ऑल दि बेस्ट कहा तो वह “थैंक्यू आँटी” बोलकर मुस्कुराकर जल्दी से गेट में घुस गई।
गेटकीपर सारी प्रक्रिया देख रहा था शायद इसलिये उसने मौली के लिए बच्ची को रोका नहीं।
परीक्षा समाप्त होने पर सभी बच्चे एक-एक कर के बाहर निकल रहे थे, मेरी बेटी दिख ही नहीं रही थी। तभी उस टॉप्स वाली बच्ची को 440वोल्ट की हँसी चेहरे पर लिए बाहर आते हुए देखा तो मन में सुकून भर गया। आखिर में देखा तो हमारी बिट्टो रानी जी पैर घसीटती चली आ रही थी, मुँह लटका देखकर घबरा गये हम दोनों। गाड़ी में बैठते ही पूछा कि “क्या हुआ पेपर अच्छा नहीं गया?” वह बोली कि पेपर तो बहुत अच्छा गया। हमने कहा “तब मुँह क्यूँ लटका हुआ है?”, तो राजकुमारी बोली कि “माँ चप्पल टूट गई।” हम दोनों ने ठहाके के संग चैन की साँस ली, और निकल पड़े गाँव में मोची जी को ढूँढने।
आपको ऊपर लिखा सब किसी संस्मरण सा जान पड़ रहा होगा, लेकिन मैं साफ कर दूँ कि उपर्युक्त बाकये बस दिमाग के तार झनझनाने के लिए लिखे हैं, जो कि शत प्रतिशत सच हैं।
मेरा सवाल यहाँ हर उस अभिभावक से है जिनके बच्चे स्कूल और कॉलेज के बीच की रेखा पर खड़े हैं।
क्या हमारे बच्चे ऐन परीक्षा के दिन, ऐन परीक्षा के समय इस तरह की दिक्कतों को झेलना डिजर्व करते हैं?
बहुत से अभिभावकों या मम्मियों को शिकायत होगी कि …सुनते, समझते कहाँ हैं ये बच्चे? बस अपनी चलानी होती है!
मैं मानती हूँ आपकी भी बात कि बच्चे आपकी बातों को, सलाहों को अनसुना, अनदेखा कर देते हैं। वे खुद को बहुत बड़ा व समझदार जताने की हर संभव कोशिश भी करते हैं। पर हम कैसे भूल सकते हैं कि यह किशोरावस्था वाली उम्र होती ही ऐसी है, थोड़ी गुस्सैल, थोड़ी चिड़चिड़ी वाली और अथाह भ्रामक। हम भी तो गुजरे हैं न इस उम्र के पुल से, तब तो हमें और भी बेहतर समझना चाहिए अपने बच्चों को… है न!
वे बतायें या न बतायें! क्या हमको उनसे पूछना नहीं चाहिए यूनिवर्सिटी या किसी भी व्यावसायिक परीक्षा की जारी गाइडलाइंस के बारे में?
परीक्षा के लिए निकलने से पहले क्या हमें नहीं जाँच लेने चाहिए सारे बिंदु कि क्या करना है और क्या नहीं, क्या पहनना है, क्या-क्या ले जाना है?
क्या यह हमारी जिम्मेदारी नहीं कि बच्चों को परीक्षाओं के लिए समय से पहले या समय पर ले जाएँ या जाने पर बल दें? न कि अंतिम क्षणों में सेंटर पर पहुँचें कि भूल-चूक सुधारने का समय ही शेष न रहे?
और सबसे जरूरी बात कि भले ही परीक्षा आपके ही शहर में क्यों ना हो, आप सेंटर पर थोड़ी देर अवश्य रुकिए। क्या पता कब कैसी आवश्यकता आन पड़े बच्चे को। पेपर शुरू होने की घंटी बजने पर भले ही आप घर चले जाऐं।
बच्चे कितने भी बड़े हो जायें, वे आजीवन हमारे लिए बच्चे ही रहेंगे। उन्हें उनके हिस्से का गैर जिम्मेदाराना बड़ापन दिखाने दीजिए, आप अपने हिस्से का जिम्मेदार बड़प्पन दिखाइये।
वे हमारी ही तो परछाई हैं, सो परछाई को धूप-छाँव के खेल करने दीजिए। उनका सजग होना बनता है पर बतौर अभिभावक हमारा सजग होना अत्यावश्यक है। हम कवच हैं उनके। हम उनकी उद्दंडताओं के अंकुश थामे हुए प्रहरी हैं। वैसे भी ‘क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात!’
सच कहूँ तो हम उनका आज हैं, तो वे हमारा आने वाला कल हैं। यही तारतम्य ही तो समय रथ को अनुकूल बनाता चलेगा।