मुकेश कुमार सिन्हा जी किसी परिचय के मोहताज़ नहीं हैं। आप साहित्य जगत में कई वर्षों से सक्रिय हैं। विद्यार्थी जीवन में विज्ञान के छात्र रहे हैं। प्रकृति प्रेमी हैं, एक पल्लवित वाटिका के संरक्षक हैं। गूँज नामक ख्याति-प्राप्त साहित्यिक पेज के कर्ता-धर्ता हैं। दिल्ली में निवास करते हैं, केंद्र सरकार में हैं। अनेकों साहित्य सम्मान इनकी झोली में हैं पर ये ऐसे वैरागी कि शांत मुद्रा धारण किये रहे। जब तक इनकी बायोग्राफी नहीं पढ़ी, इन उपलब्धियों में से मात्र एक विमा से ही परिचित हो सकी थी।
इनकी कविताओं को हमने फ़ेसबुक, इंस्टाग्राम, ट्विटर पर न पढ़ा हो, सम्भव ही नहीं। विज्ञान का छात्र जिसने अधिक साहित्यिक हिन्दी का अध्ययन न किया हो, परंतु हृदय से कवि हो, उसकी कविताएं कैसी होंगी? बस समझ लीजिए किसी अनूठे प्रयोग से कम क्या होंगी!
जब गणित और विज्ञान के नियम कवि-हृदय पर आघात करते हैं, तो प्रतिक्रिया कैसी होगी? बस, ‘है न’ जैसी होगी!
जी हाँ… ‘है न’ उनके काव्य संग्रह का नाम है, जिसमें उनके बेहतरीन काव्य-कुसुम एक जगह पिरोए हुए, हार के रूप में मिलेंगे। रोती हुई प्रेमिका की दो आँखों से बहते हुये लक्मे काजल की धार में दो समानांतर रेखाएं देखना गणित में बी. एससी. पास शोधार्थी ही कर सकता है।
इनकी ‘प्रेम का अपवर्तनांक’, ‘पाइथागोरस प्रमेय’, ‘पहला प्रेम’, ‘प्रेम रोग’, ‘आईना’ ,’रेटिना’ कविताएं बेहद अच्छी लगीं। इनकी कविताओं की भाषा बेहद सरल है, सुगम है। इनमें आपको मस्तिष्क को बोझिल कर देने वाले क्लिष्ट हिन्दी के शब्द नहीं मिलेंगे। दिमागी कसरत करवाने वाले दुर्गम बिम्ब नहीं मिलेंगे। जैसा वह अनुभव करते हैं, वैसे का वैसा बिना किसी शृंगार के, बिना किसी औपचारिकता के, बिना कोई नाटकीय जामा पहनाए मूल रूप में रख देते हैं, जैसे कि इनकी ही वाटिका में खिलाया गया कोई पुष्प हो- पूर्णतः ऑर्गेनिक!
उदाहरण के लिये-
“जब प्रकाश अपने पथ से विचलित हो सकता है,
तो मैं क्यों नहीं?”
( प्रेम का अपवर्तनांक )
“प्रेम
कैलेंडर पर बने
इतवार के लाल गोले सा
छह दिन इंतज़ार के
जो क्रमशः बना रहता
हर बार लगता है, पास आएगा,
हर बार बीत चुकने के बाद”
( प्रेम )
“निहारने का सुख
निकटता के भाव को नवीनीकृत करने की
एक तर्कसंगत युक्ति भर ही तो है!”
( ब्यूटी लाइज़ इन बिहोल्डर्स आइज़ )
“तुम्हारा स्वयं का ओज और
साथ में बहकाता
रवि का क्षण क्षण महकता तेज
कहीं दो दो सूरज तो नहीं
एक बेहद गर्म, एक बेहद नर्म”
( चमकते रहना )
“कहीं सपनों ने ले लिया सतरंगी उड़ान तो
नींद में
आँखों के रेटिना पर
ईस्टमैन कलर के परदे पर
ख़ुद से निर्देशित फ़िल्म दिखती चली जायेगी
हाँ याद रखना हीरो रहूँगा मैं
और हीरोइन सिर्फ तुम!”
( रेटिना )
“प्रेम पत्र के
बाएँ ऊपर के कोने पर
लिखा है Rx
खींचे हुए पेन से लिखा था ‘प्रेम रोग’
प्रेम एंटीबायोटिक है!”
( प्रेम रोग )
प्रेम का ग्रैंड ट्रंक रोड और पाइथागोरस प्रमेय भी बहुत सुंदर हैं। उनमें से किसी एक पंक्ति को छाँट पाना असंभव था। और पूरी कविता यहाँ लिख पाना मुश्किल। पर वे पढ़ी जानी चाहिए।
इस संग्रह में अंत में क्षणिकाएं भी हैं। एक बेहद प्रभावशाली क्षणिका लिख रहीं हूँ-
“लेवल सिर्फ
ऑक्सीजन का गिरता
तो सँभल जाता, सम्भाल लिया जाता
दर्द इस बात का है कि
मानवीयता और संवेदनाओं का
लेवल भी गिर गया है
समय लगेगा, संभलने में”
मुकेश जी की रचनाएं कुछ यूँ है जैसे हर किसी के हृदय से निकला एक राग हो, जैसे जीवन में संतुलन बनाए रखते समय गुनगुनायी जाने वाली धुनें हों, जैसे रसायन विज्ञान की प्रयोगशाला में परखनली से उड़ेले जाने वाले गुलाबी द्रव से लिखी गयी प्रेम कविताएं हों…..है न ?